Wednesday, July 27, 2022

रक्षाबंधन पर्व एक वैराग्य प्रसंग :-

रक्षाबन्धन पर्व क्यों मनाया जाता हैं और कैसे मनाया जाना चाहिए , ये एक अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्न है। 

अगर हम वर्तमान समय में देखते और सुनते है तो हमें पता चलता है कि रक्षाबंधन पर बहिन अपने भाई को रक्षासूत्र बांधती है जिसे राखी भी कहा जाता है और उसका कारण होता है कि बहन राखी बांधते हुए भाई से अपनी जीवन भर रक्षा का वचन लेती है। इसके अलावा इसे धार्मिक पर्व कहकर इस दिन अच्छे-अच्छे पकवान बनाए जाते हैं, अलग-अलग प्रकार की मिठाइयां बनाई जाती है, इस प्रकार रक्षाबन्धन पर्व मनाया जाता है।

किन्तु फिर भी आज मेरे मन में इसके विषय में कुछ प्रश्न उत्पन्न हुए कि ये पर्व क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे भाई बहिन के स्नेह की क्या कथा है ये जानने की मुझे अति जिज्ञासा हुई। इसलिए अन्य मत में मैंने पता किया, अन्य मत के विद्वानों से पूछा किंतु रक्षाबंधन की भाई-बहन से सम्बंधित कहीं कोई बात नजर नहीं आती। 

जैनमत के अनुसार देखें, तो एक सप्ताह से राजा बलि द्वारा अकंपनाचार्यादि 700 दिगम्बर भावलिंगी संतों पर हस्तिनापुर के पास एक जंगल में भयंकर उपसर्ग किया गया, मुनिराजों के चारो तरफ भयंकर अग्नि जलवाई जिससे चारो तरफ भयंकर धुआं-धुआं हो गया, और चारो तरफ की अग्नि की तपन से मुनियों के शरीर में भयंकर जलन होने लगी, शरीर में धुंआ प्रवेश करने लगा। किन्तु सभी मुनिराज उपसर्ग दूर होने तक आहार पानी का त्याग करके निज शुद्धात्मा के ध्यान में लीन हो गए। 

पश्चात् विष्णुकुमार मुनिराज जिन्हें आत्मध्यान रूपी तप द्वारा विक्रियाऋद्धि प्राप्त हुई थी, एक क्षुल्लकजी द्वारा उन्हें सूचना मिलने पर  उन्होनें मुनिअवस्था का त्याग कर एक ठिगनेवामन (कद से छोटा शरीर का होना) का रूप रखकर राजाबलि से तीन पग भूमि दान में मांगी और फिर अपनी विक्रियाऋद्धि से ज्योतिष लोक तक की ऊंचाई वाला शरीर बनाकर उन्होंने अपना एक पग मेरु पर्वत पर और दूसरा पग मानुषोत्तर पर्वत पर रखा, और तीसरे पग के लिए कोई स्थान ही शेष नहीं बचा, तब राजा बलि ने क्षमा मांगी और इस तरह उपसर्ग दूर हुआ तथा 700 दिगम्बर महामुनिराजोंं की रक्षा हुई। 

ये कथा हमें जैनमत में मिलती है। किन्तु इस कथा में भी भाई-बहन के रक्षाबन्धन पर्व का कोई विवरण नहीं है जो वर्तमान समय में मनाया जाता है।

हम अगर इस कथा को ध्यान से देखें तो रक्षाबंधन पर्व कुछ इसप्रकार का प्रतीत होता है। हमें द्वीपायन मुनि की कहानी याद करना चाहिए, किसी ने थोड़ा अपमान किया और उन्होंनें विचलित होकर द्वारिका जलाई तथा कर्मबंधन किया, और अपना संसार बढ़ाया, एवं सर्व ओर अहित हुआ।

अकंपनाचार्यादि 700 मुनि भी अपने तप के प्रभाव से कुछ भी कर सकते थे, उनके तप के प्रभाव से पूर्ण हस्तिनापुर नष्ट हो सकता था, किन्तु यहां इतने घोर उपसर्ग होने पर भी अकंपनाचार्यादि 700 दिगम्बर मुनिराज अपने आत्मस्वभाव में लीन रहे, और कर्मों से स्वयं की रक्षा की, संसार के बंधन से भी अपना रक्षा की।

  तो वास्तव में तो हमारे आदर्श परम दिगम्बर मुनिराज जो उस दिन उन्होंने किया, वही हमें आज उनकी याद में करना चाहिए। नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान ये सब करके संसार बन्धन से, कर्म बंधन से स्वयं की रक्षा करना चाहिए।

अब कुछ लोग कहते है कि इसके बाद सबने एक दूसरे को राखी बांधी और एक दूसरे की रक्षा का वचन दिया।

चलो ठीक है माना, वैसे तो देखा जाए तो कोई किसी की रक्षा में समर्थ नहीं है। सब कुछ क्रमनियमित है किन्तु फिर भी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध में हम कहीं ना कहीं किसी की रक्षा का भाव करते है, प्रयास करते है और उसमें सफल भी हो जाते है किन्तु इसमें एक धागा बांधने का क्या चक्कर है ये समझ नहीं आता। 

अकंपनाचार्यादि मुनिराजों ने विष्णुकुमार मुनि को कोई राखी या रक्षासूत्र तो बांधा नहीं था, पर फिर भी उन्हें सूचना मिलते ही वे तुरंत रक्षा के भाव से वहां पहुंचे, इससे सिद्ध होता है कि रक्षासूत्र बांधने से रक्षाबंधन पर्व का कोई मतलब नहीं है।

और अगर फिर भी कुछ लोग कहते है कि मुनि रक्षा के बाद सब लोग एक दूसरे को रक्षासूत्र बांधते है। तो फिर वर्तमान में बहिन ही भाई को रक्षासूत्र क्यों बांधती है, और लोग क्यों नहीं, एक पत्नी भी पति को रक्षासूत्र बांध  सकती है, और अन्य सब भी एक दूसरे को बांध सकते है किन्तु बहन ही भाई को क्यों? इसका उत्तर किसी धर्म ग्रंथ में या इतिहास में प्राप्त नहीं होता।

और फिर आपको क्या लगता है अगर कोई भाई, अपनी बहिन से राखी नहीं बंधवायेंगे तो क्या समय आने पर वह उसकी रक्षा नहीं करेंगे? या फिर क्या ऐसा सदैव सम्भव होगा कि जो भाई राखी बंधवाता है, वो समय आने पर बहिन के साथ ही होगा, वह रक्षा कर ही पाएगा। तो कहते है कि कुछ भी हो सकता है ये तो नियति में निश्चित होगा। 

वास्तव में तो जब कोई अनजान लड़की या कोई अनजान व्यक्ति मुसीबत में हो तो भले लोग उनकी मदद करते ही है, ये नहीं देखते कि इन्होंने राखी तो बांधी ही नहीं,  मैं रक्षा क्यों करूं?, वो तो रक्षा करते ही है। तो समझ नहीं आता ये रक्षाबंधन पर्व क्यों मनाते है और इसका क्या महत्व है?

अब कोई महापुरुष ये भी कहते है  कि भाई, लोग कुछ भी करे परम्परा है, चलने दो ना तुम्हे क्या दिक्कत है, तुम्हें एक धागा बांधने में क्या आपत्ति है?

तो मैं सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि अज्ञान में हम बहुत से पाप करते है, और कुछ ऐसे पाप होते है जिन्हें हम नहीं छोड़ सकते जैसे भोजन पानी, जरूरत की व्यवस्था इत्यादि। किन्तु इसके अलावा धर्म के नाम पर चलने वाली कुप्रथा इसे निभाना हमें आवश्यक नहीं है, धर्म के नाम पर चलने वाली कुप्रथा का त्याग आवश्यक है, वरना राजा वसु जैसी गति हो सकती है।

हम स्वाध्याय करते हैं, जिनवाणी की बातों को मस्तिष्क पर धारण करते हैं। किन्तु सबकुछ जानबूझकर भी धर्म के नाम पर चलने वाली कुप्रथा का समर्थन मात्र करने से राजा वसु सीधा सातवें नरक में गए, तो मुझे ऐसी कुप्रथा के समर्थन से भय लगता है। 

अब कुछ लोग कहते है कि भैया हम कोई मुनि या त्यागी तो है नहीं, हम तो साधारण से गृहस्थ लोग हैं, हमें अगर गृहस्थ जीवन जीना है, परिवार में, समाज में, रहना है तो ये प्रथा भी निभानी पड़ती है।

तो हिन्दुओं के भागवतपुराण पर आधारित राधेकृष्णा सीरियल टेलीविजन पर आता है उसमें कृष्ण उपदेश में एक बहुत ही प्यारी लाइन आई थी कि:- 

" प्रथा मनुष्य के लिए है, मनुष्य प्रथा के लिए नहीं।"

आप प्रथा के नाम पर खुद को बन्धन में मत बांधो कि भैया ये तो परम्परा है निभाना ही पड़ेगा। कुप्रथा का त्याग अत्यंत आवश्यक है। 

और वर्तमान में गृहस्थ जीवन हम इसलिए जी रहे हैं, क्योंकि मुनि बनने का, 22 परिषह सहने का हमारे दुर्बल शरीर में अभी सामर्थ्य नहीं है। इसका अर्थ ये तो नहीं, कि हमें ऐसी कुप्रथा को चलाने का, पाप मार्ग में लगने का, लाइसेंस मिल गया हो, अरे हमें ये सोचना चाहिए कि हम मुनिव्रत नहीं ले सकते तो क्या हुआ हम गृहस्थ जीवन में मुनि जैसा जीवन जीने का प्रयास करेंगे। लेकिन हम लोग तो ये सोचते है कि हम तो गृहस्थ है, हमें तो पाप करना जरूरी है, वरना कैसे गृहस्थ?

अब कोई यह भी कहता है, कि इस बहाने परिवार वाले मिलते है, लोग घर आते है, सब खुश रहते है, इत्यादि-इत्यादि।

हां तो भैया परिवार वालो से मिलना है तो मन्दिर में विधान कराओ, भव्य शिविर लगाओ, विद्वानों को बुलाओ इत्यादि धार्मिक आयोजन करो। 

यदि परिवारजन शादी के निमंत्रण पर आते है, तो आपके द्वारा निर्मल परिणामों से कराए ऐसे धर्म प्रभावना रूप कार्यक्रम के निमंत्रण पर भी अवश्य आयेंगे, आप भावना तो भाकर देखो।

और रही बात खुश रहने की, मिठाइयां बनाना, पकवान बनाना, मस्ती करना खुश रहना ।

तो अमूल्यतत्व विचार नामक एक काव्य में श्रीमद् राजचंद्रजी कहते है।

वह सुख सदा ही त्याज्य रे, पश्चात् जिसके दुःख भरा।

वर्तमान में जिस कुप्रथा के माध्यम से आप आनंद मनाना चाहते है, उसके फल में होने वाले दुःख को भोगने में उतना ही हमें रोना पड़ेगा।

और फिर आप स्वयं विचार कीजिए,  हमारे परिवार में कोई अग्नि से पीड़ित व्यक्ति जिसके देह कि हालत बिगड़ी हुई हो किसी अग्नि दुर्घटना में, किन्तु कोई व्यक्ति उसकी जान बचाने में सफल हो जाता है और उसकी जान बच गई हो तो क्या आप उसकी जान बचने कि खुशी में खीर-पूड़ी बनवाएंगे? या उसका इलाज करवाएंगे? अथवा उसके लिए चिंतित होंगे? अरे एक निवाला मुख में नहीं जाता।

तो विचार करो, एक सप्ताह से मुनि पर होने वाला घोर अग्नि उपसर्ग, उनकी देह की अवस्था, शरीर में धुंआ प्रवेश कर गया होगा, किन्तु उन्होंने आत्मध्यान में लीन रहकर कर्मों से स्वयं की रक्षा की। इतनी मुश्किलों से उपसर्ग तो टल गया पर क्या इतने में ही आपके अंदर का दुःख नष्ट हो गया? क्या आप खीर-पूड़ी और मिठाइयां खा पाएंगे? मुनिराज के देह कि स्थिति देखकर, अरे एक निवाला नहीं खा सकते है।

इसलिए इस दिन हम सबको उन अकंपनाचार्यादि 700 मुनिराजों को आदर्श मानकर उनकी तरह संयम, नियम आदि करके तथा मन्दिर में दिगम्बर मुनिराजों की भक्ति करके ये पावन पर्व मनाना चाहिए।

कुछ लोग ये सुनकर ये भी कह सकते है कि सम्भव जी, आपको लोकव्यवहार की समझ नहीं है।

तो ये तो ऐसा लगता है जैसे मछली से बोला जा रहा है तुम्हे तैरना नहीं आता या तुम्हे जल में रहना नहीं आता।

क्योंकि हम संसार में अनादि से लोकव्यवहार में इतने अभ्यस्त है कि इसे सीखने की कोई आवश्कता नहीं है। लोकव्यवहार का त्याग करना, ये सीखने की आवश्यकता है। ये भव लोकव्यवहार निभाने के लिए नहीं, बल्कि इसका त्याग करने के लिए मिला है। अपने जैनकुल और नरभव की महत्ता को समझना बहुत आवश्यक है।

वास्तव में संसार एक बहुत बड़ा बन्धन है, और बन्धन ही तो दुःख का कारण है, इसलिए अनन्तभवों से हम इस बंधन से मुक्त होने का प्रयास कर रहे है। अनन्त भवों की पुण्य की कमाई है ये जैनधर्म, आज अगर जैनधर्म के सिद्धान्तों का सम्मान हम ना कर पाए और इधर-उधर भटकने लगे तो हमें फिर अनन्तभवों तक जैनकुल मिलने वाला नहीं है।।