Friday, April 29, 2022

वास्तव में विवाह किसप्रकार होना चाहिए एक चिन्तन:-

विवाह क्या है एवं विवाह करना क्यों आवश्यक है?

विवाह एक संस्कृत का शब्द है जो कि 'वि' उपसर्ग 'वह्' धातु और घञ् प्रत्यय से बना है।

विवाह का अर्थ विशेष आनन्द और उत्साह पूर्वक अपनी सहधर्मिणी को अपनाना है।

विवाह को 'शादी' भी कहा जाता है 'शादी' एक फारसी शब्द है, जिसका अर्थ है- हर्ष या आनन्द।

किसी योग्य लड़के-लड़की (वर-वधु) का एक-दूसरे के प्रति जीवन समर्पित करना विवाह है।

नीतिवाक्यामृत में 'आचार्य सोमदेव सूरि' कहते हैं- 

युक्तितो वरणविधानमग्नि देव-द्विज साक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहः। 

अर्थात् अग्नि, देव और द्विज की साक्षीपूर्वक पाणिग्रहण क्रिया का सम्पन्न होना विवाह हैं।

आचार्य अकलंकदेव' ने 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में कहा है- 

सद्वेद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयात् विवहनं, कन्यावरणं विवाह इत्याख्यायते। 

अर्थात् सातावेदनीय और चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से कन्या के वरण करने को विवाह कहते हैं।

विवाह किससे करना अर्थात् विवाह के लिए किसप्रकार से वर और वधु का चयन करना चाहिए इसका वर्णन करते हुए 'शान्तिनाथ चरित' में कहा है-

वित्तं ययोरेव समं जगत्यां, कुलं ययोरेव समं प्रतीतम् ।

मैत्री तयोरेव तयोर्विवाहस्तयोर्विवादश्च निरूपितोऽस्ति ।

अर्थात् संसार में जिनके वैभव एवं कुल में समानता हो, उनके बीच ही विवाह और विवाद करना उचित माना गया है।

कन्या के पिता या उसके अभिभावक को चाहिए कि वह कुलीन, शीलवान, स्वस्थ, वयस्क, विद्वान्, धर्म-सम्पन्न, और भरे-पूरे कुटुम्ब से युक्त वर के साथ अपनी कन्या का विवाह करे।"

विवाह का उद्देश्य :- 

वास्तव में तो मनुष्य जीवन का उद्देश्य मोह का परित्याग करके, दिगम्बर मुनिधर्म अंगीकार कर,  आत्मकल्याण हेतु मोक्षपथ पर चलना है। किन्तु पूर्व कर्मोदय, वर्तमान इच्छाशक्ति तथा शारीरिक कमजोरी के कारण संसार में बहुत से जीव मुनिव्रत धारण नहीं कर पाते तथा शारीरिक सुख और काम की भावनाओं के कारण ऐसे जीव ब्रह्मचर्य व्रत भी धारण नहीं कर पाते। 

इसलिए ऐसे जीवों को उनकी काम इच्छाओं को मर्यादित करने हेतु तथा घर में रहकर धर्माचरण पूर्वक ग्रहस्थ जीवन का पालन करने हेतु 'विवाह संस्कार' की मंगलविधि पूर्वक ग्रहस्थ धर्म में प्रवेश कराया जाता है।

विवाह की सही उम्र क्या है - 

पहले के समय में तो युवा होने के पूर्व अर्थात् बालवस्था में भी विवाह करा दिए जाते थे किन्तु बालविवाह के पश्चात् उसमें अनेक प्रकार की समस्या वर और वधू के जीवन में होती थी, समय के साथ बालविवाह तो बंद हो गया किन्तु पढ़ाई और नौकरी की व्यवस्था के चलते युवावस्था भी पूरी निकल जाती है तब लगभग 27-30 वर्ष की आयु में लोगों के मन में विवाह का विचार आता है तत्पश्चात् उसमें भी वर और वधू के जीवन में अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती है। 

इसके अलावा वर्तमान में जिस उम्र में विवाह किया जाता है उसमें विवाह का जो प्रयोजन होता है, विवाह का जो महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है उसका तो फिर कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। 

11 वर्ष की आयु में बालक को किशोर अर्थात् युवा कहा जाता है और लगभग 11 से 13 वर्ष की आयु में बालक के हार्मोंस में परिवर्तन होना प्रारंभ हो जाता है जिसके कारण से एक लडकी और एक लड़का एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगते है इसके बाद विद्यालयों में साथ में उठना-बैठना, साथ में हंसना-खेलना, वर्तमान में आधुनिकता की चकाचौंध के चलते को सामान्य सोच जनमानस की हो गई है की लड़के और लड़की में कोई अंतर नहीं है दोनों समान है, दोनों ही हर काम में समान है, ऐसे में बच्चे अच्छे कार्यों में तो एक दूसरे की बराबरी नहीं करते किंतु बुरे कार्यों में अवश्य करने लगते है, ऐसे में कॉलेज इत्यादि में बराबर से लडके और लड़की धूम्रपान इत्यादि करते है, नशा करते है, आपस में छुपकर संबंध बनाते है , कुछ लोग सबके सामने खुलकर ये सब करते है तो कुछ लोग छुपकर करते है किन्तु लगभग 95% प्रतिशत वर्तमान के युवा बालक इन चक्करों में फंसे है। 

युवावस्था होने के कारण लड़के और लड़की का एक दूसरे के प्रति आकर्षित होना सामान्य बात है किन्तु पढ़ाई और नौकरी की प्रतियोगिता के संघर्ष में, समय पर विवाह न होने कारण लड़के और लड़कियां ना चाहते हुए भी कामवश बहुत सी भूलें कर बैठते है,सोशियल मीडिया पर एक दूसरे से दोस्ती करते है, तरह-तरह की बातें करते है और संबंध बना बैठते है, जिसे कोई नहीं रोक सकता। इसे कई हद तक रोका जा सकता है समय पर विवाह करके यदि बालक-बालिका का विवाह युवावस्था में ही सही समय पर लगभग 18 से 22 वर्ष की आयु में अर्थात् भारतीय कानून का पालन करते हुए कन्या का विवाह 18 वर्ष की उम्र में तथा पुरुष का विवाह 22 वर्ष की आयु में कर दिया जाए तो विवाह की ये सर्वश्रेष्ठ आयु होगी। 

एक बार विवाह निश्चित हो जाने पर उन्हें सोशियल मिडिया अथवा कॉलेज इत्यादि में फालतू चक्करों में पड़ने की जरूरत ही नहीं होगी उनके पास एक पार्टनर होगा, उन्हें छुपकर किसी से सम्बंध बनाने की भी आवश्यकता नहीं होगी और समय पर विवाह करने से विवाह का जो महत्वपूर्ण उद्देश्य है कि स्वदार संतोष व्रत का पालन हो, शील का पालन हो और धर्मांचरण पूर्वक ग्रहस्थ जीवन का पालन हो वह उद्देश्य भी इससे पूर्ण होगा।

विवाह के लिए अच्छे लड़के अथवा लड़की का चयन किसप्रकार करना चाहिए तथा जैन कुल में जन्म लेने के पश्चात् किसी अन्य कुल में विवाह करने में समस्या?

वर्तमान समय में अधिकतर लोग मात्र पैसे को ही महत्व देते है, चाहे कोई भी हो जब वह वर अथवा वधु का चयन करता है सर्वप्रथम पढ़ाई और पैसे ही देखता है फिर जीवनसाथी का स्वभाव कैसा है, उसकी सोच कैसी है इन बातों पर तो ध्यान ही नहीं देता, पैसे देखकर समझ लेते है की इनके पास तो सब कुछ है कोई कमी नहीं है यही वर्तमान समय की सबसे बड़ी भूल भी है और प्रतिदिन बढ़ते हुए तलाक की वजह भी है।

इसी गलत सोच के कारण वर्तमान में बालक के माता-पिता अपने बच्चों को संस्कार नहीं दे पाते उन्हें आवश्यकता ही महसूस नहीं होती क्योंकि प्रशंसा और समाज में उच्च स्थान अब संस्कारों से नहीं मात्र पैसे से मिलने वाली है इसलिए माता-पिता अपने बच्चों ना लौकिक संस्कार देते है ना ही धार्मिक मात्र किताबों तक उनका जीवन सीमित कर देते है और पढ़ाई और नौकरी में उनका जीवन सिमटकर रह जाता है ऐसे बालक जीवन में सही गलत का निर्णय करने में सक्षम नहीं होते, उनमें आत्मसम्मान भी नहीं होता, थोड़ी सी परेशानी में कोई गलत रास्ता दिखा दे तो आजकल तो ऐसा ही होता है ये सोचकर गलत रास्ते पर चलने लगते है। ऐसे में हमारे पुत्र या पुत्री का जीवन नरक बनना निश्चित हो जाता है।

तो क्या करना चाहिए वर अथवा वधु का चयन करते समय :-

1. सबसे महत्वपूर्ण बात कि जिनसे हम सम्बन्ध जोड़ रहे है वे जैन धर्म के  दृढ़श्रद्धानी हो तथा वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु के परम भक्त हो यदि वे रागी-द्वेषी, देवी-देवताओं के भक्त हुए और गृहीत मिथ्यात्व से ग्रसित हुए तो विवाह का जो उद्देश्य है काम इच्छाओं को मर्यादित करते हुए 'सम्यक् धर्माचरण पूर्वक गृहस्थ धर्म का पालन' वह उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा।

2. सर्वप्रथम तो स्वयं से अधिक कोई और रिश्तेदार समझदार है वो जैसा कहेंगे, हम कर देंगे ये सोच दिमाग से निकाल दो, बेटा या बेटी आपके है तो उनके लिए पूर्ण मनोयोग से, बिना आलस किए, पूर्ण परख के पश्चात् यदि सही-गलत का निर्णय कोई ले सकता है तो वो केवल आप स्वयं है अन्य कोई नहीं, तो सलाह किसी भी लो, किन्तु अन्तिम निर्णय आपको ही लेना है।

3. जब आप किसी परिवार से मिलते है तो उसके धन पर नहीं उसके धर्म पर द्रष्टि रखिए, उनकी जीवन शैली को देखिए, उनके व्यवहार को देखिए।

4. वर-वधु सहित दोनों परिवार आपस में खुलकर एक दूसरे बातें करे, किसको क्या अच्छा लगता है, किसकी क्या क्या रुचियां है, ताकि सभी को एक दूसरे की सोच व व्यवहार को समझने का अवसर प्राप्त हो सके। क्योंकि ये प्रसंग मात्र 2 व्यक्तियों के विवाह का नहीं अपितु 2 परिवारों के सम्बन्ध का भी है।

5. वर और वधु को आपस में खुलकर बात करने का मौका अवश्य दें ताकि वे एक-दूसरे को समझ सकें, उनके विचार आपस में मिलते है या नहीं या वे एक दूसरे के साथ जीवन बिता पाएंगे या नहीं ये निर्णय उन्हें करने दीजिए। अपना निर्णय स्वयं लेने का उन्हें पूर्ण अधिकार है।

6. यदि सब कुछ ठीक लगता है किन्तु फिर भी मन में कुछ शंका है तो छुपकर आप किसी भरोसेमंद व्यक्ति से चयन किए हुए जीवनसाथी की संगति के विषय में पता कर सकते है क्योंकि मनुष्य की संगति ही उसके चरित्र का सम्यक् बखान करती है।

विवाह के कौन से कार्यक्रम आवश्यक है और कौन से कार्यक्रम आवश्यक नहीं ?

वर्तमान समय में विवाह के अवसर पर आधुनिकता और दिखावे के नाम पर अनेक ऐसे अनावश्यक कार्य किए जाते है जिससे मात्र समय और धन व्यर्थ नष्ट होता है जिससे विवाह में कोई लाभ नहीं होता। तथा कुछ कार्यों से तो हमारी संस्कृति भी नष्ट होती है। हमें इन सभी से बचना चाहिए। तथा विवाह के अवसर पर किस प्रकार के आवश्यक कार्य  हम कर सकते है इस विषय पर हमें विचार करना चाहिए।

विवाह में करने योग्य आवश्यक कार्य:-

सर्वप्रथम तो हमें ध्यान रखना चाहिए कि अधिक से अधिक 3 दिन में विवाह  की समस्त रस्में पूर्ण हो जाती है। और हमारे सभी रिश्तेदार तथा परिवारजन इन रस्मों में उपस्थित रहकर विवाह का पूर्ण आनन्द भी लेते है। 

तो सर्वप्रथम तो विवाह के लिए निश्चित किए गए इन दिनों की दिनचर्या कुछ इसप्रकार से होनी चाहिए जिसमें सभी रस्मों का आनन्द पूर्वक लाभ लिया जा सके। 

प्रथम दिन:-

प्रात:- 07:00 बजे से 08:30 बजे तक.............................. प्रक्षाल-पूजन-विधान

प्रात:- 08:30 बजे से 09:30 बजे तक...............................नाश्ता 

प्रात:- 10:00 बजे से 11:00............................................ लग्न


दोपहर :- 11:30 बजे से................................................ भोजन

दोपहर :- 02:00 बजे से................................................ मंगलगीत (परिवार की महिलाओं द्वारा)


सांयकाल:- 05:00 बजे से सूर्यास्त से पूर्व तक............... भोजन

सांयकाल:- 07:00 बजे से 08:00 बजे तक......................जिनमन्दिरजी में जिनेन्द्र भक्ति

सांयकाल:- 08:00 बजे से 09:00 बजे तक......................विवाह के सम्बन्ध में परिवार एवं रिश्तेदार जनों के अनुभवी बुजुर्गों के अनुभव:-


द्वितीय दिन:-

प्रात:- 07:00 बजे से 08:30 बजे तक.............................. प्रक्षाल-पूजन-विधान

प्रात:- 08:30 बजे से 09:30 बजे तक...............................नाश्ता  

प्रात:- 10:00 बजे से 12:00 बजे तक.............................. महिला संगीत (मात्र महिलाओं के लिए)


दोपहर :- 11:30 बजे से................................................ भोजन

दोपहर :- 02:00 बजे से 03:00 बजे तक.........................मंगलगीत (परिवार की महिलाओं द्वारा)

दोपहर :- 03:00 बजे से 4:00 बजे तक.......................... भातई मिलाप


सांयकाल:- 05:00 बजे से सूर्यास्त से पूर्व तक..............     भोजन

सांयकाल:- 07:00 बजे से 08:00 बजे तक........................जिनमन्दिरजी में जिनेन्द्र भक्ति

सांयकाल:- 07:00 बजे से 08:00 बजे तक परिवार के साथ विवाह के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न एवं उत्तर स्वरूप चर्चाएं अथवा परिवार की उपस्थिति में हसीं-ठिठोली रूप खेल।


तृतीय दिन:-

प्रात:- 07:00 बजे से 08:30 बजे तक.............................. प्रक्षाल-पूजन एवं विधान समापन 

प्रात:- 08:30 बजे से 09:30 बजे तक...............................नाश्ता 

प्रात:- 12:00 बजे से..................................................... बारात स्वागत एवं प्रीतिभोज


दोपहर :- 01:00 बजे से 4:00 बजे तक........................... सम्पूर्ण विवाह विधि एवं पाणिग्रहण संस्कार...


सांयकाल:- 05:00 बजे से सूर्यास्त से पूर्व तक.............. .....भोजन


चतुर्थ दिन 

प्रात:काल - विदाई अथवा गृह प्रवेश...


जैन विवाह विधि पुस्तक से संकलित:-


-:विवाह की विधि:-


विवाह विधि में क्रमश: वाग्दान या सगाई, प्रदान या कन्यादान, वरण या वर द्वारा स्वीकरण, ग्रन्थि-बन्धन या गठजोड़ा, पाणिग्रहण या हथलेवा और सप्तपदी या सप्त वचन स्वीकृतिपूर्वक भाँवर होती हैं। 

उक्त क्रियाओं के पश्चात् वर और वधू, पति-पत्नी के रूप में अपने भावी जीवन के आनन्द और शान्ति को सुनिश्चित करने के लिए सात-सात वचन या शर्तें रखते हैं और वे दोनों, उपस्थित समुदाय के समक्ष जीवन भर उनके पालन करने का वचन देते हैं।

श्री सरल जैन विवाह विधि में निम्न दो छन्दों के माध्यम से विवाह-विधि को प्रदर्शित किया गया है:-

वाग्दानं च प्रदानं च, वरण-पाणिपीडनम् । 
सप्तपदीति पंचांगो, विवाहः परिकीर्तितः ॥
तावद्विवाहो नैव, स्याद्यावत्सप्तपदी न चेत् ।
तस्मात्सप्तपदी कार्या, विवाहे मुनिभिः स्मृता ॥ 

अर्थात् जिसमें वाग्दान (सगाई), प्रदान (कन्यादान), वरण (कन्या का स्वीकरण), पाणिपीडन (हथलेवा) और सप्तपदी (सप्त वचनों की स्वीकृतिपूर्वक सात भाँवर) - ये पाँच कार्य हों, वही विवाह है। जब तक सप्तपदी नहीं होती, तब तक विवाह हुआ नहीं कहा जा सकता; अतएव जब तक सप्तपदी न हो, तब तक कन्या को अधिकार है कि वह उचित न जँचने पर अपना विवाह, उस वर के साथ नहीं करावें।


1. वाग्दान, सगाई या टीका

वर और कन्या के शुभ लक्षणों, जातीय साँकें और जन्म पत्रिका के मिलान के अनुसार योग देखकर, उभय पक्षों के वचनबद्ध होने को वाग्दान कहते हैं।

इस क्रिया को विवाह से कुछ दिन पूर्व पंचों तथा इष्टजनों के समक्ष वर और कन्या के कुटुम्बियों को किसी एक स्थान पर एकत्र होकर करना चाहिए।

इसके बाद की वरण, प्रदान आदि विधियाँ विवाह के समय ही होती हैं, परन्तु परम्परानुसार विवाह के पूर्व निम्न विधियाँ सम्पन्न की जाती हैं-

1. विवाह से 5-7 दिन पूर्व कन्या पक्ष के द्वारा लग्न-पत्रिका (लगुन) लेखन-विधि की जाती है।

2. विवाह से 2-3 दिन पूर्व वर पक्ष के द्वारा लग्न-पत्रिका - वाचन विधि की जाती है।

3. विवाह के दिन अथवा दूर अन्य ग्रामादि में वधू का घर होने पर एक दो दिन पूर्व, वर के घर से बारात, वधू के घर के लिए प्रस्थान करती है। (आजकल वधू को लेकर वर के ग्रामादि में ले जाने की भी पद्धति प्रचलित हो गई है। वरपक्ष और वधूपक्ष की अनुकूलता देखकर इसका निर्णय करना योग्य है।) विवाह से पूर्व श्री जिनेन्द्र भगवान के दर्शन-पूजन के बाद बारात-निकासी की जाती है।

4. बारात, वधू के घर पहुँचने के बाद द्वारचार, टीका, अगवानी, आदि विधियाँ की जाती हैं।

5. आजकल बारात पहुँचने के बाद वर-वधू का स्वागत समारोह सम्पन्न किया जाता है, इसमें वर-वधू परस्पर माल्यार्पण समर्पित करते हैं एवं उपस्थित समाज के सभ्य सज्जन, उन्हें शुभकामनाएँ समर्पण करते हैं।

6. तत्पश्चात् भोजन आदि से निवृत्त होकर भाँवर के स्थान पर मण्डप वेदी-निर्माण एवं स्तम्भारोपण-विधि सम्पन्न होती है।

7. पश्चात् मंगल कलश स्थापना करके तिलक और रक्षाबन्धन-विधि करना चाहिए ।

8. इसके बाद वर-वधू के माध्यम से गृहस्थाचार्य यन्त्राभिषेकपूर्वक नवदेवता, सिद्ध भगवान, सिद्धयन्त्र या विनायकयन्त्र की पूजन, महार्घ्य, शान्तिपाठ, विसर्जन आदि विधि सम्पन्न करें / करावें ।

9. पूजन के उपरान्त वर-वधू को मुकुट बन्ध- क्रिया कराना चाहिए।

10. मुकुट बन्ध के उपरान्त वरण-विधि, प्रदान - विधि आदि की क्रियाएँ सम्पन्न करना चाहिए।


2. वरण- विधि

इस वरण-विधि के अन्तर्गत कन्या के परिवारीजन, वर के सम्बन्धियों से अपनी कन्या, वर को प्रदान करने की इच्छा प्रगट करते हैं तथा वर के परिवारीजन भी अपनी स्वीकृति प्रदान करते हैं। साथ ही इस अवसर पर वर एवं कन्या भी स्वीकृति प्रदान करते हैं।

इस समय उपस्थित नर-नारियों को वर 'वृणीध्वम्.. ..वृणीध्वम्.. ..वृणीध्वम्' अर्थात् 'इस कन्या को वरण कीजिए.. वरण कीजिए .. वरण कीजिए' इस तरह तीन बार जोर जोर से कहना चाहिए। 

इसी वरण- विधि के उपलक्ष्य में वर्तमान में स्वागत समारोह आयोजित करके वर-वधू के परस्पर माल्यार्पण का कार्यक्रम करने की परम्परा प्रचलित है।

इस अवसर पर वर-वधू का विस्तृत परिचय भी दोनों पक्षों के उपस्थित समुदाय को बताया जाता है। साथ ही आशीर्वाद समारोह का कार्यक्रम भी सम्पन्न किया जाता है।


3. प्रदान - विधि या कन्यादान - विधि

वरण-विधि के उपरान्त कन्या के पिता या मामा के माध्यम से प्रदान-विधि या कन्यादान-विधि सम्पन्न की जाती है तथा वर के द्वारा स्वीकृति प्रदान की जाती है ।

4. पाणि-पीडन, पाणि-ग्रहण या हथ-लेवा एवं गठजोड़ा 


हारिद्रपंकमवलिप्य सुवासिनीभिः, दत्तं द्वयोर्जनकयोः खलु तौ गृहीत्वा । 

वामं करं निजसुताभवमग्रपाणिं,       लिम्पेद्वरस्य च करद्वययोजनार्थम् ॥


इस श्लोक का पाठ करते हुए जैसा कि इस विधि का नाम है- पाणिग्रहण / हथलेवा, इसमें कन्या के पिता (अथवा मामा) के द्वारा कन्या का हाथ, वर के हाथ में दिया जाता है, उसी समय सौभाग्यवती स्त्रियाँ, वर और वधू के ऊपर मंगलस्वरूप अक्षत-क्षेपण करती हैं तथा गृहस्थाचार्य के द्वारा निम्न मन्त्र पढ़ा जाता है.

ओं नमो भगवते श्रीमते वर्द्धमानाय श्रीबलाऽऽयु-रारोग्य सन्तानाऽभिवर्द्धनं भवतु, कन्यामिमामस्मै कुमाराय ददामि इवीं क्ष्वीं हंसः स्वाहा ।

इस अवसर पर कन्या का पिता (अथवा मामा), तिलकमन्त्र पूर्वक तिलक करके हथलेवा का दस्तूर करके वर का आभार प्रदर्शित करता है। इस प्रसंग की खुशहाली में वर और वधू के परिवारजनों के द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दान देने की परम्परा है क्योंकि जिनवाणी की आज्ञा है कि प्रत्येक गृहस्थ श्रावक को अपने कमाए हुए द्रव्य का दसवाँ हिस्सा धार्मिक कार्यों में अवश्य लगाना चाहिए।

ग्रन्थि-बन्धन - विधि (गठजोड़ा):- पाणिग्रहण-विधि के उपरान्त गृहस्थाचार्य, कन्या की ओढ़नी के एक कोने में किसी सुहागिन स्त्री से एक रुपया या पाँच रुपया का सिक्का लेकर और उसके साथ थोड़े से अक्षत, सुपारी आदि रखकर, उस गाँठ को वर के दुपट्टे से बाँधकर निम्न श्लोक पढ़ते हैं

अस्मिन् जन्मन्येष बन्धो द्वयो वैं, कामे धर्मे वा गृहस्थत्वभाजि ।

योगोजातः पंचदेवाग्निसाक्षी,     जायापत्योरंचलग्रन्थिबन्धात् ॥

अर्थात् इस गठजोड़े के माध्यम से इस भावि दम्पति के सम्पूर्ण जीवन के समस्त लौकिक और धार्मिक कार्यों में आजीवन मजबूत प्रेमगाँठ बँध चुकी है, अब वह कभी खुल नहीं सकती क्योंकि ये देव, अग्नि और पंचों की साक्षीपूर्वक ग्रन्थि बन्धन से प्रतिज्ञाबद्ध हुए हैं - यह प्रेमानुबन्ध, पति-पत्नी के अकाट्य एवं चिरस्थायी प्रेम का द्योतक है।


5. सप्त पदी, सप्त वचन एवं सप्त फेरे

गठजोड़े के बाद गृहस्थाचार्य, वर को पीछे और कन्या को आगे करके सप्त परमस्थान की प्राप्ति के लिए वेदी के चारों तरफ वर और कन्या को प्रदक्षिणा (फेरा) दिलवाते हैं तथा प्रत्येक प्रदक्षिणा (फेरे) के अन्त में जब वर और कन्या वेदी के सन्मुख अपने अपने स्थान पर आ जाते हैं, तब निम्नोक्त एक-एक अर्घ्य चढ़वाते हैं। प्रदक्षिणा करते समय उपस्थित समुदाय को वर-वधू पर पुष्प-वृष्टि करते रहना चाहिए तथा उस समय वादित्र - नाद भी होते रहना चाहिए ।

सात फेरों का उद्देश्य

सज्जाति - गार्हस्थ्य - परिव्रजत्वं, सौरेन्द्र - साम्राज्य - जिनेश्वरत्वम् ।

निर्वाणकं चेति पदानि सप्त,         भक्त्या यजेऽहं जिनपादपद्मम् ॥

अर्थात् सज्जातित्व, सदृगृहस्थत्व, साधुत्व, इन्द्रत्व, चक्रवर्तित्व, जिनेश्वरत्व एवं निर्वाणत्व- इन सात कल्याणस्वरूप पदों की प्राप्ति के लिए मैं जिनेन्द्र भगवान के चरण-कमल की भक्तिसहित अर्चना करता हूँ। गृहस्थाचार्य, इसके प्रतीकस्वरूप क्रमशः सात फेरे कराते हैं।

ये सप्त वचन मां जिनवाणी के समक्ष पंचपरमेष्ठी भगवान की साक्षी पूर्वक लिए जाते है इसलिए कृपया सोच-समझकर, बारम्बार विचार पूर्वक ये वचन लें और सदैव इन वचनों को स्मरण रखें और किसी भी परिस्थिति में  इन वचनों का पालन करें, वचन भंग का बहुत पाप लगता है।

॥ प्रत्येक फेरे के बाद पढ़े जाने योग्य अर्घ्य ॥


1. सज्जाति - परमस्थाने, सज्जातित्वं गुणार्चितम् । 
   पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्ग- मोक्षसुखाकरम् ॥ 
ओं ह्रीं सज्जाति - परमस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 1 ॥

 2. सद्गृहस्थ - परमस्थाने, सद्गृहं जिननायकम्। 
   पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्ग-मोक्षसुखाकरम् ॥
ओं ह्रीं सद्गृहस्थ - परस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 2 ॥

3. परिव्राट् - परमस्थाने, पारिव्राज्यं सुपूजितम्।
   पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्ग-मोक्षसुखाकरम् ॥
ओं ह्रीं पारिव्राज्य- परमस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 3 ॥

4. सुरेन्द्र - परमस्थाने, सुरेन्द्राद्यैक-पूजितम्। 
   पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्गमोक्षसुखाकरम् ॥ 
ओं ह्रीं सुरेन्द्र - परमस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 4 ॥

5. साम्राज्यं परमं भुंक्ते, चतुः कर्मविनाशकम्। 
    पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्गमोक्षसुखाकरम् ॥ 
ओं ' साम्राज्य-परमस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 5 ॥

6. आर्हन्त्यं परमस्थानं, चतुःकर्मविनाशकम्। 
     पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्गमोक्षसुखाकरम् ॥ 
ओं ह्रीं सज्जातिपरस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 6 ॥ 

गृहस्थाचार्य का उपदेश-

इस प्रकार छह भाँवरों (फेरों या प्रदक्षिणाओं) के पश्चात् गृहस्थाचार्य, उन वर और कन्या को अपने अपने स्थान पर खड़ा करके कहते हैं- 'हे होनहार गृहस्थ युगल ! सुनो, तुम्हारा यह दाम्पत्य सम्बन्ध जीवन पर्यन्त के लिए हो रहा है। तुमको दो शरीर होते हुए भी एक होकर एक-दूसरे के सुख और दुःख में समवेदना और सहायता करनी होगी। तुम्हारे द्वारा पवित्र जैन कुल की सन्तान परम्परा के चलने से जैनधर्म की प्रभावना और तुम्हारी आत्मा का हित होना परम आवश्यक है।

यदि तुम्हें आपस में और भी कुछ कहना - सुनना हो तो कह सकते हो। अभी मन न मिलने पर तुम दोनों स्वतन्त्र हो, तुम चाहो तो अपना सम्बन्ध अन्य कन्या या अन्य वर के साथ कर सकते हो क्योंकि हमारे आर्ष ग्रन्थों की आज्ञा है कि 'तावत् विवाहो नैव स्याद्, यावत् सप्तपदी भवेत्'।

इसके बाद सातवाँ फेरा होने के पूर्व वर और वधू, परस्पर एक दूसरे से क्रमशः सात सात वचन माँगते हैं, जो निम्न प्रकार हैं -

वर के सप्त वचन


1. मेरे गुरुजन और कुटुम्बियों की यथायोग्य विनय और सेवा करनी होगी।

2. मेरी आज्ञा को भंग नहीं करना होगा। 

3. कठोर और अप्रिय वचन नहीं कहना होगा।

4. घर पर मेरे हितैषी तथा सत्पात्रों के आने पर उनके आदर-सत्कार और आहार आदि को देते समय कलुषित मन नहीं करना होगा ।

5. मेरी आज्ञा के बिना किसी दूसरे के घर नहीं जाना होगा। 

6. जहाँ बहुत भीड़ हो-ऐसे मेले आदि में तथा जिनका आचरण और धर्म खराब ऐसे मद्य आदि पीनेवाले तथा विधर्मियों के घर कभी नहीं जाना होगा।

7. अपनी कोई भी गुप्त बात मुझसे छिपानी नहीं होगी और मेरी गुप्त बात, किसी दूसरे से नहीं कहनी होगी।

इसके बाद वर, वधू को निम्नप्रकार से प्रतिज्ञाबद्ध होने के लिए आश्वासन लेता है-

वर (वधू से)- यदि तुम्हें मेरी ये सात शर्ते भली प्रकार प्रतिज्ञारूप से स्वीकार हों तो तुम मेरी वामांगिनी (धर्मपत्नी) हो सकती हो । 

इसके बाद वधू, निम्नप्रकार से सशर्त अपनी स्वीकृति प्रदान करती है-

वधू (वर से) - यदि आप मेरे सात वचन स्वीकार करें तो मैं भी आपके सात वचनों को स्वीकार करती हूँ । 
मेरे वचन इस प्रकार हैं -

वधू के सप्त वचन

1. पर - स्त्रियों के साथ क्रीड़ा नहीं करनी होगी। 

2. जुआ नहीं खेलना होगा।

3. अपनी सम्पत्ति पर मुझे समान अधिकार देना होगा। 

4. न्याय और उद्योग से उपार्जित धन से मेरे भोजन, वस्त्र और आभूषण की व्यवस्था करते हुए मेरी रक्षा करनी होगी।

5. तीर्थ-स्थान, जिन-मन्दिर आदि धर्म-स्थानों को जाने में बाधक नहीं होते हुए धार्मिक कार्यों से मुझे वंचित नहीं करना होगा।

6. अनुचित और कठोर दण्ड मुझे नहीं देना होगा। 

7. मुझे जीवन पर्यन्त कभी नहीं त्यागना होगा।

वधू के सप्त वचनों को सुन कर वर, आश्वासन स्वरूप अपनी स्वीकृति इस प्रकार प्रदान करता है -

वर ( वधू से ) - मुझे ये सात वचन स्वीकार हैं; अत: तुम मेरे - बाँये भाग में आ जाओ।

आवश्यक निर्देश- उक्त सप्तपदी के बाद गृहस्थाचार्य कन्या को वर के बाँयें भाग में खड़े होने के लिए कहें। तदनन्तर गृहस्थाचार्य, वर को आगे और कन्या को पीछे करके निम्न लिखित श्लोक एवं मन्त्र पढ़ते हुए सातवाँ फेरा या प्रदक्षिणा करावें -

7. निर्वाणं परमस्थानं, जिनभाषितमुत्तमम्। 
  पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्ग-मोक्षसुखाकरम् ॥ 
    ओं ह्रीं निर्वाणपरमस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 7 ॥

पश्चात् निम्न श्लोक पढ़कर सप्तम फेरे की विधि पूर्ण करें- 

सज्जाति: सद्गृहस्थत्वं, पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता | 
साम्राज्यं परमार्हन्त्यं, निर्वाणं चेति सप्तकम् ॥ 
ओं ह्रीं श्री सप्तपरमस्थानाय पूर्णार्घ्यम्

वरमाला-

उपर्युक्त प्रकार से अर्घ्य चढ़ाने के बाद कन्या, वर को तथा वर, कन्या को 'वरमाला' पहनावें । इस समय वादित्र - नाद, जय-ध्वनि, पुष्प वर्षा और मंगल-गान किया जाए। पश्चात्   गृहस्थाचार्य, उन नव-दम्पति को निम्न प्रकार उपदेश देवें -

" हे दम्पति! अब तुम पति-पत्नि हो गये हो । अब तुम्हारा यावज्जीवन के लिए सम्बन्ध हो गया है; इसलिए तुम धर्म, अर्थ और काम को अविरोधरूप से सेवन करते हुए मोक्षपुरुषार्थ को साधने के लिए प्रयत्नवान् होना क्योंकि केवल धर्म, अर्थ और काम के सेवन से सत्पथ की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार का सुयोग मिलने पर तुम्हें मोक्षमार्ग में अवश्य प्रवृत्त होना चाहिए।

तब वर-वधू, गृहस्थाचार्य के सामने नतमस्तक होकर, उनसे अपने सफल वैवाहिक जीवन के लिए आशीर्वाद लेवें। इसके बाद की क्रियाएँ यथायोग्य विधि के अनुसार करना चाहिए।

अष्ट मंगल द्रव्य एवं सिद्धयन्त्र की स्थापना

१. 1. झारी, 2. पंखा, 3. कला, 4. ध्वजा, 5. चँवर, 6. ठौना, 7. छत्र और 8. दर्पण ये आठ मंगल द्रव्य हैं; इनसे विवाह मण्डप को - अच्छी तरह सजाना चाहिए।

२. यदि ये आठ मंगल द्रव्य साक्षात् न हों तो एक रकाबी में उनका आकार बनाकर, उनकी स्थापना, वेदी के पास अवश्य कर देना चाहिए।

३. वेदी पर जिनवाणी माता की स्थापना करनी चाहिए। 

४. सप्तपदी या भाँवर के पूर्व जिनेन्द्रदेव अथवा नवदेवताओं- पंचपरमेष्ठी, जिन-मन्दिर, जिन-प्रतिमा, जिनधर्म और जिनवाणी की पूजन करना चाहिए।

५. इसके पश्चात् शान्ति मन्त्रों का उच्चारण करते हुए शुद्ध आम्नायानुसार शुद्ध पुष्पों से शान्ति-यज्ञ करना चाहिए ।

*****

महत्वपूर्ण बातें :-

आजकल विवाह के अवसर पर जैन समाज में जाने अनजाने में कुछ बहुत बड़ी-बड़ी भूल होने लगी है जिसके कारण जैन धर्म की अप्रभावना होती है  जैनकुल पर कलंक लगता है यदि आप जैन है, अपने नाम के साथ जैन लगाते है और अपने बालक या बालिका के विवाह में आपके द्वारा किसी तरह पापकार्य ना हो, जैन धर्म की अप्रभावना ना हो, तो इन बातों का विशेष ध्यान रखें।

1. विवाह के लिए हरी घास के गार्डन के बजाय हॉल का ही चयन करें क्योंकि हरी घास के नीचे मिट्टी में अनन्त जीव होते है, जैनशास्त्रों में हरी घास पर पैर रखना गर्भवती स्त्री के पेट पर पैर रखने के समान कहा गया है। इसलिए विवाह जैसे मांगलिक अवसर पर हरी घास वाले गार्डन का प्रयोग करके व्यर्थ महाहिंसा के पाप के भागी न बनें।

2. जैनदर्शन के अनुसार सूर्यास्त के समय से प्रतिसमय अनन्त त्रस (2 इन्द्रिय से 5 इन्द्रिय) जीवों की उत्पत्ति होती है। ऐसे में भोजन करने में मांस भक्षण का दोष लगता है तथा भोजन कराने में मांस खिलाने के बराबर का पाप लगता है।
(अजैन लोग में वर्तमान में अपने विवाह के कार्ड में जैन लोगों की भावनाओं का ध्यान रखते हुए सूर्यास्त के पूर्व भोजन कराते है तो हम यदि रात्रि भोजन देंगे तो इससे जैन धर्म की अप्रभावना के कारण बनेंगे जिससे नरकगति का बंध होगा।) इसलिए सूर्यास्त के पूर्व ही भोजनशाला बंद करवा दें।

3. यदि आप नाम के साथ जैन शब्द का प्रयोग करते है तो भोजनशाला में कंदमूल आदि अभक्ष्य पदार्थों का प्रयोग न करें, जैनशास्त्रों के अनुसार कंदमूल एक सुई बराबर कण में भी अनन्त सूक्ष्म निगोदिया जीव रहते है। 
(अजैन लोग भी वर्तमान में अपने विवाह में जैन लोगों की भावनाओं का ध्यान रखते हुए कंदमूल के बिना शुद्ध भोजन बनाते है ऐसे में यदि जैनसमाज के विवाह में ही कंदमूल इत्यादि बनेंगे तो इससे अन्य समाज में जैन धर्म की अप्रभावना होगी। जिससे नरकगति का बंध होगा।) विवाह जैसे शुभ अवसर पर ऐसे हिंसारूप पाप तथा जैनधर्म की अप्रभावना जैसे महापाप के भागी न बनें।

4. जैसा की अभी हमने जाना की सूर्यास्त के पश्चात् अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है इसलिए विवाह की सम्पूर्ण विधि दिन में ही संपन्न होनी चाहिए। विवाह विधि में जो अष्टद्रव्य से पूजन आदि कार्य होते है वे रात्रि में करना सम्भव ही नहीं है, अत: समस्त कार्य जैन विवाह विधि अनुसार दिन में ही संपन्न करें।

5. जिनमन्दिरजी से प्रतिष्ठित यन्त्रजी लेकर आना विवाह के मण्डप में अशुद्धता की दृष्टि से उचित नहीं है इसलिए ऐसा न करके जिनवाणी विराजमान करना चाहिए तथा विवाह मण्डप में पूजा-विधि के समय सभी लोग अपने जूते-चप्पल इत्यादि हॉल के बाहर रखे तथा कुछ भी खाने-पीने की व्यवस्था उस समय, उस स्थान पर नहीं होना चाहिए।

6. दहेज प्रथा से दूर रहें।

--- चिन्तन एवं संकल

विषय से सम्बंधित किसी भी प्रश्न के लिए सम्पर्क करें :-

~ पं. सम्भव जैन शास्त्री, श्योपुर

 मोबाईल नम्बर - 8302047216

Tuesday, April 12, 2022

स्व-रचित भजन संग्रह:-

 

भजन:- ध्याने लगा हूं...


तर्ज :- जीने लगा हूं...

ध्याने लगा हूं, पहले से ज्यादा,

पहले से ज्यादा, निज को ध्याने लगा....

होऽऽऽ...होऽऽऽ...होऽऽऽ....होऽऽऽ...


कर्म और आत्मा का अनादि से,

एक क्षेत्र अवगाह सम्बन्ध है।

फिर भी यह जीव को छूता नहीं,

जीव सदा उससे भिन्न रहे.......


ध्याने लगा हूं, पहले से ज्यादा.....


रहते है अन्तर में आकर के,

बाहर से दृष्टि हटा के - 3

बढ़ती है शुद्धि, पहले से ज्यादा..

पहले से ज्यादा, निज को ध्याने लगा....

होऽऽऽ...होऽऽऽ...होऽऽऽ....होऽऽऽ...


आत्म ध्यान में लीन रहे हम,

अष्ट कर्म के नाश करन को -3

जलने लगे कर्म, पहले से ज्यादा...

पहले से ज्यादा, निज को ध्याने लगा....

होऽऽऽ...होऽऽऽ...होऽऽऽ....होऽऽऽ...


लीन रहे हम निज आतम में,

मिथ्यातम के नाश करन को -3

मिथ्या नशाया, पहले से ज्यादा...

पहले से ज्यादा, निज को ध्याने लगा....

होऽऽऽ...होऽऽऽ...होऽऽऽ....होऽऽऽ...


पर में तन्मय होने वाला, 

क्यों निज ज्ञान तू खोय -3

बढ़ता है ज्ञान, पहले से ज्यादा...

पहले से ज्यादा, निज को ध्याने लगा....

होऽऽऽ...होऽऽऽ...होऽऽऽ....होऽऽऽ...

***

भजन:- सम्यकत्व बिन सुख..

(तर्ज:- हम तेरे बिन अब)

सम्यक्त्व बिन सुख पा नहीं सकते, सम्यक्त्व बिन क्या आत्म मेरा।

सम्यक्त्व अगर हो जाएगा तो, दुःखो से हो जाएंगे जुदा।

क्योंकि आत्मा सुख सागर है, और दुःख से रहित है...

आत्मा मिथ्या मान्यता के ही कारण दुःखी है....


जीव और कर्म का बंध है कैसा,

एक साथ पर भिन्न रहें।

कर्मो से फिर दृष्टि हटाके,

अपने में ही लीन रहें।

कोई पल भी मेरा ना हो आत्म बिना हर समय ही आत्मा का ध्यान..........

क्योंकि आत्मा सुख सागर है, और दुःख से रहित है,

आत्मा मिथ्या मान्यता के ही कारण दुःखी है....


मिथ्यात्व कारण ही भ्रमा में,

सुख को पाऊं निज को ध्या में,

अब संसार में नहीं भ्रमना...

है सच्चे सुख को ही पाना...

कोई लम्हा मेरा न हो ध्यान बिना हर समय ही आत्मा का ध्यान..........

क्योंकि आत्मा सुख सागर है, और दुःख से रहित है,

आत्मा मिथ्या मान्यता के ही कारण दुःखी है....

***


भजन:- भ्रम रहा हूं मैं...

(तर्ज:- सुन रहा है न तू)

अपने करम की सजा पाएं........

भ्रम रहा हूं में, चारो गतियों में।

दुःख पा रहा हूं में, लख चौरासी में।।


मंजिले... ना मिली , मारग ना मिलने से...

मंजिल थी सच्चा सुख पाना, लेकिन दुःख ही मिले..

पुण्य पाप करते रहे... दानादी करते रहे.....

अपने करम की सजा पाएं....-२

भ्रम रहा हूं में...


पाप तो करते समय, मन भी न घबराया,

दुःखी थे तब हुए, जब पाप उदय आया।

फिर सुख की खोज में.. मन्दिर के फेरे लगे......

हे प्रभु! सुख दे, धन दे दौलत दे,

मेरे परिवार को सुख ही सुख से भर दे..

ऐसी थी मांगे की, मिथ्यात्व में पड़कर,

और इसके फल में दुःख ही दुःख मैने भोगे।।

अपने करम की सजा पाएं....-२

भ्रम रहा हूं में...


मंजिल... को पाना है तो, सच्चा मारग खोजो।

पर से... दृष्टि हटाकर, स्व की ओर मोड़ो..

तुम्हें निज की.. जरूरत है..., निज ही एक मंजिल है...

पर से दृष्टि हटा, निज में दृष्टि लगा,

संसार को छोड़ खुद में ही तू रम जा,

आतम से आतम को, आतम में ही पाजा,

अपनी ही निज शुद्धातम में तू रम जा।

अपने ध्यान का फल पाएं.....-२


जा रहा हूं में... , अपने निज घर में,

सुख पाऊंगा में... अपने निज घर में..

***


ध्यान के विषय पर गुरु शिष्य के संवाद रूप एक भजन :-


(तर्ज:- चाहूं में आना...)

शिष्य :- है गुरु मार्ग बता दो, चाहूं सुख पाना। 

                पापों से मुझको छुड़ा लो, चाहूं सुख पाना।।

        गुरु:-  पापों से बचना तुझको, सुखी है होना तुझको, 

            कर ले तू अपना ही ध्यान.... 


शिष्य:- पापों का डेरा मुझ पर, कर्मों का घेरा मुझ पर, 

कैसे करूं मैं इतना ध्यान हो....

है गुरु मार्ग बता दो...


शिष्य:- अपनी ही भूल के कारण हूं मैं दुखी..हो....

कैसे होऊं मैं प्रभु आपकी तरह सुखी.. 

आपने, तो सारे, कर्मों को दिया भगा 

दु:ख दूर करके ही सुख को प्राप्त किया.. 

मुझको भी सुखी करा दो... चाहूं सुख पाना...

है गुरु मार्ग बता दो...


गुरु:- होना, गर सुखी, तो जान ले खुद को तू..

दुनिया को, जानने, की इच्छा से दु:खी तू.. 

दुनिया तो स्वयं ही आएगी जानने में 

अपने आप को अगर जान लेगा तू 

अनंत सुखी होगा तू... जिन ने कहा 

है गुरु मार्ग बता दो...


शिष्य:- जब भी ध्यान करूं, तब आए दुनिया याद 

कैसे मैं मिलाऊं निज ज्ञान में निज ज्ञान 

कोई, कभी कोई, आवाजे आती है 

भटके या तो ध्यान या नींद आ जाती है.. 

उलझन मेरी सुलझा दो.. चाहूं सुख पाना..

है गुरु मार्ग बता दो...


गुरु:- दुनिया आए याद क्यों की इच्छा है जानने की, 

इच्छा छोड़े गर तू , रुचि लगेगी आत्म की, 

पहले तत्व निर्णय, कर, फिर तू ध्यान कर, 

अपने आपकी तू खुद पहचान कर अनंत सुख है तेरे पास..

 है तुझे पाना, है गुरु मार्ग बता दो...

***


भजन:- अपनी महिमा...

(तर्ज:- तेरी गलियां)

अब  छूटे  कर्म  मेरे,  अब  छूटे  सारे  पाप,…

में कर लूं अपना ध्यान, मुझे मिला आत्म ज्ञान.........


अपनी महिमा -२ अपनी महिमा, मुझको आवे... महिमा अपनी महिमा...-२


में पर से सदा ही भिन्न हूं, और अनन्त गुणों का पिंड हूं।

शक्तियां अनन्त है.. मुझमें, फिर भी में पर में ही लीन हूं।

फैसला.... ज्ञान का.... कर लू.... अब तो निज में ही जाऊं....

अपनी महिमा -२ 


रागादि भी मुझमें नहीं है, पुण्य पाप भी मुझमें नहीं है,

रिश्तों का नही कोई काम है, अपने में ही मेरा धाम है।

अपने....अपने... को... अपने...में... अपने को ही सदा ध्याऊं....

अपनी महिमा -२ 


शस्त्रों से भी में नहीं कटता, अग्नि से भी में नहीं जलता।

पर के संग सदा ही रहता हूं, फिर भी पर से भिन्न में रहता।

काफिला.... वक़्त का... अपने ..... अपने में जाऊं....

अपनी महिमा -२ 


सम्यक्दर्शनादिक गुण है, सम्यक् ज्ञान भी तो मुझमें ही है।

सम्यक चारित्र भी है मुझमें, इस तरह मोक्ष ही मुझमें है।

 अब तो... में... अपने.. में... अपने... को.. अपने को ही सदा ध्याऊं...

अपनी महिमा...-२

***

भजन:- मेरा ज्ञान, मेरा दर्श...


(तर्ज:- मेरा मुल्क, मेरा देश)

मेरा ज्ञान, मेरा दर्श, मेरे गुण अनन्त,

शान्ति के, सुख के, आनन्द के कारण।

इनके बिना तो निस्सार है,

चेतनम्,.... आत्मन्...

आत्मन्...आत्मन्...आत्मन्...-२


ज्ञान से में जानू सारे जग के पदार्थ को,

दर्श गुण से में देखूं सारे संसार को,

सारे गुण ही अपने-अपने कार्य में मगन,,,  कार्य में मगन -२

इनके बिना तो निस्सार है,

चेतनम्,.... आत्मन्...

आत्मन्...आत्मन्...आत्मन्...-२


जैसे एक नमक में कई सारे गुण है,

वैसे एक आत्म में भी कई सारे गुण है,

सारे गुण ही अपने-अपने कार्य में मगन,,,  कार्य में मगन -२

इनके बिना तो निस्सार है,

चेतनम्,.... आत्मन्...

आत्मन्...आत्मन्...आत्मन्...-२


जैसे बिखरे मोती एक दूसरे में न मिलें,

वैसे आत्म गुण भी एक दूसरे में न मिले,

सारे गुण ही अपने-अपने कार्य में मगन,,,  कार्य में मगन -२

इनके बिना तो निस्सार है,

चेतनम्,.... आत्मन्...

आत्मन्...आत्मन्...आत्मन्...-२

***


भजन:- मेरे गुरुवर परम दिगम्बर...

मेरे गुरुवर, परम दिगम्बर, आतम ज्ञानी ध्यानी, 

शान्त है मुद्रा प्यारी।

 

पांच पाप के त्यागी, पंच महाव्रत धारें।

चार कषाय त्यागी, आतम रूप निहारें।

अपने को पर से, भिन्न पर से, निज को भिन्न है जाना...

आतम रूप निहारा...

ऐसे गुरु के चरण कमल में मस्तक हमने झुकाई...

शान्त है मुद्रा प्यारी...

मेरे गुरुवर...


जब से है जग को जाना, दुनिया को पहचाना।

कोई नहीं है मेरा, और न कुछ भी पाना।

सारी दुनियां, छान के देखी, कहीं हित न पाया....

आतम हित ही सुझाया..

छोड़ के घर को, वन में जाकर, जिनदीक्षा है धारी....

शान्त है मुद्रा प्यारी...

मेरे गुरुवर...

***


भजन:- कब तक पूजा-पाठ...

(तर्ज:- कब तक याद करूं)

कब तक पूजा-पाठ करूं में, कब तक पुण्य कमाऊं।

गुरुवर ऐसा मार्ग बताओ, सच्चा सुख को पाऊं।।


जब में छोटा बच्चा था तो, णमोकार को गाया।

बड़ा होकर मन्दिर जी में, प्रक्षा ल पूजन रचाया।

सब कुछ करना इस दुनिया में, पाप कभी न करना।

पुण्य करोगे तुम जितना भी, लाभ मिलेगा उतना।।

पाप भी छोड़े, पुण्य भी किया, फिर भी सुख न पाऊं...-२

गुरुवर ऐसा मार्ग बताओ....


जब भी में सोता-उठता तो, विचार ऐसे आयें, 

कौन हूं में, जाना कहां पर, और कहां से आएं।।

मम्मी ने फिर मुझे बताया, अनादि-अनन्त है हम।

ज्यादा जानना है तुमको तो पढ़ो तुम फिर जिनधर्म।। 

अब मैने सोचा है कि जिनधर्म को पढू पढ़ाऊं-२

गुरुवर ऐसा मार्ग बताओ....


जैनधर्म को पढ़ने को में कोटा नगर में आया।

यहां आकर मैने शास्त्र के असीम ज्ञान को पाया।।

कैसे बनती है आतम - परमातम मैने जाना।

सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चारित्र के, सच्चे मार्ग को पाना।।

अब तो वन में मुनि दीक्षा ले, ऐसा ध्यान लगाऊं...

कि अंतर्मुर्हुत ही में सच्चे सुख को पाऊं...२


कब तक पूजा पाठ करूं में, कब तक पुण्य कमाऊं।

गुरुवर ऐसा मार्ग बताएं, सच्चा सुख को पाऊं.....

***

भजन:- ध्यान लगा ले रे...

(तर्ज:- अंग लगा दे रे)

ध्यान लगा ले रे, निज ध्यान लगा ले रे.....

परद्रव्यों से भिन्न निजातम ध्यान लगा ले रे... 

ज्ञान रतन तन रहित निजातम ध्यान लगा रे...

परद्रव्यों से भिन्न निजातम ध्यान लगा ले रे...


क्रोध भी तू नहीं, मान भी तू नहीं,

माया तुझमें नहीं, लोभ भी तू नहीं।

इन कषायों से भिन्न निज रूप जान ले रे...

लगा ले रे...

ज्ञाता दृष्टा है तू, और अकर्ता है तू,

गुण अनन्त है तुझमें, सुख स्वरूप है तू,

तू एक शुद्ध अकर्ता निज रूप जान ले रे...

लगा ले रे...

***

भजन:- हे गुरुवर धन्य हो तुम...

हे गुरवर धन्य हो तुम, कितना परिषह सहते हो?

सर्दी-गमी या बरसात तुम अपने में रहते हो 

समता रस को पीते हो, जग से न्यारे रहते हो....

 हे गुरवर...

महाऋषि आचार्य अकंप ने ऐसा संघ रचाया। 

घोर हुआ उपसर्ग था उन पर, फिर भी धर्म निभाया।

 प्रभु के जैसे हम सब बने, सब जीवों से कहते हो..

 हे प्रभुवर...

 उज्जैनी के राजा श्री वर्मा थे उनके मंत्री चार।

धर्म विरोधी बालि नमुचि, और बृहस्पति प्रहलाद।

मुनि निन्दा सुनकर भी उनको जैनधर्म सिखलाते हो...

हे प्रभुवर

वाद-विवाद हुआ मुनिवर से, श्रुत सागर से वे हारे।

अपमानित हो सोच रहे थे कैसे उनको मार डालें। 

उपसर्ग जान निज पर श्रुत सागर, निज स्वरूप में रहते हो..

 हे प्रभुवर...

दूर किया उपसर्ग देव ने, कीलित हो गए मंत्री चार। 

राजा को जब पता चला तो अपमानित कर दिया निकाल।

अकंपनादि सात सौ मुनिवर, आत्म ध्यान रत रहते हैं...

 हे प्रभुवर...

मंत्री पहुँचे हस्तिनापुर, राजा था खुश उनके साथ। 

मुँह माँगा वरदान माँगलो, बलि बोले लूँगा पश्चात्। 

अकंपनादि मुनि हस्तिनापुर आ वीतराग समझाते हो.. 

हे प्रभुवर....

बलि आदि को पता चला तो राजा से मांगा वरदान। 

आठ दिनों का पाके राज, उपसर्ग किया मुनि पे महान।

आग लगी है चारों ओर, पर तुम अपने में रहते हो...

हे प्रभुवर...

एक क्षुल्लक जी जान के सब कुछ विष्णुमुनि के पास गए।

पास आपके ऋद्धि विक्रिया , मुनि उपसर्ग को दूर करें। 

साधर्मी पर संकट जान, उपसर्ग दूर कर देते हो...

हे प्रभुवर...

रक्षा हुई मुनि संघ की, रक्षाबंधन पर्व चला।  

कर्मों से सब जीव की रक्षा रक्षाबंधन उसे कहा। 

पाप -पुण्यादि कर्मों से, रक्षा निज की करते हो... 

हे प्रभुवर...

***


भजन:- वीतरागी प्रभो! हे!... तुमको नमन...

वीतरागी प्रभो! हे... तुमको नमन, तेरे जैसा बनूं मैं मेरा है ये मन।

वीतरागी प्रभो!......

तेरे जैसे ही मोह को त्यागूंगा मैं।

तेरे जैसे ही घर को भी त्यागुंगा मैं।

तेरे जैसे ही वनों में जाऊंगा मैं..

तेरे जैसे ही ध्यान लगाऊंगा मैं.....

वीतरागी प्रभो! हे... तुमको नमन, तेरे जैसा बनूं मैं मेरा है ये मन।

तेरे जैसे ही व्रतों को धरूंगा मैं...

तेरे जैसे ही परिषह भी सह लूंगा मैं..

तेरे जैसे ही स्वातम में मस्त रहूं...

तेरे जैसे ही स्वातम को पाऊंगा मैं..

वीतरागी प्रभो! हे... तुमको नमन, तेरे जैसा बनूं मैं मेरा है ये मन।

तेरे जैसे ही क्रोधादि त्यागुंगा मैं..

तेरे जैसे ही रागादि त्यागुंगा मैं...

तेरे जैसे ही कर्मों को नाशूंगा मैं...

तेरे जैसे ही सिद्ध पद पाऊंगा मैं....

वीतरागी प्रभो! हे... तुमको नमन, तेरे जैसा बनूं मैं मेरा है ये मन।

***

(तर्ज:- अगर तुम मिल जाओ)

भजन :- प्रभु के गुण गाओ.....

प्रभु के गुण गाओ, गुरु भक्ति में झूमे हम - 2

जिनवाणी को पढ़ने से छूट जाते हैं सारे भ्रम...प्रभु के गुण गाओ,...


प्रभु की वीतराग मुद्रा लख निज का ध्यान आता है। 

गुरू की सेवा करने से, अतिशय पुण्य होता है। 

शास्त्र को पढ़ने समझने से,.... 

खुद को ही पा जाए हम...

प्रभु के गुण गाओ,...


प्रभु की भक्ति पूजा को, निष्फल कौन मानेंगा।

गुरु के दर्शन वंदन की, महिमा कौन जानेगा। 

शास्त्र के प्रति समर्पण कर...

निज में ही अब जाए थम.... 

प्रभु के गुण गाओ.....

***

(तर्ज:- हमें और जीने की)

भजन:- हमें गुरू कहान का


हमें हम गुरू कहान का समागम न मिलता, 

यह जिनवाणी का ज्ञान न मिलाता...


दया-दान-भक्ति करके, भव-भव ही बीते।  

प्रक्षाल - पूजन.. रोज ही करते। 

मगर सच्चे धर्म का मर्म न मिलता....   

हमें गुरू कहान का...


गुरु ने बताया हम सब ही भगवन... 

पर में एकत्व संसार का कारण... 

सच्चा सुख है मुझमें... कैसे पता चलता... 

हमें गुरू कहान का...

***

भजन:- सुनो संसार के प्राणी...

तर्ज:- सजन रे झूठ मत बोलो....


सुनो संसार के प्राणी

जिन्हें सुखधाम जाना है

सभी दु:खो का करके अन्त

जिन्हें सच्चा सुख पाना है

सुनो संसार के प्राणी

जिन्हें सुखधाम जाना है

सभी दु:खो का करके अन्त

जिन्हें सच्चा सुख पाना है

सुनो संसार के प्राणी....



वीतरागी ही सुखी है

हमें उन जैसा बनना है

वीतरागी ही सुखी है

हमें उन जैसा बनना है

सुनो जिनवाणी जो कहती

सुनो जिनवाणी जो कहती

उसी मारग पर चलना है

सुनो संसार के प्राणी 

जिन्हें सुखधाम जाना है


देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा

सात तत्वों का हो श्रद्धान

देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा

सात तत्वों का हो श्रद्धान

स्व-पर का हो भेदविज्ञान

स्व-पर का हो भेदविज्ञान

निज शुद्धात्म ध्याना है

सुनो संसार के प्राणी 

जिन्हें सुखधाम जाना है


प्रथम तो तत्व का चिन्तन

और जब हो सम्यक् निर्णय

प्रथम तो तत्व का चिन्तन

और जब हो सम्यक् निर्णय

सभी विकल्प त्याग हो तभी

सभी विकल्प त्याग हो तभी

स्वयं का अनुभव होना है

सुनो संसार के प्राणी 

जिन्हें सुखधाम जाना है


हुए जो आज तक सुखी

सभी इस ही विधि से होते

हुए जो आज तक सुखी

सभी इस ही विधि से होते

हमें इस मार्ग पर सम्यक्त्व

मोक्षमहल में जाना है

हमें इस मार्ग पर सम्यक्त्व

और सुखधाम जाना है

सुनो संसार के प्राणी

जिन्हें सुखधाम जाना है

***

तर्ज :- कभी प्यासे को पानी....

भजन :- निज आतम को मैने जाना नहीं...


निज आतम को मैने जाना नहीं,

मात्र शास्त्रों को रटने से क्या फायदा।

निज आतम का अनुभव हुआ ही नहीं,

व्रत, संयम ही कर लूं, तो क्या फायदा।


मैं तो मन्दिर गया, पूजा-भक्ति भी की, 

पूजा करते हुए ये ख्याल आ गया।

पूजन-विधान का अर्थ जाना नहीं,

मात्र अर्घ्य चढ़ाने से क्या फायदा।।१।।


मैने व्रत भी किए और जप-तप किए,

व्रत करते हुए ये ख्याल आ गया।

बढ़ती इच्छाओं में कोई कमी ही नहीं,

मात्र जप-तप ही करने से क्या फायदा।।२।।


मैने शास्त्र पढ़े स्वाध्याय किया,

शास्त्र पढ़ते हुए ये ख्याल आ गया।

आत्मकल्याण का भाव आया नहीं,

मात्र शास्त्रों को पढ़ने से क्या फायदा।।३।।


ध्यान केन्द्र गया, तत्वचिन्तन किया,

चिंतन करते ही मुझको ख्याल आ गया।

कर्तत्व की बुद्धि तो छूटी नहीं,

मात्र ज्ञायक ही रट लूं तो क्या फायदा।।४।।

***

श्री मां जिनवाणी भक्ति


जिनवाणी माता की शरण आया हूं। -2

अपनी मुक्ति का रहस्य पाने आया हूं।।

जिनवाणी माता की शरण आया हूं...


कर्मों के डेरे चारों और माता मेरे है।

मिथ्यात्व के कारण अज्ञान अंधेरे है।।

ज्ञान का मैं दीप जलाने आया हूं...-2

जिनवाणी माता की शरण आया हूं...-2


पूजा-भक्ति करके शुभभाव मैने किया है।

किन्तु निज आत्मा पे ध्यान न दिया है।।

निज आत्मा का ज्ञान पाने आया हूं...-2

जिनवाणी माता की शरण आया हूं...


दान आदि करके व्यवहार सब किया है।

किन्तु मोक्षमार्ग का ज्ञान न लिया है।।

मोक्ष का ही मार्ग माता पाने आया हूं...-2

जिनवाणी माता की शरण आया हूं...


सच्चा सुख मैने बस पर में ही खोजा।

किन्तु मिला मुझको तो दुःख का ही बोझा।।

सच्चे सुख का रहस्य पाने आया हूं ...-2

जिनवाणी माता की शरण आया हूं...


~ सम्भव जैन शास्त्री, श्योपुर


पर्वोत्सव


ऐसा अवसर आया सुहाना...

ऐसा अवसर आया सुहाना,

कि देखो पर्वोत्सव है मनाना, 

कि मंदिर में पुण्य करें..., 

कि अंतर में धर्म करें...


दशलक्षण पर्व का, अवसर आया।

तप और ज्ञान का झंडा लहराया।। 

जिनेन्द्र प्रभु की पूजन रचाएंगे, 

मुनि ज्ञानियों से मोक्षमार्ग को पाएंगे, अवसर आया सुहाना,..

ऐसा अवसर आया सुहाना...


अष्टान्हिका पर्व है आए, नंदीश्वर सुर जाएं। 

हम नहीं जा सकते हैं तो, पर्व यहां पर मनाए, 

पर्व से पहले हम जिनमन्दिर सजाएंगे, 

सिद्धचक्र-नंदीश्वर पूजन रचाएंगे, अवसर आया सुहाना... 

ऐसा अवसर आया सुहाना...


छोटे-छोटे नियम लेकर, आगे बढ़ेंगे। 

एक-एक सीढ़ी चलकर, मोक्ष महल पहुंचेंगे। 

अष्टमी और चतुर्दशी को भी व्रत करेंगे, 

जिनवाणी पढ़कर के आत्म ध्यान करेंगे, 

अवसर आया सुहाना... 

ऐसा अवसर आया सुहाना...


~ सम्भव जैन शास्त्री, श्योपुर





स्वयं का चिन्तन (मेरे विचार)

 

मेरे जीवन का आधार प्रेम है और उद्देश्य वीतरागता।

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में अपनी प्रशंसा खुद अपने सच्चे मन से करता हूं, कोई और मेरी प्रशंसा करे मुझे बिल्कुल पसंद नहीं।

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झूठ बोलना सबको अच्छा लगता है, लेकिन सुनना कोई नहीं चाहता।

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मैने देखा है सबको दूसरों के ज्ञान की महिमा गाते हुए, पता नहीं अपने ज्ञान की महिमा क्यूं नहीं आती।

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मेरा सबसे अच्छा दोस्त मेरा अपना दिमाग है, सलाह में भले किसी की भी लेलूं, लेकिन अन्त में मानता अपने दिमाग की ही हूं।

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कितनी अजीब बात है न...वैराग्य के प्रसंग तो रोज आते है, पर वैराग्य नहीं आता!

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अगर मुझे लगता है कि में सही हूं, में जो कर रहा हूं वह सही है, तो मुझे किसी का डर नहीं है।

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कोई भी व्यक्ति सम्माननीय उसके उम्र या ज्ञान से नहीं होता, व्यक्ति सम्माननीय उसके व्यवहार और आचरण से होता है।

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कुछ लोग कहते है, जहां जैसा माहौल हो, चाहे सही हो या गलत वहां हमें माहौल के हिसाब से उसी में ढलना पड़ता है, ऐसे जीव उस नवजात शिशु के समान है, जिसके पास दिमाग तो है, पर वह उसका उपयोग नहीं कर पाता, सही गलत का निर्णय नहीं कर पाता।

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ज्ञानी जीव परिस्थितियों के हिसाब से खुद को नहीं बदलते बल्कि अपने हिसाब से परिस्थितियां बदल देते है।

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दूसरों कीमदद करने से जो खुशी मिलती है, वो खुशी मुझे सबसे ज्यादा पसंद है।

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कभी - कभी अपने आप को जानने के लिए हमें खुद को किसी दूसरे के नजरिए से देख लेना चाहिए।

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मुझे चाहे कितनी भी विपत्तियों का सामना क्यूं न करना पड़े, सच्चाई और अच्छाई का रास्ता कभी नहीं छोडूंगा।

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मुझसे मोहब्बत का दिखावा करने के बजाय दिल से नफ़रत करना , में सच्चे जज्बातों की बहुत कदर करता हूं।

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शरीर की खूबसूरती तो कर्म के आधीन है, में तो अपने परिणामों को खूबसूरत रखने की कोशिश करता हूं।

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जिन्दगी में बड़े से बड़ा कठिन से कठिन काम भी हमें आसान लगता है, अगर उसमें हमारी रुचि हो तो।

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मुझे नहीं लगता कि जैसे माहौल में जीव रहता है, वैसा ही बन जाता है, क्युकिं इसी संसार से एक मनुष्य गति से एक परिवार में रहकर भी जीव एक नरक और एक मोक्ष जाता है,,, जैसे ~ राम और लक्ष्मण

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में नहीं चाहता कि कोई मेरी प्रशंसा करे, में तो बस कोशिश करता हूं कि कोई मेरी बुराई न कर सके।

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अगर हम सच के साथ है, तो जितने तक हार नहीं मानेंगे।

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कभी-कभी एक पल में ही सारी जिन्दगी की खुशियां मिल जाती है, कभी-कभी सारी जिन्दगी में भी एक पल की खुशी नहीं मिलती।

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जरूरी नहीं कि हम कितना जियें,, जरूरी है, की हम जीवन के इन दिनों में कितना जिए।

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अंदाज कुछ अलग है, मेरे सोचने का , सबको मंजिल का शौक है, मुझे सही रास्तों का।

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ये दुनियां इसलिए बुरी नहीं कि यहां बुरे लोग ज्यादा है, बल्कि इसलिए बुरी है, क्यूंकि अच्छे लोग खामोश है।

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जो लोग दिखने में खूबसूरत होते है, या पैसे वाले होते है, उन्हें तो हर कोई सम्मान देता है, सब उन्हें प्यार देते है, मगर जो लोग गरीब और लाचार होते है, खूबसूरत नहीं होते, जिन्हें लोगो का प्यार नहीं मिल पाता, मुझे ऐसे लोगो को प्यार बांटना ऐसे लोगो का दिल से सम्मान करना बहुत पसंद है।

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क्षमा मांगना , sorry बोलना बहुत आसान है, लेकिन इसका प्रयोजन इसका अर्थ बहुत ही गहन है, अगर हम किसी से क्षमा मांगते है तो समझना कि हमने उस व्यक्ति से वादा (promise) किया है, कि मुझसे जो गलती हुई है, अब में जीवन में वह दोबारा नहीं दोहराऊंगा, में कोशिश करूंगा कि अब वह गलती मुझसे जीवन में फिर कभी नहीं होगी,,और ध्यान रहे,, अगर हमसे फिर वह गलती होती है, तो हम किसी से किया हुआ वादा तोड़ देते है।

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कोई भी हो जन्म दिवस को महोत्सव के रूप में मनाना गलत ही है, जिनवाणी मां ने जन्म मरण को संसार में सबसे बड़ा दुख का कारण बताया है, हम पूजन के अष्टक में सबसे पहले जन्म मरण के अंत की बात करते है। ऐसे में जन्म दिवस को उत्सव के रूप में बनाना खुद ही अपनी जिनवाणी मां की बातो का अनादर करना है,,, वास्तव जिनका भव अंतिम हो चरम शरीरी हो उनका ही मनाया जाता है। मेरा भी इस संसार में अंतिम भव आये इस भाव से मनाया जाता है।

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आज के समय में हर व्यक्ति दौलत के पीछे भागता है, पैसे की बात करता है,,, पर में आज भी अपने आदर्शों और अपने सिद्धांतों को ही ज्यादा महत्व देता हूं।

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में अमीर-गरीब, बड़े-छोटे कुछ नहीं समझता,, दुनियां में दो ही तरह के लोग होते है, एक सही करने वाले और दूसरे गलत करने वाले।।

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दूर से तो हर चीज अच्छी लगती है,, पास जाते ही हजार कमियां नजर आती है।

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अपना भविष्य जानने के लिए हमें किसी ज्योतिषि के पास जाने की जरूरत नहीं है,, बस अपने वर्तमान परिणामों को समझ लेना,,  क्यूंकि हमारे वर्तमान समय के परिणाम ही हमारा भविष्य निश्चित करते है।

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अमूल्य मनुष्य भव से ज्यादा लोगो को पढ़ाई-लिखाई की और सरकारी नोकरी की कीमत लगने लगी है। वो भी उस आने वाले कल के लिए जो किसी ने नहीं देखा।। पता नहीं कल हो ना हो।

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बड़े लोगो के लिए एक छोटी सी लाइन-

गुब्बारा जितना बड़ा होता है, उसमें उतनी ही ज्यादा हवा होती है।

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कुछ समय के लिए दिखावे की जिन्दगी से बाहर आकर देखो,,, जिन्दगी कितनी सरल है, पता चल जाएगा।

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अगर आप गलत को गलत नहीं देखते तो आप गलत है।

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सब कहते है, की जितना अच्छा बनोगे लोग उतना ही तुम्हारा इस्तेमाल करेंगे। पर मैं कहता हूं कि अच्छा बनना किसको है। हम तो पहले से ही अच्छे ही है। बस कोशिश करते है कि मुश्किलों के आगे घुटने टेककर बुरे न बन जाएं।

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पूरी दुनियां में अगर सबसे महत्वपूर्ण कोई चीज है, तो वो आपकी अपनी जिंदगी है। इसे अपने हिसाब से जिओ, अपनी खुशी के लिए जिओ। ना हमें किसी बात का ज्यादा सुख मनाना चाहिए ओर ना ज्यादा दुःख। क्यूंकि वह तो एक समय की उदय जनित पर्याय है और वह समय चला जाने वाला है।

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परीक्षा के सवालों के जवाब तो हर कोई देता है, बुद्धिमान वो है जो जिन्दगी के सवालों के जवाब दे।

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कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि लोगों की बात सुनकर ६ माह Reet, Ctet, या  कोई भी सरकारी नौकरी की तैयारी के बजाय अगर अमृतचंद्राचार्य देव की ओर पण्डित बनारसीदासजी की बात मानकर ६ माह शुद्धोपयोग की तैयारी करे, मोक्षमार्ग की तैयारी करें, तो हो सकता है, ६०८ की किसी श्रृंखला में मेरा भी नाम हो।

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आत्म कल्याण के लिए ध्रुव फण्ड नहीं ध्रुव दृष्टि चाहिए।

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सबको लगता है बच्चे मोबाइल के कारण माता-पिता से दूर हो रहे है,,, बल्कि सच तो ये है कि माता-पिता के पास बच्चों के लिए समय ही नहीं है, वो बच्चों से विद्यालय की किताब के अलावा कोई और बात करना पसंद है नहीं करते ,, अच्छे-बुरे के बारे में  सही-गलत के बारे में ना तो खुद समझना चाहते है ना बच्चों को समझाना चाहते है,,, और इस कारण से बच्चे फिर जब अकेला महसूस करते है तो मोबाइल का सहारा लेते है जो ज्ञान का और मनोरंजन का भंडार है,,,जब कोई घर में बच्चों से प्यार से बात नहीं करता तब वह बच्चा फिर फेसबुक पर प्यार खोजने लगता है,,, लेकिन हम जो दिखता है बस वही बोल देते है वहीं सच मान लेते है उसके पीछे के कारण पर विचार ही नहीं करते।

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अपने कुछ दोषों को याद करके रोता रहा में जिन्दगी भर ,, गुण कितने है मेरे अंदर इस पर ध्यान ही नहीं गया। 

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धन के पीछे नहीं, धर्म के पीछे दौड़ो, क्यूंकि धन तो पुण्योदय से धर्मी के पीछे-पीछे ही भागता है।

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जरूरत से ज्यादा पैसा कमाना पाप और जरूरत से कम पैसा कमाना पाप का उदय है।

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गुरु हो या स्वयं भगवान धर्म का केवल उपदेश दिया जा सकता है आदेश नहीं। निर्णय हमें स्वयं लेना होता है अपनी बुद्धि से।

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प्रतिसमय बहुत दु:ख देते आए है अनादिकाल से मुझे ये परद्रव्य ओर परभाव, फिर भी आज तक स्वद्रव्य और स्वभाव की महिमा नहीं आई।

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आज बहुत से शादी शुदा लोग कहते है, शादी मत करो उसमें दुःख ही दुःख है, किन्तु तब तक वह दुःख नहीं लगता, जब तक स्वयं शादी करते है तब स्वयं ही उस वैवाहिक जीवन के दु:ख को भोगते है। बहुत से प्रेमी समझाते है, कि प्रेम के चक्कर में कभी मत पड़ना उसमे दुःख ही दुःख है। किन्तु तब तक वह दुःख नहीं लगता, जब तक स्वयं प्रेम के चक्कर में पड़ते  है तब स्वयं ही उस उस प्रेम मय जीवन के दु:ख को भोगते है।

ऐसे ही वीतराग-सर्वज्ञ परमात्मा , दिगम्बर आचार्यदेव बार-बार समझाते है कि जिस सुख की तलाश में आप अनादिकाल से भटक रहे हो, वह तुम्हारे ही अंदर है, वह सुख स्वयं तुम ही हो। किन्तु हमे वह आत्मा का अतीन्द्रिय सुख समझ ही नहीं आता। किन्तु जो ज्ञानी जन स्वयं उस आत्मा के सुख का अनुभव करते है तब ही उन्हें आनन्द आता है। अर्थात् जब तक स्वयं उस कार्य को ना करे तब तक ना दुःख का अनुभव होता है ना सुख का। जब तक जीव अपनी भूल को स्वीकार नहीं करेगा तब तक वह उससे मुक्त कैसे हो सकता है।

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हमारे वर्तमान जीवन में घटित होने वाली प्रत्येक अच्छी-बुरी घटना के पीछे हमारे ही भूतकाल के अच्छे-बुरे परिणाम है और हमारे भविष्य में घटने वाली प्रत्येक अच्छी-बुरी घटना के पीछे हमारे ही वर्तमान समय के अच्छे-बुरे परिणाम होंगे। 

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जब तक हम अपनी या किसी और कि नजर से अपने आप को, भगवान को या दुनियां को समझने का प्रयास करेंगे तब तक कभी ठीक से समझ नहीं पायेंगे, किन्तु हम अपनी या किसी और की सोच से परे जैसे वो है वैसा ही समझने का प्रयास करे सोच को छोड़ कर वास्तविकता को समझे तो हर प्रश्न का समाधान मिल जाएगा।

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हम अपने जीवन में सबको कभी प्रसन्न नहीं रख सकते चाहे कितना भी प्रयास कर लें, किन्तु जीवन में सदैव स्वयं को प्रसन्न रख सकते है अगर अपने मन की बात सुने समझे और अपने निर्णय पर अटल विश्वास रख सके।

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किसी से प्यार करना है तो बिल्कुल करो, लेकिन किसी को अपनी आदत या जरूरत मत बनाओ। क्यूंकि प्यार से खुशी मिलती है, और हमारी आदतें और और जरूरतें हमें हमेशा दुःख देते है।

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जब तक हम परिस्थितियों से लड़ने की कोशिश करेंगे, तब तक हमेशा दुःखी रहेंगे,, आप वर्तमान में जैसे हो जिस परिस्थिति में हो अगर आपने उस परिस्थिति को ही अपना मित्र बना लिया और उसके साथ जीना सीख गए तो आपको हर परिस्थिति में जीवन जीने का आनंद आने लगेगा। 

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बहुत स्वाध्याय करने के बाद भी यदि आपको दिन-रात सांसारिक जीवन की चिंता है ,,, तो समझना कि सिर्फ ग्रन्थों को किताबे समझकर पढ़ा है, उन्हें समझा नहीं है, स्वीकारा नहीं है।

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पढ़ाई , नौकरी, पैसा कमाना, नाम कमाना, इज्जत कमाना ये सब बकवास है जिन्दगी जीने के सिर्फ 2 ही तरीके है या तो अध्यात्म या प्रेम। इन 2 तरीकों के अलावा अगर कोई तरीका अपनाया तो आज नहीं तो कल आपको परिवार के ही द्वारा दुःखी होना पड़ेगा।

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मैदान छोड़कर भागना हमारे खून में नहीं, कोशिश करता रहूंगा जब तक मंजिल ना मिले।

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पुरुषार्थ करना निश्चित ही आवश्यक है, किन्तु सही दिशा में।

यदि दिशा गलत है तो आपकी मेहनत आपका पुरुषार्थ व्यर्थ है।। 

इसलिए पहले शांतचित्त होकर सही दिशा का चयन करो फिर नि:शंक होकर पुरुषार्थ करो।।

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वास्तव में देखा जाए तो जीवन में कुछ भी पाना असाध्य नहीं है, किन्तु जिस वस्तु को पाने से कोई लाभ ही ना हो उसे पाने में व्यर्थ परिश्रम ही क्यूं करना, मुझे तो परिश्रम उस वस्तु को पाने में करना है जिसे पाने के बाद किसी और वस्तु को पाने की चाह ही ना रहे।।

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सबको मंजिल का शोक है, मुझे सही रास्तो का, क्योंकि मंजिल सबकी एक है, सुखी होना, बस रास्ते सबसे अलग है! इसलिए शांति से सही~गलत का पहले खूब बार-बार परीक्षा करके विचार करें और जब निर्णय पक्का हो जाए कि यह सही हैं तब निशंक होकर उस मार्ग पर चलो!

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वो एक पल जो निर्विकल्प होगा। मेरे लिए सबसे अद्भुत होगा।।

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*दृढ़ निश्चय*

आज नहीं तो कल बनेंगे। भक्त नहीं भगवान बनेंगे।।

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किसी अन्य की अनन्त कमियां अनन्त गलतियां, अनन्त दोष, अनन्त अपराध हमारा थोड़ा भी नुकसान नहीं कर सकते किन्तु हमारी एक कमी, एक गलती, एक दोष, एक अपराध हमारा अनन्त नुकसान कर सकते है। 

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इस संसार में कदम कदम पर खतरे है, या तो उन खतरों से लड़ना सीख जाओ या बचना सीख जाओ।

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में किसी की झूठी प्रशंसा नहीं करता और ना ही किसी की अधिक इज्जत, काम वही करता हूँ जो आवश्यक होता है और उतना ही करता हूं जितना आवश्यक होता है।।

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बात ये नहीं है कि हम भगवान को कितना मानते है, कितना पूजते है, बात ये है कि हम भगवान की बात को कितना मानते है भगवान की कहीं बात के अनुसार हमारा कितना आचरण है।

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Respect खुद की जहां नहीं, उस जगह कभी रुकना नहीं।

 है रास्ते बहुत यहां चलना वहीं जो सही लगे। 

सीखा यही जीवन में मैने करना वही जो सही लगे।

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में अपनी जरूरतों की पूर्ति करने के लिए नहीं बल्कि सच्चे लोगो का सच्चा प्यार पाने के लिए मेहनत करता हूं।

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गलत वाक्य~ अगर इंसान में कुछ करने की इच्छा हो तो कुछ भी असंभव नहीं।

सही वाक्य~ अगर कोई कार्य सम्भव है, तो उसे कोई भी कर सकता है,,, किन्तु अगर कोई कार्य असंभव है,, तो इन्द्र नरेंद्र ओर जिनेन्द्र भी उसे सम्भव नहीं कर सकते।

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अपने कुछ दोषों को याद के रोता रहा में जिन्दगी भर ,, गुण कितने है मेरे अंदर इस पर ध्यान ही नहीं गया।

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जरूरत से ज्यादा पैसा कमाना पाप और जरूरत से कम पैसा कमाना पाप का उदय है।

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अगर स्वार्थ के लिए गलत चीजों को बढ़ावा दिया जाए तो पाप,पुण्य और धर्म में कोई अन्तर नहीं रह जाता।

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जब किसी कार्य के लिए अच्छे और सही रास्ते कठिन लगने लगते है। तो उन्हें पूरा करने की सोच से बुराइयों को बढ़ावा दिया जाता है। जो कदाचित सही भी लगता है , किन्तु सही लगना ओर सही होना उसमें अन्तर होता है।

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एक बात हमेशा ध्यान रखना चाहिए, किताबों से ज्ञान नहीं मिलता। ज्ञान हमारे अंदर है,, अपने अंदर झांक कर देखो और अपने ज्ञान से सही गलत का निर्णय करना सीखो।

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किसी बुराई को किसी भी कारण से अच्छा मानना मूर्खता ही है।

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चक्रवर्ती का  वैभव तथा मोक्ष सुख का आधार वास्तव में सच्चा धर्म है।

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जब व्यक्ति अहंकार, तृष्णा और ईर्ष्या से बुरी तरह घायल हो तब उसे ज्ञान और प्रेम की बातें समझ ही नहीं आती अपितु बकवास लगती है।।

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परिवार की सारी बातें एक दूसरे को पता होना आवश्यक है। बातें छुपाना, झूठ बोलना, और अत्यधिक क्रोध इन कारणों से ही हमारे अपने ही हमारे दुश्मन बन जाते है।

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व्यक्ति महान पैसे और नाम से नहीं बल्कि एक सच्चे ह्रदय से बनता है।

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अपने लिए कम और दूसरों के लिए ज्यादा सोचना यह सच्चा लोकव्यवहार है और दूसरों के लिए कम स्वयं के लिए अधिक सोचना यह सच्चा मोक्षमार्ग है और जो व्यक्ति अपने ज्ञान का सही प्रयोग करके दोनों मार्ग में खरा उतरता है वहीं अपना जीवन सफल बनाता है।

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इतना तो चलता है , यही एक भाव हमें मोक्षमार्ग से , सच्चे धर्म से दूर ले जाता है।

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सुख चाहने वाले को अथवा सुख के लिए अनेक तरह के प्रयत्न करने वालों को कभी सुख प्राप्त नहीं होता, सुख प्राप्त होता है सुख को जानने से, सुख के सही स्वरूप को जानने से, वास्तव में सच्चा सुख क्या है इसकी सही पहचान से और यही आवश्यक है।

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बहुत सारे लोगों का, मोटिवेशनल स्पीकर इत्यादि का चींटी का उदाहरण देकर कहना है कि आप मेहनत करो सफलता जरूर मिलेगी, कोशिश करने वाले की हार नहीं होती, 1 बार नहीं तो 100 बार और 100 बार नहीं तो 1000 बार प्रयास करो सफलता जरूर मिलेगी। किन्तु वास्तव में देखा जाए तो ये गलत सोच है, ये अज्ञानता है, गधे वाली सोच है, समझदार पुरुष कभी ऐसा नहीं सोचता। 

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जरा विचार करो कितनी बार दिल्ली के रास्ते पर जाओ की मुंबई पहुंच जाओ, 1 बार, 100 बार या हजार बार, तो समझदार व्यक्ति कहेगा की बेटा तेरा रास्ता गलत है मुंबई जाना है तो मुंबई के रास्ते पर चल एक ही प्रयास में पहुंच जाएगा, दिल्ली के रास्ते पर हजार बार जाएगा तो भी दिल्ली पहुंचेगा मुंबई नहीं। अर्थात् मंजिल के बारे में सोचने से पहले रास्ते कि पूरी जानकारी होना आवश्यक है,

यदि आप एक बार किसी कार्य में असफल होते है तो बार-बार वही कार्य करोगे तो असफल ही रहोगे, तो क्या करें??

कि शांति से बैठकर विचार करो, भागो मत, सोचो गलती कहा हो रही है, मार्ग सही होगा तो मंजिल एक बार में ही मिल जाएगी, मार्ग ही गलत होगा तो बार-बार प्रयास का कोई लाभ नहीं होगा।

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अरे पैसा कमाना तो हमारी जरुरते हमें सीखा ही देती है, सीखना है तो उसे खर्च करना सीखो कि कहां कितना और कैसे खर्च करना है।

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मेरी समस्या भी मैं हूं और समाधान भी मैं ही हूं।

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संसार में अज्ञानी जन जन्मदिवस को उत्सव के रूप में मनाते है उसे हर्ष का विषय समझते है तथा किसी की मृत्यु पर रोते-बिलखते है उसे शोक का विषय समझते है, किन्तु वास्तव में न तो जन्मदिवस हर्ष का विषय है और न ही मृत्युदिवस शोक का विषय अपितु ये दोनों दिवस तो समताभाव के विषय है। ज्ञानीजन जन्म और मृत्यु में हर्ष और शोक नहीं मानते अपितु समता भाव धारण करते है।

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जरूरत से ज्यादा ज्ञान व्यक्ति को मौन की और ले जाता है।

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समस्त संसार मुझे अपनी नजरों से गिरा दे मुझे फर्क नहीं पड़ता, बस कोई ऐसा काम नहीं करना कि स्वयं की नजरों में गिर जाऊं।

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महत्वपूर्ण ये नहीं की आप कितने मेहनती है, कितने घंटे काम करते है, महत्वपूर्ण यह की आपने काम कौन सा चुना है, आप कितना नेक काम करते है। आप कितना महान काम करते है।

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बात किसी के सम्मान अथवा अपमान की नहीं है, किन्तु कोई भी हो, यदि गलत कार्य करने को कहे तो हमें 'ना' कहना तो आना ही चाहिए।

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नाम के लिए काम करना कोई अच्छी बात नहीं है किन्तु आपका काम ऐसा हो कि जिससे स्वयमेव नाम हो वह एक विशेष बात है।

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नाम के लिए कि, दिखने में अच्छा लगेगा, ऐसा करने से लोगों को ज्यादा पसंद आयेगा, आकर्षक लगेगा ऐसा सोचकर मात्र नाम के लिए, मात्र दिखावे के लिए कभी कोई काम नहीं करना चाहिए, किन्तु हमारे निर्मल भाव से, नि:स्वार्थ भाव से किए गए काम के द्वारा यदि स्वयमेव नाम हो जाए तो वो एक विशेष बात है।

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काम वो करो जो सबसे अधिक आवश्यक है, और उतना ही करो जितना आवश्यक है।

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आज किसी ने कहा मुझसे कि अपने अज्ञान के कारण आज धर्म का स्वरूप बिगाड़ कर रख दिया है लोगों ने।

मैने कहा कि ये कोई नई बात नहीं है, बस ध्यान रहे की हमारी श्रद्धा नहीं बिगड़नी चाहिए।

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भूतकाल की यादें और भविष्य की चिंताएं ही हमारे वर्तमान दुःख का मूल कारण है, इन यादों और चिंताओं को यदि गौण करना सीखना गए तो वर्तमान का आनन्द ही कुछ और होगा।

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सद्वाक्य संकलन :-

जिन्दगी में हमेशा हमें दो रास्ते दिखाई देंगे, एक सही दूसरा गलत। गलत रास्ता बहुत आसान होगा, वह हमें अपनी तरफ खींचेगा,गलत रास्ते पर हो सकता है बहुत सारे लोग हमारा साथ देंगे, हमारी बहुत प्रशंसा होगी, लेकिन अंत में वहां दुःख ही मिलेगा, और दुःख बांटने वाला कोई नहीं मिलेगा।, सही रास्ता बहुत मुश्किल होगा वहां हमें बहुत सी परेशानियां आएगी, बहुत सी कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा। हो सकता है प्रारंभ में सही रास्ते पर कोई हमारा साथ भी न दे, लोग हमारी निंदा करे, लेकिन अंत में वहां जरूर सुख मिलेगा। और आपके सुख को आपकी खुशियों को बांटने वाले भी बहुत लोग मिलेंगे।।

~ दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे…

सपने देखो, जरूर देखो, बस उनके पूरे होने की शर्त मत रखो।

~दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे।

बचपन, जवानी, बुढ़ापा, कोई चीज नहीं होती, इंसान की उम्र उतनी होती है, जितनी वह फील करता है।

~ दिल वाले दुल्हनिया ले जायेंगे

कोई प्यार करे तो तुमसे करे, तुम जैसे हो वैसे करे, कोई तुम्हें बदल कर प्यार करे, तो वह प्यार नहीं सौदा करे।

~ मोहब्बतें...

जिन्दगी में ऊपर उठने के लिए कभी खुद को नीचे नहीं गिराना चाहिए।

~फिल्म बादल

बेटा अगर काबिल हो तो उसे पिता की कमाई की जरूरत नहीं पड़ती, और अगर नालायक हो तो कितना भी कमाओ कम पड़ता है।

~ जनता गराज

अगर हम सच के साथ है, तो जीतने तक हार नहीं मानेंगे।

~ घायल रिटर्न

लाईफ में परफेक्ट प्लानिंग जैसा कुछ नहीं होता, चलते-चलते एडजस्ट करना पड़ता है।

~ द सुपर खिलाड़ी 3

डॉक्टर में बड़ा-छोटा नहीं होता, सिर्फ डॉक्टर होता है।

विद्वान में बड़ा-छोटा नहीं होता सिर्फ विद्वान होता है।

और भगवान में बड़ा-छोटा नहीं होता सिर्फ भगवान होता है। 

 ~ फिदा फिल्म

बुराई जहर की तरह होती है , जो बहुत जल्दी फैलती है, और अच्छाई दवा की तरह, जो धीरे-धीरे असर करती है।

~ जय हो

यादें अच्छी हो या बुरी काटें की तरह चुभती है, और उनसे दर्द भी होता है।

~ एक दक्षिण भारत फिल्म

मेरा मकसद मेहनत से बचना नहीं , बल्कि मेरी मेहनत फालतू के मकसद से बचना है।

~ Ki&ka movie

एक सच्चा एम्प्लॉय अपने काम के प्रति बफादार होता है ना कि अपने मालिकों के प्रति, मालिकों का बफादार व्यक्ति अपना आत्मसम्मान खोकर जीवन भर चापलूस रह जाता है किंतु जो अपने कार्य के प्रति सच्चा और बफादार होता है वह व्यक्ति अपनी ईमानदारी का वेतन पाता हुआ सदैव स्वाभिमानी होता है।

 फिल्म ~ शिवकार्तिकेन

हमें लगता है अमीर लोग समझदार होते है, लेकिन ऐसा नहीं है उनकी बस किस्मत ही अच्छी होती है।

~ दक्षिण भारत फिल्म

जब तक मनुष्य स्वयं सत्य का ज्ञान ग्रहण करने के लिए तैयार ना हो, तक तक स्वयं भगवान भी उसे समझाने में असमर्थ है।

~महाभारत

जीवन में यदि अपमान मिलें, दुःख मिले, तो समझना पूर्व में धर्म का वहन नहीं किया इसलिए हमारा वर्तमान हमारे पूर्व के अधर्म के कारण ऐसा है, और वर्तमान में सफल होने के प्रयास अवश्य करना, मेहनत पुरुषार्थ अवश्य करना, किन्तु अधर्म मत करना, अधर्म का साथ कभी मत देना अन्यथा भविष्य भी दु:खमय ही होगा।

~ महाभारत

समय कठिन नहीं होता जब मनुष्य हंसना भूल जाता है तो समय कठिन प्रतीत होता है।

~ महाभारत

सम्मान सदैव स्वयं का स्वयं के लिए होना उचित है, जो दूसरों से सम्मान की अपेक्षा करता है, आशा करता है वास्तव में उसके लिए कोई सम्मान पर्याप्त होता ही नहीं है।

~महाभारत

जब चिन्ता हो तो चिन्तन करना चाहिए उसी से लाभ होता है।

~ महाभारत

जब तक कोई व्यक्ति दूसरों के आदेशों पर अपने कर्तव्यों के निर्वहन के लिए जीवन जीता है, अपने जीवन में स्वयं का निर्णय नहीं लेता तब तक वह व्यक्ति अपने व्यक्तिगत धर्म की छांव में सार्वजनिक अधर्म करता है, और उसका दुष्परिणाम अत्यंत भयंकर होता है।

~ महाभारत

वास्तव में प्रत्येक जीव शक्ति रूप से परमात्मा ही है, किन्तु ये कोई जानता नहीं। राख में छुपा अंगार नहीं दिखता, और अज्ञान में छिपी आत्मा नहीं दिखती। और जो स्वयं को नहीं देख पाता वह ये इच्छा रखता है कि दूसरे उसे देखें, दूसरे हमें बताएं कि हम क्या है, कौन है, किन्तु दूसरे तो स्वयं अपने अज्ञान से घिरे रहते है और जो स्वयं को नहीं जानता वह हमें किसप्रकार बताएगा कि हम क्या है??

~ महाभारत

जिस मनुष्य को माता-पिता से परिवार से सम्मान नहीं मिलता, उस मनुष्य को  किसी भी सम्मान से कभी भी सुख प्राप्त भी होता।

~ महाभारत

दोषों का उत्पन्न होना अपराध नहीं है, बल्कि  दोषों को छुपाना अपराध है ।

~ महाभारत

जो व्यक्ति अपना व्यवहारिक जीवन समाज के लिए जीता है उसे स्वयं के किसी लाभ की तो अपेक्षा ही नहीं होती, और जो अपना व्यवहारिक जीवन मात्र स्वयं के लिए अपने स्वार्थ सिद्धि के लिए जीता है वो स्वयं को तथा समाज को केवल हानि पहुंचाता है।

- महाभारत

सत्य को समझना कठिन है, और उसे स्वीकारना उससे भी कठिन है।

~ राधेकृष्णा सीरियल

जिस प्रेम को भुलाने का मन करे, या जिस प्रेम में भय उत्पन्न हो , वह प्रेम, प्रेम नहीं केवल भ्रम है।

~ राधेकृष्णा सीरियल

धीरज, धर्म, मित्र, अरु नारी आपात काल परखिए चारी।

राधे कृष्णा

~ राधेकृष्णा सीरियल

प्रथा (परम्परा) मनुष्य के लिए बनी है, मनुष्य प्रथा (परम्परा) के लिए नहीं।

~ राधेकृष्णा सीरियल

जब करने के लिए प्रेम है तो क्रोध करना ही क्यूं ??

~ राधे कृष्णा सीरियल

धर्म का पथ सरल कदापि नहीं है किन्तु सर्वश्रेष्ठ अवश्य है।

~ राधे कृष्णा सीरियल

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