Sunday, September 19, 2021

क्षमावाणी महापर्व:-


क्षमावाणी का महापर्व ये, कैसे इसे मनाऊं,

सोच रहा हूं कब से मैं ये, कैसे इसे मनाऊं।

मैंने जैसा देखा अब तक, वह मैं तुम्हें सुनाऊं,

क्षमावाणी का मतलब मैंने, जो समझा बतलाऊं।।

देखा सबको दशलक्षण में, पूजन-भक्ति करते,

क्रोध नाश कर, क्षमा भाव रख, प्रवचन में ये सुनते।

इक विद्वान कहे प्रवचन में, क्रोध छोड़कर क्षमा करें,

नौकर से क्या गलती हो गयी, क्रोधी बन खुद क्रोध करे।

स्वाध्यायी तो बहुत ही देखे, पूजन-प्रक्षाल करते है, 

पर क्रोध-मान इतना कि, ठीक से बात तक न करते है।

दो मिनट पहले ही तो, सबको क्षमा बोला था,

सबसे क्षमा मांग-मांग कर अपने मन को धोया था।।

दो मिनट के बाद ही देखो, कैसा प्रसंग आया,

जिससे मांगी थी क्षमा, उस पर ही क्रोध आया।।

सब लोग दिखावा करते है, पर मुझसे नहीं होता है, 

कितनी कोशिश की है मैंने, कषाय भाव न जाता है, 

माता-पिता की बात न मानी, गुरुजनों की नहीं सुनी, 

कैसे मांगू क्षमा में उनसे, ग्लानि मन में भरी हुई, 

हर वर्ष मैं क्षमा मांगता, पर अब भी मैं वैसा ही हूं।

नहीं बड़ो की बात मानता, अपने मन की करता हूं।

सबको क्षमा, सबसे क्षमा, यह कहने से नहीं होता है,

परिणामों को प्रति समय, निर्मल रखना होता है।।

भगवान की तो पूजा-अर्चना, खूब स्वाध्याय करते है,

लेकिन कभी किसी से, ठीक से, बात तक न करते है।

मन्दिर में देखा है, मैने करोड़ों रुपए आते है, 

मन्दिर के पुजारी देखो, सूखी रोटी खाते है।

जैनधर्म तो जीव मात्र पर, करुणा दया सिखाता है,

लेकिन देखो जैनी को भगवान पे पैसा लुटाता है।

स्वार्थ है, या मिथ्या मान्यता, समझ नहीं मुझको आता,

अथवा धन का सदुपयोग हमको को करना नहीं आता।

क्षमावाणी के पर्व को समझो शब्दों में न बयां करो।

स्व-पर के सुख हेतु, अब जो भी हो प्रयत्न करो।

जिस दिन सब जीवो प्रति, समान दृष्टि हो जाएगी।

उस दिन तेरे अंदर क्षमा, शक्ति प्रगट हो जाएगी।

अपने पुत्र के जैसा जब तू, सब पुत्रो को देखेगा, 

हर बच्चा विद्यालय में, उस दिन पढ़ता देखेगा।

थोड़ा कहा बहुत जानना, क्षमाधर्म समझना , 

वाणी से न कहकर कुछ, क्रिया से भी करना।

आज क्षमा बोलकर तू, कल क्रोधित हो जाएगा।

सुन ले भैया जैनधर्म की, जग में हंसी उड़वाएगा।

मनुष्य गति में दो जरूरी, काम है उनको समझो,

ये समझा तो जन्म सफल है, ऐसा निर्णय कर लो।

या तो चलो अध्यात्म मार्ग में राग - द्वेष का काम नहीं,

जो इतना न हो पाए तो, पाप-कषाय छोड़ अभी।

किसी की मदद नहीं कर सकता, तो दिल छोटा न करना,

बस भाषा मीठी करके अपनी, मानवता का परिचय देना।।

अध्यात्म और प्रेम है बस, मानवता के दो लक्षण ।

ये दोनों नहीं दिखते है, पशु समान तेरा जीवन।।

आज अभी निर्णय लेना कि, क्षमा सदा ही हृदय रहे, 

हर पल क्षमाभाव हो मन में, सब प्राणी खुशी-खुशी जिए।।

हर पल क्षमाभाव हो मन में सब प्राणी खुशी-खुशी जिए।।





Saturday, September 18, 2021

उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म:-


ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है आत्मा और चर्य अर्थात् चर्या, अर्थात् लीनता, अर्थात् अपनी ही आत्मा में जम जाना, रम जाना, लीन हो जाना वह वास्तव में निश्चय से उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म है। तथा इस उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म में अर्थात् आत्मलीनता में बाधक जो पंचेंद्रिय के विषय है उनका पूर्णत: त्याग, अर्थात् पंचेंद्रिय के विषयों पर विजय प्राप्त करना वह व्यवहार से उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म है। 

वर्तमान में सामान्य रूप से ब्रह्मचर्य की जब-जब बात चलती है तो बस एक ही बात पर ध्यान जाता है, एक स्पर्शन इन्द्रिय के त्याग को ही वर्तमान में ब्रह्मचर्य समझा जाता है, अथवा स्त्री सेवन त्याग को ही ब्रह्मचर्य मान लिया जाता है। उसमें भी पूर्णरूप से स्त्रीसेवन त्याग को लोग नहीं समझ पाते, बल्कि मात्र एक क्रियाविशेष मैथुन नाम की क्रिया के त्याग को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है।

जबकि ऐसा नहीं है। आचार्यों ने ग्रन्थों में आत्मलीनता में बाधक जो पंचेंद्रिय के विषय है उनका पूर्णत: त्याग, अर्थात् पंचेंद्रिय के विषयों पर विजय प्राप्त करना वह व्यवहार से उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म है, ऐसा कहा है।

कहीं-कहीं ग्रन्थों में स्पर्शन इन्द्रिय के त्याग को ब्रह्मचर्य कहा है, किंतु वहां भी उसका अर्थ पंचेंद्रिय के विषयों पर विजय ही समझना चाहिए जैसे भारत कहने पर मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र सब आ जाते है, उसीप्रकार स्पर्शन अर्थात् पूरा शरीर और उसी में नाक, कान, आंख आदि आ जाते है अर्थात् स्पर्शन इन्द्रिय में ही पांचों इन्द्रिय के विषय गर्भित हो जाते है। अभी तो बहुत से लोग पूर्ण रूप से अकेली स्पर्शन इन्द्रिय के विषय को भी नहीं जान पाते।  

स्पर्शन इन्द्रिय के भी आठ विषय है- हल्का-भारी, रूखा-चिकना, कड़ा-नरम, ठंडागरम। ऐसे ही पंचेन्द्रिय के सम्पूर्ण विषयों का त्याग ब्रह्मचर्यमहाव्रत में होता है। तथा एक देश त्याग ब्रह्मचर्याणुव्रत होता है। 

स्त्रीरागकथाश्रवण:- स्त्रियों की रागवर्द्धक बातों का कहना या सुनना। तन्मनोहराडगनिरिक्षण:- स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखना। पूर्वरतानुस्मरण:- पहले समय की कामलीला का स्मरण करना। वृष्येष्टरस:- गरिष्ट काम-उद्दीपक पदार्थ खाना। स्वशरीरसंस्कारत्याग:- अपने शरीर का श्रृंगार करना, ये पाँच अतिचार ब्रह्मचर्य अणुव्रत के हैं। ब्रह्मचर्य व्रत वाले को इनसे बचना चाहिए।

अर्थात् ब्रह्मचारी जीव के लिए, महिलाओं से बात करना, महिलाओं के विषय में सोचना, उनके फोटो देखना, ये सब वर्जित है। वर्तमान में तो ब्रह्मचर्य व्रत के धारी जीव महिलाओं का और कन्याओं का नृत्य जिनमन्दिर जी में कराते है और स्वयं भी देखते है जिससे उनका ब्रह्मचर्य का नियम खंडित हो जाता है,  वैसे भी स्त्रियों का और कन्याओं का नृत्य जिनमन्दिर जी में कराना धर्मविरुद्ध है, एक दिगम्बर मुनिराज के सामने यदि कोई स्त्री नृत्य करे तो उसे मुनिराज पर उपसर्ग माना जाता है, फिर वीतराग जिनेन्द्र परमात्मा के समक्ष महिलाओं का इस प्रकार का नृत्य तो अत्यन्त अशोभनीय है, पापक्रिया है। आचार्यों ने शास्त्रों में महिलाओं के मन्दिर में करने योग्य कार्यों के विषयों में विशेष लिखा है, कि जिनमन्दिर जी में शालीनता युक्त मर्यादित वस्त्र पहनकर प्रवेश करे,  तथा सिर ढ़़ककर ही भगवान के दर्शन करें। तथा दीवार की साईड खड़े होकर दर्शन करे कोई पुरुष पीछे से भगवान के दर्शन करे तो आपका शरीर उन्हें नहीं दिखना चाहिए और पुरुषों की भांति धोक ना देकर गौआसन में ही भगवान को धोक दे, ताकि आपको देखकर मन्दिरजी में दूसरे किसी दर्शनार्थी के परिणाम खराब ना हो। जब इतना सब लिखा है तो महिलाओं का कमरिया मटका-मटकाकर जिन मन्दिर में नृत्य करना ये तो कदापि उचित नहीं हो सकता है, और ब्रह्मचर्य व्रत के धारी की उपस्थिति में ऐसा कहीं हो तो उन्हें तथा अन्य भी विज्ञ पुरुषों को वहां नहीं रुकना चाहिए।

इसके अलावा ब्रह्मचारी जीव वास्तव में किन्हें कहते है हम इस विषय पर थोड़ा विचार कर लेते है, ब्रह्मचारी जीव वो है जो वास्तव में मुनि बनना चाहते है, जिनकी मुनि बनने की इच्छा होती है, किंतु वर्तमान में इतनी योग्यता, उतने परिणाम ना पक पाने के कारण जो मुनि बनने का अभ्यास करते है तो उनका जीवन उनके आचार-विचार सब मुनिराज की नकल रूप होते है ताकि वे भी पूर्ण रूप से योग्यता पकने पर मुनि दीक्षा ले सके।

अर्थात् एक ब्रह्मचारी जीव अखबार नहीं पड़ सकता, अधिक परिग्रह नहीं सकते, धनवान जीवों की चापलूसी करना, प्रसिद्धि की इच्छा, अच्छा-अच्छा खाने की इच्छा, शरीर का आवश्यकता से अधिक ही ध्यान रखना अधिक समय शरीर की सुरक्षा का ही ध्यान रखना ये सब भी ब्रह्मचर्य के नियम के विरुद्ध है, इस प्रकार से हमें समस्त पंचेंन्द्रिय के विषय लगा लेना चाहिए। अर्थात् जिसके अंतर में पंचेंद्रिय के किसी एक भी विषय के प्रति महिमा का भाव है अथवा लालसा है, इच्छा है तो वह ब्रह्मचर्य का धारक नहीं हो सकता।

समस्त पंचेंन्द्रिय के विषय जो कि आत्मकल्याण में बाधक है उन सबका त्याग करके जो जीव निरंतर आत्म कल्याण के लिए प्रयत्न करता है, आत्मा में जम जाता है, रम जाता है, लीन हो जाता है, वास्तव में तो वहीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म का धारक बनता है।



Friday, September 17, 2021

उत्तम आकिंचन्यधर्म :-


आ अर्थात् नहीं है किंच् अर्थात् किंचित मात्र भी, अन्य अर्थात् कुछ भी अन्य मेरा। अर्थात् मेरे ज्ञानादी अनंत गुणों के अलावा इस संसार में अन्य कुछ भी मेरा नहीं है, ऐसा ज्ञान, ऐसा निर्णय, ऐसा अनुभव इसका नाम वास्तव में उत्तम आकिंचन्य धर्म है। जिसप्रकार क्षमा का विरोधी क्रोध और मार्दव का विरोधी मान है उसीप्रकार आकिंचन्य का विरोधी है परिग्रह अर्थात् परिग्रह के अभाव को उत्तम आकिंचन्य कहते है। आकिंचन्य का दूसरा नाम अपरिग्रह भी हो सकता है।

पदार्थों के प्रति ममत्व का भाव रखना परिग्रह है ! संसारी चीज़ों (ज़मीन,मकान,पैसा,पशु,गाड़ियां, कपड़े इत्यादि) को आवश्यकता से अधिक रखना और इन्हे और ज्यादा बढ़ाने/पाने की इच्छा रखना परिग्रह है ! समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह है !

जिनागम में 24 परिग्रह का वर्णन आता है।

अंतरंग और बहिरंग के भेदों से परिग्रह 24 प्रकार का है :-

(क) अंतरंग परिग्रह :- रागादि रूप अंतरंग परिग्रह 14 प्रकार का होता है !

1- मिथ्यात्व, 4- कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) और, 9- नो-कषाय (हास्य, रति, आरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद)

(ख) बहिरंग परिग्रह :- सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति रखना ... यह 10 प्रकार का होता है !

1:- क्षेत्र (खेत, भूमि),

2:- वास्तु (मकान),

3: -हिरण्य (चांदी,रुपया),

4:- स्वर्ण (सोना),

5:- पशुधन (गाय,भैंस आदि),

6:- धान्य (अन्नादि),

7:- दासी (नौकरानी),

8:- दास (नौकर),

9:- कुप्य (कपडे) और

1०:- भांड (बर्तन)

संसार में अधिकतर जीव वर्तमान में परिग्रह इकट्ठा करने में ही अपना भला समझते है, स्वयं दिन-रात परिग्रह इकठ्ठा करते है और अपने बच्चों को अन्य लोगों को भी वही सिखाते है, इसी कारण से आज संसार में सभी लोग अंधी दौड़ में भागते नजर आते है, जीवनभर संघर्ष करते है किन्तु कभी सुख प्राप्त नहीं कर पाते।

मनुष्य की इच्छाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, दूसरों को देख-देखकर मेरी भी इतनी संपत्ति हो, मेरे पास भी इतने अधिकार हो, ऐसे भाव ये जीव करता है। और उसके लिए रात-दिन सपने देखता है, मेहनत करता है, स्वपनों की पूर्ति के लिए छल-कपट करता है, और जब हारने लगता है तो कुछ अज्ञानी पुरुष, अथवा मोटिवेशनल स्पीकर जैसे लोग आकर उनकी इच्छाओं को, उनकी तृष्णाओं को और बढ़ाते है कहते है कि देखो सपने देखो, जो सपने देखता है उसी के सपने पूरे होते है, आप सब कर सकते है, अपने आप को कमजोर मत समझो, चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बन सकता है, पेट्रोलपंप पर काम करने वाला अरबपति बन सकता है तो आप भी बन सकते है बस सपने देखो और पूरे करने के लिए जो करना पड़े करो, तब ही लोग तुम्हें जानेंगे, मानेंगे मेहनत हमेशा रंग लाती है इत्यादि-इत्यादि और भी पता नहीं क्या-क्या, लोग आजकल बातें करते रहते है,  किन्तु समय से पहले और भाग्य से ज्यादा ना कभी किसी को मिला है ना ही मिलेगा। 

महाभारत में श्री कृष्ण ने दुर्योधन से बहुत अच्छी बात कही थी कि दुर्योधन तुम चाहते हो कि सम्पूर्ण हस्तिनापुर पर तुम्हारा एकछत्र राज हो, उसके लिए मामा शकुनि ने और तुमने बचपन से ही अनेकों प्रयास किए है, उन्हें जिंदा जलाने का तक प्रयास कर किया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ, और आगे भी जितने चाहो प्रयास कर लो तुम्हारी ये इच्छा कभी पूर्ण हो ही नहीं सकती क्योंकि तुम्हारा इतना पुण्य ही नहीं है, पांडवों का पुण्य तुमसे कहीं अधिक ज्यादा है ये सब सामग्री, नाम, मान प्रतिष्ठा, पुण्य से प्राप्त होती है उल्टे-सीधे प्रयासों से या षड्यंत्रों से कभी प्राप्त नहीं होती।

बहुत से लोग ये भी कहते है कि ऐसे बैठे बैठे क्या महल खड़ा हो सकता है क्या बिना कुछ किए बिना मेहनत है तो वो भी ही सकता है राम-लक्ष्मण वनवास के समय उनके लिए बैठे-बैठे उन्हें पहचानकर उनके पुण्य के कारण यक्ष जाति के देवों ने उनके लिए चातुर्मास के समय पर वन में ही सफेद मायावी महल की अदभुत रचना की तथा उसमें जिनमन्दिर भी ताकि अष्टान्हिका पर पर वे पूजा-अर्चना कर सकें। ये सब हुआ मात्र पुण्यउदय से बिना किसी प्रयास के बिना किसी मेहनत के, यदि आपका पुण्य का उदय है तो देव स्वयं आकर द्वारिका की रचना करते है और यदि पाप का उदय है तो स्वर्णों ने भरे भवन भी जल कर राख हो जाते है सम्पूर्ण कुल नष्ट हो जाते है। तो हम किस बात के लिए इतना इकट्ठा करने का सोचते है, इतना परिग्रह जोड़ते रहते है, सदैव अपने आप को सबसे अधिक लोकप्रिय और धनवान बनते देखना चाहते है।

जबकि बहुआरंभ-बहुपरिग्रह को शास्त्रों में नरक गति का कारण बताया है। और जिनके पास परिग्रह अधिक है वे तो नरक जाएंगे ही किन्तु जिनके पास है तो कुछ नहीं परन्तु धनवान बनने की तीव्र इच्छा है, प्रसिद्धि की तीव्र इच्छा है, उन्हें भी धन तो पुण्य के अनुसार ही प्राप्त होगा किन्तु इच्छा अधिक होने के कारण वे भी बहु परिग्रह के भाव के कारण नरक गति का बन्ध करते है।

और भी बहुत तरह के परीग्रही घर घर में पाए जाते है। घर की महिलाएं जो वस्तु घर में कभी काम नहीं आती, खराब हो गई है फिर भी सम्हाल कर रखते है कभी ना कभी काम आयेगा ये सोचकर उसको सम्हाल का रखते है ये व्यर्थ का परिग्रह है, जो कि फ्री में पाप बढ़ाता है, इसीप्रकार जहां अधिक से अधिक 8-10 जोड़ी कपड़े बहुत होते है वहां विद्यालय के 2-3 जोड़ी, ऑफिस के अलग, विवाह आदि के प्रोग्राम के अलग, दिन में पहनने के अलग, रात में पहनने के अलग, घर में पहनने के अलग, बाहर पहनने के अलग, और भी अलग अलग काम के अनुसार अलग अलग वेशभूषा ये सब घर में अलमारियां भर देती है ये भी व्यर्थ का परिग्रह है जिसे हम सब बढ़ावा देते है इसका भी त्याग होना अत्यन्त आवश्यक है। आवश्यकता से अधिक की चाह वर्तमान और भविष्य में सदैव दुःख का कारण है।

ये तो मात्र वर्तमान समय के अनुसार बाह्यपरिग्रह की बात है वास्तव में सबसे अधिक घातक तो अंतरंग परिग्रह होते है। 

वास्तव में तो मिथ्यात्व अर्थात् अज्ञान ही सबसे बड़ा परिग्रह और यही सबसे बड़ा पाप है। इसी के वश होकर जीव समस्त पाप करता है, अज्ञान के कारण यह जीव परपदार्थों को हितकर जानता है और धनवान बनना चाहता है, प्रसिद्धि पाना चाहता है अज्ञानी जीव इन सबको सुख का कारण मानता है किन्तु अंत में उसे इसके विपरीत अनंतदुःख ही प्राप्त होता है।  अज्ञान के कारण जन्में जीव के अंदर कषाय के भाव, अनंत इच्छाएं ये सब जीव के महादुख का कारण बनती है। 

और जो जीव ये जान लेता है कि इस संसार में कुछ भी मेरा नहीं है, में संसार से भिन्न अनंत गुणों का स्वामी चैतन्य मूर्ति हूं, और अंतरंग तथा बहिरंग समस्त परिग्रह से रहित, समस्त विकारी भावों से रहित, में अनादि-अनन्त परमात्म स्वरूप भगवान आत्मा हूं ऐसा विचार कर विकल्परूप परिग्रह से भी हो रहित होता है वास्तव में वही निश्चय से उत्तम आकिंचन्य धर्म का धारी होता है।



Thursday, September 16, 2021

उत्तम त्यागधर्म:-

अधिकतर संसार में ऐसा समझा जाता है कि अपनी किसी वस्तु का त्याग कर देना, त्याग है, या कुछ दान करना वह त्याग कहलाता है। 
किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है, अपनी वस्तु का कभी त्याग होता ही नहीं है और जो अपना नहीं है उसे अपना मानकर जो भूल हम अनादि से करते आ रहे है बस उस मान्यता का त्याग ही वास्तव में उत्तम त्याग कहलाता है।

वास्तव में तो दान का भी सही स्वरूप अभी लोग नहीं समझते है।
करोड़ो की बोली लेना, जहां पैसे की आवश्यकता ही नहीं है वहां भी व्यर्थ में पैसा बर्बाद करना उसे दान समझा जाता है जबकि ऐसा भी नहीं है। दान भी पात्र और सुपात्र को दिया जाता है, अपात्र अथवा कुपात्र को नहीं।

बहुत सी जगह पर मैने देखा है कि जहां वैसे ही सब करोड़पति लोग है पैसे की कोई कमी नहीं है, आवश्यकता ना होने पर भी लाखों का दान देकर स्वयं को धन्य समझता है, और कहीं धन की बहुत आवश्यकता है, छोटा गांव है, समाज की कमी है, धन की कमी है, जिनमन्दिर का जीर्णोद्धार कराना है, वहां ये धनी व्यक्ति दान नहीं करना चाहता।
पैसे वहां देना चाहता है जहां बहुत नाम हो, जहां आवश्यकता है वहां देता नहीं है और जहां आवश्यकता नहीं है किन्तु देने पर नाम बहुत होगा वहां देता है और स्वयं को पुण्यशाली समझता है जबकि ये तो दान नहीं मान है।

कुछ लोग दुकानदार इत्यादि भी ऐसा करते है, यदि किसी बड़े ट्रस्ट में या कोई बड़े पैसे वाला व्यक्ति या अधिकारी समान खरीदे तो उसे हंसते हुए कहते है कि साहब आपसे क्या पैसे लेना, और कोई गरीब जरूरतमंद मांग ले तो उसे बेइज्जत कर भगा देते है।
कुछ सेठिया लोग समाज में यदि 50 लोगों को कहीं यात्रा पर ले जाते है तो 5 महीने पहले से देश भर में 50000 पत्रिकाएं छपवाकर बंटवाते है और 5 दिन की यात्रा पर ले जाते है, किन्तु किसी अन्य समय पर कोई जरूरतमंद यात्रा हेतु या किसी अन्य कार्य हेतु सहायता मांगे तो उसे दुत्कार कर भगा देते है ऐसे भी महादानी पुरुष इस संसार में है।

मेरे विचार से तो दान की भी अलग महिमा है, ये कोई मान बढ़ाने के लिए नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि अपनी वस्तुओं का हमें सदुपयोग करना चाहिए। अपने धन को ऐसे कहीं भी मत दो दान के नाम पर, बल्कि जहां जरूरत है, जितनी जरूरत है अपनी सामर्थ्य अनुसार उतना देना चाहिए।
कहीं यदि ट्रस्ट में स्वाध्याय हाल में पंखे की आवश्यकता है खराब हो गए है तो लाकर दे सकते है। किसी ट्रस्ट के ऑफिस में देखा कि कर्मचारी काम कर रहे है इतनी गर्मी है यहां कूलर नहीं है, ट्रस्ट ने मैनेजर के लिए एक कूलर नहीं लगवाया तो वहां एक कूलर लाकर अपनी और से दान दे दिया, और भी जैसे कहीं विद्यार्थी पढ़ते है तो उनके लिए वहां छात्रावास में किसी वस्तु की आवश्यकता है जैसे वाटरकूलर इत्यादि तो वो दे सकते है, सभी छात्रों के लिए अच्छे फल लाकर दे सकते है। ये सब समझ में आता है। 
आपको पता रहेगा की आपने कहां दिया, कितना दिया और आप अपने दान से संतुष्ट रहेंगे। इस प्रकार से दान दिया जाना चाहिए। 

और विशेष रूप से तो जैनधर्म में चार प्रकार का दान बताया गया है।

1. ज्ञानदान:- आत्महित हेतु किसी भी पात्र जीव को आत्महित का ज्ञान देना, वह वास्तव में ज्ञानदान है।
2. आहारदान:- चतु:संघ अर्थात् मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका तथा किसी ज्ञानी सुपात्र जीव के आहार बेला के समय स्वयं आने पर अपने लिए बनाए शुद्ध प्रासुक भोजन में से यथायोग्य विधि पूर्वक आहार देना वह आहारदान है।
3. औषधदान:- यदि कोई ज्ञानी धर्मात्मा, मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, अस्वस्थ हो, तो योग्य समय पर विधिपूर्वक निर्दोष रूप से अहिंसक तथा प्रासुक औषधि देना, तथा यथायोग्य निर्दोष उपचार कराना वह औषधदान है।
4. अभयदान:- जीवमात्र की रक्षा का ध्यान रखना, किसी जीव की हिंसा ना हो इसका पूरा ध्यान रखना तथा व्रती, साधु-मुनिराजों के ठहरने के लिए वनों में वसतिका इत्यादि का निर्माण कराना जिससे वे अपनी साधना आनन्द के साथ संपन्न कर सकें ये अभयदान कहलाता है।

किन्तु ये दान पुण्य का कार्य है, धर्म नहीं, इसे व्यवहार से त्याग कह अवश्य दिया जाता है किन्तु वास्तव में त्यागधर्म नहीं है।
  
दान और त्याग में बहुत अंतर है- दान के लिए दाता एवं पात्र दोनों का होना आवश्यक है पर त्याग करने के लिए इस बात की चिता नहीं की जाती है कि इसे कौन ग्रहण करेगा। 
दान में सदैव त्याग की भावना छुपी रहती है पर त्याग में सदैव दान का भाव रहना आवश्यक नहीं है। 
दान एवं त्याग में भेद होते हुए भी मोक्षमार्गी जीव के लिए दोनों ही आवश्यक हैं। इन दोनों क्रियाओं का फल परम्परा से मोक्ष रूप ही दिखाई देता है। इसलिए जीव प्राप्ति की अपेक्षा दान एवं त्याग दोनों ही आत्मा के लिए हितकारी हैं क्योंकि इन दोनों से ही मोह समाप्त होता है और जीव निर्मोही बनकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है।
वास्तव में क्या है उत्तम त्यागधर्म:- यदि निश्चयनय से देखा जाए तो त्याग मान्यता में होता है,  मेरा सो जावे नहीं और जो जावे सो मेरा नहीं।
अर्थात् दुनियां में कुछ भी क्यों ना हो जाए कभी शक्कर मिठास का त्याग नहीं कर सकती और खारापन ग्रहण नहीं कर सकती, वैसे ही में अपने ज्ञानादि अनंतगुण जो वास्तव में मेरे है उनका त्याग नहीं कर सकता है और पर वस्तु भोजन कपडे मकान दुकान परिवार यहां तक की शरीर ये कभी मेरा था ही नहीं तो इसका त्याग कैसे होगा।
बस अनादि की भूल के कारण, अज्ञान के कारण मैने इन पर वस्तुओं को अपना मान रखा था, कि ये घर, परिवार, मकान, दुकान, स्त्री, पुत्र, माता, पिता और ये शरीर ये सब मेरा है ऐसा माना था, किन्तु ये तो मिथ्या कल्पना थी, मान्यता में ही बस पर को अपना माना था। वास्तव में तो ये सभी, कभी ना कभी छुट जाते है, इसलिए ये मेरे नहीं है और जो ज्ञानादी अनंतगुण मुझमें है वो मुझे कभी नहीं छोड़ते इसलिए वही मेरे है। इसलिए ये में हूं और ये में नहीं हूं ऐसे भेद विज्ञानपूर्वक मान्यता में पर को पर जानकर त्याग करना वास्तव में तो यही उत्तमत्याग धर्म है।




Wednesday, September 15, 2021

उत्तम तपधर्म:-

 

उत्तम तपधर्म की चर्चा जब भी चलती है तो एक बहुत ही प्यारा सूत्र याद आता है, 

इच्छानिरोधोस्तप:।

अर्थात् इच्छाओं का अभाव ही वास्तव में उत्तम तप कहलाता है।

वर्तमान में व्रत उपवास इत्यादि को समाज में तप समझा ज्यादा जाता है, जो जितने उपवास करता है वो उतना तपस्वी कहलाता है। जबकि लोग तो उपवास का भी सही अर्थ नही समझ पाते।
उपवास अर्थात् अपनी आत्मा के समीप वास करना। 
लोग व्रत उपवास करते है और साथ में घर के व्यापार के अनेक कार्य भी करते है, कषाय भी नहीं छोड़ पाते तो वह उपवास वास्तव में उपवास रहता ही भी वह तो लंघन बन जाता है।
उपवास का अर्थ भोजन का त्याग नहीं अपितु विषय-कषायों का त्याग है।

उत्तम तप को यदि समझना है तो जिनागम में 2 प्रकार से उत्तम तप का वर्णन आता है। 
व्यवहारतप और निश्चय तप।

व्यवहारतप:-
व्यवहारतप 2 प्रकार का है,  बाह्य तप और अंतरंग तप। 

बाह्य तप 6 प्रकार का है :- अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश।

1 - अनशन:- आत्म साधना के लिऐ  विकल्प रहित उपवास को यानि ४ प्रकार के आहार का त्याग करने को अनशन तप कहते है।
2 -  अवमौदर्य:- भूख से कम भोजन करना उनोदर या अवमौदर्य तप कहलाता है।
3 - वृत्तिपरिसंख्यान तप:- आहार के लिऐ जाते समय किसी घर , गली या दिशा या किसी वस्तु का नियम ले लेना  वृत्तिपरिसंख्यान है।
4 - रस परित्याग:- इन्द्रिय विजय प्राप्त करने के लिऐ घी, दूध , दही, मीठा  नमक व तेल ये षटरस  आदि का त्याग करके आहार करना रस परित्याग है।
5 - विविक्त श्य्यासन:- ज्ञान ध्यान की सिद्धि के लिऐ एवं भय जीतने के लिऐ - एकांतस्थान मे उठना बैठना ,  लेटना विविक्तशय्यासन है।
6 - कायक्लेश तप:- शरीर से ममत्व न रखकर सर्दी-गर्मी सहते हुऐ कठिन तपस्या करना कायक्लेश तप कहलाता है।

अंतरंग तप भी 6 प्रकार का है :- प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्यूत्सर्ग, ध्यान।

1 - प्रायश्चित तप:- प्रमाद अथवा  अज्ञान  से लगे  हुऐ दोषो की शुद्धि करना  यानि गलती हो जाने पर, मुलगुणो मे दोष लग जाने पर गलती को स्वीकार करना  प्रायश्चित तप है।
2 - विनय तप:-  पूज्य पुरुषो व धर्मात्मा  का आदर सत्कार करना विनय तप है।
3 - वैय्यावृत तप:- रोगी एवं वृद्ध साधूऔ  व धर्मात्माऔ की सेवा करना  वैय्यावृत तप है। 
4 - स्वाध्याय तप:- राग द्वेष की निवृति के लिऐ  आत्म निरीक्षण करना  व शास्त्रो का अध्य्यन करना  स्वाध्याय तप है। 
5 - व्युत्सर्ग तप:- अंतरंग व बहिरंग परिग्रह  तथा शरीर से ममत्व का त्याग करना व्युतसर्ग तप है। 
6 - ध्यान तप:- चित की चंचलता को रोककर  किसी एक पदार्थ  के चिंतवन मे  स्थिर होना  ध्यान तप कहलाता है।
इस प्रकार से 6 बहिरंग और 6 अंतरंग तप होते है। 

ये सभी 12 व्यवहार तप  दिगम्बर मुनिराजों के सहज रूप से पलते है।

निश्चय तप:- समस्त संसार से पर द्रव्यों से दृष्टि हटाकर निज शुद्धात्मा में जम जाना, रम जाना ही वास्तव में निश्चय से उत्तमतप कहलाता है। अर्थात् निर्विकल्प अवस्था को ही निश्चय से उत्तमतप धर्म कहते है। 
और सविकल्प दशा में व्यवहार से कहे गए 12 व्यवहार तप मुनिराजों के  सहज रूप से पलते है। जो कि निश्चय तप में सहायक सिद्ध होते है।
ये बारह प्रकार से तप करने से विषयों की इच्छा कम होती है और और मुनिराज अधिक समय ज्ञान-ध्यान में रत रह पाते है, और जितने समय तक निर्विकल्प अवस्था में रहे उतने समय निश्चय से उत्तपतपस्वी कहलाते है। और वास्तव में वे ही उत्तम तपधर्म के धारक होते है।


Tuesday, September 14, 2021

उत्तम संयमधर्म :-


उत्तम संयमधर्म को हम 2 प्रकार से समझ सकते है।

व्यवहार संयम और निश्चय संयम

व्यवहार उत्तम संयमधर्म:- 

व्यवहार संयम 2 प्रकार का होता है:- 

1. इन्द्रिय संयम 2. प्राणी संयम

1. इन्द्रिय संयम:- पञ्चेंद्रिय और मन के विषयों की इच्छा का त्याग होना आवश्यक है यदि यह जीव पंचेंद्रियों के विषयों में उलझा रहेगा तो स्वयं के ज्ञान स्वभाव और अतीन्द्रिय आनन्द को कभी जान नहीं पाएगा, इसलिए प्रथम तो पंचेंद्रिय अर्थात् स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण ये पांच इन्द्रिय तथा मन के विषयों की रुचि का त्याग कर अपने आत्मस्वभाव की ओर अग्रसर होना इन्द्रिय संयम है।

2. प्राणी संयम:- प्राणी संयम अर्थात् भूमिकानुसार षट्काय के जीवों की रक्षा का भाव अर्थात् जीवदया का भाव हृदय में होना अत्यंत आवश्यक है। षट्काय के जीव अर्थात् पांच स्थावर तथा एक त्रस जीव। 

पांच स्थावर :- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक ये पांच स्थावर सभी एकेंद्रिय जीव है।

 त्रसजीव :- दो इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय के सभी जीव उन्हें त्रस जीव कहते है।

इन सभी प्रकार के जीवों की रक्षा का भाव होना ये प्राणी संयम है, भुमिकानुसार इन सभी षट्काय के जीवों की हिंसा ना हो इस प्रकार से क्रियाएं जिनके जीवन में होती है वे प्राणीसंयम के धारी कहलाते है।

निश्चय उत्तम संयमधर्म:-  निश्चय से तो वास्तव में अपनी सीमा में रहना उत्तम संयम धर्म है, और सीमा से बाहर रहना ही असंयम है।प्रत्येक आत्मा का घर उसकी सीमा स्वयं वह आत्मा है, मेरा घर, मेरी सीमा स्वयं में ही हूं। किन्तु जब हम अपने घर के बाहर परद्रव्यों में अपनापन करते है,  निज घर को भूलकर परघर में ही अपनापन मानते है तो वास्तव के हम अपनी सीमा में न रहकर सीमा से बाहर चले जाते है और यही असंयम है, यही अधर्म है। और जब श्री गुरु द्वारा समझाने पर, शास्त्र स्वाध्याय पूर्वक, चिन्तन-मनन पूर्वक स्वयं का, निजघर का ख्याल आता है तो यह जीव निजघर में रहने लगता है अर्थात् अपनी सीमा में रहने लगता है तब इस जीव को वास्तव में उत्तम संयमधर्म प्रगट होता है।



Monday, September 13, 2021

उत्तम शौचधर्म:-

शौच अर्थात् शुचिता अर्थात् पवित्रता।

मेरा आत्मतत्व समस्त संसार में सबसे पवित्र पदार्थ है किन्तु अनादिकाल की भूल और अज्ञान के कारण ये जीव स्वयं की अनंतशक्ति, अपने अनन्तगुण, तथा अनंत पवित्रता को भूलकर पर वस्तुओं के पीछे भागता रहता है, चाहे वह परवस्तु कितनी ही अपवित्र क्यों ना हो फिर भी उसके पीछे भागता है और इसके मन का लोभ, इसके मन का लालच इतना बढ़ जाता है कि लालच के कारण परवस्तु की प्राप्ति की इच्छा में ये कोई भी पाप करने से नहीं चूकता, बड़े से बड़ा पाप करने को तैयार रहता है। और फिर उन पापों के फल में अधोगति में जाकर गिरता है।

ये अज्ञानी जीव शरीर को सजाने में इस शरीर की सुरक्षा के लिए, दिन-रात अनंत प्रयास करता है, और ये शरीर जो कि महा अपवित्र पदार्थ है, उसकी इस जीव को महिमा आती है, उस शरीर में ये अपनापन समझता है, इस अपवित्र शरीर के प्रति ये में हूं ऐसी मिथ्याबुद्धि अनादिकाल से इस जीव में पड़ी हुई है और स्वयं जो संसार का सबसे पवित्र, परमपवित्र चेतनतत्व आत्मा है उसकी इसे खबर ही नहीं है।

यदि शौचधर्म इस जीव को अंतर में प्रगट करना है तो पर वस्तुओं का लोभ छोड़ना होगा, लालच का पूर्णत: त्याग करना होगा, और अपनी निज शुद्धात्म तत्व की पवित्रता की पहचान और अनुभव करना होगा।

ये पवित्रता अनादि-अनंत प्रत्येक द्रव्य में विद्यमान है। प्रत्येक द्रव्य वास्तव में पवित्र है, और मेरे लिए तो इस समस्त संसार में मुझसे अधिक पवित्र पदार्थ है ही नहीं ऐसा समझना, ऐसा निर्णय करना और परम पवित्र पदार्थ शुद्धात्मा का ज्ञान, निर्णय, और अनुभव करना वही वास्तव में उत्तम शौचधर्म है।



Sunday, September 12, 2021

उत्तम सत्यधर्म:-

सत् की पहचान ही वास्तव में उत्तम सत्यधर्म होता है।

वर्तमान में बहुत से संसारी जीवों जो लगता है की सच बोलना ही सत्यधर्म है, किन्तु वास्तव में देखा जाए तो सच बोलना ये तो लोकव्यवहार है, नैतिकता है, अच्छी बात है, किन्तु धर्म नहीं है। अच्छी बात है, नैतिकता है इसलिए लोकव्यवहार में उसे धर्म कह दिया जाता है।

किन्तु यहां जो सत्यधर्म का स्वरूप है, वह कुछ अलग ही है, सत्य अर्थात् सत् अर्थात् किसी भी वस्तु की सत्ता की स्वीकृति उसका नाम सत्य धर्म है।

वर्तमान में संसार में बहुत से लोगों को लगता है, आत्मा-परमात्मा इत्यादि कुछ नहीं होता, स्वर्ग-नरक इत्यादि कुछ नहीं होता, कुएं के मेंढ़क की भांति जो कुछ, जितना दिखाई देता है उसी को अज्ञानी जीव संसार समझते है इससे आगे भी कुछ हो सकता है इस पर विचार ही नहीं कर पाते।

और जो ज्ञानी जीव ये समझता है, कि में अनंतज्ञान-अनंतसुख जैसे अनन्त गुणों का पिंड हूं। मेरी सत्ता इस संसार में विद्यमान है, सुख दुःख रूप जीव की अवस्था पुण्य-पाप, गति-कुगती, ये संसार, ये सत् है इस संसार की सारी व्यवस्था स्व-संचालित व्यवस्था है, प्रत्येक द्रव्य यहां स्वतंत्र है, अपनी योग्यता से, अपने अनुसार, अपने समय पर स्वयमेव ही प्रत्येक द्रव्य परिणमित होता है। प्रत्येक जीव को प्रतिसमय शुभ-अशुभ भाव पूर्वक कर्म का बंध होता है, तथा निज आत्म तत्व की पहचान के पश्चात् शुद्धभाव पूर्वक कर्म की निर्जरा होती है और सम्पूर्ण कर्म झरने के बाद जीव कर्म से रहित होता है अर्थात् मुक्त होता है। यही सत्य है जो जीव इन सब बातों का बारम्बार विचार करके, इस अनन्त सत्य का निर्णय करता है, इस सत्य को स्वीकार करता है, इस सत् स्वरूप आत्मा का अनुभव कर लेता है वहीं वास्तव में उत्तम सत्य धर्म का धारी होता है।



Saturday, September 11, 2021

उत्तम आर्जवधर्म :-


आर्जव अर्थात् ऋजुता अर्थात् सरलता, वास्तव में सरल स्वभावी आत्मा की सरलता, उसका स्वभाव, वही वास्तव में उत्तम आर्जवधर्म है।

ये सरलता हम सभी में सदैव से शक्कर में मिठास और निम्बू में खटास की भांति कण-कण में व्याप्त है, प्रत्येक जीव में यह सरलता नामक गुण पूर्णरूप से व्याप्त है। किन्तु अपने अनादि की भूल के कारण, अपनी अज्ञानता के कारण हम अपने सरल स्वभाव को पहचान ही नहीं पाते, समझ ही नहीं पाते, बल्कि इसके विपरीत जो परपदार्थ है, जिनसे मेरा कोई सम्बन्ध नहीं है ऐसे उन परपदार्थों की प्राप्ति की इच्छा के कारण उसे पाने के लिए अनेक तरह के प्रयास करते है, और जो वस्तु पाने की योग्यता ही ना हो, पुण्य भी ना हो, हमारे भाग्य में वो वस्तु ना हो तो भी उसके लिए, उसे पाने के लिए भी अनेक तरह के छल-कपट करते है, मायाचार के परिणाम करते है। 

यही तो नहीं करना है, यही तो गलत है, हम चाहते है कि संसार की हर वस्तु जो मुझे प्रिय है, वो मेरी हो जाए, में हर वस्तु को प्राप्त कर लूं और ऐसे विचार पूर्वक अनेक तरह के षड्यंत्रों को ये जीव करता है और एक वस्तु प्राप्त हो भी जाए तो भी इसकी इच्छा का अंत नहीं होता, वो और पाने की लालसा में और पाप करता जाता है और यदि अनेक प्रयत्न करने पर भी किसी वस्तु कि प्राप्ति ना हो तो भी आकुलता के कारण दुःखी होता है अपने सरल स्वभाव को, अपने सहज स्वभाव को पहचान ही नहीं पाता, और सदैव दुःखी रहता है, इसलिए यदि हमें आर्जवधर्म को समझना है आर्जवधर्म अंतर में प्रगट करना है तो सर्वप्रथम पर वस्तुओं की प्राप्ति की इच्छा छोड़ दो, सहज रूप से जो प्राप्त हो उसमें संतुष्ट रहो, और समय कैसा भी हो, अपनी सरलता को ना भूलो, अपनी सरलता की पहचान करो, उसका निर्णय करो, और अपने सरल स्वभाव का अनुभव करो। और जो व्यक्ति अपने इस अनादि-अनन्त, शाश्वत सरल स्वभाव की पहचान कर लेता है, अनुभव कर लेता है, वही वास्तव में उत्तम आजर्व धर्म का धारी होता है।



Friday, September 10, 2021

उत्तम मार्दवधर्म :-

मार्दव अर्थात् मृदुता, कोमलता, विनम्रता जो कि आत्मा का स्वभाव है। और वही मृदु स्वभाव आत्मा का धर्म है उसे ही मार्दव धर्म कहते है। किन्तु इस संसार में अनादिकाल से ही ये जीव अपने मृदु स्वभाव को भुला हुआ है और कोमलता के विपरीत मान कषाय को ही हितरूप जानकर निरंतर मान बढ़ाने के प्रयत्न करता है। जिसके कारण से इसमें एक अजीब सी अकड़ उत्पन्न हो जाती है, ये सबसे बड़ा दिखना चाहता है, ऊंचा दिखना चाहता है, सबसे आगे और सबसे ऊपर जाने की होड़ इसमें सदैव रहती है, सबको अपने से नीचा देखकर इसे आनन्द होता है, और इसी कारण से इसके अंदर में मृदुलता अर्थात् कोमलता के अभाव रूप और मान कषाय के सद्भाव रूप क्रूरता जन्म लेती है, ये जीव अपनी प्रशंसा दूसरों से सुनना चाहता है, अपनी प्रशंसा सुनने के लिए ये जीव किसी भी हद तक जा सकता है कुछ भी कर सकता है।

जो व्यक्ति संसार में दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनने कि आशा रखता है, इच्छा रखता है वास्तव में कोई भी प्रशंसा, कितनी भी प्रशंसा की जाए वह उसके लिए कभी पर्याप्त होती ही  नहीं है।

बहुत से लोग संसार में ऐसा कहते भी है कि दूसरे लोग प्रशंसा करें तो अच्छा लगता है हम खुद अपनी प्रशंसा करें तो अपने मुंह मियांमिट्ठू बन जाएंगे अहंकारी हो जाएंगे। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। वास्तव में तो लोगों को अहंकार का अथवा मान कषाय का स्वरूप ही ज्ञात नहीं है।

मान कषाय की अथवा अहंकार की उत्पत्ति वास्तव में भय से होती है, भय इस बात की कहीं में दूसरों से पीछे ना रह जाऊं, भय इस बात का कि लोग मेरी और मेरे कार्यों की प्रशंसा नहीं करेंगे तो मेरा क्या होगा, भय इस बात का कि लोग मुझे नहीं जानेंगे तो क्या होगा, और फिर दूसरों की नजरों में ख्याति की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के कार्य करता है और उसके अहंकार की सीमा भी पार होने लगती है।

इसलिए सर्वप्रथम तो दूसरों से प्रशंसा की इच्छा या दूसरों की नजरों में महान बनने की इच्छा का त्याग करना चाहिए जो करना है अपने लिए करो सही गलत के निर्णय पूर्वक करो, दूसरों की नजरों में महान बनने के लिए कार्य करने वाले कभी हित- अहित का विचार नहीं कर पाते बल्कि जो अपनी नज़रों में महान बनना चाहे वो सदैव आत्महित के विचार पूर्वक ही कार्य करता है।

कोई भी दूसरा व्यक्ति 3 कारण से आपकी प्रशंसा करता है:-

पहला कारण तो यह कि उसे आपसे अपना काम निकलवाना हो तो वह आपकी खूब प्रशंसा करेगा हवलदार होते हुए भी आपको इंस्पेक्टर कहेगा आपकी बहादुरी के झूठे कसीदे पढ़कर आपको खजूर के पेड़ पर चढ़ाएगा और अपना काम आपसे निकलवाएंगा।

अथवा संसार में ऐसा माना जाता है कि मानी व्यक्ति किसी की प्रशंसा नहीं करते दूसरों कि प्रशंसा करने वाले लोग खुद भी प्रशंसनीय बन जाते है ऐसा सोचकर सबको लगे कि में दूसरों की प्रशंसा करता हूं ऐसे विचार से सबके सामने मन में कुछ और होते हुए भी वह झूठी प्रशंसा करता है।

तीसरी बात कोई भी दूसरा व्यक्ति आपको उतना अच्छे से जनता ही नहीं जितना अच्छे से आप अपने आप को जानते हो। जरा विचार करो कि कोई व्यक्ति प्रतिदिन कोई अच्छा कार्य करता है मन्दिर जाता है या दान करता है तो सामने वाला व्यक्ति जो उसे देखेगा वो उसकी बहुत प्रशंसा करेगा की देखो ये कितना अच्छा है प्रतिदिन मन्दिर जाता है, दानधर्म करता है ऐसे लड़के आजकल कहां मिलते है। और वास्तविकता कुछ और ही थी उसी समय मन्दिर एक कन्या आती थी जिसपर वो मोहित था उसकी नजर में अच्छा बनने के लिए वह उसी समय पर मन्दिर जाता था और उसी कन्या के सामने अच्छा बनने के लिए वही दान करता था जहां वह कन्या उसे देखे तो दूसरे व्यक्ति को उसके मन का नहीं पता बाद बाहर के कार्यों को देखकर वह प्रशंसा कर रहे है। वास्तविकता उस लड़के को पता है कि वह कोई अच्छा कार्य नहीं कर रहा मात्र दिखावा कर रहा है।

में तो हमेशा एक बात कहता हूं जो शायद इस संसार के विरुद्ध भी है:-  दूसरों की नजरों में महान बनना तो बहुत आसान है महान बनना है तो अपनी नज़रों में बनों।

क्योंकि दूसरे व्यक्ति की नजर में महान बनना तो बहुत आसान है मान लो घर में मेहमान आए तो बच्चें बिल्कुल अच्छे बन जाते है कोई शैतानी नहीं, चुपचाप एक जगह बैठ जाते है, किताब लेकर पढ़ने लगते है तो मेहमान को लगता है कि इनके बच्चे देखो कितने अच्छे है कोई शैतानी नहीं पढ़ाई कर रहे है और एक हमारे बच्चे दिनभर धमाचौकड़ी अब इनको क्या पता बच्चे तो सभी वैसे ही होते है ये बस आपके सामने शांत स्वभाव और पढ़क्कड़ होने का नाटक चल रहा है। ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिल सकते है, कोई भी प्रशंसा पाने के लिए क्रूरता भी करता है, अत्याचार करता है, और बंदूक के दम पर भी लोगों में अपना अच्छाई का प्रचार करवाता है। ये सब तो देखने को मिलता ही है वर्तमान में संसार में।

किन्तु अपनी प्रशंसा हर कोई व्यक्ति नहीं कर सकता जो वास्तव में उस लायक होगा वहीं तो करेगाजो व्यक्ति परीक्षा में टॉप करेगा वहीं तो सबसे कह सकेगा कि मैने टॉप किया हर कोई नहीं कह सकता है यदि उस अपनी नजर में अच्छा बनना है तो वास्तव में  उसे अच्छा बनना पड़ेगा, किसी के सामने भी उसे खुद अपनी प्रशंसा करनी है तो वास्तव में उसे खुद वो कार्य करना होगा वरना अपनी प्रशंसा नहीं कर पाएगा। तो जो ये संसार में कहा जाता है कि अपनी प्रशंसा खुद नहीं करनी चाहिए दूसरा करे तो ही अच्छा लगता है तो ये सोच अज्ञान है, गलत है।

लोगों को लगता है कि अपनी प्रशंसा खुद करना अर्थात् अपने मुख से मियांमिट्ठू बनना बुरी बात है ऐसा तो अहंकारी लोग करते है जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है।

 आप सोचो कोई जैन व्यक्ति रेल में सफर कर रहा है रेल में किसी व्यक्ति से उसकी बातचीत प्रारंभ हुई, और जब दूसरा व्यक्ति भोजन करने बैठा तो उसने जैन व्यक्ति से पूछा कि आप भोजन लेंगे? तो उस जैन ने कहा कि में रात्रि में भोजन नहीं लेता, जब हंसते हुए दूसरे व्यक्ति ने कारण पूछा तो जैन ने बताया कि में जैन हूं हम जितना हो सके हिंसा से बचने का प्रयास करते है, रात्रि में सूर्यास्त के समय से ही अनंत त्रस जीवों की प्रतिसमय उत्पत्ति होती है इसलिए रात्रि भोजन मांसभक्षण के समान है। और कई वैज्ञानिक कारण भी जैन ने उसे बताए और उस व्यक्ति को पसंद आया जो पहले मजाक बना रहा था वह आज हमारे जैन सिध्दांतो की प्रशंसा कर रहा था।

उस जैन को हालांकि धर्म का कोई विशेष ज्ञान भी नहीं था वह तो परिवार में कोई रात्रि भोजन नहीं करता था तो इतना सब तो उसने अपनी दादी मां से सुना था और वही वहां उसे समझाया किंतु अब घर आकर वह अपनी प्रशंसा खुद ही करता है कि मैने उसे ऐसे-ऐसे समझाया पहले उसने मजाक बनाया पर मैने इस तरह से उसे प्रेम से समझाया तो उसने भी हमारे सिद्धांतों की बहुत प्रशंसा की।

अब कोई मूर्ख व्यक्ति वहां होगा तो मूर्खतापूर्ण सूक्ति बोलेगा और कहेगा की अपने मुंह मियांमिट्ठू बन रहा है इसमें कौन सी बड़ी बात है, लोग क्या क्या करते है उन्हें इतना अहंकार नहीं है और तू इतनी सी बात में अपने इतने गुण गा रहा है। अब उस मूर्ख व्यक्ति को कौन समझाए की यह अहंकार नहीं मन की प्रसन्नता है, इतने बड़े-बड़े लौकिक कार्य और ओलंपिक के पुरस्कार जीतकर भी वह प्रसन्नता नहीं पाई जा सकती जो आज इसके मन में है।

क्योंकि आज उसने जैनधर्म की प्रभावना में छोटा सा कार्य किया है, जो कि संसार के हर कार्य से बढ़कर है। और इस बात का उसे अहंकार नहीं,  प्रसन्नता है जो अपने परिवार के साथ बांट रहा है जिसप्रकार एक बालक पढ़ाई में टॉप करने पर अपनी सोसायटी में मिठाई बांटता है और प्रसन्न होकर कहता है कि मैने टॉप किया तो वह अहंकारी नहीं है बस अपनी प्रसन्नता बांट रहा है उसे अपने अच्छे कार्य पर गर्व है तो उसे हम अपने मुंह मियांमिट्ठू या अहंकारी नहीं कह सकते। क्योंकि वह तो अपनी मस्ती में मस्त है उसे आपसे प्रशंसा की इच्छा ही नहीं है वह तो अपने आप में अपने कार्य से स्वयं ही प्रसन्न और संतुष्ट है।

अहंकारी तो वह है तो दूसरों से प्रशंसा पाने की इच्छा रखता है। वह कभी संतुष्ट भी नहीं होता और उसे अच्छे-बुरे कार्य से कोई अंतर भी नहीं पड़ता। दूसरा प्रशंसा करे इसका अर्थ आपकी नजरो में अच्छे कार्यों का महत्व ही नहीं चार लोग आपकी तारीफ करे तो आपके कार्य का महत्व होगा, इसका अर्थ आप अच्छा क्या खुद से नहीं करते उन चार लोगों के लिए करते है??

अर्थात् जहां पर की अपेक्षा होगी वहां निश्चित रूप से मान कषाय होगी और अहंकार सीमा पार करेगा, किन्तु जिसे पर को अपेक्षा ही नहीं होगी, वह संसार के समस्त कार्यों से स्वयं को निर्भार अनुभव करेगा, और प्रत्येक कार्य हित-अहित के विचार पूर्वक करेगा, अपने अच्छे कार्यों से स्वयं ही प्रसन्न और संतुष्ट रहेगा, आत्महित के लिए ही वह कार्य करेगा, अच्छाई और सत्य की खोज में चिंतन और मनन करेगा और तब ही उसे अपनी कोमलता और विनम्रता रूप मार्दवस्वभाव का परिचय होगा, निर्णय होगा तथा अनुभव होगा और अपने इस मृदु स्वभाव का अनुभव होना वही वास्तव में उत्तम मार्दवधर्म है।