Monday, May 22, 2023

श्रुतपंचमी महापर्व

 

इस कलिकाल में (ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी) इस दिन जैनधर्म के प्रथम ग्रन्थ षट्खंडागमजी  की रचना पूर्ण हुई थी। इसलिए यह जैनधर्म का एक महापर्व माना जाता है।

इसे जैनधर्म के श्रद्धालु बहुत प्रकार से मनाते है। बहुत से नगरों में जिनमंदिर में जिनवाणी पूजन तथा श्रुतपंचमी विधान किया जाता है, विद्वानों के प्रवचन तथा गोष्ठी के माध्यम से जिनवाणी व इस पर्व का माहात्म्य समाज को समझाया जाता है। तथा नगरों में मां जिनवाणी के सम्मान में जिनवाणी को मस्तक पर धारण करके जुलूस इत्यादि भी निकाले जाते है।

किन्तु मैं इस विषय में कुछ और कहना चाहता हूं। आखिर श्रुतपंचमी क्या है? वह श्रुत (जिनवाणी) हमारे पास तक कैसे पहुंची है?  हमारे जीवन में इसका क्या महत्व है? इसे कैसे मनाना चाहिए? इसका सत्य स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है।

वास्तव में श्रुतपंचमी महापर्व समाज के कल्याण के लिए भावलिंगी दिगम्बर मुनिराजों का बलिदान है, उनका अनन्त पुरुषार्थ है, उनकी देह का रक्त है, जिसके हर शब्द में उनकी पीड़ा भी है। तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में जो द्वादशांग का वर्णन आया। उसका असंख्यातवां भाग गणधरदेव ग्रहण कर पाते है, ओर उसका असंख्यातवां भाग उनके उत्तरवर्ती आचार्य ग्रहण कर पाते है और इस तरह जिनवाणी कम होती जाती है। उस समय तक तो बुद्धि इतनी अच्छी होती थी कि बहुत सारा याद रह जाता था किन्तु आज हमें इतना याद नहीं रहता। 

आचार्य धरसेन स्वामी ये जानते थे कि भविष्य के जीवों को इसप्रकार जिनवाणी याद नहीं रह पाएगी। इसलिए इसे लिपिबद्ध करना आवश्यक है। किन्तु उन्हें क्या पड़ी थी? हमारे बारे में इतना सोचने की उनका कार्य तो हो गया था। वह तो भावलींगी संत थे। क्षण-क्षण में अंतर्मुख होकर आत्मा के अतीन्द्रिय सुख का वेदन करते थे। उन्हें तो हमारे लिए इतना सोचने कि आवश्यकता ही नहीं थी। क्यूंकि आज का मनुष्य जब स्वयं ही अपने विषय में जानना नहीं चाहता तो क्यूं आचार्यों ने वर्षों मेहनत की इस कार्य के लिए, ताड़पत्रो पर कांटो से जिनवाणी लिखी। पैरों में कांटे चुभते थे पर वह शुभभाव से जिनवाणी लिखते थे, इतना सारा लिखने से पीठ अकड़ जाती थी, पूरा शरीर दुखता था, किन्तु वह या तो अंतर्मुख होकर अतीन्द्रिय सुख भोगते थे या शुभभाव से जिनवाणी लिखते थे। वर्ष के चार माह तो ताड़पत्र मिलते भी नहीं थे। कहीं पत्र ज्यादा ना हो जाए, कोई पत्र खो ना जाय, इसलिए एक ही पत्र पर छोटे-छोटे अक्षरों में इतनी सारी गाथाएं और श्लोक लिखते थे। 

आखिर क्यूं करते थे इतनी मेहनत ताकि हम उन्हें अलमारी में रखकर उनकी आरती उतारें, उनकी पूजा करें? 

आज ऐसे बहुत कम लोग है को वीतराग भाव का अर्थ भी समझते है। आज समाज में बहुत से लोग जिनमन्दिर तो जाते है, किन्तु जिनेन्द्र परमात्मा के गुणों को भी नहीं जानते, देव-शास्त्र-गुरु की महिमा को नहीं समझते। इस लौकिक परंपराओं के जीवन में हम इतना घुल-मिल गए है कि जिसतरह बालक के लिए विद्यालय जाना आवश्यक है उसीतरह सबको प्रतिदिन सुबह मन्दिर जाना आवश्यक है। इसके अलावा लोग मन्दिर जाने का अर्थ ना तो समझते है और ना ही समझना चाहते है। 

तथा जो लोग कुछ ग्रंथो का अध्ययन करके जिनवाणी के अलौकिक ज्ञान को ग्रहण कर पाए, उन्होंने उसे दूसरों को भी पढ़ाया, लेकिन उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आया। 

आज हमारे विद्वान, स्वाध्यायी जीव, जिनवाणी का खूब अध्ययन करते है, दूसरों को भी कराते है, किन्तु जीवन में अपना ही नहीं पाते। जब उनसे पूछो तो उत्तर मिलता है कि अरे जिनवाणी की बातें सही है उस पर हमें श्रद्धा भी है किन्तु लौकिक जीवन में उन बातों का कोई महत्व नहीं है। समाज में रहना है तो समाज के हिसाब से जीना पड़ेगा यह हमारे कुछ स्वाध्यायी विद्वानों की सोच बन गई है। जिन विद्वानों का संकल्प था कि वो समाज से अज्ञान और मिथ्यात्व संबंधी परंपराओं का नाश करके धर्म की ध्वजा लहराएंगे, वही लोग आज समाज में जाकर उनके जैसे ही बन जाते है। झूठी परंपराओं को निभाने लगते है। 

मैं इसके उदाहरण भी दे सकता हूं -

जैसे रक्षाबंधन पर्व, हमारे बहुत से विद्वान गणधर की गादी पर बैठकर रक्षाबंधन का सत्य स्वरूप समझाते है और कहते है कि रक्षाबन्धन तो कर्मों के बंधन से आत्म स्वभाव की रक्षा का नाम है, बंधनों से रक्षा का नाम ही तो रक्षाबंधन है, बहन का भाई को राखी बांधना ये तो रक्षाबंधन पर्व है ही नहीं ये तो संसार का बन्धन है। किन्तु प्रवचन समाप्त होने के बाद स्वयं अपनी बहन से राखी बंधवाते है, और अपने बच्चों से भी वही करवाते है। इन विद्वानों के ऐसे व्यवहार से ऐसा लगता है जैसे जिनवाणी का मजाक बनाने का ठेका इन्होंने ही ले रखा है। 

उनसे इसका प्रश्न पूछो तो उत्तर मिलता है कि भाई संसार में रहते है तो संसार की परंपराओं को निभाना भी तो आवश्यक है। जबकि ये गलत है, वह अपने ही परिवार के सामने, अपनी ही समाज के सामने सत्य को लेकर खड़े होने में डरते है, कमजोरी को छुपाते है और उसे लौकिक परम्परा का नाम देकर जिनवाणी के ज्ञाता होकर भी मिथ्यात्व का प्रचार करते है। क्यूंकि असत्य का विरोध करने की और सत्य को स्वीकारने की क्षमता ही नहीं होती। 

इसीप्रकार हमारे स्वाध्यायी ज्ञानी विद्वान प्रवचन देते समय कहते है कि जन्म-मरण तो दुःख के कारण है, इसलिए हम पूजन में भगवान की स्थापना के बाद सर्वप्रथम जन्म-मरण के अन्त की भावना भाते है। जन्मोत्सव तो तीर्थंकरों का मनाया जाता है, क्यूंकि अब वो द्वारा जन्म नहीं लेंगे, उनकी देह अंतिम देह है। और उनका जन्म समस्त जीवों का कल्याण करने वाला है। तीर्थंकर या चरम शरीरी जीव का ही वास्तव में जन्मोत्सव मनाना चाहिए। किन्तु मन्दिर से बाहर निकलकर फिर वही स्वयं का जन्मदिवस, अपने बच्चों का जन्मदिवस मनाते है , कुछ लोग घर में बनाकर और कुछ बाजार के केक तक काटते है। मुझे तो समझ नहीं आता इनके मन से क्षण-क्षण में क्या जिनवाणी का ज्ञान लुप्त हो जाता है। 

मैं पूछता हूं क्या रक्षासूत्र नहीं बांधेंगे तो भाई, बहन की रक्षा नहीं करेगा ?

क्या अगर सड़क पर किसी और लड़की के साथ कुछ गलत होगा तो हम उसकी मदद नहीं करेंगे या इंतजार करेंगे कि अरे पहले रक्षाबंधन पर्व आयेगा फिर इससे राखी बंधवाई जाएगी फिर इसकी मदद करेंगे। और अगर ऐसा नहीं है तो क्यूं ऐसी मिथ्या परम्परा को अपनाते है हम, क्यूं जिनवाणी का मजाक बनाते है। 

और ऐसे ही जन्मदिवस पर मेहमान बुलाना केक कटवाना, गुब्बारे लगाना घर सजाना क्या है ये सब, किसलिए मिला था ये मनुष्य भव और क्या करने लगे, जिनवाणी पढ़कर क्या हासिल किया? इस जन्मदिवस को मनाना चाहते हो तो पहले इस जन्म के रहस्य को खोजो। जन्म के महत्व को समझो, इस मनुष्य देह के महत्व को समझो।

जैनधर्म मुक्ति भी देता है और जीवन का सही मार्ग भी, जिनवाणी केवल मोक्ष का मार्ग नहीं है बल्कि जीवन के प्रत्येक कदम की प्रेरक है जिनवाणी मां, जैसे एक बालक को उसकी मंजिल तक पहुंचाना ही उसकी मां का कर्तव्य नहीं होता, बल्कि उसके हर गलत कदम पर मां उसे टोकती है और समझाती है। तब अपनी मां के आदर्शों पर चलकर वह स्वयं मंजिल तक पहुंचता है। ऐसे ही सिर्क मोक्ष को समझने से मोक्ष मिल जाएगा ऐसा नहीं है। कदम-कदम कैसे आगे बढ़ना है, जिनवाणी में सारा ज्ञान है । 

अगर आप असत्य परम्परा को छोड़ नहीं सकते तो सत्य का ग्रहण कैसे करोगे? ध्यान रहे सत्य और असत्य कभी एक साथ नहीं होते। ज्ञान और अज्ञान कभी एक साथ नहीं होते। जहां असत्य है, अज्ञान है वहां सत्य का व ज्ञान का कोई स्थान नहीं और जहां सत्य है, ज्ञान है वहां असत्य का व अज्ञान का कोई स्थान नहीं।

श्रुत पंचमी पर जिनवाणी की महत्ता उनका पूजन करना, विधान करना जिनवाणी छपवाना ये तो अब सब जान गए है। किंतु में जिनवाणी का नहीं उसके अंदर के सत्य को ग्रहण करने की जो शक्ति हम सब में छिपी हुई है उसका ज्ञान कराना चाहता हूं। हम सबकुछ पढ़कर भी अनपढ़ है। क्यूंकि समाज ओर परंपराओं से बंधे है, इसकारण असत्य का विरोध करने से व सत्य को स्वीकार करने से घबराते है। 

हम स्वाध्याय करे किन्तु जीवन में ना अपनाएं, जीवन में ज्ञान तो ग्रहण करे किन्तु झूठी लौकिक परंपराओं के चलते अज्ञान का त्याग भी ना करे, तो हम कैसे अपने मनुष्य भव का लक्ष्य प्राप्त कर पाएंगे। 

आज हमारे विद्वान मुझे कहते है, कि लौकिक जीवन भी तो जीना है, समाज में, परिवार में रहना है तो वैसे जीना भी तो पड़ेगा। तो मैं आपको बता दू आज तक अनादिकाल से हम और क्या करते आ रहे है इस परिवार, समाज ओर संसार की चिंता में अनेक भव व्यर्थ गंवा दिए है हमने, आज अनन्त भवों के महापुण्य के उदय से जिनवाणी मिली, सत्य सामने है। किन्तु फिर भी पल-पल की झूठी खुशी के लिए मिथ्यात्व का हाथ पकड़ कर खड़े है। 

कैसे मनाओगे आज श्रुतपंचमी पर्व ?

ध्यान रहे जब तक आप झूठी लौकिक परम्परा को निभाओगे तब तक जिनवाणी के ज्ञान का प्रयोग आपके जीवन में हो ही नहीं सकता। एक से दूसरे तक ज्ञान बांट तो सकते है। किन्तु उसका प्रयोग नहीं कर सकते, जब तक अधर्म को आप धर्म समझोगे तक तक सच्चा धर्म कैसे समझोगे?

वास्तव में तो सत्य कि खोज ही सबसे बड़ा धर्म है। और सत्य का ज्ञान होने पर भी असत्य ना छूटे तो समझना अभी तक सत्य का ज्ञान है ही नहीं।

जिनवाणी मां कहती है कि है भव्यजीव तूने अनादिकाल से घर-परिवार, समाज के बंधनों में फंसकर अनन्त भव व्यर्थ गवां दिए, अब अनन्तभवों के महापुण्य के उदय से तूने ये नरभव, जैन कुल पाया है, दिगम्बर आचार्यों ने करुणा करके इतने अनन्त पुरुषार्थ से जिनवाणी लिपिबद्ध की, मात्र तेरे लिए, की एक दिन तू इसे पढ़े समझे और सारी मिथ्या मान्यताओं का त्याग करके जितना ज्यादा से ज्यादा हो सके सत्य के मार्ग पर निर्भय होकर आगे बढ़े। 

ये सब कहने का मेरा एक ही अर्थ है। की जिनवाणी की पूजन-विधान स्वाध्याय सब कुछ ठीक है। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण उस सत्य को अपनाना है। मंजिल पर जाते समय अगर एक रास्ता भी गलत हो तो कभी मंजिल नहीं मिलती। 

इसलिए मंजिल के बारे में नहीं सोचो, कर्म करो, अपना सच्चा कर्म करो, उसके परिणाम के बारे में भी मत सोचो। बस अपना एक-एक कदम पूर्णत: सत्य की छांव में रखो, अगर कोई असत्य लौकिक परंपरा सामने आए तो उसे भी लांघ जाओ और सत्य को अपनाओ और लोगो को भी सत्य का मार्ग दिखाओ।

क्यूंकि हमारा वर्तमान ही हमारा भविष्य निश्चित करता है।