Tuesday, November 30, 2021

बारह भावना

 


       (तर्ज:- में अपूर्व कार्य करूंगा)


आतम है मेरा शुद्ध बुद्ध उस ही को ध्याऊंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।टेक।।


संसार में पर्याय अनंतों धारण कर ली है।

लेकिन दो.. समय भी कोई ना रुकी है।

आतम ही है नित्य बस उसी को ध्याऊंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।१।।


देह के रिश्तेदार बहुत ही बन रहे।

लेकिन दुख में कोई भी न काम आ रहे।

निज आतम है शरण निज शरणार्थी बनूंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।२।।


संसार सारा देख है सुख नहीं कुछ भी।

अपने घर से ज्यादा सुख नहीं कहीं भी।

अब तो नित अपने निज घर में ही रहूंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।३।।


मित्र शत्रु तात माता रिश्तेदार हैं।

मुझमें नहीं कोई यह सब तो व्यवहार है।

एकाकी हूं मैं सदा एकाकी रहूंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।४।।


मोहोदय के कारण सबको अपना ही माने।

जब देह ही अपनी नहीं तो कौन कहां ठाने।

सबसे हूं मैं भिन्न अब तो भिन्न रहूंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।५।।


सौ बार सफाई करें फिर भी मलिन ही रहे।

ऐसे अशुचि देह में अब कैसे हम रहे।

परम पवित्र है आत्मा अब उसमें रहूंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।६।।


अंधेरे खाली घर हो तो चोर आते हैं।

आतम में ना रहे मूढ़ तो कर्म आते हैं।

बाहर कभी न जाकर अब निज घर में रहूंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।७।।


घर में रहे कर द्वार बंद तो चोर ना आवें।

अंतर में रह निज ध्यावें तो कर्म न आवें।

कर्मागम के द्वार को अब बंद करूंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।८।।


पानी भरा निज नांव दोनों हाथ उलीचतें।

बाहर करें सब कर्म निज आतम को सींचतें।

कर बंद आस्रव द्वार को निज कर्म खिरुंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।९।।


कोई ना कर्ता लोक का अनादि से है ये।

जीवादि षट् द्रव्य भी इसमें सदा रहे।

प्रत्येक द्रव्य स्वतंत्र में भी स्वतंत्र रहूंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।१०।।


बोधि लक्षण जीव का यह सबसे है महान।

'सम्भव' है निज कार्य इसको दुर्लभ ना तू जान।

सच्चे सुख को पाने का पुरुषार्थ करूंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।११।।


धर्म करता सब जगत पर न धर्म को जाने।

जाने बिना निज धर्म को वे धर्म को चाहें।

निज आतम को ध्याकर सच्चा धर्म करूंगा।

जान लिया संसार बारह भावन भाऊंगा।।१२।।





वर्तमान में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी


दुनियां में एक पिता का नाम रोशन भी उनका बेटा करता है, और नाम बदनाम भी बेटा करता है, वैसे ही एक गुरु का नाम रोशन भी उनके शिष्य करते है, और बदनाम भी उनके शिष्य ही करते है।

गुरुदेव श्री कानजी स्वामी ने दिगम्बर शास्त्रों का गहराई से अध्ययन किया और उसे जीवन में भी अपनाया। गुरुदेवश्री की तो जैनसिद्धांतों में कोई भूल नहीं थी, लेकिन उनके कुछ अनुयायियों ने छोटी-छोटी बातों को इतना तो चलता है, के नाम पर चलाना शुरू कर दिया जिसके कारण देखने वालों को लगा कि गुरुदेव ने ऐसा सिखाया इसलिए गुरुदेव गलत हो गए।

गुरुदेव तो जिनवाणी के अनुसार शुभभाव को कथन्चित् हेय बताते थे, कथन्चित् उपादेय बताते थे। पूजन पाठ से धर्म नहीं होता कहते थे, किन्तु खुद स्वयं मन्दिर में शुद्ध वस्त्र पहनकर पूजन-पाठ, भक्ति किया करते थे, लेकिन उनके कुछ अनुयायियों ने अपनी सुविधा के लिए उसमें भी क्रिया में अशुद्धता फैलाना शुरू कर दी। कहने लगे कि क्रियाओं से धर्म नहीं होता, शुभभाव से धर्म नहीं होता। जिसके कारण देखने वालों को लगा कि गुरुदेव ने ऐसा सिखाया इसलिए गुरुदेव गलत हो गए।

गुरुदेव श्री कानजी स्वामी ने कभी किसी वर्तमान मुनि का विरोध नहीं किया, बस जिनवाणी के अनुसार सच्चे गुरु का स्वरूप समझाया, और सच्चे गुरु के गुणों की भक्ति किया करते थे, अरे गुरुदेवश्री तो जीव मात्र पर करुणा भाव रखते थे, एक फूल-पत्ती को भी भगवान आत्मा कहते थे, भाविना भगवान कहते थे, वो तो कभी किसी का विरोध नहीं करते थे, किसी को गलत नहीं बोलते थे, उल्टा विरोध सहते थे, लेकिन उनके अनुयायियों ने विरोध करना शुरू कर दिया, झगड़ा करना शुरू कर दिया, जिसके कारण देखने वालों को लगा कि गुरुदेव ने ऐसा सिखाया इसलिए गुरुदेव गलत हो गए। 

गुरुदेव तो जैसा कहते थे वैसा करते भी थे, कभी झूठ नहीं बोलते थे, उनका जीवन अंदर-बाहर एक जैसा था, लेकिन उनके कुछ अनुयायियों ने धर्म की प्रभावना के लिए समाज में झूठ का सहारा लिया, सबसे कहते कुछ और करते कुछ है, कहते है हम रात्रि में नहीं खाते बाजार का नहीं खाते, हमारे बच्चे बाजार का कुछ नहीं खाते जमीकंद नहीं खाते, और जब समाज वाले उन्हें बाजार की वस्तुएं, जमीकंद इत्यादि खाते देखते है, तो देखने वालों को लगता है कि गुरुदेव ने ऐसा सिखाया इसलिए गुरुदेव गलत हो गए।

गुरुदेवश्री ने मिथ्यात्व का, मिथ्यात्व संबंधी लौकिक मान्यताओं का खुलासा किया और स्वयं उन मान्यताओं को त्यागा, किन्तु उनके कुछ अनुयायियों ने खुद लोकव्यवहार के नाम पर ऐसी मिथ्या मान्यताओं को बढ़ावा दिया, तो देखने वालों को लगा कि गुरुदेव ने ऐसा सिखाया इसलिए गुरुदेव गलत हो गाए।

गुरुदेवश्री के प्रवचन में एक पंखा तक नहीं चलता था, आज उनके निमित्त से बने जिनमन्दिर में एयरकंडीशनर लग रहे है, जिनमन्दिर जो कि अहिंसा का प्रतीक है वहां प्रभावना के नाम पर हिंसा से बनी अलग-अलग वस्तुओं का प्रयोग किया जाता है, तो देखने वालों को लगता है कि गुरुदेव ने ऐसा सिखाया इसलिए गुरुदेव गलत हो गए।

दिगम्बर जैन समाज से अनुरोध है, वर्तमान में गुरुदेव के झूठे अनुयायियों को देखकर गुरुदेव को गलत मत समझो, एक बार उनका प्रवचन उनकी प्रवचन की कोई पुस्तक पढ़िए तब ही आप गुरुदेव के जीवन को समझ पायेंगे। उनकी भावनाओं की सच्चाई को समझ पायेंगे।

और गुरुदेव के अनुयायियों से निवेदन है, कि धर्म को दिखावे की वस्तु न बनाएं, जिनमन्दिर में आवश्यक कार्य ही करे, जिनमन्दिर समवशरण का प्रतीक है, यहां अपने पैसे या प्रतिष्ठा का दिखावा न करके शुद्ध अहिंसा रीति से धर्म के कार्य करें। ताकि देखने वाले अंदाजा लगा सके कि गुरुदेवश्री ने हमें क्या सिखाया है, यह मनुष्य भव बहुत कीमती है, एक-एक काम समझ-समझ कर करना है, कहीं कोई गलती न हो जाए। हम सच्चे जैन है, हमें मोक्ष मार्ग में बढ़ना है, दिखावा करके संसार का मार्ग नहीं बढ़ाना।

सभी लोग इन बातों को पढ़े और विचार करें और स्वयं के सही निर्णय पूर्वक मार्ग का चयन करें और आगे बढ़े।

दैनिक पाठ (नित्य भावना)

 


 (वीरछंद)

 तर्ज:- जब एक रतन अनमोल है तो..

 तीनकाल  और  तीनलोक  के,  जितने  वीतराग  महंत।

 हुए,  हो रहे,  और  होऐंगे,  सबको  मेरा  नमन  अनंत।।

 तीनलोक  के  क्रत्रिम-अक्रत्रिम,   चैत्यालय-चैत्य सभी।

 वंदन  उन्हें  अनन्त  हमारा,  सम्यक्दर्शन  होए  अभी।।

 ढाईद्वीप  में,  वर्तमान  में,    संघ  चतुर्विध  है  जितने।

 नमन हमारासदा सभी को, यथायोग्य  हम  करें विनय।।

  चतुर्संघ  की    चर्या    निर्मल,   वीतराग   परिणति   होवे।

   निरंतराय  प्रासुक आहार हो, सुलभ  मोक्षमार्ग होवें।। 

  तीनलोक  में  जिन जीवों  को, जो भी कष्ट हुआ जिनसे।

  क्षमाभाव सब  हृदय धरें  और नहीं बैर हो  फिर  उनसे।।

  आदर्श   हमारे  वीतराग,  हम    भी   हो जाए   वीतराग।

  भाव    यही  हो  सदा  हृदय में,   पाए  सच्चा  मोक्षमार्ग।।

  तीनलोक   के   जीव   सभी  सच्चे   मारग  की  ओर बढ़े।

  छोड़  सभी  संसार  कार्य  और  मोक्षमार्ग  की ओर बढ़े।।


हिन्दी अर्थ :- समस्त तीनलोक में भूतकाल जितने भी सच्चे वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु हुए है, वर्तमान में हो रहे है, तथा भविष्य में होएंगे उन सभी को मेरा अनन्त बार नमन है।।

तीनों लोकों में जितने भी कृत्रिम तथा अक्रत्रिम जिनालय और जी प्रतिमा है उनके दर्शन से मुझे भी आत्मदर्शन अर्थात् सम्यकदर्शन की प्राप्ति हो ऐसी भावना के साथ उन सभी को मेरा अनन्त बार नमन है।।

सम्पूर्ण ढा़ईद्वीप में वर्तमान में जितने भी चतुर्संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) है उन सभी की वीतरागता को मेरा नमन करते हुए में उन सभी की यथायोग्य विनय करता हूं।।

चतुर्संघ (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) की चर्या निर्दोष रहे तथा निरंतराय, प्रासुक आहार उन्हें प्राप्त हो जिससे उनका मोक्षमार्ग सुलभ हो, ऐसी मैं भावना भाता हूं।।

समस्त तीनलोक में जिन जीवों को भी जिनसे भी जो भी कष्ट हुआ हो, वे सभी जीव अपना बैरभाव भूलकर एक दूसरे के प्रति हृदय में क्षमाभाव धारण करें।।

एकमात्र वीतरागी ही मेरे आदर्श है और मेरे ह्रदय में तो सदा यही भावना है कि मैं भी शीघ्र ही उनकी तरह ही वीतरागता को प्राप्त होऊं, और मुझे भी सच्चे मोक्षमार्ग की प्राप्ति हो।

मैं भावना भाता हूं कि समस्त तीनलोक में जितने भी जीव है सभी जीव समस्त सांसारिक कार्यों को व्यर्थ जानकर उन्हें छोड़कर मोक्षमार्ग की ओर बढ़े तथा सच्चे सुख को प्राप्त करें।।

 


Wednesday, November 24, 2021

जैनपर्वों के सम्बन्ध में कुछ चिन्तन:-

 

पर्व अर्थात् त्यौहार जिन्हें संसार में खुशियों के दिन कहां जाता है। 

जैनदर्शन में दो तरह के पर्व है:- त्रैकालिक और तात्कालिक।

त्रैकालिक:- अर्थात् जो अनादि-अनन्त है। हमेशा से मनाए जा रहे है और हमेशा मनाए जाएंगे।  

जैसे:- दशलक्षण महापर्व, अष्टान्हिका महापर्व। 

तात्कालिक;- अर्थात् जो किसी विशेष अच्छी या बुरी घटना के कारण, उस घटना की याद में कुछ समय तक मनाए जाते है, और कालान्तर में समय के साथ उन घटनाओं का विस्मरण हो जाता है।

जैसे:- महावीर निर्वाणोत्सव, रक्षाबंधन, महावीर जयंती, सभी तीर्थंकरों के कल्याणक, जन्मदिन इत्यादि विशेष दिन। 

जो बाते सब लोग जानते है, और मानते भी है, में उन विषयों में ज्यादा नहीं कहना चाहता किन्तु कुछ ऐसी बाते जो जानते तो सब है किन्तु स्वीकार नहीं कर पाते, त्यौहारों को मनाते तो बड़ी उत्सुकता से है, बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाते है, किन्तु अज्ञानवश पर्व के सही मतलब को समझे बिना परम्परा के अनुसार ही मनाते है। में उस विषय में यहां लिखना चाहता हूं।  ताकि सब लोग जैनपर्व को मनाएं तो उचित तरीके से समझकर सही स्वरूप से मनाएं।

सबसे पहले हम त्रैकालिक पर्व की बात करते है। त्रैकालिक पर्वों में सबसे विशेष पर्व है दशलक्षण महापर्व और अष्टान्हिका महापर्व! दशलक्षण और अष्टान्हिका महापर्व वर्ष में 3 बार आते है। और बहुत उत्साह से ये पर्व मनाएं जाते है, और ये पर्व क्यूं मनाएं जाते है ये तो अधिकतर सभी लोग जानतें है, में तो सिर्फ उन बातों की चर्चा करना चाहता हूं जो मोक्षमार्ग के लिए अति आवश्यक है।

भादौ मास के दशलक्षण महापर्व जब आते है तो समाज में बहुत उत्साह होता है, पर्व के कुछ दिन पूर्व से ही जिनमन्दिरों को सजाया जाने लगता है, बिजली के अत्यधिक उपयोग के द्वारा झालर आदि से पूरे मन्दिर को सजाते है। प्रात:काल ही जिनमंदिरो में पूजन-विधान के कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाते है, कुछ मन्दिर में स्वाध्याय होता है और बहुत से मंदिरों में इन दिनों भी स्वाध्याय नहीं होता। शाम को तरह-तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते है। इतना सब तो होता ही है सभी जिनमन्दिर में। 

अब में यह कहना चाहता हूं कि जैसे पर्व के कुछ दिन पूर्व से ही मन्दिर को सजाया जाने लगता है बहुत अच्छी बात है करना भी चाहिए। 

किन्तु क्या ये झालर लगाना आवश्यक है? भादौ माह के दशलक्षण पर्व, जो कि वर्षा ऋतु का समय होता है कितने ही जीवजंतु सूर्यास्त के बाद बिजली से उत्पन्न होते है और ऐसे समय पर हमारे बहुत से जिनमंदिरों में अनावश्यक बिजली का उपयोग होता है, जिससे कि मन्दिर चमकता-दमकता दिखे, जबकि यह सर्वथा अनुचित है, वर्षाऋतु में रात्रि के समय इतनी बिजली जलाना और फिर सुबह देखो तो कितने ही मरे हुए कीड़े-मकोड़े दिखाई देते है, चारो तरफ जो कि रात्रि में स्वाध्याय इत्यादि में आए हुए लोगो के पैरों के नीचे आ जाते है। और हमारे मन्दिर के कमेटी और व्यवस्थापक इतना भी नहीं समझ पाते कि जैनदर्शन में दिखावे का कोई स्थान नहीं है, हमारे जिनमन्दिर बिजली के प्रकाश से नहीं चमकते बल्कि ज्ञान के अद्वितीय प्रकाश अर्थात् स्वाध्याय से चमकते है इसलिए प्रतिदिन मन्दिर  में स्वाध्याय होना ही चाहिए। और बिजली का उपयोग आवश्यकता के अनुसार ही होना चाहिए।

इसके अलावा दशलक्षण और अष्टान्हिका पर्व हर वर्ष हमें संसार के अनन्त दुःखों से बचने के लिए मोक्षमार्ग को सीखने के लिए आते है। ताकि हम पूजन-विधान, स्वाध्याय, नाटक इत्यादि के द्वारा जिनवाणी की बातों को सरलता से समझ सके। और अपने मोक्षमार्ग को प्रशस्त कर सके। किन्तु हम स्वाध्याय करते है, प्रवचन करते है, सुनते है, किन्तु वहीं पल्ला झाड़कर वापस चले जाते है। 

मैने पूर्व के दशलक्षण पर्व में देखा था, एक अमीर सेठ जिसे लोग धार्मिक कहते है, उत्तम क्षमाधर्म का पहला दिन था, एक घंटा गुरुदेव श्री कानजीस्वामी के सी.डी. प्रवचन सुने, फिर एक घंटा आमंत्रित विद्वान के प्रवचन सुने। कि हमें अपने विकारी भावों पर नियन्त्रण रखना चाहिए, क्रोध मनुष्य को जला देता है, संसार में जो कुछ जैसा होना होता है वैसा ही होता है फिर क्यों यह जीव व्यर्थ ही क्रोध करके स्वयं को व अन्य को दुःख देता है हमें यदि सुखी होना है तो क्रोध का त्याग करके अपने क्षमाभाव को प्रगट करना चाहिए सदैव निज स्वभाव अर्थात् क्षमाभाव को धारण करना चाहिए। ये सब प्रवचन समाप्त होते ही सब अपने घर जाने लगे और मन्दिर के कर्मचारी अपना-अपना नित्य का कार्य करने लगे। इतने में ही वह धार्मिक सेठ आते है और कर्मचारी को किसी बात पर जोर से क्रोधित होकर उसे झाड़ कर चले जाते है, अब में ये सोच रहा था कि 2 घंटे ये बैठकर यहां कर क्या रहे थे। 2 घंटे के प्रवचन का असर 5 मिनिट भी नहीं रहा। अपने से छोटे व्यक्ति को परेशान करना, उस पर चिल्लाना, उसे नीचा दिखाना, ये सब ना करे तो वर्तमान के अमीर सेठो को लगता ही नहीं की हमारे जीवन में आनंद है। ये सिर्फ एक सेठ जी की बात नहीं है, हम सबकी यही अवस्था है कहीं ना कहीं हम सब संसार की व्यवस्थित व्यवस्था को अव्यवस्थित समझकर उसे व्यर्थ ही व्यवस्थित करने की इच्छा से दूसरों पर क्रोधित होते है, और स्वयं दुःखी होते रहते है। 

और कुछ लोग यह कहते है की लोक व्यवहार में ये सब बहुत आवश्यक है। तो में सिर्फ इतना कहूंगा की लोकव्यवहार का अर्थ ये नहीं कि अपने से कमजोर को दबाकर रखो। उस पर चिल्लाओ उसे परेशान करो, बल्कि अपनी बात उसे प्यार से कहो। लोकव्यवहार का अर्थ किसी दूसरे की मदद करना है उससे प्यार से बात करना है, दूसरों को प्यार बांटना है, ना कि अपने ज्ञान, पैसे, जाति, कुल आदि के मानवश होकर किसी दूसरे से ठीक से बात तक नहीं करना ये लोक व्यवहार नहीं है। कम से कम इतना हमें सीखना चाहिए। यही सब तो हमे मोक्षमार्ग में लेकर जाएगा। 

जिनेन्द्र भगवान का प्रक्षाल-पूजन करना स्वाध्याय, भक्ति, आरती करना या व्रत उपवास इत्यादि करना ये सब सुखी होने का उपाय नहीं है। बल्कि क्रोध, मान, माया, लोभ ये छोड़ने पर मोक्ष का मार्ग खुलता है। सर्वप्रथम मिथ्यात्व के साथ अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का नाश होता है तब जाकर जीव को सम्यक्दर्शन होता है। और हमारे कुछ स्वाध्यायी विद्वान ये कहते है कि लोक व्यवहार में ये सब जरूरी है। जबकि ये झूठ है, बिल्कुल झूठ बल्कि लोकव्यवहार भी विकारी भावों को त्यागने से अच्छा बनता है। ना कि कषायी जीवों के साथ खुद कषायी बनने से, ये हमें समझना चाहिए।

रक्षाबन्धन पर्व:-

रक्षाबन्धन पर्व क्यों मनाया जाता है, और कैसे मनाया जाना चाहिए, ये एक अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्न है। 

अगर हम वर्तमान समय में देखते और सुनते है तो हमें पता चलता है कि रक्षाबंधन पर बहने अपने भाई को रक्षासूत्र बांधती है जिसे राखी भी कहा जाता है। और उसका कारण होता है कि बहन राखी बांधते हुए भाई से अपनी जीवनभर के लिए रक्षा का वचन लेती है। 

इसके अलावा इसे धार्मिक पर्व कहकर इस दिन अच्छे-अच्छे पकवान बनाए जाते है, अलग-अलग प्रकार की मिठाइयां बनाई जाती है, इसप्रकार रक्षाबन्धन पर्व मनाया जाता है।

किन्तु फिर भी मेरे मन में इसके विषय में कुछ प्रश्न उत्पन्न हुए की ये पर्व क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे भाई-बहन के स्नेह की क्या कथा है ये जानने की मुझे अति जिज्ञासा हुई। इसलिए अन्य मत में मैने पता किया, अन्य मत के विद्वानों से पूछा किंतु रक्षाबंधन की भाई-बहन से सम्बंधित कहीं कोई बात नजर ही नहीं आती।

जैनमत के अनुसार देखे तो एक सप्ताह से राजाबलि द्वारा अकंपनाचार्यादि 700 दिगम्बर भावलिंगी संतों पर हस्तिनापुर के पास एक जंगल में भयंकर उपसर्ग किया गया, मुनिराजों के चारो तरफ भयंकर अग्नि जलवाई जिससे चारो तरफ भयंकर धुआं-धुआं हो गया, और चारो तरफ की अग्नि की तपन से मुनियों के शरीर में भयंकर जलन होने लगी, शरीर में धुंआ प्रवेश करने लगा। किन्तु सभी मुनिराज उपसर्ग दूर होने तक आहार-पानी का त्याग करके निजशुद्धात्मा के ध्यान में लीन हो गए। तत्पश्चात् विष्णुकुमार मुनिराज जिन्हें आत्मध्यान रूपी तप द्वारा विक्रियाऋद्धि प्राप्त हुई थी, एक क्षुल्लकजी द्वारा उन्हें सूचना मिलने पर  उन्होनें मुनिअवस्था का त्याग कर एक ठिगनेवामन का रूप रखकर राजाबलि से तीनपग भूमि दान मांगी और फिर अपनी विक्रियाऋद्धि से ज्योतिष लोक तक ऊंचाई वाला शरीर बनाकर उन्होंने अपना एक पग मेरु पर्वत पर और दूसरा पग मानुषोत्तर पर्वत पर रखा, और तीसरे पग के लिए कोई स्थान ही शेष नहीं बचा, तब राजाबलि ने क्षमा मांगी। और इस तरह उपसर्ग दूर हुआ और 700 दिगम्बर महामुनिराजों की रक्षा हुई। ये कथा हमें जैनमत में मिलती है। 

किन्तु इस कथा में भी भाई-बहन के रक्षाबन्धन पर्व का कोई विवरण नहीं है, जो कि वर्तमान समय में मनाया जाता है। 

हम अगर इस कथा को ध्यान से देखे तो रक्षाबंधन पर्व कुछ इसप्रकार का प्रतीत होता है। हमें द्वीपायन मुनि की कहानी याद करना चाहिए किसी ने थोड़ा अपमान किया और वो विचलित हो गए द्वारिका जलाई और कर्मबंधन किया अपना संसार बढ़ाया, सर्व और अहित हुआ।

अकंपनाचार्यादि 700 मुनि भी अपने तप के प्रभाव से कुछ भी कर सकते थे, उनके तप के प्रभाव से पूर्ण हस्तिनापुर नष्ट हो सकता था, किन्तु यहां इतने घोर उपसर्ग होने पर भी अकंपनाचार्यादि 700 दिगम्बर मुनिराज अपने आत्मस्वभाव में लीन रहे, और कर्मों से स्वयं की रक्षा की, संसार के बंधन से भी अपना रक्षा की। ये है रक्षाबंधन अर्थात् बन्धन से स्वयं की रक्षा यही तो है वास्तविक रक्षाबंधन।

वास्तव में तो हमारे आदर्श परम दिगम्बर मुनिराज, जो उन्होंने उस दिन किया वही हमें आज उनकी याद में करना चाहिए। नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान ये सब करके संसार बन्धन से स्वयं की रक्षा करना चाहिए।

अब कुछ लोग कहते है कि इसके बाद सबने एक दूसरे को राखी बांधी और एक दूसरे की रक्षा का वचन दिया।

चलो ठीक है माना वैसे तो देखा जाए तो कोई किसी की रक्षा में समर्थ ही नहीं है सब कुछ क्रमनियमित है, किन्तु फिर भी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध से हम कहीं ना कहीं किसी की रक्षा का भाव करते है, प्रयास करते है और उसमें सफल भी हो जाते है। किन्तु इसमें एक धागा बांधने का क्या चक्कर है ये समझ नहीं आता। 

अकंपनाचार्यादि मुनिराजों ने कोई राखी या रक्षासूत्र तो नहीं बांधा था विष्णुकुमार मुनि को पर फिर भी उन्होंने सूचना मिलते ही तुरंत रक्षा के भाव से वहां पहुंचे इससे सिद्ध होता है कि रक्षासूत्र बांधने से रक्षाबंधन पर्व का कोई मतलब नहीं है। और अगर फिर जो कुछ लोग कहते है कि मुनिरक्षा के बाद सब लोग एक दूसरे को रक्षासूत्र बांधते है। तो फिर वर्तमान में बहन ही भाई को क्यों बांधती है, और लोग क्यों नहीं। एक पत्नी भी पति को बांध सकती है क्या पति अपनी पत्नी की रक्षा नहीं करेगा? और अन्य सब भी एक-दूसरे को बांध सकते है किन्तु बहन ही भाई को क्यों? इसका उत्तर किसी धर्म ग्रंथ में या इतिहास में प्राप्त नहीं होता।

और फिर आपको क्या लगता है अगर कोई भाई अपनी बहन से राखी नहीं बंधवायेंगे तो क्या समय आने पर वह उसकी रक्षा नहीं करेंगे? या फिर जो भाई राखी बंधवाता है तो इसका क्या प्रमाण है कि वो समय आने पर बहन के साथ ही होगा, वह रक्षा कर ही पाएगा, तो कहते है कि कुछ भी हो सकता है ये तो नियति में निश्चित होगा। 

वास्तव में तो जब कोई अनजान लड़की या कोई अनजान व्यक्ति मुसीबत में हो तो भले लोग उनकी मदद करते ही है, ये नहीं देखते कि अरे, इन्होंने मेरे राखी तो बांधी ही नहीं, में क्यों रक्षा करूं, वो तो रक्षा करते ही है। तो समझ नहीं आता ये रक्षाबंधन पर्व क्यूं? कैसे? इसका क्या महत्व है?

अब कोई महापुरुष ये भी कहते है कि भाई लोग कुछ भी करे परम्परा है, चलने दो ना तुम्हे क्या दिक्कत है, तुम्हें एक धागा बांधने में क्या दिक्कत है।

तो में सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि अज्ञान में हम बहुत से पाप करते है, और कुछ ऐसे पाप भी होते है जिन्हें हम नहीं छोड़ सकते जैसे भोजन पानी, जरूरत की व्यवस्था इत्यादि। 

किन्तु इसके अलावा धर्म के नाम पर चलने वाली कुप्रथा इसे निभाना हमें आवश्यक नहीं है, धर्म के नाम पर चलने वाली कुप्रथा का त्याग आवश्यक है अन्यथा राजावसु जैसी गति हो सकती है।

हम स्वाध्याय करते है, जिनवाणी की बातों को मस्तक पर धारण करते है। किन्तु सबकुछ जानकर भी धर्म के नाम पर चलने वाली कुप्रथा का समर्थन मात्र करने से राजावसु सीधा सातवे नरक गए, तो मुझे तो ऐसी कुप्रथा के समर्थन से भय लगता है। 

अब कुछ लोग कहते है कि भैया हम कोई मुनि या त्यागी तो है नहीं, हम तो साधारण से गृहस्थ लोग है हमें अगर गृहस्थ जीवन जीना है, परिवार में समाज में रहना है तो ये प्रथा भी निभाना पड़ता है।

तो हिन्दुओं के भागवतपुराण पर आधारित एक राधेकृष्णा सीरियल आता है टेलीविजन पर उसमे एक बहुत ही प्यारी लाइन आई थी कृष्ण उपदेश में कि:- 

"प्रथा मनुष्य के लिए है, मनुष्य प्रथा के लिए नहीं।"

आप प्रथा के नाम पर खुद को बन्धन में मत बांधो की भैया ये तो परम्परा है निभाना ही पड़ेगा। कुप्रथा का त्याग अत्यंत आवश्यक है।

और वर्तमान में गृहस्थ जीवन हम इसलिए जी रहे है क्यूंकि मुनि बनने का 22 परिषह सहने का हमारे दुर्बल शरीर में अभी सामर्थ्य नहीं है, इसका अर्थ ये तो नहीं कि हमें ऐसी कुप्रथा को चलाने का, पाप मार्ग में लगने का लाइसेंस मिल गया हो, अरे हमें ये सोचना चाहिए कि हम मुनिव्रत नहीं ले सकते तो क्या हुआ हम गृहस्थ जीवन में मुनि जैसा जीवन जीने का प्रयास करेंगे। लेकिन हम लोग तो ये सोचते है कि हम तो गृहस्थ है, हमें तो पाप करना जरूरी है, वरना कैसे गृहस्थ?

अब कोई यह भी कहता है, परिवार वाले मिलते है रिश्तेदार लोग घर आते है, सब खुश रहते है इत्यादि-इत्यादि तो यदि इस बहाने खुशी मिलती है सबको तो क्या समस्या है?

हां तो भैया परिवार वालो से मिलना है तो मन्दिर में विधान कराओ, भव्य शिविर लगाओ, विद्वानों को बुलाओ। परिवार वाले अगर शादी के निमंत्रण पर आते है, तो आपके द्वारा निर्मल परिणामों से कराए ऐसे धर्मप्रभावना रूप कार्यक्रम के निमंत्रण पर भी अवश्य आयेंगे। आप भावना तो भाकर देखो। और रही बात खुश रहने की, मिठाइयां बनाना, पकवान बनाना मस्ती करना खुश रहना। तो वह तो आप कभी भी कर सकते है, उसके लिए किसी कुप्रथा को बढ़ावा देने की क्या आवश्यकता?

और फिर अमूल्यतत्वविचार नामक एक काव्य में श्रीमद् राजचंद्रजी कहते है- 

वह सुख सदा ही त्याज्य रे, पश्चात् जिसके दुःख भरा।

वर्तमान में जिस कुप्रथा के माध्यम से आप आनंद मनाना चाहते है, उसके फल में होने वाले दुःख को भोगने में उतना ही हमें रोना पड़ेगा।

और फिर आप स्वयं विचार कीजिए हमारे परिवार में कोई अग्नि से पीड़ित व्यक्ति जिसके देह की हालत बिगड़ी हुई हो किसी अग्नि दुर्घटना में और कोई व्यक्ति उसकी जान बचाने में सफल हो जाता है, और उसकी जान बच गई हो तो क्या आप उसकी जान बचने की खुशी में खीरपूड़ी बनवाएंगे या उसका इलाज करवाएंगे उसके लिए चिंतित होंगे? अरे एक निवाला मुख में नहीं जाता। तो विचार करो एक सप्ताह से मुनि पर होने वाला घोर अग्नि उपसर्ग उनकी देह की अवस्था, शरीर में धुंआ प्रवेश कर गया होगा। किन्तु उन्होंने आत्मध्यान में लीन रहकर कर्मों से स्वयं की रक्षा की। इतनी मुश्किलों से उपसर्ग तो टल गया पर क्या इतने में ही आपके अंदर का दुःख खत्म हो गया? क्या  मुनिराज के देह कि स्थिति देखकर भी आप खीर-पूड़ी और मिठाइयां खा पाएंगे?

अरे एक निवाला नहीं खा सकते है। इसलिए इस दिन हम सबको उन अकंपनाचार्यादि 700 मुनिराजों को आदर्श मानकर उनकी तरह संयम-नियम आदि करके तथा मन्दिर में दिगम्बर मुनिराजों की भक्ति करके ये पर्व मानना चाहिए।

कुछ लोग ये सुनकर ये भी कह सकते है कि सम्भवजी आपको लोकव्यवहार की समझ नहीं है, तो ये तो ऐसा लगता है जैसे मछली से बोला जा रहा है तुम्हे तैरना नहीं आता या तुम्हे जल में रहना नहीं आता। क्योंकि हम संसार में अनादि से लोकव्यवहार में इतने अभ्यस्त है कि हमें इसे सीखने की आवश्कता नहीं है। हां लोकव्यवहार का त्याग करना सीखने की आवश्यकता अवश्य है। और में समझता हूं कि मुझे ये मनुष्यभव लोकव्यवहार निभाने के लिए नहीं बल्कि इसका त्याग करने के लिए मिला है। अपने जैनकुल और नरतन की महत्ता को समझना बहुत आवश्यक है।

वास्तव में संसार एक बहुत बड़ा बन्धन है, और बन्धन ही तो दुःख का कारण है, इसलिए अनन्तभवों से हम इस बंधन से मुक्त होने का प्रयास कर रहे है अनन्तभवों की पुण्य की कमाई है ये जैनधर्म। आज अगर जैनधर्म के सिद्धान्तों का सम्मान हम ना कर पाए और इधर-उधर भटकने लगे, तो हमें फिर अनन्तभवों तक जैनकुल मिलने वाला नहीं है।।

श्रुतपंचमी महापर्व:-

श्रुतपंचमी महापर्व, इस दिन इस कलिकाल में जैनधर्म के प्रथम ग्रन्थ षट्खंडागमजी की रचना पूर्ण हुई थी। इसलिए यह जैनधर्म का एक महापर्व माना जाता है। 

इसे जैनधर्म के श्रद्धालु बहुत प्रकार से मनाते है। बहुत से नगरों में, जिनमंदिर में, जिनवाणी पूजन तथा श्रुतपंचमी विधान किया जाता है, विद्वानों के प्रवचन तथा गोष्ठी के माध्यम से जिनवाणी (श्रुत) व इस पर्व का माहात्म्य समाज को समझाया जाता है। तथा नगरों में मांजिनवाणी के सम्मान में जिनवाणी को मस्तक पर धारण करके जुलूस इत्यादि भी निकाले जाते है।

किन्तु में इस विषय में कुछ और कहना चाहता हूं। आखिर श्रुतपंचमी क्या है। वह श्रुत (जिनवाणी) हमारे पास तक कैसे पहुंची है। हमारे जीवन में इसका क्या महत्व है, इसे कैसे मनाना चाहिए। इसका सत्य स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है।

वास्तव में श्रुतपंचमी महापर्व समाज के कल्याण के लिए भावलिंगी दिगम्बर मुनिराजों का बलिदान है, उनका अनन्त पुरुषार्थ है, उनकी देह का रक्त है, जिसके हर शब्द में उनका अनन्त पुरुषार्थ भी है और अंतरंग की शुद्धता भी है।

तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में जो द्वादशांग का वर्णन आया। उसका असंख्यातवां भाग गणधरदेव ग्रहण कर पाते है, ओर उसका असंख्यातवां भाग उनके उत्तरवर्ती आचार्य ग्रहण कर पाते है और इस तरह जिनवाणी कम होती जाती है। पहले के उस समय तक तो लोगो की बुद्धि इतनी अच्छी होती थी कि बहुत सारा विषय याद रह जाता था। किन्तु आज हमें इतना याद नहीं रहता। 

आचार्य धरसेनस्वामी को तब ये विचार आया कि भविष्य के जीवों को इसप्रकार जिनवाणी याद नहीं रह पाएगी। इसलिए इसे लिपिबद्ध करना आवश्यक है। 

लेकिन जरा विचार करो कि उन्हें क्या पड़ी थी, हमारे बारे में इतना सोचने की उनका कार्य तो हो गया था। वह तो भावलींगी संत थे। क्षण-क्षण में अंतर्मुख होकर आत्मा के अतीन्द्रिय सुख का वेदन करते थे। उन्हें तो हमारे लिए इतना सोचने कि आवश्यकता ही नहीं थी। क्योंकि आज का मनुष्य जब खुद ही अपने विषय में जानना नहीं चाहता तो क्यों आचार्यों ने वर्षों तक मेहनत की इस कार्य के लिए, ताड़पत्रो पर कांटो से जिनवाणी लिखी। पैरों में कांटे चुभते थे पर वह शुभभाव से जिनवाणी लिखते थे, इतना सारा लिखने से पीठ अकड़ जाती थी, पूरा शरीर दुखता था, किन्तु वह या तो अंतर्मुख होकर निज शुद्धात्मा का अतीन्द्रिय सुख भोगते थे या शुभभाव से जिनवाणी लिखते थे। वर्ष के चार माह तो ताड़पत्र मिलते भी नहीं थे। कहीं पत्र ज्यादा ना हो जाए, कोई पत्र खो ना जाय इसलिए एक ही पत्र पर छोटे-छोटे अक्षरों में इतनी सारी गाथाएं और श्लोक लिखते थे। 

आखिर क्यों करते थे आचार्य इतनी मेहनत, ताकि हम उन्हें अलमारी में रखकर उनकी आरती उतारें, उनकी पूजा करें? 

आज ऐसे बहुत कम लोग है जो वीतराग भाव का अर्थ भी समझते है। आज समाज में बहुत से लोग जिनमन्दिर तो जाते है, किन्तु जिनेन्द्र परमात्मा के गुणों को भी नहीं जानते, देव-शास्त्र-गुरु की महिमा को नहीं समझते। इस लौकिक परंपराओं के जीवन में हम इतना घुल मिल गए है, कि जिस तरह बालक के लिए विद्यालय जाना आवश्यक है उसी तरह सबको प्रतिदिन सुबह मन्दिर जाना आवश्यक है। इसके अलावा लोग मन्दिर जाने का अर्थ ना तो समझते है और ना ही समझना चाहते है। तथा जो लोग कुछ ग्रंथो का अध्ययन करके जिनवाणी के अलौकिक ज्ञान को ग्रहण कर पाए। उन्होंने उसे दूसरों को भी पढ़ाया लेकिन उनके जीवन में भी कोई बदलाव नहीं आया। 

आज हमारे विद्वान, स्वाध्यायी जीव जिनवाणी का खूब अध्ययन करते है, दूसरों को भी कराते है, किन्तु जीवन में अपना ही नहीं पाते। जब उनसे पूछो तो उत्तर मिलता है कि अरे जिनवाणी की बाते सही है उस पर हमें श्रद्धा भी है किन्तु लौकिक जीवन में उन बातों का कोई महत्व नहीं है। समाज में रहना है तो समाज के हिसाब से जीना पड़ेगा। यह हमारे स्वाध्यायी विद्वानों की सोच बन गई है। जिन विद्वानों का संकल्प था कि वो समाज से अज्ञान और मिथ्यात्व संबंधी परंपराओं का नाश करके धर्म की ध्वजा लहराएंगे वही लोग आज समाज में जाकर उनके जैसे ही बन जाते है। झूठी परंपराओं को निभाने लगते है। में इसके उदाहरण भी दे सकता हूं-

जैसे रक्षाबंधन पर्व, हमारे बहुत से विद्वान गणधर की गादी पर बैठकर रक्षाबंधन का सत्य स्वरूप समझाते है और कहते है कि रक्षाबन्धन तो कर्मों के बंधन से आत्म स्वभाव की रक्षा का नाम है, बंधनों से रक्षा का नाम ही तो रक्षाबंधन है, बहन का भाई को राखी बांधना ये तो रक्षाबंधन पर्व है ही नहीं, ये तो संसार का बन्धन है। किन्तु प्रवचन समाप्त होने के बाद स्वयं अपनी बहन से राखी बंधवाते है, और अपने बच्चों से भी वही करवाते है। इन विद्वानों के ऐसे व्यवहार से ऐसा लगता है जैसे जिनवाणी का मजाक बनाने का ठेका इन्होंने ले रखा है। 

उनसे इसका प्रश्न पूछो तो उत्तर मिलता है कि भाई संसार में रहते है तो संसार की परंपराओं को निभाना भी तो आवश्यक है। जबकि ये गलत है वह अपने ही परिवार के सामने, अपनी ही समाज के सामने सत्य को लेकर खड़े होने में डरते है, कमजोरी को छुपाते है और उसे लौकिक परम्परा का नाम देकर जिनवाणी के ज्ञाता होकर भी मिथ्यात्व का प्रचार करते है। क्यूंकि असत्य का विरोध करने की और सत्य को स्वीकारने की क्षमता ही नहीं होती।

इसीप्रकार हमारे स्वाध्यायी ज्ञानी विद्वान प्रवचन देते समय कहते है कि जन्म-मरण तो दुःख के कारण है, इसलिए हम पूजन में भगवान की स्थापना के बाद सर्वप्रथम जन्म-मरण के अन्त की भावना भाते है। जन्मोत्सव तो तीर्थंकरों का मनाया जाता है, क्यूंकि अब वो द्वारा जन्म नहीं लेंगे, उनकी देह अंतिम देह है। और उनका जन्म समस्त जीवों का कल्याण करने वाला है। तीर्थंकर या चरम शरीरी जीव का ही वास्तव में जन्मोत्सव मनाना चाहिए। किन्तु मन्दिर से बाहर निकलकर फिर वही स्वयं का जन्मदिवस अपने बच्चों का जन्मदिवस मनाते है, कुछ लोग घर में बनाकर और कुछ बाजार के केक तक काटते है। मुझे तो समझ नहीं आता इनके मन से क्षण-क्षण में क्या जिनवाणी का ज्ञान लुप्त हो जाता है। 

में पूछता हूं क्या रक्षासूत्र नहीं बांधेंगे तो भाई अपनी बहन की रक्षा नहीं करेगा? क्या अगर सड़क पर किसी और लड़की के साथ कुछ गलत होगा तो हम उसकी मदद नहीं करेंगे या इंतजार करेंगे की अरे पहले रक्षाबंधन पर्व आयेगा फिर इससे राखी बंधवाई जाएगी फिर इसकी मदद करेंगे। और अगर ऐसा नहीं है तो क्यों ऐसी मिथ्या परम्परा को अपनाते है हम क्यों इसतरह जिनवाणी का मजाक बनाते है। 

और ऐसे ही जन्मदिवस पर मेहमान बुलाना केक कटवाना, गुब्बारे लगाना घर सजाना, क्या है ये सब, किसलिए मिला था ये मनुष्य भव और क्या करने लगे, जिनवाणी पढ़कर क्या हासिल किया?

इस जन्मदिवस को मनाना चाहते हो तो पहले इस जन्म के रहस्य को खोजो अपने इस जन्म के महत्व को समझो, इस मनुष्य देह के महत्व को समझो।

जैनधर्म मुक्ति भी देता है और जीवन का सही मार्ग भी, जिनवाणी केवल मोक्ष का मार्ग नहीं है, जीवन के प्रत्येक कदम की प्रेरक है जिनवाणीमां, जैसे एक बालक को उसकी मंजिल तक पहुंचाना उसकी मां का कर्तव्य नहीं होता बल्कि उसके हर गलत कदम पर मां उसे टोकती है और समझाती है तब अपनी मां के आदर्शों पर चलकर वह स्वयं मंजिल तक पहुंचता है। ऐसे ही केवल मोक्ष को समझने से मोक्ष मिल जाएगा ऐसा नहीं है। जिनवाणी में सारा ज्ञान है कदम-कदम कैसे आगे बढ़ना है। अगर आप असत्य परम्परा को छोड़ नहीं सकते तो सत्य का ग्रहण कैसे करोगे? 

ध्यान रहे सत्य और असत्य कभी एक साथ नहीं होते। ज्ञान और अज्ञान कभी एक साथ नहीं होते। जहां असत्य है, अज्ञान है वहां सत्य का व ज्ञान का कोई स्थान नहीं, और जहां सत्य है, ज्ञान है वहां असत्य का व अज्ञान का कोई स्थान नहीं।

श्रुत पंचमी पर जिनवाणी की महत्ता उनका पूजन करना, विधान करना, जिनवाणी छपवाना ये तो अब सब जान गए है। किन्तु में जिनवाणी का नहीं उसके अंदर के सत्य को ग्रहण करने की जो शक्ति हम सब में छिपी हुई है उसका ज्ञान कराना चाहता हूं। हम सबकुछ पढ़कर भी अनपढ़ है। क्यूंकि समाज ओर परंपराओं से बंधे है, इसकारण असत्य का विरोध करने से व सत्य को स्वीकार करने से घबराते है। हम स्वाध्याय करे किन्तु जीवन में ना अपनाएं। जीवन में ज्ञान तो ग्रहण करे, किन्तु झूठी लौकिक परंपराओं के चलते अज्ञान का त्याग भी ना करे तो हम कैसे अपने मनुष्यभव का लक्ष्य प्राप्त कर पाएंगे। 

आज हमारे विद्वान मुझे कहते है, कि लौकिक जीवन भी तो जीना है समाज में परिवार में रहना है तो वैसे जीना भी तो पड़ेगा। 

तो में आपको बता दू आज तक अनादिकाल से आप और क्या करते आ रहे है, इस परिवार, समाज ओर संसार की चिंता में अनेक भव व्यर्थ गंवा दिए है हमने। पूर्वभव में निर्ग्रंथ मुनि बनने की पावन भावना भाई होगी, तब जाकर आज अनन्तभवों के महापुण्य के उदय से जिनवाणी मिली सत्य सामने है, किन्तु फिर भी पल-पल की झूठी खुशी के लिए मिथ्यात्व का हाथ पकड़ कर खड़े है। 

कैसे मनाओगे अब श्रुतपंचमी पर्व- 

ध्यान रहे जब तक आप झूठी लौकिक परम्परा को निभाओगे तब तक जिनवाणी के ज्ञान का प्रयोग आपके जीवन में हो ही नहीं सकता। एक से दूसरे तक ज्ञान बांट तो सकते है। किन्तु उसका प्रयोग नहीं कर सकते, जब तक अधर्म को आप धर्म समझोगे तक तक सच्चा धर्म कैसे समझोगे?

वास्तव में तो सत्य की खोज ही सबसे बड़ा धर्म है। और सत्य का ज्ञान होने पर भी असत्य ना छूटे तो समझना अभी तक सत्य का ज्ञान है ही नहीं।

जिनवाणी मां कहती है कि है भव्यजीव! तूने अनादिकाल से घर-परिवार, समाज के बंधनों में फंसकर अनन्त भव व्यर्थ गवां दिए, अब अनन्तभवों के महापुण्य के उदय से तूने ये नरभव जैन कुल पाया है, दिगम्बर आचार्यों ने करुणा करके इतने अनन्त पुरुषार्थ से जिनवाणी लिपिबद्ध की, मात्र तेरे लिए, कि एक दिन तू इसे पढ़े-समझे और सारी मिथ्या मान्यताओं का त्याग करके जितना ज्यादा से ज्यादा हो सके सत्य के मार्ग पर निर्भय होकर आगे बढ़े। 

ये सब कहने का मेरा एक ही अर्थ है। कि जिनवाणी की पूजन-विधान, स्वाध्याय सब कुछ ठीक है। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण उस सत्य को अपनाना है। 

जब मंजिल पर जाते समय अगर एक रास्ता भी गलत हो तो कभी मंजिल नहीं मिलती। इसलिए मंजिल के बारे में नहीं सोचो कर्म करो, अपना सच्चा कर्म करो, उसके परिणाम के बारे में भी मत सोचो, बस अपना एक-एक कदम पूर्णत: सत्य की छांव में रखो, अगर कोई असत्य लौकिक परंपरा सामने आए तो उसे भी लांघ जाओ और सत्य को अपनाओ और लोगो को भी सत्य का मार्ग दिखाओ। क्योंकि हमारा वर्तमान ही हमारा भविष्य निश्चित करता है।

श्रुत के महत्व को अगर समझ जाओगे तो पूजन-पाठ की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

जैन आम्नाय में महावीर निर्वाणोत्सव पर्व:- 

वर्तमान में अलग-अलग मत में अलग-अलग तरह से दीपावली और महावीर निर्वाणोत्सव पर्व मनाया जाता है।

कुछ लोग इसे खुशी का पर्व मानते हैं, तो कुछ लोग दुःख का पर्व भी मानते है, लेकिन वास्तव में जैन दर्शन के अनुसार देखा जाए तो महावीर निर्वाणोत्सव न तो खुशी का पर्व है, और ना ही दुःख का पर्व है। ना तो मिठाइयां बांटने का पर्व है, और ना ही आंसू बहाने का पर्व है। वास्तव में तो महावीर निर्वाणोत्सव वैराग्य का पर्व है।

30 वर्षों से मंगलकारी दिव्यध्वनि का रसपान करने वाले जीव जिनके ह्दय में जिनवाणी है, ऐसे जीव महावीर निर्वाण के समय खुशियां और दुःख नहीं मनाते बल्कि समताभावधारण करते है।

अगर हम उस समय का विचार करें तो उस समय बहुत से जीवों ने वैराग्य धारण करके जिन दीक्षा अंगीकार की और भगवान महावीर के बताए मार्ग पर चल पड़े। कुछ जीवों ने सम्यक्दर्शन किया होगा, अणुव्रत धारण किए होंगे, कुछ जीवो ने अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार त्याग और संयम धारण किया होगा।

वास्तव में तो हमें भी इस दिन अपनी नगरी में 4-5 दिन का कार्यक्रम मन्दिर में करना चाहिए। विधान-प्रवचन और पाठशाला चलानी चाहिए। क्यूंकि वह दिव्यदेशना आज भी हमारे पास उपलब्ध हैं, अगर हम उस दिव्यध्वनि को समझ पाएं तो आज भी हम अपनी तेरस धन्य कर सकते है। 

आज भी मन्दिर में भगवान के रूप को देखकर अपना रूप देख पाएं तो आज भी हम रूप चौदस मना सकते है। और आज भी हम मन्दिरजी में स्वाध्याय के बल से तत्वचिंतन पूर्वक स्वयं का निर्णय करके, भेदविज्ञान का पुरुषार्थ करके महावीर निर्वाणोत्सव मना सकते है।

दीपक जलाकर लाखों का घी तेल बर्बाद करके, और चारों तरफ हजारों तरह की बिजली जलाकर इतनी सूक्ष्मजीवों की हिंसा करके कोई पर्व नहीं मनाया जाता। इससे अच्छा तो वो पैसा घी, तेल में बर्बाद करने के बजाय किसी जरूरतमंद को दे देना। आज तो हम मन्दिरजी में पूजन-विधान करें, प्रवचन सुनें, स्वाध्याय करें, तत्व चिंतन करें, प्रेम व्यवहार से सभी के साथ समता का भाव रखे। व्रत, उपवास करें, कुछ ना कुछ प्रिय वस्तु का त्याग करें।

भविष्य में महावीर भगवान की दिव्यध्वनि की रक्षा करने का, उसका रसपान करने का तथा उसे जन-जन तक पहुंचाने का प्रण लेना चाहिए। और जितना हो सके अपना मुक्तिमार्ग प्रशस्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। तब हम वास्तव में इस पर्व को समझ पाएंगे।।

Monday, November 22, 2021

जिनप्रतिमा का प्रक्षाल-पूजन क्यों व कैसे एक चिंतन

 


अभिषेक व प्रक्षाल किसका करना चाहिए?

दिगम्बर जैन तेरापंथ आम्नाय के अनुसार वास्तव में परिग्रह रहित वीतराग मार्ग को प्रदर्शित करने वाली ऐसी कुशल प्रतिष्ठाचार्य द्वारा पंचकल्याणक अथवा वेदीप्रतिष्ठा में जिनागम के अनुसार वर्णित विधि-विधान पूर्वक जिनालय में प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा तथा यंत्र जी अथवा दिगम्बर मुनिराज के प्रतिष्ठित चरण इत्यादि का प्रक्षाल किया जाता है, इसके अलावा पंचमेरू होते है जो कि अप्रतिष्ठित होते है किन्तु उनमें भी जिनबिम्ब होते है, अप्रतिष्ठित होते है पर उनका भी उसी विधि से प्रक्षालन किया जाता है।

अभिषेक-प्रक्षाल का उद्देश्य :-

जैन परम्परा में दिगम्बर मुनि का भी स्नान इत्यादि का त्याग होता है, हमारे यहां तो थोड़ा भी जल बेकार नहीं जाना चाहिए ऐसा सिखाया जाता है, वस्तु का उतना ही उपयोग होना चाहिए जितना आवश्यक है, चरणानुयोग के अनुसार एक सामान्य श्रावक को भी अपने दैनिक कार्यों में कम से कम पानी का उपयोग करना चाहिए। तो यदि किसी को ऐसा लगता है कि भगवान को नहलाया जाता है उसे अभिषेक कहते है तो ये बिल्कुल गलत है ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, दिगम्बर मुनि के ही स्नान का त्याग है तो हम अरिहंत परमेष्ठियों को नहलाने का भाव हृदय में कैसे ला सकते है?

तो कोई कह सकता है कि भगवान को सौधर्म इन्द्र जो पांडुकशिला पर ले जाकर अभिषेक करता है उसका क्या?

अरे भाई! वहां पांडुक शिला पर भगवान का नहीं एक बालक का अभिषेक होता है उस समय ना वो दिगम्बर मुनि होते है और ना ही अरहन्त, तो उस समय नहलाया जा सकता है। किन्तु यहां मन्दिर में जो प्रतिमा विराजमान है वो अरहन्त अवस्था की प्रतिमा है गृहस्थ बालक की नहीं।

इसलिए महिलाओं को इसप्रकार के नियम लेना कि भगवान का अभिषेक देखना ही है उसके बिना जलग्रहण नहीं करेंगे या भोजनग्रहण नहीं करेंगे। उसका क्या उद्देश्य है और कहां तक उचित है इस विषय में कृपया स्वयं विचार करें और निर्णय करें मुझे तो इस विषय का कोई उद्देश्य ख्याल में ही नहीं आता।

तो फिर आखिर क्यूं किया जाता है जिनप्रतिमा का अभिषेक-प्रक्षाल:- 

वास्तव में तो किसी भी दिगम्बर प्रतिमा के अभिषेक और प्रक्षाल का उद्देश्य एकमात्र साफ-सफाई ही है, ताकि जीव उत्पत्ति ना हो और हिंसा ना हो, इसलिए प्रतिमा-प्रक्षालन हम करते है। इसके अलावा कोई और उद्देश्य इसमें नहीं होता है। और इसके लिए सबको इतना भीड़ इकट्ठी करने की आवश्यकता नहीं है, जो कुछ 3-4 लोग नित्य करते है वह पूरी सावधानी पूर्वक करें और कभी किसी का भाव आ जाए तो को वह भी सहयोग कर सकते है। 

वर्तमान में ऐसा देखा जाता है कि बहुत से साधर्मीजनों को लगने लगा कि जब तक हम भगवान के उपर कलश भर कर पानी नहीं डाल देंगे तब तक हमारे पाप नहीं धुलेंगे और पुण्य नहीं होगा, और बड़े विधान आदि उत्सव के समय ऐसा ही होता है जबरदस्ती लोग धक्का-मुक्की करके चाहे जैसे शुद्ध-अशुध्द वस्त्रों से ही भगवान पर कलश भरकर जल डाल देते है और स्वयं को धन्य समझते है। जबकि ये बिल्कुल गलत है इसमें बहुत बार तो प्रतिमा गिर जाती है और टूट भी जाती है, जिससे भयंकर पाप का बंध होता है। तो आवश्यक नहीं है आप अभिषेक करे तो ही पुण्य होगा आप दूर से भाव भी कर सकते है जहां आवश्यकता है वहां प्रक्षाल करें, जहां पहले से ही बहुत सारे लोग है वहां आपको करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्यूंकि उद्देश्य प्रतिमा की साफ-सफाई है दूसरा कोई उद्देश्य है ही नहीं। तो क्यों करना चाहते है आप इतने सारे लोगो के होते हुए भी कृपया स्वयं विचार करें और निर्णय करें।

अब कोई कह सकता है कि इससे तो लोग मन्दिर आना ही बंद कर देंगे कुछ लोग तो इसी बहाने से मन्दिर आते है? और फिर नए लोग इसके लिए कैसे तैयार होंगे?

देखिए इसलिए हम स्वाध्याय की प्रेरणा दे रहे है, जिनमन्दिर समवशरण का प्रतीक है, समवशरण में अभिषेक या प्रक्षाल नहीं होता। बल्कि 3 समय दिव्यध्वनि खिरती है हमारे पास समय कम है, भगवान को अपनी ही मत सुनाइए, भगवान की भी कुछ सुनिए, शास्त्र खोलकर पढ़िए, मन्दिर जी में पाठशाला लगवाएं, शिविर लगवाएं ताकि अधिक से अधिक लोग धर्म से जुड़े, और बच्चे भी धर्म के सही स्वरूप को समझे और जुड़े रहे। और समय-समय पर सभी को, कोई एक कुशल व्यक्ति अपने निर्देशन में प्रक्षाल का महत्व भी समझाए, और उसे सारी क्रिया भी सिखाए, ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह नए साधर्मीजन भी प्रक्षालन का कार्य कर सके।


प्रक्षाल की विधि :-

सर्वप्रथम तो जिनप्रतिमा को स्पर्श करने वाला व्यक्ति जमीकंद का त्यागी रात्रिभोजन का त्यागी होना आवश्यक है, क्यूंकि जमीकंद और रात्रिभोजन करना जिनागम में मांसभक्षण के समान माना है और ऐसा रात्रि भोजन करने वाला या जमीकंद खाने वाला, मदिरापान इत्यादि करने वाला व्यक्ति, पवित्र जिनप्रतिमा का स्पर्श नहीं कर सकता। अब ऐसा जमीकंद का तथा रात्रिभोजन का त्यागी तथा निरोगी अथवा स्वस्थ पुरुष, घर से नहाकर या मन्दिर में जहां स्नानघर हो वहां नहाकर, पूर्णगीले तौलिए को पहनकर ही शुद्ध (जिन्हें पूर्व में धोकर अन्य जनों का प्रवेश वर्जित है ऐसे स्थान पर सुखाया गया है, ताकि किसी और ने अशुद्ध वस्त्रों से जिन्हें नहीं छुआ है) ऐसे बिना सिले हुए धोती-दुपट्टे पहनकर ही प्रक्षाल के लिए जाएं।

आजकल कुछ लोग, जैसे चाहे अशुद्ध वस्त्र पहनकर भी मन्दिरजी में प्रक्षाल के लिए आ जाते है, घर से जो अंडरवियर-बनियान पहनकर आते है उसी के ऊपर से धोती पहनकर प्रक्षाल करने लगते है जबकि घर के अशुद्ध कपड़ों से जिनप्रतिमा को छूना निषेध है। और सिले हुए कपड़े पहनकर भी प्रक्षाल नहीं किया जाता है। अहिंसक कपड़े जो सिले ना गए हो ऐसे अखंड धोती और दुपट्टा पहनकर ही जिनप्रतिमा का स्पर्श करें।

वर्तमान में कुछ लोगो को धोती पहनने में कठिनाई होती है इसलिए धोती पहनना सीखने के बजाय आज अपनी व्यवस्था को देखते हुए कुछ मंदिरों में सिले हुए धोती-दुपट्टा पहनने लगे है जो कि आगम के विरुद्ध है यदि इसे ना रोका गया तो कल कुर्ता-पायजामा और कुछ दिन बाद जींस-टीशर्ट पहनकर भी लोग प्रक्षाल करते नजर आएंगे।कहीं-कहीं तो वर्तमान में भी ऐसा देखा जाने लगा है, इसलिए सभी लोग इस बात का ध्यान रखें कि एक बार धोने के पश्चात् किसी अन्य के द्वारा छुआ गया ना हो ऐसा शुद्ध और बिना सिला हुआ अखंड वस्त्र पूर्णगीले तौलिए से उठाकर फिर उसे पहनकर ही जिनप्रतिमा का स्पर्श करें। और ध्यान रहे अब हाथ में या गले में कोई अन्य धागा इत्यादि अथवा कलावा इत्यादि भी ना हो, मन्दिर जी के बाहर कोई कपड़े का आसन हो तो उस पर पैर ना रखे, आदि बातों का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है।

प्रक्षाल के जल के लिए मंदिरजी में कुंआ अथवा बोरिंग होना चाहिए और आवश्यकता के अनुसार ही, ऐसा मोटा कपड़ा जिसमें से सूर्य की किरण प्रवेश ना कर सके उससे उस जल को अत्यंत सावधानी पूर्वक जीवरक्षा करते हुए छानकर ही भरना चाहिए तथा उस छने जल से ही, उस कपड़े से सावधानी पूर्वक गिलछानी करना चाहिए ताकि जीवों को नुकसान ना हो। फिर उस जल को गर्म कर लेना चाहिए जिससे उस जल की 24 घंटे की मर्यादा हो जाती है।

अब जिनप्रतिमा का प्रक्षाल कैसे करना?

किसी भी दिगम्बर प्रतिमा अर्थात् मुनि अवस्था कि प्रतिमा हो जैसे फणवाली पार्श्वनाथजी की प्रतिमा या दिगम्बर मुनि के चरण या अरहन्त अवस्था की प्रतिमा हो तो उनका प्रक्षाल सबसे पहले सूखे कपड़े से परिमार्जन, फिर गीले कपडे से प्रतिमा को पोंछना और फिर सूखे कपड़े से ठीक से प्रतिमा को पोंछना इतना कर दिया तो बस हो गया। विशेष ध्यान देने योग्य बात ये है कि कम से कम जल का उपयोग करें और उसे अन्त में सूखे कपड़े से इतना अच्छे से साफ करें की कंही भी थोड़ा सा अर्थात् एक बूंद जल भी शेष ना रह जाए। और कभी-कभी कलश से प्रतिमा पर थोड़ा सा जल डालकर अभिषेक इसलिए करते है ताकि जहां-जहां तक कपड़ा नहीं पहुंच पाता है प्रतिमा के कुछ छोटे-छोटे हिस्सो में वहां भी सफाई हो जाए, अभिषेक के लिए इसके अलावा और कोई उद्देश्य मुझे तो समझ नहीं आता। 

तो कोई कहता है जब भगवान वीतरागी है, वो कुछ करते नहीं है मात्र ज्ञाता-दृष्टा है, आप अधिक जल भी उपयोग नहीं करना चाहते अभिषेक करने के लिए आपका उद्देश्य भगवान को नहलाना नहीं बल्कि साफ-सफाई और अहिंसा ही उद्देश्य है तो फिर शान्तिधारा क्यों करते है?

इसका उत्तर तो मैने भी बहुत विचार किया और बहुत लोगों से पूछा भी किंतु इसका ऐसा उत्तर मुझे स्वयं अब तक नहीं मिला जिससे मुझे संतोष हो।

जब में छोटा था विद्यालय में जाता है तब अखबारों में छपता था कि विश्वशांति के लिए शान्ति धारा करवाई गई, तो विद्यालय में अन्य जन पूछा करते थे कि अरे तुम्हारे जैन लोगो में विश्वशांति के लिए शांतिधारा करते है तो विश्वशांति तो होती नहीं है यहां तो युद्ध इत्यादि मारकाट, झगड़े, चोरी-चकारी सब वैसा ही चलता है तो या तो तुम्हारे भगवान झूठे है या तुम्हारी भक्ति झूठी है। उस समय मुझे भी नहीं पता था कि वास्तविकता क्या है।

मैने अपने बड़ों से पूछा कि शांतिधारा हम क्यों करते है, इसमें हम परिवार की, समाज की, विश्व की सुखशांति की भगवान से कामना करते है पर ऐसा तो कुछ होता नहीं है पर हमारे बड़ों का तो जवाब होता था कि बेटा ये श्रृद्धा की बात है, इसमें प्रश्न नहीं करते, और हमारे बड़ों ने भी यही सिखाया है और इतने ज्ञानी मुनि है वह भी ये कराते है तो सब करते है इसलिए हम भी करते है।

मुझे अपने बड़ों के उत्तर से कभी संतुष्टि नहीं हुई, किन्तु जब जिनवाणी से जाना की भगवान तो वीतरागी है अहिंसा का उपदेश देने वाले है, सबको भगवान बताने वाले है, तब समझ आया कि ये शांतिधारा का जिनागम में कोई उद्देश्य ही नहीं है। परिवार में अगर सुख शांति होती तो मुनिराज परिवार का त्याग ही क्यों करते, जो भगवान परिवार, समाज और संसार में सुख नहीं है ऐसा जानकर स्वयं में आत्मसुख में लीन होकर भगवान बने उनसे हम संसार के सुख कि कामना करें ये तो महाअज्ञानभाव है।

अब कोई कहे की मन्दिर में इसके माध्यम से पैसा इकट्ठा हो जाता है, और भगवान तो वीतरागी है पर हम तो भक्ति से ऐसा करते है- तो भैया अज्ञान में किसी दिगम्बर मुनिराज पर कड़कती सर्दी में कोई कम्बल डाल दें तो वह भक्ति नहीं मुनिराज पर घोर उपसर्ग है, और भगवान तो वीतराग-सर्वज्ञ है आप उनका भावों से गुणगान करके भी भक्ति कर सकते है, भर-भर कलश पानी डालने से कुछ नहीं होगा। व्यर्थ पानी को बर्बाद करना तो लोक में भी अच्छा नहीं माना जाता तो ये धर्म कैसे हो सकता है। और मन्दिर कोई दुकान नहीं है जो जिनप्रतिमा को यहां पैसे इकठ्ठा करने का साधन बनाया जा रहा है, मन्दिर में आवश्यक वस्तुएं ही होनी चाहिए यहां इतना पैसा इकठ्ठा करके एडवांस कार्य करके दिखावा करने से धर्म नहीं होता, ये बात हमें समझना चाहिए।

अब कोई कहता है कि जो सौधर्म इन्द्र इतने बड़े-बड़े 1008 कलशों से अभिषेक करता है तो वहां तो कितना जल बर्बाद होता है-

तो भैया में पहले ही बता चुका हूं कि वो भगवान का नहीं गृहस्थ बालक का अभिषेक करता है भक्ति से और उसमें भी वह पंचम सागर क्षीरसागर के जल से अभिषेक करता है, और असंख्यात देव वहां होते है, एक-एक बूंद भी वे देव गंधोदक के रूप में लेते है तो वहां एक बूंद जल नहीं बचता जो कि व्यर्थ गया हो।

मुझे बहुत विचार करने पर शान्तिधारा का जिनागम में तो कोई महत्व समझ नहीं आता। बाकि सबका अपना-अपना स्वाध्याय-चिन्तन और निर्णय है यदि किसी को कोई ठोस कारण समझ आता है जिनागम के अनुसार शांतिधारा का तो वह मुझे भी बताए ताकि में भी समझ सकुं कि इसका कारण क्या है जो मेरे स्वाध्याय और चिन्तन में नहीं आ पा रहा है।

इसके अलावा कहीं-कहीं ऐसा भी होता देखा जाता है कि कुछ लोग अभिषेक के लिए देरी से आते है और इधर वो धोती दुपट्टा पहन रहे है और उधर सब उनका इन्तजार कर रहे है कि वो भैया आए तो वो भी थोड़ा प्रतिमा पर जल डाल ले अन्यथा वो पुण्य से वंचित हो जाएंगे, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है, प्रतिमा की सफाई का जो हमारा प्रयोजन था वो पूर्ण हो चुका है कोई देरी से आता है तो उसके लिए जिनेन्द्र प्रतिमा को ऐसे ही छोड़कर अभिषेक के लिए उनका इंतजार करना ये बिल्कुल भी उचित नहीं है ऐसा नहीं होना चाहिए। कहीं-कहीं पर एक बार अभिषेक हो जाने के बाद भी कोई और आता है और वह भी करने लगता है और कभी-कभी, कहीं-कहीं पर तो अभिषेक होने के पश्चात कोई महिला अथवा पुरुष आते है तो उन्हें दिखाने के लिए भी लोग पुन: अभिषेक करते है ताकि वे अभिषेक देख लें। तो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि उद्देश्य प्रतिमा की स्वच्छता है तो किसी को देखना या दिखाना ये आवश्यक है ही नहीं।

ये तो हुआ अभिषेक-प्रक्षालन का विषय अब हम विचार करते है 

पूजन क्यों करना व कैसे?

जैनधर्म में भगवान तो वीतरागी है, तो हम उनकी कितनी पूजा करते है, कैसे पूजा करते है, कितना गुणगान करते है, या क्या चढ़ाते है इससे भगवान को तो फर्क पड़ता नहीं है, और ना ही वे किसी का भला या बुरा करते है, वे तो सदा अपने ज्ञान स्वभाव में लीन रहते है और आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द को भोगते है। तो पूजन का उद्देश्य क्या है?

वास्तव में वीतराग-सर्वज्ञ भगवन्तों की पूजन का प्रथम उद्देश्य है परिणामों की निर्मलता। भगवान की पूजन करते समय पूजन में जो भगवान के गुण गाए जाते है उससे वास्तव में परिणाम अत्यन्त निर्मल हो जाते है और मेरे अन्दर भी ऐसे गुण है में भी भगवान बन सकता हूं ऐसा निर्णय पूजन करने से होता है।  पूजन भी एक तरह से स्वाध्याय ही है, जिसमें भगवान के गुण भी है और भेदविज्ञान की ऐसी बातें भी, जिससे समझ-समझ कर पढ़ने से भगवान के गुणों के विषय में ज्ञान बढ़ता है, परिणाम निर्मल होते है और स्वयं भी भगवान बन सकते है ऐसा विश्वास होता है, और वास्तव में जिनप्रतिमा के दर्शन और पूजन सम्यकदर्शन में निमित्त भी है।

अब प्रश्न ये होता है कि जिनेन्द्र भगवान की पूजन कैसे करना चाहिए?

तो यदि विचार किया जाए तो जैन परम्परा में भगवान के दर्शन या पूजन की कोई विधि नहीं होती, वास्तव में तो जिनेन्द्र भगवान को देखकर हमारे मन में जो भी भगवान के बहुमान में भाव उमड़ते है, वह भाव ही दर्शन है, वह भाव ही भक्ति है, वह भाव ही पूजन है और वही आरती है। 

                                 

अब कोई कह सकता है कि हमने तो किताबों में दर्शन और पूजन दोनों की विधि पढ़ी है, बचपन से पढ़ते-सुनते आए है तो क्या वह सब गलत है?

तो नहीं वह सब सही होता है, बच्चों को पता नहीं होता मन्दिर में कैसे जाना, क्या लेकर जाना, क्या लेकर नहीं जाना, क्या बोलना चाहिए भगवान के सामने क्या नहीं, तो उन्हें ये सब सिखाने के लिए दर्शन की विधि बताई है, जब हम समझदार हो जाते है तो जानते है की मन्दिर में खाने-पीने की वस्तु नहीं ले जाते, हिंसा से बनी वस्तुएं मन्दिर में नहीं लेकर जाते, घर-परिवार की बातें मन्दिरजी में नहीं करते तो बच्चों को ये सब सिखाने के लिए वो विधि होती है जो हमारे जीवन में बड़े होने पर सहज आ जाती है, बड़े होने के बाद वही रटी-रटायी स्तुति कब तक जीवन भर भगवान को सुनाते रहेंगे, बड़े होने के बाद भगवान के गुणों को गाते-गाते स्वयं की ही नयी स्तुति और पूजन की रचना हो जाना चाहिए।

अब कोई कहे कि पूजन की विधि तो है पहले विनय पाठ, फिर मंगल पाठ, फिर स्वस्ति मंगल पाठ, इत्यादि पूरी पूजा पीठिका और फिर पूजन फिर बाद में सबको अर्घ्य फिर महार्घ्य, शांति पाठ, विसर्जन पाठ उसकी तो पूरी विधि है ना?

ये भी बस सिखाने की दृष्टि से है ऐसा आवश्यक नहीं है कि ये सब बोला ही जाए ये तो वर्तमान में एक सुविधा के लिए विधि बना दी गई है वास्तव में पूजन की कोई विधि नहीं होती।

हम यदि विचार करें कि विनय पाठ नाथूराम जी ने लिखा है तो उससे पहले तक क्या विनयपाठ नहीं बोला जाता था क्या? ऐसे ही बाकी पीठिका महार्घ्य इत्यादि सब, कुछ समय पहले लिखे गए इसके पहले लोग क्या बोलते होंगे? और ये भी आवश्यक नहीं कि सारे अर्घ्य बोले ही जाए या फिर पहले देव-शास्त्र-गुरु फिर मुलनायक, फिर कल्याणक के हिसाब से, फिर वार के हिसाब से, पूजन करनी ही पड़ती है ऐसा कुछ भी नहीं है। यहां कोई जबरदस्ती नहीं है। ये भगवान की पूजन है, आराधना है, कोई काम नहीं है, जो करना ही पड़ता है। मुझे लगता है मन्दिरजी में सभी भगवान वीतराग-सर्वज्ञ है, हमारे जैनधर्म में तो नाम से कोई पूज्य ही नहीं होता बल्कि गुणों से पूज्य होते है, हमारे यहां तो गुणों की पूजा की जाती है तो जैसा अधिकांश लोगो को लगता है कि सबसे पहले देव-शास्त्र-गुरु की पूजा होना आवश्यक है फिर मूलनायक, फिर वार के हिसाब से फिर कोई कल्याणक के हिसाब से मतलब ऐसे लगभग 4-5 पूजन होनी ही चाहिए मन्दिर में समय हो ना हो फिर भी फटाफट एक घंटे में पूरी रफ्तार के साथ पूजन करके अपने काम के लिए भी जाना आवश्यक है। तो मेरा मात्र इतना कहना है आपके पास समय यदि कम है तो जबरदस्ती इतनी सारी पूजन राजधानी एक्सप्रेस की रफ्तार में करने की आवश्यकता नहीं है इससे पुण्य का तो नहीं अपितु पाप का ही बंध होगा। मुझे तो लगता है कि जब जिस भगवान की पूजा करने का भाव आए कर लेना चाहिए, समय कम है तो एक पूजन ही करो कोई भी, पर पूर्ण भाव से, श्रृद्धा से, बिना किसी जल्दबाजी के, पूजन के एक-एक शब्द का अर्थ और भावार्थ समझ-समझ कर, जब जो इच्छा हो वहीं पूजन कर लीजिए सच में बहुत आनन्द आयेगा।

वास्तव में भगवान को देखकर जो मन में भाव आते है वो उनके सामने बोलना वह भी भगवान की पूजन ही है, पूजन भी है, भक्ति भी है और आरती भी वही है। ये भी करना पड़ता है ये भी करना पड़ता है ऐसी जैनधर्म में कोई विधि नहीं है।

अब बात आती है भगवान को चावल, लवंग, बादाम, गोला इत्यादि ही क्यों चढ़ाते है, नेवेद्य बोलते है और चटक चढ़ाते है, दीप बोलते है और चंदन वाली चटक चढ़ाते है ऐसा क्यों?

तो इस विषय में विचार किया जाए तो जिनागम में भगवान को क्या चढ़ाना चाहिए इसके लिए कहीं कोई सामग्री का विशेष उल्लेख नहीं मिलता किन्तु विशेष ध्यान रखने कि बात ये है कि जिनेन्द्र भगवान को प्रासुक द्रव्य ही चढ़ाया जाता है।


प्रासुक़ द्रव्य का अर्थ होता है जीवरहित अर्थात् जो हिंसा से बिल्कुल रहित है जो प्रासुक है वहीं भगवान को चढ़ाया जाता है। रत्न इत्यादि से पहले भगवान की पूजन होती थी, आज हम प्रासुक चावल, लवंग, बादाम, गोला इत्यादि से भगवान की पूजा करते है, जिसमें व्यर्थ ही जीव हिंसा हो ऐसे द्रव्य भगवान को नहीं चढ़ाते। जिन पदार्थों के कारण से चींटी मच्छर इत्यादि छोटे जीव की भी उत्पत्ति हो या जीवों का मरण हो ऐसे पदार्थ जिनेन्द्र भगवान को नहीं चढ़ाते।

अब यहां कोई कह सकता है कि भगवान तो वीतरागी है उन्हें कुछ चढ़ाने की आवश्यकता ही क्यों? वे तो सर्वत्यागी है उन्हें किसी चीज की आवश्यकता ही नहीं है फिर क्यों चढ़ाना?

तो इस विषय में यदि विचार किया जाए तो वैसे तो उत्तर प्रश्न में ही है भगवान को कुछ चढ़ाना ही क्यों? क्यूंकि वे तो वीतरागी है, किन्तु फिर भी एक लोकव्यवहार की दृष्टि से यदि अपने किसी इष्ट से मिलने जाते है तो कुछ उत्तम वस्तु भेंट स्वरूप ले जाते है। किसी राजा से मिलते है तो वैसे तो प्रजा राजा से ही सहायता मांगने जाती है राजा को किसी भेंट की आवश्यकता नहीं होती फिर भी लोकव्यवहार की दृष्टि से प्रजा कुछ फल इत्यादि वहां राजा के लिए लेकर ही जाती है। ऐसे ही कोई भी व्यक्ति जब जिनमन्दिर में जिनेन्द्र देव के दर्शन के लिए जाता है तो सर्वोत्कृष्ट द्रव्य सामग्री लेकर जाता है, यहां उत्कृष्ट से भी विशेष सर्वोत्कृष्ट का अर्थ जीवरहित प्रासुक सामग्री से है। उससे ही जिनेन्द्र भगवान की पूजन की जाती है। और यदि कोई सामग्री ना भी ले जाएं तो उसमें कोई समस्या नहीं है उद्देश्य तो भगवान से भगवान बनने की विधि सीखना है उन्हें सामग्री चढ़ाने या एक थाली का माल दूसरी थाली में करना हमारा उद्देश्य नहीं है। 

बहुत से लोग ऐसे भी होते है जो भगवान को बहुत अच्छी सामग्री भेंट करते है नित्य शुद्ध चावल, बादाम, लवंग, गोला इत्यादि से पूजन करते है किन्तु भगवान के गुण जैनधर्म के महत्व से अनजान होते है, स्वाध्याय भी नहीं करते है और कुछ लोग ऐसे होते है जो नित्य स्वाध्याय करते है तत्वचिन्तन करते है, संसार के व्यापार आदि से अधिक समय मन्दिर के कार्यों में देते है। जैनधर्म की प्रभावना की बात आए तो व्यापार छोड़कर पहले धर्म प्रभावना के लिए आगे आते है और आप उन्हें दर्शन करते देखेंगे तो मन्दिर में खाली हाथ भी आ जाते है तो इसका अर्थ ये नहीं की वे भाव से पूजन नहीं करते या भाव से दर्शन नहीं करते। ये तो जिनमन्दिर है यहां आने का उद्देश्य एक मात्र भगवान के गुणगान है और भगवान की वाणी अर्थात् जिनवाणी से भगवान बनने की विधि सीखना है, भगवान को कुछ चढ़ाना नहीं, वह इतना अधिक महत्वपूर्ण नहीं है।

ये पूरा प्रक्षाल और पूजन के संबंध में मेरे विचार है मेरा चिन्तन है, आगम में इसका इतना उल्लेख नहीं मिलता है इसलिए आगम के ज्ञान के अनुसार जितना मेरा स्वाध्याय है, जितना में समझ पाया हूं, उतना मैने इसमें लिखा है बाकि सभी अपना-अपना निर्णय स्वयं ही लेवें।

जिनप्रतिमा प्रक्षाल के समय ध्यान देने योग्य कुछ महत्वपूर्ण बातें :-

1. जिनप्रतिमा का अभिषेक नहीं होता, जिनबिम्ब का प्रक्षाल किया जाता है, जो अभिषेक के नाम से प्रचलित है।

2. प्रक्षाल मात्र पुरुषों द्वारा ही किया जाएं, महिलायें जिनबिम्ब को स्पर्श न करें एवं जिनप्रतिमा का प्रक्षाल प्रीतिदिन एक बार हो जाने के पश्चात् बार-बार न करें।

3. प्रक्षाल के निर्धारित समय पर अगर कोई व्यक्ति नहीं आता है तो उसके लिए जिनप्रतिमा को इन्तजार नहीं करवाना चाहिए, निर्धारित समय पर प्रक्षाल हो जाना चाहिए।

4. बिना सिले हुए वस्त्र (शुद्ध धोती-दुपट्टा) जो ऐसे स्थान पर धोकर सुखाएं हो जिन्हें कोई सामान्य वस्त्र पहनकर स्पर्श न करें, और प्रातःकाल स्नान के पश्चात् पूर्ण गीला तौलिया लगाकर ही उस धोती दुपट्टे को स्पर्श करें ऐसे शुद्ध वस्त्र पहनकर ही प्रक्षाल करना चाहिए।

5. कुछ लोग वर्तमान में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रक्षाल करते है जो कि अनुचित है, उनका तर्क होता है कि बिना सिले पहनना नहीं आता अथवा समय अधिक लगता है तो उनको समझना चाहिए कि हम अपने करियर के लिए इतना कुछ नया सीखते है, इतनी भाषाएं सीखते है, बहुत कुछ सीखते है तो जिनप्रतिमा के प्रक्षाल के लिए बिना सिले वस्त्र (शुद्ध धोती-दुपट्टा) पहनना तो सीख ही सकते है।

6. फिर भी जो लोग सिले वस्त्र पहनते है उनमें कुछ लोग तो अंडरगारमेंट्स पहनकर भी प्रक्षाल करते है जो कि सर्वथा अनुचित है और अगर हठपूर्वक पहनते भी है तो इतना विवेक तो अवश्य रखें की उन्हें प्रक्षाल के बाद धोती-दुपट्टा के साथ ही अलग रखें नित्य प्रयोग वाले अंडरगारमेंटस् पहनकर आप जिनप्रतिमा को स्पर्श नहीं कर सकते। 

7. प्रक्षाल के समय हाथ में कलावा, गले में किसीप्रकार का कोई धागा, अथवा जनेऊ इत्यादि पहनकर भी कुछ लोग प्रक्षाल कर लेते है, कुछ लोग साथ में रुमाल ले लेते है, यह भी सर्वथा अनुचित है। 

दिगम्बर आम्नाय में यदि कोई प्रक्षाल वाले वस्त्र (शुद्ध धोती-दुपट्टा) पहनकर एक बार किसी मुनिराज को आहार दे देता है तो उन वस्त्रों को सखरा माना जाता है, फिर उन वस्त्रों को धोकर-सुखाकर भी दोबारा पहनकर प्रक्षाल नहीं कर सकता, उन वस्त्रों को सदैव के लिए अलग ही कर दिया जाता है। तो कलावा इत्यादि पहनकर तो हम खाते भी है, फ्रेश होने भी जाते है और भी पता नहीं क्या-क्या करते है तो उसे पहनकर जिनप्रतिमा को स्पर्श नहीं कर सकते।

8. शुद्धवस्त्र पहनकर जो व्यक्ति प्रक्षाल करने हेतु जिनमन्दिर में प्रवेश कर रहा है उसे ध्यान रखना चाहिए की कोई कपड़े का आसन अथवा पर्दा इत्यादि कहीं लगा है उसे स्पर्श न करे अथवा किसी अन्य सामान्य वस्त्र पहने हुए व्यक्ति अथवा बच्चे से दूर रहे।

9. यदि शरीर से रक्त इत्यादि बह रहा है, फोड़े फुंसी में से पानी निकल रहा है शरीर में कोढ़ इत्यादि है अथवा अंगोपांग में हिनाधिकता है तो ऐसे व्यक्ति को भी जिनप्रतिमा को स्पर्श नहीं करना चाहिए।

10. ध्यान रहे प्रतिष्ठा ग्रन्थ के अनुसार प्रक्षाल के समय अथवा प्रतिष्ठा आदि कार्यों के समय यदि शुद्धता का ध्यान न रखा जाए और अशुद्धता पूर्वक ये सब कार्य किए अथवा कराए जाएं तो तीव्र पाप का बंध होता है नरक आदि गति का भी बंध हो सकता है।