Sunday, December 19, 2021

श्री जिनवाणी पूजन (श्रुतपंचमी विशेष)

 

जिनवाणी पूजन

स्थापना

(रोला)

 

             देव धर्म गुरु दुर्लभ है इस काल में,

                            किन्तु शास्त्र सुलभ है पुण्य प्रभाव में।

             जो समझे जिनवाणी मुक्ति पाते है,

                            वीतराग वाणी  के  गुण  हम  गाते  है।।

 

ॐ ह्रीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: अत्र अवतर अवतर संवौषट्।

ॐ ह्रीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ: : स्थापनम्।

ॐ हीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: अत्र मम सन्निहितो भव भव वषट् इति सन्निधिकरणम्।।                                                    

(वीरछंद)

 

जल से निर्मल वाणी है, जिनवाणी जिसको कहते है।

निर्मल जल से पूजन कर, उस वाणी को हम सुनते है।।

मां जिनवाणी के चरणों में, शत्-शत् वंदन करता हूं।

मार्ग बताया है जो आपने, उस पर ही अब चलता हूं।।

 

ॐ हीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: जन्मजरामृत्युविनाशनाय जलं निर्वपामीति...

 

जिनवाणी की शीतलता, संसारताप नशाती है।

भवताप विनाशक जिनवाणी, सच्चा मारग बतलाती है।।

मां जिनवाणी के चरणों में, शत्-शत् वंदन करता हूं।

मार्ग बताया है जो आपने, उस पर ही अब चलता हूं।।

 

ॐ हीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: संसारतापविनाशनाय चंदनं निर्वपामीति...

 

जिनवाणी को पढ़ने से अक्षयपद की महिमा आए।

निज शुद्धातम में रमने से अक्षय पद को हम पाएं।।

मां जिनवाणी के चरणों में, शत्-शत् वंदन करता हूं।

मार्ग बताया है जो आपने, उस पर ही अब चलता हूं।।

 

ॐ ह्रीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: अक्षयपदप्राप्तये अक्षतं निर्वपामीति...

 

काम शत्रु के कारण अब तक, निज की महिमा न आयी।

जिनवाणी को जब से समझा, काम भावना पलायी।।

मां जिनवाणी के चरणों में, शत्-शत् वंदन करता हूं।

मार्ग बताया है जो आपने, उस पर ही अब चलता हूं।।

 

ॐ ह्रीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: काम-बाणविध्वंसनाय पुष्पं निर्वपामीति...

 

भूख लगे फिर बार बार, भोजन से भी न मिटती है।

ये क्षुधामूल का नाश करो अब मां जिनवाणी कहती है।।

मां जिनवाणी के चरणों में, शत्-शत् वंदन करता हूं।

मार्ग बताया है जो आपने, उस पर ही अब चलता हूं।।

 

ॐ हीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: क्षुधारोगविनाशनाय नैवेद्यम् निर्वपामीति...

 

स्व-पर भेद न समझा में, सब मेरे है ये माना था।

मां जिनवाणी ने फिर मुझ को, भेद विज्ञान सिखाया था।।

मां जिनवाणी के चरणों में, शत्-शत् वंदन करता हूं।

मार्ग बताया है जो आपने, उस पर ही अब चलता हूं।।

 

ॐ हीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: मोहांधकारविनाशनाय दीपं निर्वपामीति...

 

अष्टकर्म ने बांधा मुझको, कैसे में पुरुषार्थ करूं।

हूं स्वतंत्र में ज्ञानमयी, जिनवाणी की यह बात लखुं।।

मां जिनवाणी के चरणों में, शत्-शत् वंदन करता हूं।

मार्ग बताया है जो आपने, उस पर ही अब चलता हूं।।

 

ॐ हीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: अष्टकर्मदहनाय धूपं निर्वपामीति...

 

जिनवाणी को खोलू जब भी, मोक्षमार्ग ही खुलता है।

निज वैभव का स्वाद चखे, तब ही मुक्ति पद मिलता है।।

मां जिनवाणी के चरणों में, शत्-शत् वंदन करता हूं।

मार्ग बताया है जो आपने, उस पर ही अब चलता हूं।।

 

ॐ हीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: मोक्षफलप्राप्तये फलं निर्वपामीति...

 

धूलादी कण नहीं पड़े, जिनवाणी जल्दी ध्वस्त न हो।

ये मंगल वस्त्र चढ़ाता हूं, जिनवाणी रक्षित रहो।

मां जिनवाणी के चरणों में, शत्-शत्  वंदन करता हूं।

मार्ग बताया है जो आपने, उस पर ही अब चलता हूं।।

 

ॐ हीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: वस्त्रं निर्वपामीति...

 

पंचमकाल महादु:ख दायी, देव-शास्त्र-गुरु दुर्लभ है।

शास्त्र पढ़े तो पद अनर्घ्य भी, सबको सहज सुलभ है।।

मां जिनवाणी के चरणों में, शत्-शत् वंदन करता हूं।

मार्ग बताया है जो आपने, उस पर ही अब चलता हूं।।

 

ॐ हीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः नम: अनर्घ्यपदप्राप्तये अर्घ्यम् निर्वपामीति...

जयमाला

 (दोहा)

तीर्थंकर की दिव्यध्वनि, द्वादशांग का ज्ञान।

स्याद्वादमय जिनवाणी,  मेरा शतत् प्रणाम।।

(वीरछंद)

तीर्थंकर की दिव्यध्वनि है द्वादशांगमयी जिनवाणी।

सच्चे सुख का मार्ग बताती, सब जीवों को सुखदानी।।

जैसे इक बालक को उसकी माता मार्ग दिखाती है।

बस इसीतरह जिनवाणी हमको मोक्षमार्ग बतलाती है।।

नहीं सुनी जिनवाणी मैने, किया वही था, जो मन में।

काल अनन्तो बीत चुके दुःख सहते-सहते भव वन में।

पूजा-भक्ति में भी मेरा, नाच-गान में समय गया।

पूजा का भी अर्थ समझा, समय कीमती नष्ट किया।।।

आएं धार्मिक पर्व तथा अवसर जिनवाणी सुनने का।

नाटक, नाच-गान में उलझे, समय नहीं था सुनने का।।

जो भी सुखी होते भगवन, जिनवाणी सुन होते है।

सुनकर और समझकर, सब ही उसी रूप आचरते है।।

जिनवाणी को समझे वह, भव-भव में दुःख पाता है।

    जिनवाणी की बात जो माने सच्चे सुख को पाता है।।

वीतराग-सर्वज्ञ प्रभु की वाणी, मां जिनवाणी है।

सच्चे सुख का मार्ग बताती, एक मात्र जिनवाणी है।

जो भी रुचि से जिनवाणी को पढ़ता और समझता है।

अल्पकाल में मुक्त होय फिर सच्चे सुख  को भजता है।।

तीन लोक में सर्व पूज्य है मुक्तिदाता जिनवाणी।

      पढ़कर और समझकर रूचि से, सुख पावें जग के प्राणी।।

मां जिनवाणी के चरणों में शत शत वंदन करता हूं।

  मार्ग बताया है जो आपने उस पर ही अब चलता हूं।।

ह्रीं श्री जिनवाणीमातृभ्यः अनर्घ्यपदप्राप्तये जयमालामहार्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा।

(दोहा)

एक मात्र जिनवाणी से, मिलता सुख का मार्ग।

जो समझे, भव दुःख नशे,   पावे पद निर्वाण।।

।।पुष्पाजलिं क्षिपामि।।

          जिनवाणी मां की दुर्लभता (श्रुतपंचमी विशेष)

(दोहा)

बच्चे बूढ़े सब सुनो, जिनवाणी है मां।

बात जो इसकी मान ले, दुःख का फिर क्या काम।।

(वीरछंद)

आज हम इतिहास में जाकर,  देखेंगे ओर समझेंगे।

माँ जिनवाणी बहुत रोयी है, उसके आंसू पोंछेगे।।

तीर्थंकर और आचार्यो के,  श्रीमुख से श्रुत निकला था।

किन्तु कम होते-होते बस, अंत मे थोड़ा बचा था।।

भद्रबाहु की परिपाटी में, हुए धरसेन आचार्य।

पुष्पदंत और भूतबलि से ग्रंथ उन्होंने लिखवाये।।

पुष्पदंत की आयु थी कम, भूतबलि ने पूरा ग्रंथ लिखा।

णमोकार की रचना कर, पुष्पदंत मुनि कल्याण किया।।

ग्रंथ बना वो षट्खंडागम, श्रुतपंचमी पर्व हुआ।

जय पुष्पदंत ओर भूतबलि जंगल मे भी उत्सव हुआ।।

कुन्दकुन्द आचार्य हुए, जो अध्यात्म के ग्रंथ लिखे।

जंगल मे आचार्यो ने, कैसे-कैसे कार्य किये।।

सोचो जरा विचार करो, अब मुनिराजों के बारे में।

कैसे ग्रंथ लिखे होंगे, तब वन में इतनी मुश्किल में।।

स्याही नहीं था, पेन नहीं था, कागज कॉपी कुछ नहीं था।

ताड़ पत्र पर कांटों से ही, मेरे लिए ये ग्रंथ लिखा।।

पीठ अकड़ जाती थी, दोनो आंखों में होता था दर्द।

लेकिन ग्रंथ लिखा जिससे कि जीवित रहेगा ये जिनधर्म।।

अमृतचंद्रादि आचार्य हुए, ग्रंथ लिखे टिकायें लिखी।

ताड़पत्र पर कैसे, कितनी मुश्किल से जिनवाणी लिखी।।

पूज्यपाद आचार्य ने जब ग्रंथ लिखा इक घटना घटी।

इतना सारा लिखने से उनके आंखों की ज्योति गयी।।

किन्तु देखो अतिशय पुण्य, लिखा उन्होंने इक अष्टक।

आंखों की ज्योति चमकी, जयकार हुआ चारों ही तरफ।।

देखो जरा विचार करो, आचार्यों ने भी कष्ट सहे।

फिर भी देखो समझ न आये जिनवाणी का दर्द हमे।।

अब भी दिल नही पिघला है, तो और सुनो ये कहानी।

कुछ ऐसे भी परिवार हुए, जो मेरे लिए हुए बलिदानी।।

औरंगज़ेब और मुग़ल हुए, तब मंदिर अपने तोड़े गए।

लोगो को भी मारा-पीटा, शास्त्र हमारे जलाये गए।।

खोज-खोज कर घर-घर से, जिनवाणी को मंगवाया था।

पापोदय था काल बुरा था, जिनवाणी को जलाया था।।

जिनवाणी की रक्षा के, जैनो के मन में भाव हुए।

घर में ख़ुफ़िया अलमारी में, शास्त्र उन्होंनें छिपा दिए।।

राजा को जब पता चला तो, परिवारों को बुलाया गया।

दी प्रताड़ना बुरी तरह, और हंटर से भी मारा गया।।

अपनों की आँखों के सामने, जला दिया परिवारों को।

जिनवाणी की रक्षा की, नमन है उन बलिदानो को।।

आगें सुनो फिर करुण कहानी, कैसे जिनवाणी आयी।

षट्खण्डागम ग्रन्थ था दुर्लभ, फिर कैसी युक्ति लगायी।।

कर्नाटक में श्रवणबेलगोला व मूड़बद्री इक क्षेत्र।

जिनवाणी थी वहां सुरक्षित, भट्टारकों का था वो क्षेत्र।।

दर्शनमात्र ही कर सकते थे, षट्खण्डागम ग्रन्थ के।

पढ़ने वाला कोई नहीं था, ज्ञाता ढूंढे प्राकृत के।।

मुंबई से यात्रा लेकर के, माणिकचंद जी पहुंचे सेठ।

ग्रन्थ हाथ में लिया तो जागी, मन में उनके भावना नेक।।

ताड़पत्र जो हाथ में ले तो, झर-झर झड़ने लगते थे।

लिपि करना है इनको जल्दी, माणिकचंद जी सोचते थे।।

बहुत समय तक खोजे तब, जाकर के इक विद्वान मिले।

हीराचंद सेठजी को तब, ब्रम्हसुरी विद्वान मिले।।

ब्रम्हसुरीजी एक शास्त्री, ग्रन्थ उन्होंने जब खोला।

आँखें नम थीं मन में खुशियां, हर्ष अपार ही छाया था।।

सन् 1884 में, प्रथम बार सुन मंगलाचरण।

सेठ माणिकचंद हीराचंद, के कर्ण हुए थे अतिपावन।।

भट्टारक की शर्त थी मुश्किल, ग्रंथ नही ले जाओगे।

पढ़ना है तो यहीं पढ़ो, पर ग्रंथ यहीं रख जाओगे।।

ब्रह्मसुरि, गणपतिजी शास्त्री, दोनों ने लिपि कार्य किया।

छुपकर के इक प्रति लिखी, और हम पर तो उपकार किया।।

पंद्रहसौ श्लोक प्रमाण की, प्रति लिखी ब्रह्मसुरी ने।

गुजर गए बीमार हुए तो, जिनवाणी थी मुश्किल में।।

बुद्धिमान गणपति शास्त्री, जिनवाणी की महिमा आयी।

पत्नी विदुषी लक्ष्मीबाई, जिनवाणी छुपकर लिखवाई।।

छिप-छिप कर के गुप्त रूप से,  जिनवाणी की प्रति लिखी।

किन्तु आज खुशी का अवसर, जिनवाणी स्वतंत्र हुई।।

गणपति शास्त्री ले के शास्त्र को, पहुचे मुम्बई नगरी में।

माणिकचंद ने नहीं खरीदा, कहा कि लिखा है चोरी से।।

गणपतिजी जिनवाणी लेकर, सब सेठों के पास गए।

किन्तु नही खरीदा किसी ने, जिनवाणी के आंसू बहे।।

आया भाग्य सहारनपुर के, जम्बुप्रसाद सेठजी का।

गणपतिजी के कर से लेकर, दर्श किया षट्खन्डागम का।।

किन्तु एक समस्या थी, कन्नड़ भाषा मे था वो ग्रंथ।

तभी गणपति जी शास्त्री बोले, चिंता छोड़ो है श्रीमंत।।

सेठ जम्बूप्रसादजी ने, खरीदा षट्खंडागम को।

गणपतिजी अनुवाद करे, और आगे बढ़ाएं आगम को।।

काल निकट आया फिर देखो, गणपति जी भी चले गए।

देवनागरी लिपि में इसके, आगे कौन अनुवाद करे।।

फिर खोजा विद्वान जिसे, संस्कृत कन्नड़ भी आती हो।

देवनागरी लिपि का भी वह, अच्छा भाषा ज्ञानी हो।।

गीताराम शास्त्री एक विद्वान, आए सहारनपुर से।

उन्नीस सौ सोलह से तेईस, अनुवाद किया देवनागरी में।।

गीताराम शास्त्री जी ने, काम किया है बहुत ही नेक।

फिर द्वारा षट्खंडागम की, प्रतियां उनने लिखी अनेक।।

अमरावती, कारंजा, आगरा, सोलापुर, मुम्बई, दिल्ली।

अजमेर, झालरापाटन और इंदौर में वह प्रतियां भेजीं।।

अब तक ग्रंथ छपे नही, और मिले नहीं थे पढ़ने को।

समय व्यर्थ ही निकल रहा, तब जागा भाव कुछ करने को।।

सन 1933  में एक, कार्य हुआ था अतिपावन।

अखिलभारतीय जैन अधि-वेशन हुआ था मनभावन।।

अध्यक्ष सेठ जमुनाप्रसाद, उस अधिवेशन में पता चला।

सेठ लक्ष्मीचंद विदिशा, की योजना का पता चला।।

बहुत रुपये खर्चा करके, वह गजरथ एक चलाएंगे।

तभी सेठ जमुनाप्रसादजी, उनको जा समझायें है।।

जुलूस निकालो खूब बडा तुम, जय-जयकारे खूब करो।

पैसा सारा खर्च हुआ, पर लाभ क्या है विचार करो।।

कहे सेठ जमुनाप्रसाद, हम चाहे ऐसा काम करो।

घर-घर में जिनवाणी पहुचे, पैसे का सत् उपयोग करो।।

हुआ भाव में परिवर्तन, गज नहीं ज्ञान रथ चलना है।

जिनधर्म की रक्षा करने को, अब जिनवाणी ही छपना है।।

लक्ष्मीचंद सेठजी अब, श्रीमंत दानवीर सेठ बने।

नाम से उनके नगरी में, सहित्यखण्ड का ट्रस्ट बने।।

सन 1933  में ग्रंथ छपना, वह प्रारम्भ हुआ।

1958  में फिर, छपकर वह तैयार हुआ।।

कैसी-कैसी मुश्किल आयी, बहुत आयीं थीं विपदाएं।

पूर्व भवों का पुण्य हमारा, शास्त्र यहाँ हम पढ़ पाएं।।

समयसार आदिक आध्यात्मिक, ग्रन्थ आज जो हमें मिले।

उपकार गुरु कानजीस्वामी, जो पुण्य उदय से हमे मिले।।

आज बताता हूँ में आपको, जिनवाणी कैसे उपलब्ध।

दुर्लभ थे जो ग्रन्थ सदा, वो कैसे आज है सहज सुलभ।।

हुए श्रीमद् राजचन्द्र, जो गुरु महात्मागाँधी के।

श्वेताम्बर से हुए दिगम्बर जिनवाणीमां को पढ़ के।।

मन में बहुत सी शंकाएं, लेकर जब ध्यान लगाया था।

हुआ जातिस्मरण ज्ञान, पूर्वभवों का दर्शन पाया था।।

समयसार जब पड़ा उन्होंने, मन ही मन वो हर्षाये।

तभी अगास आश्रम से उन्होंने, एक हज़ार ग्रन्थ छपवाएं।।

दौसों वर्ष तक रखे रहे, पर ग्रन्थ एक भी नहीं बिके।

२८ वर्षों तक देखो, ग्रन्थ ८०० रखे रहे।।

गुजरात राज्य के स्वर्णपुरी में, कानजी स्वामी थे इक संत।

श्वेताम्बर मत में प्रसिद्ध, ज्ञानीध्यानी थे इक महंत।।

दिया किसी ने भेंट उन्हें, वो समयसारजी ग्रंथ महान।

पढ़ा उन्होनें छिप-छिप कर, जीवन में हुई क्रांति महान।।

कहकर अपने भैया से, ग्रन्थ उन्होंने मंगा लिये।

समयसार पढ़कर के निज को, समयसार ही बना लिये।।

श्वेताम्बर मत को तजकर के, धर्म दिगम्बर अपनाया।

सवा-लाख श्वेताम्बर ले संग, धर्म दिगम्बर अपनाया।।

तब से क्रान्ति हुई जगत में, मानो सब कुछ बदल गया।

हर जैनी अब पढ़े शास्त्र, और सच्चे धर्म को समझ गया।।

जगह-जगह तब बने दिगम्बर, जिनमन्दिर स्वाध्याय भवन।

जिनमें गूंजे दिव्यध्वनि, और सबका होता मन पावन।।

गुरु कहान के ही प्रताप से, हरिजन के भी मन बदले।

उमराला में नित्य दिगम्बर, जिनग्रन्थों को वे पढ़ते।।

उपकार गुरु कानजी स्वामी का, शिविर लगाते थे अनेक।

शास्त्रों की चर्चा होती, विद्वान हुए तैयार अनेक।।

आओ हम आभार करे, धनिवाद करें सब गुरुओं का।

और सभी ले द्रढ़ संकल्प, कल्याण करे निज आतम का।।

                                    (दोहा)

        दुर्लभ मां जिनवाणी है, दुर्लभ है निज ज्ञान।

     जो समझे भव दुःख नशे, पावे शिवसुख धाम।।

                   

                          ~ पण्डित सम्भव जैन शास्त्री,  श्योपुर