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पूजा पीठिका
ॐ जय जय जय! नमोऽस्तु नमोऽस्तु नमोऽस्तु
अर्थ - ॐ = अरिहंत -अ +सिद्ध भगवान् के अशरीरी -अ+आचार्य (अ)=आ + उपाध्याय (उ) +साधू (मुनि) (म) अर्थात् पञ्च परमेष्ठी की जय हो जय हो जयहो, नमस्कार हो , नमस्कार हो , नमस्कार हो !
जय और नमस्कार तीन बार, मन वचन काय से करते है !
णमो अरिहंताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आयरियाणं,
णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं !
अर्थ-
णमो अरिहंताणं- अरिहंतो को नमस्कार हो !
णमो सिद्धाणं- सिद्धों को नमस्कार हो !
णमो आयरियाणं- आचार्यों को नमस्कार हो !
णमो उवज्झायाणं- उपाध्यायों को नमस्कार हो !
णमो लोए सव्व साहूणं- लोक के सब (निर्ग्रन्थ जैन दिगंबर) साधु को नमस्कार हो!
ॐ ह्रीं अनादिमूलमंत्रेभ्यो नम: पुष्पांजलि क्षिपेत्!
अर्थ- इस अनादि मूल मंत्र को हम नमस्कार करता हूं, पुष्प (पीले चावल) समर्पित करता हूं!
चत्तारि मंगलं पाठ
चत्तारि मंगलं, अरिहंता मंगलं, सिद्धा मंगलं,
साहू मंगलं, केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं !
अर्थ - जगत में चार मंगल है- अरिहंत भगवान् मंगल है, सिद्ध भगवान् मंगल है, (निर्ग्रन्थ जैन दिगंबर) साधू परमेष्ठी मंगल है और केवलि भगवान् द्वारा बताया गया वीतराग धर्म मंगल है !
मंगल - जो मोह-राग-द्वेष रूपी पापों को गलावे और सच्चा सुख उत्पन्न करे उसे मंगल कहते है। अर्हंतादिक स्वयं मंगलमय है और उनमें भक्तिभाव होने से परम मंगल होता है !
चत्तारि लोगुत्तमा, अरिहंता लोगुत्तमा, सिद्धा लोगुत्तमा,
साहू लोगुत्तमा, केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो!
अर्थ- लोक में चार उत्तम/सर्वश्रेष्ठ है- अरिहंत भगवान् लोक में उत्तम है, सिद्ध भगवान् लोक में उत्तम है, (निर्गरंथ दिगंबर जैन) साधु परमेष्ठी लोक में उत्तम है, केवलि भगवान् की दिव्य ध्वनि द्वारा बताया गया वीतराग धर्म लोक में उत्तम है !
चत्तारि सरणं पव्वज्जामि, अरिहन्ते सरणं पव्वज्जामि, सिद्धे सरणं पव्वज्जामि,
साहू सरणं पव्वज्जामि, केवलिपण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि!
अर्थ- मैं चारो की शरण में जाता हूं, अरिहंत भगवान् की शरण में जाता हूं, सिद्ध भगवान् की शरण में जाता हूं , (निर्ग्रन्थ दिगंबर जैन ) साधू परमेष्ठी की शरण में जाता हूं, केवलि भगवान् द्वारा कहे गये वीतराग धर्म की में जाता हूं!
ॐ नमोऽर्हंते स्वहा ! (पुष्पांजलि क्षिपेत्)
अर्थ- मै अरिहंत भगवान् को पुष्प (पीले चावल) समर्पित करता हूं!
मंगल विधान
अपवित्र: पवित्रो वा सुस्थितो दु:स्थिोऽपि वा !
हो येत्पंच-नमस्कारं सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥१॥
अर्थ- कोई अपवित्र, हो या पवित्र, अच्छी स्थिति में हो या बुरी स्थिति में हो, पञ्च नमस्कार मंत्र का ध्यान करने से, वह समस्त पापों से छूट जाता है !
अपवित्रः पवित्रो वा सर्वास्थां गतोऽपि वा
यः स्मरेत् परमात्मानं स बाह्याभ्यंतरे शुचि: ॥२॥
अर्थ- जो अपवित्र अथवा पवित्र हो, अथवा गतिमान हो ,सभी अवस्था को प्राप्त हुआ /णमोकार मंत्र /पञ्च परमेष्ठियों का स्मरण करता, बाह्य और अंतरंग से पवित्र हो जाता है !
अपराजित-मंत्रोऽयं -सर्व-विघ्न-विनाशनः ।
मंगलेषु च सर्वेषु प्रथमं मंगलं मतः ॥
अर्थ- यह(णमोकार मंत्र) किसी से हारने वाला नहीं है,समस्त विघ्नों को नष्ट करने वाला है और समस्त मंगलों में प्रथम मंगल है, अर्थात् समस्त मंगलकारी मंत्रो में प्रथम णमोकार मंत्र है!
एसो पञ्च णमो यारो सव्व-पावप्पणा-सणो !
मंगलाणं च सव्वेसिं पढ़मं होइ मंगलं !!
अर्थ- यह पञ्च नमस्कार मंत्र समस्त पापों का नाश करने वाला है और समस्त मंगलों में पहिला मंगल है!
अर्हं-मित्य-क्षरं ब्रह्म:-वाचकं परमेष्ठिनः।
सिद्ध-चक्रस्य सद्बीजं सर्वतःप्रणमाम्यहम् ॥
अर्थ- अर्हं,यह बीजाक्षर, अर्हंत परमेष्ठी की आत्मा को बताने वाला है अर्थात अर्हन्त परमेष्ठी का वाचक है!यह सिद्ध परमेष्ठी के समूह का श्रेष्ठ मूल बीजाक्षर है (सिद्ध यंत्र के मध्य में लिखा जाता है) मै सब प्रकार(मन, वचन, काय, कृत, कारित, अनुमोदना) से इस 'अर्हं' बीजाक्षर को मैं प्रणाम करता हूँ !
सिद्ध भगवान् की वंदना-
कर्माष्टक विर्निमुक्तं,मोक्ष लक्ष्मी-निकेतनं।
सम्यक्तवादि-गुणोपेतं-सिद्धचक्रं नमाम्यहम्॥
अर्थ-जो अष्ट कर्मों से रहित हो गए है, और मोक्ष लक्ष्मी जिनका निवास है (मोक्ष लक्ष्मी सहित हो गए है), सिद्धालय में विराजमान है, सम्यक्त्वादि आठ गुणों सहित है, ऐसे सिद्धों के समूह को मैं नमस्कार करता हूँ !
विघ्नौघाः प्रलयं- यान्ति, शाकिनी- भूत-पन्नगाः ।
विषं निर्विषतां याति, स्तूयमाने,जिनेश्वरे ॥७॥
अर्थ- जिनेन्द्र भगवान् का स्तवन करने से विघ्नों का समूह नष्ट हो जाते है, डाकिनी ,भूत और सर्प का भय भी समाप्त हो जाता है, विष निर्विषत्व (अमृत्व ) को प्राप्त हो जाता है !
पुष्पांजलि क्षिपेत् !
पुष्प (पीले चावल)अर्पित करता हूँ !
पंचपरमेष्ठी का अर्घ्य
उदक-चंदन-तंदुल-पुष्पकैश्चरु-सुदीप-सुधूप-फलार्घ्यकैः |
धवल-मंगल-गान-रवाकुले जिनगृहे जिननाथमहं यजे ||
अर्थ - मैं उज्जवल मंगल गीतो के द्वारा पंचपरमेष्ठी तथा समस्त जिनालयों की वंदना करते हुए जल, चंदन, अक्षत, पुष्प, नैवेद्य, दीप, धूप, फल तथा सम्पूर्ण अर्घ्य समर्पित करता हूं।
ॐ ह्रीं श्री अर्हंत-सिद्धाचार्योपाध्याय-सर्वसाधुभ्योऽर्घ्यं निर्वपामीति स्वाहा ||
अर्थ - मैं अर्हंत-सिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधु इन पांचों परमेष्ठी के चरणों में अर्घ्य समर्पित करता हूं!
पूजा प्रतिज्ञा पाठ
श्रीमज्जिनेन्द्रमभिवंद्य जगत्त्रयेशम् |
स्याद्वाद-नायक-मनंत-चतुष्टयार्हम् ||
श्रीमूलसंघ-सुदृशां सुकृतैकहेतुर |
जैनेन्द्र-यज्ञ-विधिरेष मयाऽभ्यधायि |1|
अर्थ – मैं तीनों लोकों के स्वामियों द्वारा वन्दित, स्याद्वाद के प्रणेता, अनंत चतुष्टय (अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंत सुख, अनंत वीर्य) युक्त जिनेन्द्र भगवान को नमस्कार करके मूलसंघ (आचार्य श्री कुन्द कुन्द स्वामी की परम्परा) के अनुसार सम्यक् दृष्टि जीवों के लिए कल्याणकारी जिन पूजा की विधि आरम्भ करता हूँ।|1|
स्वस्ति त्रिलोक-गुरवे जिन-पुंगवाय |
स्वस्ति स्वभाव-महिमोदय-सुस्थिताय ||
स्वस्ति प्रकाश-सहजोर्ज्जितं दृगंमयाय |
स्वस्ति प्रसन्न-ललिताद् भुत-वैभवाय |2|
अर्थ - तीन लोक के गुरु जिन भगवान (के स्मरण) के लिए स्वस्ति (पुष्प अर्पण) | स्वभाव (अन्तत चतुष्टय) में सुस्थित महामहिम (के स्मरण) के लिये स्वस्ति (पुष्प अर्पण) | सम्यक दर्शन-ज्ञान, चारित्रमय (जिन भगवान के स्मरण) के लिये स्वस्ति (पुष्प अर्पण) | प्रसन्न, ललित एवं समवशरण रुप अदभुत् वैभव धारी (के स्मरण) के लिये स्वस्ति (पुष्प अर्पण) |2|
स्वस्त्युच्छलद्विमल-बोध-सुधा-प्लवाय |
स्वस्ति स्वभाव-परभाव-विभासकाय ||
स्वस्ति त्रिलोक-विततैक-चिदुद्गमाय |
स्वस्ति त्रिकाल-सकलायत-विस्तृताय |3|
अर्थ - सतत् तरंगित निर्मल केवल ज्ञान अमृत प्रवाहक (के स्मरण) के लिये स्वस्ति (पुष्प अर्पण) | स्वभाव-परभाव के भेद-प्रकाशक (के स्मरण) के लिये स्वस्ति (पुष्प अर्पण) | तीनों लोकों के समस्त पदार्थों के ज्ञायक (के स्मरण) के लिये स्वस्ति (पुष्प अर्पण) | (भूत, भविष्यत्, वर्तमान) तीनों कालों में समस्त आकाश में फैले व्याप्त (के स्मरण) के लिये स्वस्ति (पुष्प अर्पण) |3|
द्रव्यस्य शुद्धिमधिगम्य यथानुरुपम् |
भावस्य शुद्धिमधिकामधिगंतुकामः ||
आलंबनानि विविधान्यवलम्बय वल्गन् |
भूतार्थ यज्ञ-पुरुषस्य करोमि यज्ञम् |4|
अर्थ – अपने भावों की परम शुद्धता को पाने का अभिलाषी मैं देश व काल के अनुरुप जल चन्दनादि द्रव्यों को शुद्ध बनाकर जिन स्तवन, जिन बिम्ब दर्शन, ध्यान आदि अवलम्बों का आश्रय लेकर उन जैसा ही बनने हेतु पूजा के लक्ष्य (जिनेन्द्र भगवान की) की पूजा करता हूँ |4|
अर्हत्पुराण – पुरुषोत्तम – पावनानि |
वस्तून्यनूनमखिलान्ययमेक एव ||
अस्मिन् ज्वलद्विमल-केवल-बोधवह्रौ |
पुण्यं समग्रमहमेकमना जुहोमि |5|
अर्थ – न उत्तम व पावन पौराणिक महापुरुषों में सचमुच गुरुता, न मुझ में लघुता है, (दोनों एक समान हैं) इस भाव से अपना समस्त पुण्य एकाग्र मन से विमल केवल ज्ञान रुपी अग्नि में होम करता हूँ |5|
ॐ ह्रीं विधियज्ञ प्रतिज्ञायै जिनप्रतिमाग्रे पुष्पांजलिं क्षिपामि |
अर्थ - मैं जिनपुजन की प्रतिज्ञा करते हुए, जिनप्रतिमा के सामने पुष्प अर्पित (पीले चावल) करता हूं।
स्वस्ति मंगल विधान
श्री वृषभो न: स्वस्ति, स्वस्ति श्री अजित:|
श्री संभव: स्वस्ति, स्वस्ति श्री अभिनंदन:|
श्री सुमति: स्वस्ति, स्वस्ति श्री पद्मप्रभ:|
श्री सुपार्श्वः स्वस्ति, स्वस्ति श्री चन्द्रप्रभ:|
श्री पुष्पदंत: स्वस्ति, स्वस्ति श्री शीतल:|
श्री श्रेयांस: स्वस्ति, स्वस्ति श्री वासुपूज्य:|
श्री विमल: स्वस्ति, स्वस्ति श्री अनंत:|
श्री धर्म: स्वस्ति, स्वस्ति श्री शांति:|
श्री कुंथु: स्वस्ति, स्वस्ति श्री अरहनाथ:|
श्री मल्लि: स्वस्ति, स्वस्ति श्री मुनिसुव्रत:|
श्री नमि: स्वस्ति, स्वस्ति श्री नेमिनाथ:|
श्री पार्श्व: स्वस्ति, स्वस्ति श्री वर्द्धमान:|
अर्थ– श्री ऋषभ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री अजित जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री सम्भव जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री अभिनंदन जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री सुमति जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री पद्मप्रभ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री सुपार्श्व जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री चंद्रप्रभ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री पुष्पदंत जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री शीतलनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री श्रेयांसनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री वासुपुज्य जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री विमलनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री अनंतनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री धर्मनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री शांतिनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री कुंथुनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री अरनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री मल्लिनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री मुनिसुव्रत नाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री नमिनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री नेमिनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री पार्श्वनाथ जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो,
श्री वर्धमान जिन हम सबके लिए है मंगलस्वरूप हो।
।इति श्रीचतुर्विंशति तीर्थंकर स्वस्ति मंगलविधानं पुष्पांजलिं क्षिपामि।।
अर्थ - मैं मंगल स्वरूप भरतक्षेत्र के वर्तमान चौबीस तीर्थंकर के चरणों में पुष्प (पीले चावल) अर्पित करता हूं।
परमर्षि-स्वस्ति-मंगल-विधान
18 बुद्धि ऋद्धियाँ
नित्याप्रकंपाद्भुत-केवलौघाः, स्फुरन्मनः पर्यय-शुद्धबोधाः
दिव्यावधिज्ञान-बलप्रबोधाः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥ १ ॥
अन्वयार्थ - अविनाशी अचल अद्भुत केवल ज्ञान के धारक मुनिराज, दैदीप्यमान मन पर्यय ज्ञान रूप शुद्ध ज्ञान वाले मुनिराज और दिव्य अवधिज्ञान के बल से प्रबुद्ध महा ऋद्धि धारी ऋषि हमारा कल्याण करें।
1) [केवलज्ञान बुद्धि ऋद्धि]- सभी द्रव्यों के समस्त गुण एवं पर्यायें एक साथ देखने व जान सकने की शक्ति ।
2) [मन:पर्ययज्ञान बुद्धि ऋद्धि]- अढ़ाई द्वीपों के सब जीवों के मन की बात जान सकने की शक्ति।
3) [अवधिज्ञान बुद्धि ऋद्धि]- द्रव्य, क्षेत्र, काल की अवधि (सीमाओं) में विद्यमान पदार्थो को जान सकने की शक्ति।
कोष्ठस्थ-धान्योपममेकबीजं, संभिन्न-संश्रोतृ-पदानुसारि
चतुर्विधं बुद्धिबलं दधानाः, , स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥२॥
अन्वयार्थ : कोष्ठ-बुद्धि, एक-बीज, संभिन-संश्रोतृत्व और पादानुसारणी इन चार प्रकार की बुद्धि ऋद्धि को धारण करनेवाले ऋषीराज हम सबका मंगल करें।
4) [कोष्ठ-बुद्धि ऋद्धि] - जिस प्रकार भंडार में हीरा, पन्ना पुखराज चाँदी सोना धान्य आदि जहाँ रख दिए जावे बहुत समय बीत जाने पर यदि वे निकाले जावे तो जैसे के तैसे न कम न अधिक भिन्न भिन्न उसी स्थान पर रखे मिलते हैं जैसे ही सिद्धान्त न्याय व्याकरणादि के सूत्र गद्य पद्य ग्रन्थ जिस प्रकार पढे थे सुने थे पढ़ाये अथवा मनन किए थे बहुत समय बीत जाने पर भी यदि पूछा जाए तो न एक भी अक्षर घट कर न बढ़कर, न पलट कर, भिन्न-भिन्न ग्रन्थों को सुना दे ऐसी शक्ति।
5) [एक बीज ऋद्धि]- ग्रन्थों के एक बीज अर्थात् मूल पद के द्वारा उसके अनेक प्रकार के अर्थों को जान लेना।
6)[ संभिनसंश्रोतृत्व ऋद्धि]- बारह योजन लम्बे नौ योजन चौड़े क्षेत्र में ठहरने वाली चक्रवर्ती की सेना के हाथी, घोड़ा, ऊँट, बैल, पक्षी, मनुष्य आदि सभी के अक्षर अनक्षर रूप नाना प्रकार के शब्दों को एक साथ अलग अलग सुनने की शक्ति ।
7) [पादानुसारणी ऋद्धि] - ग्रन्थ के आदि के मध्य के या अन्त के एक पद को सुनकर सम्पूर्ण ग्रन्थ को कह देने की शक्ति ।
8) [दूर-स्पर्शन ऋद्धि]- मनुष्य यदि दूर से स्पर्शन करना चाहे तो अधिक से अधिक नौ योजन दूरी के पदार्थों का स्पर्शन जान सकता है। किन्तु मुनिराज दिव्य मतिज्ञानादि के बल से संख्यात योजन दूरवर्ती पदार्थ का स्पर्शन कर लेते है।
संस्पर्शनं संश्रवणं च दूरादास्वादन-घ्राण-विलोकनानि
दिव्यान् मतिज्ञान-बलाद्वहंतः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥३॥
अन्वयार्थ- दिव्य मति ज्ञान के बल से दूर से ही स्पर्शन, श्रवण, आस्वादन, घाण और अवलोकन रूप पाँच इन्द्रियों के विषयों धारण करने वाले ऋषीराज हम लोगों का कल्याण करें।
9) [दूर-श्रवण ऋद्धि]- मनुष्य यदि दूरवर्ती शब्द को सुनना चाहे तो बारह योजन तक के दूरवर्ती शब्द सुन सकता है अधिक नहीं, किन्तु मुनिराज दिव्य मतिज्ञादि के बल से संख्यात योजन दूरवर्ती शब्द सुन लेते हैं।
10 ) [दूर-आस्वादन ऋद्धि]- मनुष्य अधिक से अधिक नौ योजन दूर पदार्थों का रस जान सकता है किन्तु मुनिराज दिव्य मतिज्ञानादि के बल से संख्यात योजन दूर स्थित पदार्थ का रस जान लेते हैं।
11) [दूर-घ्राण ऋद्धि]- मनुष्य अधिक से अधिक नौ योजन दूर स्थित पदार्थ की गंध ले सकता है किन्तु मुनिराज के बल से संख्यात योजन दूर स्थित पदार्थों की गंध जान लेते हैं।
12) [दूरावलोकन ऋद्धि]- मनुष्य अधिकतम सैतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन दूर स्थित पदार्थ को देख सकता है, किन्तु मुनिराज दिव्य मतिज्ञानादि के बल से हजारों योजन दूर स्थित पदार्थों को देख लेते हैं।
प्रज्ञा-प्रधानाः श्रमणाः समृद्धाः, प्रत्येकबुद्धाः दशसर्वपूर्वैः
प्रवादिनोऽष्टांग-निमित्त-विज्ञाः, स्वस्ति
क्रियासुः परमर्षयो नः ॥४॥
अन्वयार्थ- प्रज्ञा, श्रमण, प्रत्येक बुद्ध, अभिन्न-दशपूर्वी, चतुर्दश-पूर्वी प्रवादित्व, अष्टांग-महानिमित्तज्ञ मुनिवर हमारा कल्याण करें।
13)[ प्रज्ञा-श्रमणत्व ऋद्धि]- जिस ऋद्धि के बल से पदार्थों के अत्यन्त सूक्ष्म तत्वों को जिनकों की केवली एवं श्रुत केवली ही बतला सकते हैं द्वादशांग चौदह पूर्व पढ़े बिना ही बतला देते हैं।
14) [प्रत्येक बुद्ध ऋद्धि]- अन्य किसी के उपदेश के बिना ही जिस शक्ति के द्वारा ज्ञान संयम व्रत का विधान निरूपण किया जाता है।
15) [दशपूर्वित्व ऋद्धि]- दसवां पूर्व पढ़ने से अनेक महा-विद्याओं के प्रकट होने पर भी चारित्र से चलायमान नहीं होना।
16) [चतुर्दश-पूर्वित्व ऋद्धि]- सम्पूर्ण श्रुत ज्ञान प्राप्त हो जाना।
17) [प्रवादित्व ऋद्धि]- जिस शक्ति के द्वारा क्षुद्रवादियों की तो क्या यदि इन्द्र भी शास्त्रार्थ करने आए तो उसे भी निरुत्तर कर दे।
18) [अष्टांग-महानिमित्त ऋद्धि]- अन्तरिक्ष, भौम, अग, स्वर, व्यञ्जन, लक्षण, छिन्न, स्वप्न इन आठ महा-निमित्तों का ज्ञान ।
नौ चारण ऋद्धियाँ
जंघा-वह्नि-श्रेणि-फलांबु-तंतु-प्रसून-बीजांकुर-चारणाह्वाः
नभोऽगंण-स्वैर-विहारिणश्च स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥५॥
अन्वयार्थ : जघा, अग्नि शिखा, श्रेणी, फल, जल, तन्तु, पुष्प, बीज, और अकुर पर चलने वाले चारण बुद्धि के धारक तथा आकाश में स्वच्छ विहार करने वाले मुनिराज हमारा कल्याण करें।
1) [जंघा - चारण ऋद्धि]- पृथ्वी से चार अंगुल ऊपर आकाश में जंघा को बिना उठाये सैकड़ों योजन गमन करने की शक्ति।
2) [अग्नि-शिखाचारण ऋद्धि]- अग्नि शिखा पर गमन करने से अग्नि शिखाओं में स्थित जीवों की विराधना नहीं होती।
3) [श्रेणी-चारण ऋद्धि]- आकाश श्रेणी में गमन करते हुए सब जाति के जीव की रक्षा करना।
4) [फल- चारण ऋद्धि]- आकाश में गमन करते हुए फलों पर भी चले तो भी किसी प्रकार जीवों की हानि नहीं होती।
5) [जल-चारण ऋद्धिजल]- पर गमन करने से भी जीवों की हिंसा न हो।
6) [तन्तु-चारण ऋद्धि]- तन्तु अर्थात् मकड़ी के जाले के समान तन्तुओं पर भी चले तो वे टूटते नहीं।
7) [पुष्प-चारण ऋद्धि]- फूलों पर गमन करने से उनमें स्थित जीवों की विराधना नहीं होती।
8) [बीजांकुर-चारण ऋद्धि]- बीजरूप पदार्थों एवं अंकुरों पर गमन करने से उन्हें किसी प्रकार हानि नहीं होती।
9) [नभ-चारण ऋद्धि]- कायोत्सर्ग की मुद्रा में पद्मासन या खड़गासन में गमन करना ।
तीन बल ऋद्धियाँ
अणिम्नि दक्षाः कुशलाः महिम्नि, लघिम्नि शक्ताः कृतिनो गरिम्णि
मनो-वपुर्वाग्बलिनश्च
नित्यं, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो
नः ॥६॥
अन्वयार्थ- अणिमा, महिमा, लघिमा और गरिमा ऋद्धि में कुशल तथा मन, वचन, काय बल ऋद्धि के धारक मुनिराज हमारा कल्याण करें।
1) [मनो-बल ऋद्धि]- अन्तर्मुहूर्त में ही समस्त द्वादशांग के पदार्थों को विचार लेना।
2) [वचन-बल ऋद्धि]- सम्पूर्ण श्रुत का अन्तर्मुहूर्त में पाठ कर लेना फिर जिव्हा, कंठ आदि में शुष्कता एवं थकावट न होना।
3) [काय-बल ऋद्धि]- एक मास चातुर्मासिक आदि बहुत समय तक कायोत्सर्ग करने पर भी शरीर का बल कान्ति आदि थोड़ा भी कम न होना एवं तीनों लोकों को कनिष्ठ अगुली पर उठाने की सामर्थ्य का होना ।
ग्यारह विक्रिया ऋद्धियाँ
सकामरुपित्व-वशित्वमैश्यं, प्राकाम्यमन्तर्द्धिमथाप्तिमाप्ताः
तथाऽप्रतीघातगुणप्रधानाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो
नः ॥७॥
अन्वयार्थ- कामरूपित्व, वशित्व, ईशित्व, प्राकम्य, अन्तर्धान, आप्ति तथा अप्रतिघात विक्रिया ऋद्धि से सम्पन्न मुनिराज हमारा कुशल करें।
1) [अणिमा ऋद्धि]- परमाणु के समान अपने शरीर को छोटा बना लेना।
2) [ महिमा ऋद्धि]- सुमेरु पर्वत से भी बड़ा शरीर बना लेना।
3) [लघिमा ऋद्धि]- वायु से भी हल्का शरीर बना लेना।
4) [गरिमा ऋद्धि]- वज्र से भी भारी शरीर बना लेना।
5) [ कामरूपित्व ऋद्धि- एक साथ अनेक आकार वाले अनेक शरीरों को बना लेना।
6 ) [ वशित्व ऋद्धि]- तप बल से सभी जीवों को अपने वश में कर लेना।
7) [ईशित्व ऋद्धि]- तीन लोक की प्रभुता होना।
8) [प्राकम्य ऋद्धि]- जल में पृथ्वी की तरह और पृथ्वी में जल की तरह चलना।
9) [अन्तर्धान ऋद्धि]- तुरन्त अदृश्य होने की शक्ति।
10) [आप्ति ऋद्धि]- भूमि पर बैठे हुए ही अंगुली से सुमेरू पर्वत की चोटी सूर्य और चन्द्रमा को छू लेना।
11) [अप्रतिघात ऋद्धि]- पर्वतों के मध्य से खुले मैदान के समान आना-जाना रुकावट न आना।
सात तप ऋद्धियाँ
दीप्तं च तप्तं च तथा महोग्रं, घोरं तपो घोर पराक्रमस्थाः
ब्रह्मापरं घोर गुणाश्चरन्तः, स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥८॥
अन्वयार्थ- दीप्ति, तप्त, महाउग्र, घोर तप और घोर पराक्रम के तथा अघोर-ब्रह्मचर्य इन सात तप ऋद्धि के धारी मुनिराज हमारा कल्याण करें।
1) [दीप्ति ऋद्धि]- बड़े-बड़े उपवास करते हुए भी मनोबल, वचन बल का यवल का बढ़ना शरीर में सुगंधि आना, सुगंधित निश्वास निकलना, तथा शरीर में भ्लानता न होकर महा कान्ति का होना।
2) [तप्त ऋद्धि]- भोजन से मलमूत्र रक्त मांस आदि का न बनना गरम कढ़ाही में पानी की तरह सूख जाना।
3) [महाउग्र ऋद्धि]- एक दो चार छह पक्ष मास उपवास आदि में से किसी एक को धारण करके मरण पर्यन्त न छोड़ना।
4) [ घोर तप ऋद्धि]- भयानक रोगों से पीड़ित होने पर भी उपवास व काय क्लेश आदि से नहीं हटना ।
5) [घोर-पराक्रम ऋद्धि]- दुष्ट राक्षस पिशाच के निवास स्थान भयानक जानवरों से व्याप्त पर्वत, गुफा श्मशान सूने गाँव में निवास करने वाले समुद्र के जल को सुखा देना एवं तीनों लोकों को उठा के फैंक देने की सामर्थ्य ।
6 ) [महाघोर ऋद्धि]- सिंह निक्रीडित आदि महा उपवासों को करते रहना।
7) [अघोर ब्रह्मचर्य ऋद्धि]- चिरकाल तक तपश्चरण करने के कारण स्वप्न में भी ब्रह्मचर्य से न डिगना आदि विकार परिस्थिति मिलने पर भी ब्रह्मचर्य में दृढ रहना।
आठ औषधि ऋद्धियाँ
आमर्ष-सर्वौषधयस्तथाशीर्विषाविषा दृष्टिविषाविषाश्च
स-खिल्ल-विज्जल-मलौषधीशाः स्वस्ति क्रियासुः परमर्षयो नः ॥९॥
अन्वयार्थ - आमर्शोषधि, सर्वोषधि, आशी अविष, दृष्टि विष, वेलौषधि, विडोषधि, जल्लोषधि, मनीषधि, आशीविष रस, दृष्टि विष रस के थारी परम ऋषि हमारा कल्याण करें।
1) [आमशॉषधि ऋद्धि]- जिनके हाथ पैर आदि को छूने से एवं समीप आने मात्र से ही सब रोग दूर हो जाए।
2) [सर्वोषधि ऋद्धि]- जिनके समस्त शरीरके स्पर्श करने वाली वायु ही समस्त रोगों को दूर कर देती है।
3) [आशीअविष ऋद्धि]- महाविष व्याप्त पुरुष भी जिनके आशीर्वाद रूप शब्द सुनने से निरोग या निर्विष हो जाता है।
4) [दृष्टि (दष्टिनिर्विष) विष ऋद्धि]- महाविष व्याप्त पुरुष भी जिनकी दृष्टि से निर्विष हो जाए।
5) [क्ष्वेलौषधि ऋद्धि]- जिनके थूक, कफ आदि से लगी हुई हवा के स्पर्श से ही रोग दूर हो जावें।
6) [विडौषधि ऋद्धि]- जिनके मल (विष्ठा) से स्पर्श की हुई वायु ही रोग नाशक हो।
7) [जल्लौषधि ऋद्धि]- जिनके शरीर के पसीने में लगी हुई धूल महारोग नाशक होती है।
8) [मलीषधि ऋद्धि]- जिनके दात, कान, नाक, नेत्र आदि का मैल सर्व रोग नाशक होता है।
छह रस ऋद्धियाँ एवं दो अक्षीण ऋद्धियाँ
क्षीरं स्रवंतोऽत्र घृतं स्रवंतः, मधु स्रवंतोऽप्यमृतं स्रवंतः
अक्षीणसंवास-महानसाश्च स्वस्ति
क्रियासुः परमर्षयो नः ॥१०॥
अन्वयार्थ - क्षीरस्रावी, घृतस्रावी, मधुस्रावि, अमृतस्रावि तथा अक्षीण सवास और अक्षीण महानस ऋद्धि धारी मुनिवर हमारे लिए मंगल करें।
1) [आशीविष रस ऋद्धि- जिन मुनि के कर्म उदय से क्रोधपूर्वक मर जाओ शब्द निकल जाय तो वह व्यक्ति तत्काल हो जाता है।
2) [दृष्टि विष रस ऋद्धि] - मुनि की कोच पूर्ण दृष्टि जिस व्यक्ति पर पड़ जाये वह तत्काल मृत्यु को प्राप्त हो जाता है।
3) [क्षीरस्त्रावी ऋद्धि] - नीरस भोजन भी जिनके हाथों में आते ही दूध के समान गुणकारी हो जाते अथवा जिनके वचन सुनने से क्षीण पुरुष भी दूध के समान बल को प्राप्त करे।
4) [घृतस्रावी ऋद्धि]- नीरस भोजन भी जिनके हाथों में आते ही घी के समान बलवर्धक हो एवं जिनके वचन घृत के समान तृप्ति करें।
5) [मधुस्रावि ऋद्धि]- नीरस भोजन भी जिनके हाथों में आते ही मधुर हो जाए अथवा जिनके वचन सुनकर दुःखी प्राणी भी साता का अनुभव करे।
6) [अमृतस्त्रावि ऋद्धि]- नीरस भोजन भी जिनके हाथों में आते ही अमृत के समान पुष्टि कारक हो जाए अथवा जिनके वचन अमृत के समान आरोग्य कारी हो ।
1) [अक्षीण संवास ऋद्धि]- जिनके निवास स्थान में इन्द्र देव, चक्रवर्ती की सैना भी बिना किसी परस्पर विरोध के ठहर सके उसे अक्षीण संवास ऋद्धि कहते है।
2) [अक्षीण महानस ऋद्धि]- ऋद्धिधारी मुनिराज जिस पात्र आहार करे उस दिन उस पात्र में बचा हुआ आहार चक्रवर्ती की सेना भी कर जाये तब भी आहार कम नहीं पड़े।
।।इति परमर्षि–स्वस्ति–मंगल–विधानं पुष्पांजलिं क्षिपामि।।
अर्थ - मैं परम इन 64 ऋद्धि प्राप्त ऋषियों की भक्ति करते हुए पुष्प (पीले चावल) अर्पित करता हूं।
--संकलित
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