Thursday, September 16, 2021

उत्तम त्यागधर्म:-

अधिकतर संसार में ऐसा समझा जाता है कि अपनी किसी वस्तु का त्याग कर देना, त्याग है, या कुछ दान करना वह त्याग कहलाता है। 
किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है, अपनी वस्तु का कभी त्याग होता ही नहीं है और जो अपना नहीं है उसे अपना मानकर जो भूल हम अनादि से करते आ रहे है बस उस मान्यता का त्याग ही वास्तव में उत्तम त्याग कहलाता है।

वास्तव में तो दान का भी सही स्वरूप अभी लोग नहीं समझते है।
करोड़ो की बोली लेना, जहां पैसे की आवश्यकता ही नहीं है वहां भी व्यर्थ में पैसा बर्बाद करना उसे दान समझा जाता है जबकि ऐसा भी नहीं है। दान भी पात्र और सुपात्र को दिया जाता है, अपात्र अथवा कुपात्र को नहीं।

बहुत सी जगह पर मैने देखा है कि जहां वैसे ही सब करोड़पति लोग है पैसे की कोई कमी नहीं है, आवश्यकता ना होने पर भी लाखों का दान देकर स्वयं को धन्य समझता है, और कहीं धन की बहुत आवश्यकता है, छोटा गांव है, समाज की कमी है, धन की कमी है, जिनमन्दिर का जीर्णोद्धार कराना है, वहां ये धनी व्यक्ति दान नहीं करना चाहता।
पैसे वहां देना चाहता है जहां बहुत नाम हो, जहां आवश्यकता है वहां देता नहीं है और जहां आवश्यकता नहीं है किन्तु देने पर नाम बहुत होगा वहां देता है और स्वयं को पुण्यशाली समझता है जबकि ये तो दान नहीं मान है।

कुछ लोग दुकानदार इत्यादि भी ऐसा करते है, यदि किसी बड़े ट्रस्ट में या कोई बड़े पैसे वाला व्यक्ति या अधिकारी समान खरीदे तो उसे हंसते हुए कहते है कि साहब आपसे क्या पैसे लेना, और कोई गरीब जरूरतमंद मांग ले तो उसे बेइज्जत कर भगा देते है।
कुछ सेठिया लोग समाज में यदि 50 लोगों को कहीं यात्रा पर ले जाते है तो 5 महीने पहले से देश भर में 50000 पत्रिकाएं छपवाकर बंटवाते है और 5 दिन की यात्रा पर ले जाते है, किन्तु किसी अन्य समय पर कोई जरूरतमंद यात्रा हेतु या किसी अन्य कार्य हेतु सहायता मांगे तो उसे दुत्कार कर भगा देते है ऐसे भी महादानी पुरुष इस संसार में है।

मेरे विचार से तो दान की भी अलग महिमा है, ये कोई मान बढ़ाने के लिए नहीं दिया जाना चाहिए, बल्कि अपनी वस्तुओं का हमें सदुपयोग करना चाहिए। अपने धन को ऐसे कहीं भी मत दो दान के नाम पर, बल्कि जहां जरूरत है, जितनी जरूरत है अपनी सामर्थ्य अनुसार उतना देना चाहिए।
कहीं यदि ट्रस्ट में स्वाध्याय हाल में पंखे की आवश्यकता है खराब हो गए है तो लाकर दे सकते है। किसी ट्रस्ट के ऑफिस में देखा कि कर्मचारी काम कर रहे है इतनी गर्मी है यहां कूलर नहीं है, ट्रस्ट ने मैनेजर के लिए एक कूलर नहीं लगवाया तो वहां एक कूलर लाकर अपनी और से दान दे दिया, और भी जैसे कहीं विद्यार्थी पढ़ते है तो उनके लिए वहां छात्रावास में किसी वस्तु की आवश्यकता है जैसे वाटरकूलर इत्यादि तो वो दे सकते है, सभी छात्रों के लिए अच्छे फल लाकर दे सकते है। ये सब समझ में आता है। 
आपको पता रहेगा की आपने कहां दिया, कितना दिया और आप अपने दान से संतुष्ट रहेंगे। इस प्रकार से दान दिया जाना चाहिए। 

और विशेष रूप से तो जैनधर्म में चार प्रकार का दान बताया गया है।

1. ज्ञानदान:- आत्महित हेतु किसी भी पात्र जीव को आत्महित का ज्ञान देना, वह वास्तव में ज्ञानदान है।
2. आहारदान:- चतु:संघ अर्थात् मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका तथा किसी ज्ञानी सुपात्र जीव के आहार बेला के समय स्वयं आने पर अपने लिए बनाए शुद्ध प्रासुक भोजन में से यथायोग्य विधि पूर्वक आहार देना वह आहारदान है।
3. औषधदान:- यदि कोई ज्ञानी धर्मात्मा, मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका, अस्वस्थ हो, तो योग्य समय पर विधिपूर्वक निर्दोष रूप से अहिंसक तथा प्रासुक औषधि देना, तथा यथायोग्य निर्दोष उपचार कराना वह औषधदान है।
4. अभयदान:- जीवमात्र की रक्षा का ध्यान रखना, किसी जीव की हिंसा ना हो इसका पूरा ध्यान रखना तथा व्रती, साधु-मुनिराजों के ठहरने के लिए वनों में वसतिका इत्यादि का निर्माण कराना जिससे वे अपनी साधना आनन्द के साथ संपन्न कर सकें ये अभयदान कहलाता है।

किन्तु ये दान पुण्य का कार्य है, धर्म नहीं, इसे व्यवहार से त्याग कह अवश्य दिया जाता है किन्तु वास्तव में त्यागधर्म नहीं है।
  
दान और त्याग में बहुत अंतर है- दान के लिए दाता एवं पात्र दोनों का होना आवश्यक है पर त्याग करने के लिए इस बात की चिता नहीं की जाती है कि इसे कौन ग्रहण करेगा। 
दान में सदैव त्याग की भावना छुपी रहती है पर त्याग में सदैव दान का भाव रहना आवश्यक नहीं है। 
दान एवं त्याग में भेद होते हुए भी मोक्षमार्गी जीव के लिए दोनों ही आवश्यक हैं। इन दोनों क्रियाओं का फल परम्परा से मोक्ष रूप ही दिखाई देता है। इसलिए जीव प्राप्ति की अपेक्षा दान एवं त्याग दोनों ही आत्मा के लिए हितकारी हैं क्योंकि इन दोनों से ही मोह समाप्त होता है और जीव निर्मोही बनकर अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता है।
वास्तव में क्या है उत्तम त्यागधर्म:- यदि निश्चयनय से देखा जाए तो त्याग मान्यता में होता है,  मेरा सो जावे नहीं और जो जावे सो मेरा नहीं।
अर्थात् दुनियां में कुछ भी क्यों ना हो जाए कभी शक्कर मिठास का त्याग नहीं कर सकती और खारापन ग्रहण नहीं कर सकती, वैसे ही में अपने ज्ञानादि अनंतगुण जो वास्तव में मेरे है उनका त्याग नहीं कर सकता है और पर वस्तु भोजन कपडे मकान दुकान परिवार यहां तक की शरीर ये कभी मेरा था ही नहीं तो इसका त्याग कैसे होगा।
बस अनादि की भूल के कारण, अज्ञान के कारण मैने इन पर वस्तुओं को अपना मान रखा था, कि ये घर, परिवार, मकान, दुकान, स्त्री, पुत्र, माता, पिता और ये शरीर ये सब मेरा है ऐसा माना था, किन्तु ये तो मिथ्या कल्पना थी, मान्यता में ही बस पर को अपना माना था। वास्तव में तो ये सभी, कभी ना कभी छुट जाते है, इसलिए ये मेरे नहीं है और जो ज्ञानादी अनंतगुण मुझमें है वो मुझे कभी नहीं छोड़ते इसलिए वही मेरे है। इसलिए ये में हूं और ये में नहीं हूं ऐसे भेद विज्ञानपूर्वक मान्यता में पर को पर जानकर त्याग करना वास्तव में तो यही उत्तमत्याग धर्म है।




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