Friday, April 29, 2022

वास्तव में विवाह किसप्रकार होना चाहिए एक चिन्तन:-

विवाह क्या है एवं विवाह करना क्यों आवश्यक है?

विवाह एक संस्कृत का शब्द है जो कि 'वि' उपसर्ग 'वह्' धातु और घञ् प्रत्यय से बना है।

विवाह का अर्थ विशेष आनन्द और उत्साह पूर्वक अपनी सहधर्मिणी को अपनाना है।

विवाह को 'शादी' भी कहा जाता है 'शादी' एक फारसी शब्द है, जिसका अर्थ है- हर्ष या आनन्द।

किसी योग्य लड़के-लड़की (वर-वधु) का एक-दूसरे के प्रति जीवन समर्पित करना विवाह है।

नीतिवाक्यामृत में 'आचार्य सोमदेव सूरि' कहते हैं- 

युक्तितो वरणविधानमग्नि देव-द्विज साक्षिकं च पाणिग्रहणं विवाहः। 

अर्थात् अग्नि, देव और द्विज की साक्षीपूर्वक पाणिग्रहण क्रिया का सम्पन्न होना विवाह हैं।

आचार्य अकलंकदेव' ने 'तत्त्वार्थ राजवार्तिक' में कहा है- 

सद्वेद्यस्य चारित्रमोहस्य चोदयात् विवहनं, कन्यावरणं विवाह इत्याख्यायते। 

अर्थात् सातावेदनीय और चारित्रमोहनीयकर्म के उदय से कन्या के वरण करने को विवाह कहते हैं।

विवाह किससे करना अर्थात् विवाह के लिए किसप्रकार से वर और वधु का चयन करना चाहिए इसका वर्णन करते हुए 'शान्तिनाथ चरित' में कहा है-

वित्तं ययोरेव समं जगत्यां, कुलं ययोरेव समं प्रतीतम् ।

मैत्री तयोरेव तयोर्विवाहस्तयोर्विवादश्च निरूपितोऽस्ति ।

अर्थात् संसार में जिनके वैभव एवं कुल में समानता हो, उनके बीच ही विवाह और विवाद करना उचित माना गया है।

कन्या के पिता या उसके अभिभावक को चाहिए कि वह कुलीन, शीलवान, स्वस्थ, वयस्क, विद्वान्, धर्म-सम्पन्न, और भरे-पूरे कुटुम्ब से युक्त वर के साथ अपनी कन्या का विवाह करे।"

विवाह का उद्देश्य :- 

वास्तव में तो मनुष्य जीवन का उद्देश्य मोह का परित्याग करके, दिगम्बर मुनिधर्म अंगीकार कर,  आत्मकल्याण हेतु मोक्षपथ पर चलना है। किन्तु पूर्व कर्मोदय, वर्तमान इच्छाशक्ति तथा शारीरिक कमजोरी के कारण संसार में बहुत से जीव मुनिव्रत धारण नहीं कर पाते तथा शारीरिक सुख और काम की भावनाओं के कारण ऐसे जीव ब्रह्मचर्य व्रत भी धारण नहीं कर पाते। 

इसलिए ऐसे जीवों को उनकी काम इच्छाओं को मर्यादित करने हेतु तथा घर में रहकर धर्माचरण पूर्वक ग्रहस्थ जीवन का पालन करने हेतु 'विवाह संस्कार' की मंगलविधि पूर्वक ग्रहस्थ धर्म में प्रवेश कराया जाता है।

विवाह की सही उम्र क्या है - 

पहले के समय में तो युवा होने के पूर्व अर्थात् बालवस्था में भी विवाह करा दिए जाते थे किन्तु बालविवाह के पश्चात् उसमें अनेक प्रकार की समस्या वर और वधू के जीवन में होती थी, समय के साथ बालविवाह तो बंद हो गया किन्तु पढ़ाई और नौकरी की व्यवस्था के चलते युवावस्था भी पूरी निकल जाती है तब लगभग 27-30 वर्ष की आयु में लोगों के मन में विवाह का विचार आता है तत्पश्चात् उसमें भी वर और वधू के जीवन में अनेक प्रकार की समस्याएं उत्पन्न होती है। 

इसके अलावा वर्तमान में जिस उम्र में विवाह किया जाता है उसमें विवाह का जो प्रयोजन होता है, विवाह का जो महत्वपूर्ण उद्देश्य होता है उसका तो फिर कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। 

11 वर्ष की आयु में बालक को किशोर अर्थात् युवा कहा जाता है और लगभग 11 से 13 वर्ष की आयु में बालक के हार्मोंस में परिवर्तन होना प्रारंभ हो जाता है जिसके कारण से एक लडकी और एक लड़का एक दूसरे के प्रति आकर्षित होने लगते है इसके बाद विद्यालयों में साथ में उठना-बैठना, साथ में हंसना-खेलना, वर्तमान में आधुनिकता की चकाचौंध के चलते को सामान्य सोच जनमानस की हो गई है की लड़के और लड़की में कोई अंतर नहीं है दोनों समान है, दोनों ही हर काम में समान है, ऐसे में बच्चे अच्छे कार्यों में तो एक दूसरे की बराबरी नहीं करते किंतु बुरे कार्यों में अवश्य करने लगते है, ऐसे में कॉलेज इत्यादि में बराबर से लडके और लड़की धूम्रपान इत्यादि करते है, नशा करते है, आपस में छुपकर संबंध बनाते है , कुछ लोग सबके सामने खुलकर ये सब करते है तो कुछ लोग छुपकर करते है किन्तु लगभग 95% प्रतिशत वर्तमान के युवा बालक इन चक्करों में फंसे है। 

युवावस्था होने के कारण लड़के और लड़की का एक दूसरे के प्रति आकर्षित होना सामान्य बात है किन्तु पढ़ाई और नौकरी की प्रतियोगिता के संघर्ष में, समय पर विवाह न होने कारण लड़के और लड़कियां ना चाहते हुए भी कामवश बहुत सी भूलें कर बैठते है,सोशियल मीडिया पर एक दूसरे से दोस्ती करते है, तरह-तरह की बातें करते है और संबंध बना बैठते है, जिसे कोई नहीं रोक सकता। इसे कई हद तक रोका जा सकता है समय पर विवाह करके यदि बालक-बालिका का विवाह युवावस्था में ही सही समय पर लगभग 18 से 22 वर्ष की आयु में अर्थात् भारतीय कानून का पालन करते हुए कन्या का विवाह 18 वर्ष की उम्र में तथा पुरुष का विवाह 22 वर्ष की आयु में कर दिया जाए तो विवाह की ये सर्वश्रेष्ठ आयु होगी। 

एक बार विवाह निश्चित हो जाने पर उन्हें सोशियल मिडिया अथवा कॉलेज इत्यादि में फालतू चक्करों में पड़ने की जरूरत ही नहीं होगी उनके पास एक पार्टनर होगा, उन्हें छुपकर किसी से सम्बंध बनाने की भी आवश्यकता नहीं होगी और समय पर विवाह करने से विवाह का जो महत्वपूर्ण उद्देश्य है कि स्वदार संतोष व्रत का पालन हो, शील का पालन हो और धर्मांचरण पूर्वक ग्रहस्थ जीवन का पालन हो वह उद्देश्य भी इससे पूर्ण होगा।

विवाह के लिए अच्छे लड़के अथवा लड़की का चयन किसप्रकार करना चाहिए तथा जैन कुल में जन्म लेने के पश्चात् किसी अन्य कुल में विवाह करने में समस्या?

वर्तमान समय में अधिकतर लोग मात्र पैसे को ही महत्व देते है, चाहे कोई भी हो जब वह वर अथवा वधु का चयन करता है सर्वप्रथम पढ़ाई और पैसे ही देखता है फिर जीवनसाथी का स्वभाव कैसा है, उसकी सोच कैसी है इन बातों पर तो ध्यान ही नहीं देता, पैसे देखकर समझ लेते है की इनके पास तो सब कुछ है कोई कमी नहीं है यही वर्तमान समय की सबसे बड़ी भूल भी है और प्रतिदिन बढ़ते हुए तलाक की वजह भी है।

इसी गलत सोच के कारण वर्तमान में बालक के माता-पिता अपने बच्चों को संस्कार नहीं दे पाते उन्हें आवश्यकता ही महसूस नहीं होती क्योंकि प्रशंसा और समाज में उच्च स्थान अब संस्कारों से नहीं मात्र पैसे से मिलने वाली है इसलिए माता-पिता अपने बच्चों ना लौकिक संस्कार देते है ना ही धार्मिक मात्र किताबों तक उनका जीवन सीमित कर देते है और पढ़ाई और नौकरी में उनका जीवन सिमटकर रह जाता है ऐसे बालक जीवन में सही गलत का निर्णय करने में सक्षम नहीं होते, उनमें आत्मसम्मान भी नहीं होता, थोड़ी सी परेशानी में कोई गलत रास्ता दिखा दे तो आजकल तो ऐसा ही होता है ये सोचकर गलत रास्ते पर चलने लगते है। ऐसे में हमारे पुत्र या पुत्री का जीवन नरक बनना निश्चित हो जाता है।

तो क्या करना चाहिए वर अथवा वधु का चयन करते समय :-

1. सबसे महत्वपूर्ण बात कि जिनसे हम सम्बन्ध जोड़ रहे है वे जैन धर्म के  दृढ़श्रद्धानी हो तथा वीतरागी देव-शास्त्र-गुरु के परम भक्त हो यदि वे रागी-द्वेषी, देवी-देवताओं के भक्त हुए और गृहीत मिथ्यात्व से ग्रसित हुए तो विवाह का जो उद्देश्य है काम इच्छाओं को मर्यादित करते हुए 'सम्यक् धर्माचरण पूर्वक गृहस्थ धर्म का पालन' वह उद्देश्य ही समाप्त हो जायेगा।

2. सर्वप्रथम तो स्वयं से अधिक कोई और रिश्तेदार समझदार है वो जैसा कहेंगे, हम कर देंगे ये सोच दिमाग से निकाल दो, बेटा या बेटी आपके है तो उनके लिए पूर्ण मनोयोग से, बिना आलस किए, पूर्ण परख के पश्चात् यदि सही-गलत का निर्णय कोई ले सकता है तो वो केवल आप स्वयं है अन्य कोई नहीं, तो सलाह किसी भी लो, किन्तु अन्तिम निर्णय आपको ही लेना है।

3. जब आप किसी परिवार से मिलते है तो उसके धन पर नहीं उसके धर्म पर द्रष्टि रखिए, उनकी जीवन शैली को देखिए, उनके व्यवहार को देखिए।

4. वर-वधु सहित दोनों परिवार आपस में खुलकर एक दूसरे बातें करे, किसको क्या अच्छा लगता है, किसकी क्या क्या रुचियां है, ताकि सभी को एक दूसरे की सोच व व्यवहार को समझने का अवसर प्राप्त हो सके। क्योंकि ये प्रसंग मात्र 2 व्यक्तियों के विवाह का नहीं अपितु 2 परिवारों के सम्बन्ध का भी है।

5. वर और वधु को आपस में खुलकर बात करने का मौका अवश्य दें ताकि वे एक-दूसरे को समझ सकें, उनके विचार आपस में मिलते है या नहीं या वे एक दूसरे के साथ जीवन बिता पाएंगे या नहीं ये निर्णय उन्हें करने दीजिए। अपना निर्णय स्वयं लेने का उन्हें पूर्ण अधिकार है।

6. यदि सब कुछ ठीक लगता है किन्तु फिर भी मन में कुछ शंका है तो छुपकर आप किसी भरोसेमंद व्यक्ति से चयन किए हुए जीवनसाथी की संगति के विषय में पता कर सकते है क्योंकि मनुष्य की संगति ही उसके चरित्र का सम्यक् बखान करती है।

विवाह के कौन से कार्यक्रम आवश्यक है और कौन से कार्यक्रम आवश्यक नहीं ?

वर्तमान समय में विवाह के अवसर पर आधुनिकता और दिखावे के नाम पर अनेक ऐसे अनावश्यक कार्य किए जाते है जिससे मात्र समय और धन व्यर्थ नष्ट होता है जिससे विवाह में कोई लाभ नहीं होता। तथा कुछ कार्यों से तो हमारी संस्कृति भी नष्ट होती है। हमें इन सभी से बचना चाहिए। तथा विवाह के अवसर पर किस प्रकार के आवश्यक कार्य  हम कर सकते है इस विषय पर हमें विचार करना चाहिए।

विवाह में करने योग्य आवश्यक कार्य:-

सर्वप्रथम तो हमें ध्यान रखना चाहिए कि अधिक से अधिक 3 दिन में विवाह  की समस्त रस्में पूर्ण हो जाती है। और हमारे सभी रिश्तेदार तथा परिवारजन इन रस्मों में उपस्थित रहकर विवाह का पूर्ण आनन्द भी लेते है। 

तो सर्वप्रथम तो विवाह के लिए निश्चित किए गए इन दिनों की दिनचर्या कुछ इसप्रकार से होनी चाहिए जिसमें सभी रस्मों का आनन्द पूर्वक लाभ लिया जा सके। 

प्रथम दिन:-

प्रात:- 07:00 बजे से 08:30 बजे तक.............................. प्रक्षाल-पूजन-विधान

प्रात:- 08:30 बजे से 09:30 बजे तक...............................नाश्ता 

प्रात:- 10:00 बजे से 11:00............................................ लग्न


दोपहर :- 11:30 बजे से................................................ भोजन

दोपहर :- 02:00 बजे से................................................ मंगलगीत (परिवार की महिलाओं द्वारा)


सांयकाल:- 05:00 बजे से सूर्यास्त से पूर्व तक............... भोजन

सांयकाल:- 07:00 बजे से 08:00 बजे तक......................जिनमन्दिरजी में जिनेन्द्र भक्ति

सांयकाल:- 08:00 बजे से 09:00 बजे तक......................विवाह के सम्बन्ध में परिवार एवं रिश्तेदार जनों के अनुभवी बुजुर्गों के अनुभव:-


द्वितीय दिन:-

प्रात:- 07:00 बजे से 08:30 बजे तक.............................. प्रक्षाल-पूजन-विधान

प्रात:- 08:30 बजे से 09:30 बजे तक...............................नाश्ता  

प्रात:- 10:00 बजे से 12:00 बजे तक.............................. महिला संगीत (मात्र महिलाओं के लिए)


दोपहर :- 11:30 बजे से................................................ भोजन

दोपहर :- 02:00 बजे से 03:00 बजे तक.........................मंगलगीत (परिवार की महिलाओं द्वारा)

दोपहर :- 03:00 बजे से 4:00 बजे तक.......................... भातई मिलाप


सांयकाल:- 05:00 बजे से सूर्यास्त से पूर्व तक..............     भोजन

सांयकाल:- 07:00 बजे से 08:00 बजे तक........................जिनमन्दिरजी में जिनेन्द्र भक्ति

सांयकाल:- 07:00 बजे से 08:00 बजे तक परिवार के साथ विवाह के सम्बन्ध में अनेक प्रश्न एवं उत्तर स्वरूप चर्चाएं अथवा परिवार की उपस्थिति में हसीं-ठिठोली रूप खेल।


तृतीय दिन:-

प्रात:- 07:00 बजे से 08:30 बजे तक.............................. प्रक्षाल-पूजन एवं विधान समापन 

प्रात:- 08:30 बजे से 09:30 बजे तक...............................नाश्ता 

प्रात:- 12:00 बजे से..................................................... बारात स्वागत एवं प्रीतिभोज


दोपहर :- 01:00 बजे से 4:00 बजे तक........................... सम्पूर्ण विवाह विधि एवं पाणिग्रहण संस्कार...


सांयकाल:- 05:00 बजे से सूर्यास्त से पूर्व तक.............. .....भोजन


चतुर्थ दिन 

प्रात:काल - विदाई अथवा गृह प्रवेश...


जैन विवाह विधि पुस्तक से संकलित:-


-:विवाह की विधि:-


विवाह विधि में क्रमश: वाग्दान या सगाई, प्रदान या कन्यादान, वरण या वर द्वारा स्वीकरण, ग्रन्थि-बन्धन या गठजोड़ा, पाणिग्रहण या हथलेवा और सप्तपदी या सप्त वचन स्वीकृतिपूर्वक भाँवर होती हैं। 

उक्त क्रियाओं के पश्चात् वर और वधू, पति-पत्नी के रूप में अपने भावी जीवन के आनन्द और शान्ति को सुनिश्चित करने के लिए सात-सात वचन या शर्तें रखते हैं और वे दोनों, उपस्थित समुदाय के समक्ष जीवन भर उनके पालन करने का वचन देते हैं।

श्री सरल जैन विवाह विधि में निम्न दो छन्दों के माध्यम से विवाह-विधि को प्रदर्शित किया गया है:-

वाग्दानं च प्रदानं च, वरण-पाणिपीडनम् । 
सप्तपदीति पंचांगो, विवाहः परिकीर्तितः ॥
तावद्विवाहो नैव, स्याद्यावत्सप्तपदी न चेत् ।
तस्मात्सप्तपदी कार्या, विवाहे मुनिभिः स्मृता ॥ 

अर्थात् जिसमें वाग्दान (सगाई), प्रदान (कन्यादान), वरण (कन्या का स्वीकरण), पाणिपीडन (हथलेवा) और सप्तपदी (सप्त वचनों की स्वीकृतिपूर्वक सात भाँवर) - ये पाँच कार्य हों, वही विवाह है। जब तक सप्तपदी नहीं होती, तब तक विवाह हुआ नहीं कहा जा सकता; अतएव जब तक सप्तपदी न हो, तब तक कन्या को अधिकार है कि वह उचित न जँचने पर अपना विवाह, उस वर के साथ नहीं करावें।


1. वाग्दान, सगाई या टीका

वर और कन्या के शुभ लक्षणों, जातीय साँकें और जन्म पत्रिका के मिलान के अनुसार योग देखकर, उभय पक्षों के वचनबद्ध होने को वाग्दान कहते हैं।

इस क्रिया को विवाह से कुछ दिन पूर्व पंचों तथा इष्टजनों के समक्ष वर और कन्या के कुटुम्बियों को किसी एक स्थान पर एकत्र होकर करना चाहिए।

इसके बाद की वरण, प्रदान आदि विधियाँ विवाह के समय ही होती हैं, परन्तु परम्परानुसार विवाह के पूर्व निम्न विधियाँ सम्पन्न की जाती हैं-

1. विवाह से 5-7 दिन पूर्व कन्या पक्ष के द्वारा लग्न-पत्रिका (लगुन) लेखन-विधि की जाती है।

2. विवाह से 2-3 दिन पूर्व वर पक्ष के द्वारा लग्न-पत्रिका - वाचन विधि की जाती है।

3. विवाह के दिन अथवा दूर अन्य ग्रामादि में वधू का घर होने पर एक दो दिन पूर्व, वर के घर से बारात, वधू के घर के लिए प्रस्थान करती है। (आजकल वधू को लेकर वर के ग्रामादि में ले जाने की भी पद्धति प्रचलित हो गई है। वरपक्ष और वधूपक्ष की अनुकूलता देखकर इसका निर्णय करना योग्य है।) विवाह से पूर्व श्री जिनेन्द्र भगवान के दर्शन-पूजन के बाद बारात-निकासी की जाती है।

4. बारात, वधू के घर पहुँचने के बाद द्वारचार, टीका, अगवानी, आदि विधियाँ की जाती हैं।

5. आजकल बारात पहुँचने के बाद वर-वधू का स्वागत समारोह सम्पन्न किया जाता है, इसमें वर-वधू परस्पर माल्यार्पण समर्पित करते हैं एवं उपस्थित समाज के सभ्य सज्जन, उन्हें शुभकामनाएँ समर्पण करते हैं।

6. तत्पश्चात् भोजन आदि से निवृत्त होकर भाँवर के स्थान पर मण्डप वेदी-निर्माण एवं स्तम्भारोपण-विधि सम्पन्न होती है।

7. पश्चात् मंगल कलश स्थापना करके तिलक और रक्षाबन्धन-विधि करना चाहिए ।

8. इसके बाद वर-वधू के माध्यम से गृहस्थाचार्य यन्त्राभिषेकपूर्वक नवदेवता, सिद्ध भगवान, सिद्धयन्त्र या विनायकयन्त्र की पूजन, महार्घ्य, शान्तिपाठ, विसर्जन आदि विधि सम्पन्न करें / करावें ।

9. पूजन के उपरान्त वर-वधू को मुकुट बन्ध- क्रिया कराना चाहिए।

10. मुकुट बन्ध के उपरान्त वरण-विधि, प्रदान - विधि आदि की क्रियाएँ सम्पन्न करना चाहिए।


2. वरण- विधि

इस वरण-विधि के अन्तर्गत कन्या के परिवारीजन, वर के सम्बन्धियों से अपनी कन्या, वर को प्रदान करने की इच्छा प्रगट करते हैं तथा वर के परिवारीजन भी अपनी स्वीकृति प्रदान करते हैं। साथ ही इस अवसर पर वर एवं कन्या भी स्वीकृति प्रदान करते हैं।

इस समय उपस्थित नर-नारियों को वर 'वृणीध्वम्.. ..वृणीध्वम्.. ..वृणीध्वम्' अर्थात् 'इस कन्या को वरण कीजिए.. वरण कीजिए .. वरण कीजिए' इस तरह तीन बार जोर जोर से कहना चाहिए। 

इसी वरण- विधि के उपलक्ष्य में वर्तमान में स्वागत समारोह आयोजित करके वर-वधू के परस्पर माल्यार्पण का कार्यक्रम करने की परम्परा प्रचलित है।

इस अवसर पर वर-वधू का विस्तृत परिचय भी दोनों पक्षों के उपस्थित समुदाय को बताया जाता है। साथ ही आशीर्वाद समारोह का कार्यक्रम भी सम्पन्न किया जाता है।


3. प्रदान - विधि या कन्यादान - विधि

वरण-विधि के उपरान्त कन्या के पिता या मामा के माध्यम से प्रदान-विधि या कन्यादान-विधि सम्पन्न की जाती है तथा वर के द्वारा स्वीकृति प्रदान की जाती है ।

4. पाणि-पीडन, पाणि-ग्रहण या हथ-लेवा एवं गठजोड़ा 


हारिद्रपंकमवलिप्य सुवासिनीभिः, दत्तं द्वयोर्जनकयोः खलु तौ गृहीत्वा । 

वामं करं निजसुताभवमग्रपाणिं,       लिम्पेद्वरस्य च करद्वययोजनार्थम् ॥


इस श्लोक का पाठ करते हुए जैसा कि इस विधि का नाम है- पाणिग्रहण / हथलेवा, इसमें कन्या के पिता (अथवा मामा) के द्वारा कन्या का हाथ, वर के हाथ में दिया जाता है, उसी समय सौभाग्यवती स्त्रियाँ, वर और वधू के ऊपर मंगलस्वरूप अक्षत-क्षेपण करती हैं तथा गृहस्थाचार्य के द्वारा निम्न मन्त्र पढ़ा जाता है.

ओं नमो भगवते श्रीमते वर्द्धमानाय श्रीबलाऽऽयु-रारोग्य सन्तानाऽभिवर्द्धनं भवतु, कन्यामिमामस्मै कुमाराय ददामि इवीं क्ष्वीं हंसः स्वाहा ।

इस अवसर पर कन्या का पिता (अथवा मामा), तिलकमन्त्र पूर्वक तिलक करके हथलेवा का दस्तूर करके वर का आभार प्रदर्शित करता है। इस प्रसंग की खुशहाली में वर और वधू के परिवारजनों के द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दान देने की परम्परा है क्योंकि जिनवाणी की आज्ञा है कि प्रत्येक गृहस्थ श्रावक को अपने कमाए हुए द्रव्य का दसवाँ हिस्सा धार्मिक कार्यों में अवश्य लगाना चाहिए।

ग्रन्थि-बन्धन - विधि (गठजोड़ा):- पाणिग्रहण-विधि के उपरान्त गृहस्थाचार्य, कन्या की ओढ़नी के एक कोने में किसी सुहागिन स्त्री से एक रुपया या पाँच रुपया का सिक्का लेकर और उसके साथ थोड़े से अक्षत, सुपारी आदि रखकर, उस गाँठ को वर के दुपट्टे से बाँधकर निम्न श्लोक पढ़ते हैं

अस्मिन् जन्मन्येष बन्धो द्वयो वैं, कामे धर्मे वा गृहस्थत्वभाजि ।

योगोजातः पंचदेवाग्निसाक्षी,     जायापत्योरंचलग्रन्थिबन्धात् ॥

अर्थात् इस गठजोड़े के माध्यम से इस भावि दम्पति के सम्पूर्ण जीवन के समस्त लौकिक और धार्मिक कार्यों में आजीवन मजबूत प्रेमगाँठ बँध चुकी है, अब वह कभी खुल नहीं सकती क्योंकि ये देव, अग्नि और पंचों की साक्षीपूर्वक ग्रन्थि बन्धन से प्रतिज्ञाबद्ध हुए हैं - यह प्रेमानुबन्ध, पति-पत्नी के अकाट्य एवं चिरस्थायी प्रेम का द्योतक है।


5. सप्त पदी, सप्त वचन एवं सप्त फेरे

गठजोड़े के बाद गृहस्थाचार्य, वर को पीछे और कन्या को आगे करके सप्त परमस्थान की प्राप्ति के लिए वेदी के चारों तरफ वर और कन्या को प्रदक्षिणा (फेरा) दिलवाते हैं तथा प्रत्येक प्रदक्षिणा (फेरे) के अन्त में जब वर और कन्या वेदी के सन्मुख अपने अपने स्थान पर आ जाते हैं, तब निम्नोक्त एक-एक अर्घ्य चढ़वाते हैं। प्रदक्षिणा करते समय उपस्थित समुदाय को वर-वधू पर पुष्प-वृष्टि करते रहना चाहिए तथा उस समय वादित्र - नाद भी होते रहना चाहिए ।

सात फेरों का उद्देश्य

सज्जाति - गार्हस्थ्य - परिव्रजत्वं, सौरेन्द्र - साम्राज्य - जिनेश्वरत्वम् ।

निर्वाणकं चेति पदानि सप्त,         भक्त्या यजेऽहं जिनपादपद्मम् ॥

अर्थात् सज्जातित्व, सदृगृहस्थत्व, साधुत्व, इन्द्रत्व, चक्रवर्तित्व, जिनेश्वरत्व एवं निर्वाणत्व- इन सात कल्याणस्वरूप पदों की प्राप्ति के लिए मैं जिनेन्द्र भगवान के चरण-कमल की भक्तिसहित अर्चना करता हूँ। गृहस्थाचार्य, इसके प्रतीकस्वरूप क्रमशः सात फेरे कराते हैं।

ये सप्त वचन मां जिनवाणी के समक्ष पंचपरमेष्ठी भगवान की साक्षी पूर्वक लिए जाते है इसलिए कृपया सोच-समझकर, बारम्बार विचार पूर्वक ये वचन लें और सदैव इन वचनों को स्मरण रखें और किसी भी परिस्थिति में  इन वचनों का पालन करें, वचन भंग का बहुत पाप लगता है।

॥ प्रत्येक फेरे के बाद पढ़े जाने योग्य अर्घ्य ॥


1. सज्जाति - परमस्थाने, सज्जातित्वं गुणार्चितम् । 
   पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्ग- मोक्षसुखाकरम् ॥ 
ओं ह्रीं सज्जाति - परमस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 1 ॥

 2. सद्गृहस्थ - परमस्थाने, सद्गृहं जिननायकम्। 
   पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्ग-मोक्षसुखाकरम् ॥
ओं ह्रीं सद्गृहस्थ - परस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 2 ॥

3. परिव्राट् - परमस्थाने, पारिव्राज्यं सुपूजितम्।
   पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्ग-मोक्षसुखाकरम् ॥
ओं ह्रीं पारिव्राज्य- परमस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 3 ॥

4. सुरेन्द्र - परमस्थाने, सुरेन्द्राद्यैक-पूजितम्। 
   पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्गमोक्षसुखाकरम् ॥ 
ओं ह्रीं सुरेन्द्र - परमस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 4 ॥

5. साम्राज्यं परमं भुंक्ते, चतुः कर्मविनाशकम्। 
    पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्गमोक्षसुखाकरम् ॥ 
ओं ' साम्राज्य-परमस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 5 ॥

6. आर्हन्त्यं परमस्थानं, चतुःकर्मविनाशकम्। 
     पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्गमोक्षसुखाकरम् ॥ 
ओं ह्रीं सज्जातिपरस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 6 ॥ 

गृहस्थाचार्य का उपदेश-

इस प्रकार छह भाँवरों (फेरों या प्रदक्षिणाओं) के पश्चात् गृहस्थाचार्य, उन वर और कन्या को अपने अपने स्थान पर खड़ा करके कहते हैं- 'हे होनहार गृहस्थ युगल ! सुनो, तुम्हारा यह दाम्पत्य सम्बन्ध जीवन पर्यन्त के लिए हो रहा है। तुमको दो शरीर होते हुए भी एक होकर एक-दूसरे के सुख और दुःख में समवेदना और सहायता करनी होगी। तुम्हारे द्वारा पवित्र जैन कुल की सन्तान परम्परा के चलने से जैनधर्म की प्रभावना और तुम्हारी आत्मा का हित होना परम आवश्यक है।

यदि तुम्हें आपस में और भी कुछ कहना - सुनना हो तो कह सकते हो। अभी मन न मिलने पर तुम दोनों स्वतन्त्र हो, तुम चाहो तो अपना सम्बन्ध अन्य कन्या या अन्य वर के साथ कर सकते हो क्योंकि हमारे आर्ष ग्रन्थों की आज्ञा है कि 'तावत् विवाहो नैव स्याद्, यावत् सप्तपदी भवेत्'।

इसके बाद सातवाँ फेरा होने के पूर्व वर और वधू, परस्पर एक दूसरे से क्रमशः सात सात वचन माँगते हैं, जो निम्न प्रकार हैं -

वर के सप्त वचन


1. मेरे गुरुजन और कुटुम्बियों की यथायोग्य विनय और सेवा करनी होगी।

2. मेरी आज्ञा को भंग नहीं करना होगा। 

3. कठोर और अप्रिय वचन नहीं कहना होगा।

4. घर पर मेरे हितैषी तथा सत्पात्रों के आने पर उनके आदर-सत्कार और आहार आदि को देते समय कलुषित मन नहीं करना होगा ।

5. मेरी आज्ञा के बिना किसी दूसरे के घर नहीं जाना होगा। 

6. जहाँ बहुत भीड़ हो-ऐसे मेले आदि में तथा जिनका आचरण और धर्म खराब ऐसे मद्य आदि पीनेवाले तथा विधर्मियों के घर कभी नहीं जाना होगा।

7. अपनी कोई भी गुप्त बात मुझसे छिपानी नहीं होगी और मेरी गुप्त बात, किसी दूसरे से नहीं कहनी होगी।

इसके बाद वर, वधू को निम्नप्रकार से प्रतिज्ञाबद्ध होने के लिए आश्वासन लेता है-

वर (वधू से)- यदि तुम्हें मेरी ये सात शर्ते भली प्रकार प्रतिज्ञारूप से स्वीकार हों तो तुम मेरी वामांगिनी (धर्मपत्नी) हो सकती हो । 

इसके बाद वधू, निम्नप्रकार से सशर्त अपनी स्वीकृति प्रदान करती है-

वधू (वर से) - यदि आप मेरे सात वचन स्वीकार करें तो मैं भी आपके सात वचनों को स्वीकार करती हूँ । 
मेरे वचन इस प्रकार हैं -

वधू के सप्त वचन

1. पर - स्त्रियों के साथ क्रीड़ा नहीं करनी होगी। 

2. जुआ नहीं खेलना होगा।

3. अपनी सम्पत्ति पर मुझे समान अधिकार देना होगा। 

4. न्याय और उद्योग से उपार्जित धन से मेरे भोजन, वस्त्र और आभूषण की व्यवस्था करते हुए मेरी रक्षा करनी होगी।

5. तीर्थ-स्थान, जिन-मन्दिर आदि धर्म-स्थानों को जाने में बाधक नहीं होते हुए धार्मिक कार्यों से मुझे वंचित नहीं करना होगा।

6. अनुचित और कठोर दण्ड मुझे नहीं देना होगा। 

7. मुझे जीवन पर्यन्त कभी नहीं त्यागना होगा।

वधू के सप्त वचनों को सुन कर वर, आश्वासन स्वरूप अपनी स्वीकृति इस प्रकार प्रदान करता है -

वर ( वधू से ) - मुझे ये सात वचन स्वीकार हैं; अत: तुम मेरे - बाँये भाग में आ जाओ।

आवश्यक निर्देश- उक्त सप्तपदी के बाद गृहस्थाचार्य कन्या को वर के बाँयें भाग में खड़े होने के लिए कहें। तदनन्तर गृहस्थाचार्य, वर को आगे और कन्या को पीछे करके निम्न लिखित श्लोक एवं मन्त्र पढ़ते हुए सातवाँ फेरा या प्रदक्षिणा करावें -

7. निर्वाणं परमस्थानं, जिनभाषितमुत्तमम्। 
  पूजयेत् सप्तपदीनं च, स्वर्ग-मोक्षसुखाकरम् ॥ 
    ओं ह्रीं निर्वाणपरमस्थानायाऽर्घ्यम् ॥ 7 ॥

पश्चात् निम्न श्लोक पढ़कर सप्तम फेरे की विधि पूर्ण करें- 

सज्जाति: सद्गृहस्थत्वं, पारिव्राज्यं सुरेन्द्रता | 
साम्राज्यं परमार्हन्त्यं, निर्वाणं चेति सप्तकम् ॥ 
ओं ह्रीं श्री सप्तपरमस्थानाय पूर्णार्घ्यम्

वरमाला-

उपर्युक्त प्रकार से अर्घ्य चढ़ाने के बाद कन्या, वर को तथा वर, कन्या को 'वरमाला' पहनावें । इस समय वादित्र - नाद, जय-ध्वनि, पुष्प वर्षा और मंगल-गान किया जाए। पश्चात्   गृहस्थाचार्य, उन नव-दम्पति को निम्न प्रकार उपदेश देवें -

" हे दम्पति! अब तुम पति-पत्नि हो गये हो । अब तुम्हारा यावज्जीवन के लिए सम्बन्ध हो गया है; इसलिए तुम धर्म, अर्थ और काम को अविरोधरूप से सेवन करते हुए मोक्षपुरुषार्थ को साधने के लिए प्रयत्नवान् होना क्योंकि केवल धर्म, अर्थ और काम के सेवन से सत्पथ की प्राप्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार का सुयोग मिलने पर तुम्हें मोक्षमार्ग में अवश्य प्रवृत्त होना चाहिए।

तब वर-वधू, गृहस्थाचार्य के सामने नतमस्तक होकर, उनसे अपने सफल वैवाहिक जीवन के लिए आशीर्वाद लेवें। इसके बाद की क्रियाएँ यथायोग्य विधि के अनुसार करना चाहिए।

अष्ट मंगल द्रव्य एवं सिद्धयन्त्र की स्थापना

१. 1. झारी, 2. पंखा, 3. कला, 4. ध्वजा, 5. चँवर, 6. ठौना, 7. छत्र और 8. दर्पण ये आठ मंगल द्रव्य हैं; इनसे विवाह मण्डप को - अच्छी तरह सजाना चाहिए।

२. यदि ये आठ मंगल द्रव्य साक्षात् न हों तो एक रकाबी में उनका आकार बनाकर, उनकी स्थापना, वेदी के पास अवश्य कर देना चाहिए।

३. वेदी पर जिनवाणी माता की स्थापना करनी चाहिए। 

४. सप्तपदी या भाँवर के पूर्व जिनेन्द्रदेव अथवा नवदेवताओं- पंचपरमेष्ठी, जिन-मन्दिर, जिन-प्रतिमा, जिनधर्म और जिनवाणी की पूजन करना चाहिए।

५. इसके पश्चात् शान्ति मन्त्रों का उच्चारण करते हुए शुद्ध आम्नायानुसार शुद्ध पुष्पों से शान्ति-यज्ञ करना चाहिए ।

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महत्वपूर्ण बातें :-

आजकल विवाह के अवसर पर जैन समाज में जाने अनजाने में कुछ बहुत बड़ी-बड़ी भूल होने लगी है जिसके कारण जैन धर्म की अप्रभावना होती है  जैनकुल पर कलंक लगता है यदि आप जैन है, अपने नाम के साथ जैन लगाते है और अपने बालक या बालिका के विवाह में आपके द्वारा किसी तरह पापकार्य ना हो, जैन धर्म की अप्रभावना ना हो, तो इन बातों का विशेष ध्यान रखें।

1. विवाह के लिए हरी घास के गार्डन के बजाय हॉल का ही चयन करें क्योंकि हरी घास के नीचे मिट्टी में अनन्त जीव होते है, जैनशास्त्रों में हरी घास पर पैर रखना गर्भवती स्त्री के पेट पर पैर रखने के समान कहा गया है। इसलिए विवाह जैसे मांगलिक अवसर पर हरी घास वाले गार्डन का प्रयोग करके व्यर्थ महाहिंसा के पाप के भागी न बनें।

2. जैनदर्शन के अनुसार सूर्यास्त के समय से प्रतिसमय अनन्त त्रस (2 इन्द्रिय से 5 इन्द्रिय) जीवों की उत्पत्ति होती है। ऐसे में भोजन करने में मांस भक्षण का दोष लगता है तथा भोजन कराने में मांस खिलाने के बराबर का पाप लगता है।
(अजैन लोग में वर्तमान में अपने विवाह के कार्ड में जैन लोगों की भावनाओं का ध्यान रखते हुए सूर्यास्त के पूर्व भोजन कराते है तो हम यदि रात्रि भोजन देंगे तो इससे जैन धर्म की अप्रभावना के कारण बनेंगे जिससे नरकगति का बंध होगा।) इसलिए सूर्यास्त के पूर्व ही भोजनशाला बंद करवा दें।

3. यदि आप नाम के साथ जैन शब्द का प्रयोग करते है तो भोजनशाला में कंदमूल आदि अभक्ष्य पदार्थों का प्रयोग न करें, जैनशास्त्रों के अनुसार कंदमूल एक सुई बराबर कण में भी अनन्त सूक्ष्म निगोदिया जीव रहते है। 
(अजैन लोग भी वर्तमान में अपने विवाह में जैन लोगों की भावनाओं का ध्यान रखते हुए कंदमूल के बिना शुद्ध भोजन बनाते है ऐसे में यदि जैनसमाज के विवाह में ही कंदमूल इत्यादि बनेंगे तो इससे अन्य समाज में जैन धर्म की अप्रभावना होगी। जिससे नरकगति का बंध होगा।) विवाह जैसे शुभ अवसर पर ऐसे हिंसारूप पाप तथा जैनधर्म की अप्रभावना जैसे महापाप के भागी न बनें।

4. जैसा की अभी हमने जाना की सूर्यास्त के पश्चात् अनन्त जीवों की उत्पत्ति होती है इसलिए विवाह की सम्पूर्ण विधि दिन में ही संपन्न होनी चाहिए। विवाह विधि में जो अष्टद्रव्य से पूजन आदि कार्य होते है वे रात्रि में करना सम्भव ही नहीं है, अत: समस्त कार्य जैन विवाह विधि अनुसार दिन में ही संपन्न करें।

5. जिनमन्दिरजी से प्रतिष्ठित यन्त्रजी लेकर आना विवाह के मण्डप में अशुद्धता की दृष्टि से उचित नहीं है इसलिए ऐसा न करके जिनवाणी विराजमान करना चाहिए तथा विवाह मण्डप में पूजा-विधि के समय सभी लोग अपने जूते-चप्पल इत्यादि हॉल के बाहर रखे तथा कुछ भी खाने-पीने की व्यवस्था उस समय, उस स्थान पर नहीं होना चाहिए।

6. दहेज प्रथा से दूर रहें।

--- चिन्तन एवं संकल

विषय से सम्बंधित किसी भी प्रश्न के लिए सम्पर्क करें :-

~ पं. सम्भव जैन शास्त्री, श्योपुर

 मोबाईल नम्बर - 8302047216

14 comments:

  1. Very nice 👍, good matter in systematic manner.

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  2. इतनी अच्छी होती हैं तो फिर देर किस बात कि

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  3. आपका बहुत बहुत धन्यवाद जो इतनी महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान की मैं अपने पुत्रों का विवाह जैन रीति से ही करना चाहती थी
    अब तो निश्चित ही करूंगी
    आपका आगे भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए क्या करना होगा
    कृप्या अनुरोध है कि मेरे नं. 8574998353 पर बताने का कष्ट करें। 🙏🏻🙏🏻

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  4. Bahot hi sundar 👌🤗😊

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