आ अर्थात् नहीं है किंच् अर्थात् किंचित मात्र भी, अन्य अर्थात् कुछ भी अन्य मेरा। अर्थात् मेरे ज्ञानादी अनंत गुणों के अलावा इस संसार में अन्य कुछ भी मेरा नहीं है, ऐसा ज्ञान, ऐसा निर्णय, ऐसा अनुभव इसका नाम वास्तव में उत्तम आकिंचन्य धर्म है। जिसप्रकार क्षमा का विरोधी क्रोध और मार्दव का विरोधी मान है उसीप्रकार आकिंचन्य का विरोधी है परिग्रह अर्थात् परिग्रह के अभाव को उत्तम आकिंचन्य कहते है। आकिंचन्य का दूसरा नाम अपरिग्रह भी हो सकता है।
पदार्थों के प्रति ममत्व का भाव रखना परिग्रह है ! संसारी चीज़ों (ज़मीन,मकान,पैसा,पशु,गाड़ियां, कपड़े इत्यादि) को आवश्यकता से अधिक रखना और इन्हे और ज्यादा बढ़ाने/पाने की इच्छा रखना परिग्रह है ! समस्त पापों का मूल कारण परिग्रह है !
जिनागम में 24 परिग्रह का वर्णन आता है।
अंतरंग और बहिरंग के भेदों से परिग्रह 24 प्रकार का है :-
(क) अंतरंग परिग्रह :- रागादि रूप अंतरंग परिग्रह 14 प्रकार का होता है !
1- मिथ्यात्व, 4- कषाय (क्रोध, मान, माया, लोभ) और, 9- नो-कषाय (हास्य, रति, आरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्रीवेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद)
(ख) बहिरंग परिग्रह :- सांसारिक वस्तुओं के प्रति आसक्ति रखना ... यह 10 प्रकार का होता है !
1:- क्षेत्र (खेत, भूमि),
2:- वास्तु (मकान),
3: -हिरण्य (चांदी,रुपया),
4:- स्वर्ण (सोना),
5:- पशुधन (गाय,भैंस आदि),
6:- धान्य (अन्नादि),
7:- दासी (नौकरानी),
8:- दास (नौकर),
9:- कुप्य (कपडे) और
1०:- भांड (बर्तन)
संसार में अधिकतर जीव वर्तमान में परिग्रह इकट्ठा करने में ही अपना भला समझते है, स्वयं दिन-रात परिग्रह इकठ्ठा करते है और अपने बच्चों को अन्य लोगों को भी वही सिखाते है, इसी कारण से आज संसार में सभी लोग अंधी दौड़ में भागते नजर आते है, जीवनभर संघर्ष करते है किन्तु कभी सुख प्राप्त नहीं कर पाते।
मनुष्य की इच्छाएं दिन-प्रतिदिन बढ़ती जा रही है, दूसरों को देख-देखकर मेरी भी इतनी संपत्ति हो, मेरे पास भी इतने अधिकार हो, ऐसे भाव ये जीव करता है। और उसके लिए रात-दिन सपने देखता है, मेहनत करता है, स्वपनों की पूर्ति के लिए छल-कपट करता है, और जब हारने लगता है तो कुछ अज्ञानी पुरुष, अथवा मोटिवेशनल स्पीकर जैसे लोग आकर उनकी इच्छाओं को, उनकी तृष्णाओं को और बढ़ाते है कहते है कि देखो सपने देखो, जो सपने देखता है उसी के सपने पूरे होते है, आप सब कर सकते है, अपने आप को कमजोर मत समझो, चाय बेचने वाला प्रधानमंत्री बन सकता है, पेट्रोलपंप पर काम करने वाला अरबपति बन सकता है तो आप भी बन सकते है बस सपने देखो और पूरे करने के लिए जो करना पड़े करो, तब ही लोग तुम्हें जानेंगे, मानेंगे मेहनत हमेशा रंग लाती है इत्यादि-इत्यादि और भी पता नहीं क्या-क्या, लोग आजकल बातें करते रहते है, किन्तु समय से पहले और भाग्य से ज्यादा ना कभी किसी को मिला है ना ही मिलेगा।
महाभारत में श्री कृष्ण ने दुर्योधन से बहुत अच्छी बात कही थी कि दुर्योधन तुम चाहते हो कि सम्पूर्ण हस्तिनापुर पर तुम्हारा एकछत्र राज हो, उसके लिए मामा शकुनि ने और तुमने बचपन से ही अनेकों प्रयास किए है, उन्हें जिंदा जलाने का तक प्रयास कर किया किन्तु कोई लाभ नहीं हुआ, और आगे भी जितने चाहो प्रयास कर लो तुम्हारी ये इच्छा कभी पूर्ण हो ही नहीं सकती क्योंकि तुम्हारा इतना पुण्य ही नहीं है, पांडवों का पुण्य तुमसे कहीं अधिक ज्यादा है ये सब सामग्री, नाम, मान प्रतिष्ठा, पुण्य से प्राप्त होती है उल्टे-सीधे प्रयासों से या षड्यंत्रों से कभी प्राप्त नहीं होती।
बहुत से लोग ये भी कहते है कि ऐसे बैठे बैठे क्या महल खड़ा हो सकता है क्या बिना कुछ किए बिना मेहनत है तो वो भी ही सकता है राम-लक्ष्मण वनवास के समय उनके लिए बैठे-बैठे उन्हें पहचानकर उनके पुण्य के कारण यक्ष जाति के देवों ने उनके लिए चातुर्मास के समय पर वन में ही सफेद मायावी महल की अदभुत रचना की तथा उसमें जिनमन्दिर भी ताकि अष्टान्हिका पर पर वे पूजा-अर्चना कर सकें। ये सब हुआ मात्र पुण्यउदय से बिना किसी प्रयास के बिना किसी मेहनत के, यदि आपका पुण्य का उदय है तो देव स्वयं आकर द्वारिका की रचना करते है और यदि पाप का उदय है तो स्वर्णों ने भरे भवन भी जल कर राख हो जाते है सम्पूर्ण कुल नष्ट हो जाते है। तो हम किस बात के लिए इतना इकट्ठा करने का सोचते है, इतना परिग्रह जोड़ते रहते है, सदैव अपने आप को सबसे अधिक लोकप्रिय और धनवान बनते देखना चाहते है।
जबकि बहुआरंभ-बहुपरिग्रह को शास्त्रों में नरक गति का कारण बताया है। और जिनके पास परिग्रह अधिक है वे तो नरक जाएंगे ही किन्तु जिनके पास है तो कुछ नहीं परन्तु धनवान बनने की तीव्र इच्छा है, प्रसिद्धि की तीव्र इच्छा है, उन्हें भी धन तो पुण्य के अनुसार ही प्राप्त होगा किन्तु इच्छा अधिक होने के कारण वे भी बहु परिग्रह के भाव के कारण नरक गति का बन्ध करते है।
और भी बहुत तरह के परीग्रही घर घर में पाए जाते है। घर की महिलाएं जो वस्तु घर में कभी काम नहीं आती, खराब हो गई है फिर भी सम्हाल कर रखते है कभी ना कभी काम आयेगा ये सोचकर उसको सम्हाल का रखते है ये व्यर्थ का परिग्रह है, जो कि फ्री में पाप बढ़ाता है, इसीप्रकार जहां अधिक से अधिक 8-10 जोड़ी कपड़े बहुत होते है वहां विद्यालय के 2-3 जोड़ी, ऑफिस के अलग, विवाह आदि के प्रोग्राम के अलग, दिन में पहनने के अलग, रात में पहनने के अलग, घर में पहनने के अलग, बाहर पहनने के अलग, और भी अलग अलग काम के अनुसार अलग अलग वेशभूषा ये सब घर में अलमारियां भर देती है ये भी व्यर्थ का परिग्रह है जिसे हम सब बढ़ावा देते है इसका भी त्याग होना अत्यन्त आवश्यक है। आवश्यकता से अधिक की चाह वर्तमान और भविष्य में सदैव दुःख का कारण है।
ये तो मात्र वर्तमान समय के अनुसार बाह्यपरिग्रह की बात है वास्तव में सबसे अधिक घातक तो अंतरंग परिग्रह होते है।
वास्तव में तो मिथ्यात्व अर्थात् अज्ञान ही सबसे बड़ा परिग्रह और यही सबसे बड़ा पाप है। इसी के वश होकर जीव समस्त पाप करता है, अज्ञान के कारण यह जीव परपदार्थों को हितकर जानता है और धनवान बनना चाहता है, प्रसिद्धि पाना चाहता है अज्ञानी जीव इन सबको सुख का कारण मानता है किन्तु अंत में उसे इसके विपरीत अनंतदुःख ही प्राप्त होता है। अज्ञान के कारण जन्में जीव के अंदर कषाय के भाव, अनंत इच्छाएं ये सब जीव के महादुख का कारण बनती है।
और जो जीव ये जान लेता है कि इस संसार में कुछ भी मेरा नहीं है, में संसार से भिन्न अनंत गुणों का स्वामी चैतन्य मूर्ति हूं, और अंतरंग तथा बहिरंग समस्त परिग्रह से रहित, समस्त विकारी भावों से रहित, में अनादि-अनन्त परमात्म स्वरूप भगवान आत्मा हूं ऐसा विचार कर विकल्परूप परिग्रह से भी हो रहित होता है वास्तव में वही निश्चय से उत्तम आकिंचन्य धर्म का धारी होता है।
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