भजन:- ध्याने लगा हूं...
तर्ज :- जीने लगा हूं...
ध्याने लगा हूं, पहले से ज्यादा,
पहले से ज्यादा, निज को ध्याने लगा....
होऽऽऽ...होऽऽऽ...होऽऽऽ....होऽऽऽ...
कर्म और आत्मा का अनादि से,
एक क्षेत्र अवगाह सम्बन्ध है।
फिर भी यह जीव को छूता नहीं,
जीव सदा उससे भिन्न रहे.......
ध्याने लगा हूं, पहले से ज्यादा.....
रहते है अन्तर में आकर के,
बाहर से दृष्टि हटा के - 3
बढ़ती है शुद्धि, पहले से ज्यादा..
पहले से ज्यादा, निज को ध्याने लगा....
होऽऽऽ...होऽऽऽ...होऽऽऽ....होऽऽऽ...
आत्म ध्यान में लीन रहे हम,
अष्ट कर्म के नाश करन को -3
जलने लगे कर्म, पहले से ज्यादा...
पहले से ज्यादा, निज को ध्याने लगा....
होऽऽऽ...होऽऽऽ...होऽऽऽ....होऽऽऽ...
लीन रहे हम निज आतम में,
मिथ्यातम के नाश करन को -3
मिथ्या नशाया, पहले से ज्यादा...
पहले से ज्यादा, निज को ध्याने लगा....
होऽऽऽ...होऽऽऽ...होऽऽऽ....होऽऽऽ...
पर में तन्मय होने वाला,
क्यों निज ज्ञान तू खोय -3
बढ़ता है ज्ञान, पहले से ज्यादा...
पहले से ज्यादा, निज को ध्याने लगा....
होऽऽऽ...होऽऽऽ...होऽऽऽ....होऽऽऽ...
***
भजन:- सम्यकत्व बिन सुख..
(तर्ज:- हम तेरे बिन अब)
सम्यक्त्व बिन सुख पा नहीं सकते, सम्यक्त्व बिन क्या आत्म मेरा।
सम्यक्त्व अगर हो जाएगा तो, दुःखो से हो जाएंगे जुदा।
क्योंकि आत्मा सुख सागर है, और दुःख से रहित है...
आत्मा मिथ्या मान्यता के ही कारण दुःखी है....
जीव और कर्म का बंध है कैसा,
एक साथ पर भिन्न रहें।
कर्मो से फिर दृष्टि हटाके,
अपने में ही लीन रहें।
कोई पल भी मेरा ना हो आत्म बिना हर समय ही आत्मा का ध्यान..........
क्योंकि आत्मा सुख सागर है, और दुःख से रहित है,
आत्मा मिथ्या मान्यता के ही कारण दुःखी है....
मिथ्यात्व कारण ही भ्रमा में,
सुख को पाऊं निज को ध्या में,
अब संसार में नहीं भ्रमना...
है सच्चे सुख को ही पाना...
कोई लम्हा मेरा न हो ध्यान बिना हर समय ही आत्मा का ध्यान..........
क्योंकि आत्मा सुख सागर है, और दुःख से रहित है,
आत्मा मिथ्या मान्यता के ही कारण दुःखी है....
***
भजन:- भ्रम रहा हूं मैं...
(तर्ज:- सुन रहा है न तू)
अपने करम की सजा पाएं........
भ्रम रहा हूं में, चारो गतियों में।
दुःख पा रहा हूं में, लख चौरासी में।।
मंजिले... ना मिली , मारग ना मिलने से...
मंजिल थी सच्चा सुख पाना, लेकिन दुःख ही मिले..
पुण्य पाप करते रहे... दानादी करते रहे.....
अपने करम की सजा पाएं....-२
भ्रम रहा हूं में...
पाप तो करते समय, मन भी न घबराया,
दुःखी थे तब हुए, जब पाप उदय आया।
फिर सुख की खोज में.. मन्दिर के फेरे लगे......
हे प्रभु! सुख दे, धन दे दौलत दे,
मेरे परिवार को सुख ही सुख से भर दे..
ऐसी थी मांगे की, मिथ्यात्व में पड़कर,
और इसके फल में दुःख ही दुःख मैने भोगे।।
अपने करम की सजा पाएं....-२
भ्रम रहा हूं में...
मंजिल... को पाना है तो, सच्चा मारग खोजो।
पर से... दृष्टि हटाकर, स्व की ओर मोड़ो..
तुम्हें निज की.. जरूरत है..., निज ही एक मंजिल है...
पर से दृष्टि हटा, निज में दृष्टि लगा,
संसार को छोड़ खुद में ही तू रम जा,
आतम से आतम को, आतम में ही पाजा,
अपनी ही निज शुद्धातम में तू रम जा।
अपने ध्यान का फल पाएं.....-२
जा रहा हूं में... , अपने निज घर में,
सुख पाऊंगा में... अपने निज घर में..
***
ध्यान के विषय पर गुरु शिष्य के संवाद रूप एक भजन :-
(तर्ज:- चाहूं में आना...)
शिष्य :- है गुरु मार्ग बता दो, चाहूं सुख पाना।
पापों से मुझको छुड़ा लो, चाहूं सुख पाना।।
गुरु:- पापों से बचना तुझको, सुखी है होना तुझको,
कर ले तू अपना ही ध्यान....
शिष्य:- पापों का डेरा मुझ पर, कर्मों का घेरा मुझ पर,
कैसे करूं मैं इतना ध्यान हो....
है गुरु मार्ग बता दो...
शिष्य:- अपनी ही भूल के कारण हूं मैं दुखी..हो....
कैसे होऊं मैं प्रभु आपकी तरह सुखी..
आपने, तो सारे, कर्मों को दिया भगा
दु:ख दूर करके ही सुख को प्राप्त किया..
मुझको भी सुखी करा दो... चाहूं सुख पाना...
है गुरु मार्ग बता दो...
गुरु:- होना, गर सुखी, तो जान ले खुद को तू..
दुनिया को, जानने, की इच्छा से दु:खी तू..
दुनिया तो स्वयं ही आएगी जानने में
अपने आप को अगर जान लेगा तू
अनंत सुखी होगा तू... जिन ने कहा
है गुरु मार्ग बता दो...
शिष्य:- जब भी ध्यान करूं, तब आए दुनिया याद
कैसे मैं मिलाऊं निज ज्ञान में निज ज्ञान
कोई, कभी कोई, आवाजे आती है
भटके या तो ध्यान या नींद आ जाती है..
उलझन मेरी सुलझा दो.. चाहूं सुख पाना..
है गुरु मार्ग बता दो...
गुरु:- दुनिया आए याद क्यों की इच्छा है जानने की,
इच्छा छोड़े गर तू , रुचि लगेगी आत्म की,
पहले तत्व निर्णय, कर, फिर तू ध्यान कर,
अपने आपकी तू खुद पहचान कर अनंत सुख है तेरे पास..
है तुझे पाना, है गुरु मार्ग बता दो...
***
भजन:- अपनी महिमा...
(तर्ज:- तेरी गलियां)
अब छूटे कर्म मेरे, अब छूटे सारे पाप,…
में कर लूं अपना ध्यान, मुझे मिला आत्म ज्ञान.........
अपनी महिमा -२ अपनी महिमा, मुझको आवे... महिमा अपनी महिमा...-२
में पर से सदा ही भिन्न हूं, और अनन्त गुणों का पिंड हूं।
शक्तियां अनन्त है.. मुझमें, फिर भी में पर में ही लीन हूं।
फैसला.... ज्ञान का.... कर लू.... अब तो निज में ही जाऊं....
अपनी महिमा -२
रागादि भी मुझमें नहीं है, पुण्य पाप भी मुझमें नहीं है,
रिश्तों का नही कोई काम है, अपने में ही मेरा धाम है।
अपने....अपने... को... अपने...में... अपने को ही सदा ध्याऊं....
अपनी महिमा -२
शस्त्रों से भी में नहीं कटता, अग्नि से भी में नहीं जलता।
पर के संग सदा ही रहता हूं, फिर भी पर से भिन्न में रहता।
काफिला.... वक़्त का... अपने ..... अपने में जाऊं....
अपनी महिमा -२
सम्यक्दर्शनादिक गुण है, सम्यक् ज्ञान भी तो मुझमें ही है।
सम्यक चारित्र भी है मुझमें, इस तरह मोक्ष ही मुझमें है।
अब तो... में... अपने.. में... अपने... को.. अपने को ही सदा ध्याऊं...
अपनी महिमा...-२
***
भजन:- मेरा ज्ञान, मेरा दर्श...
(तर्ज:- मेरा मुल्क, मेरा देश)
मेरा ज्ञान, मेरा दर्श, मेरे गुण अनन्त,
शान्ति के, सुख के, आनन्द के कारण।
इनके बिना तो निस्सार है,
चेतनम्,.... आत्मन्...
आत्मन्...आत्मन्...आत्मन्...-२
ज्ञान से में जानू सारे जग के पदार्थ को,
दर्श गुण से में देखूं सारे संसार को,
सारे गुण ही अपने-अपने कार्य में मगन,,, कार्य में मगन -२
इनके बिना तो निस्सार है,
चेतनम्,.... आत्मन्...
आत्मन्...आत्मन्...आत्मन्...-२
जैसे एक नमक में कई सारे गुण है,
वैसे एक आत्म में भी कई सारे गुण है,
सारे गुण ही अपने-अपने कार्य में मगन,,, कार्य में मगन -२
इनके बिना तो निस्सार है,
चेतनम्,.... आत्मन्...
आत्मन्...आत्मन्...आत्मन्...-२
जैसे बिखरे मोती एक दूसरे में न मिलें,
वैसे आत्म गुण भी एक दूसरे में न मिले,
सारे गुण ही अपने-अपने कार्य में मगन,,, कार्य में मगन -२
इनके बिना तो निस्सार है,
चेतनम्,.... आत्मन्...
आत्मन्...आत्मन्...आत्मन्...-२
***
भजन:- मेरे गुरुवर परम दिगम्बर...
मेरे गुरुवर, परम दिगम्बर, आतम ज्ञानी ध्यानी,
शान्त है मुद्रा प्यारी।
पांच पाप के त्यागी, पंच महाव्रत धारें।
चार कषाय त्यागी, आतम रूप निहारें।
अपने को पर से, भिन्न पर से, निज को भिन्न है जाना...
आतम रूप निहारा...
ऐसे गुरु के चरण कमल में मस्तक हमने झुकाई...
शान्त है मुद्रा प्यारी...
मेरे गुरुवर...
जब से है जग को जाना, दुनिया को पहचाना।
कोई नहीं है मेरा, और न कुछ भी पाना।
सारी दुनियां, छान के देखी, कहीं हित न पाया....
आतम हित ही सुझाया..
छोड़ के घर को, वन में जाकर, जिनदीक्षा है धारी....
शान्त है मुद्रा प्यारी...
मेरे गुरुवर...
***
भजन:- कब तक पूजा-पाठ...
(तर्ज:- कब तक याद करूं)
कब तक पूजा-पाठ करूं में, कब तक पुण्य कमाऊं।
गुरुवर ऐसा मार्ग बताओ, सच्चा सुख को पाऊं।।
जब में छोटा बच्चा था तो, णमोकार को गाया।
बड़ा होकर मन्दिर जी में, प्रक्षा ल पूजन रचाया।
सब कुछ करना इस दुनिया में, पाप कभी न करना।
पुण्य करोगे तुम जितना भी, लाभ मिलेगा उतना।।
पाप भी छोड़े, पुण्य भी किया, फिर भी सुख न पाऊं...-२
गुरुवर ऐसा मार्ग बताओ....
जब भी में सोता-उठता तो, विचार ऐसे आयें,
कौन हूं में, जाना कहां पर, और कहां से आएं।।
मम्मी ने फिर मुझे बताया, अनादि-अनन्त है हम।
ज्यादा जानना है तुमको तो पढ़ो तुम फिर जिनधर्म।।
अब मैने सोचा है कि जिनधर्म को पढू पढ़ाऊं-२
गुरुवर ऐसा मार्ग बताओ....
जैनधर्म को पढ़ने को में कोटा नगर में आया।
यहां आकर मैने शास्त्र के असीम ज्ञान को पाया।।
कैसे बनती है आतम - परमातम मैने जाना।
सम्यक्-दर्शन-ज्ञान-चारित्र के, सच्चे मार्ग को पाना।।
अब तो वन में मुनि दीक्षा ले, ऐसा ध्यान लगाऊं...
कि अंतर्मुर्हुत ही में सच्चे सुख को पाऊं...२
कब तक पूजा पाठ करूं में, कब तक पुण्य कमाऊं।
गुरुवर ऐसा मार्ग बताएं, सच्चा सुख को पाऊं.....
***
भजन:- ध्यान लगा ले रे...
(तर्ज:- अंग लगा दे रे)
ध्यान लगा ले रे, निज ध्यान लगा ले रे.....
परद्रव्यों से भिन्न निजातम ध्यान लगा ले रे...
ज्ञान रतन तन रहित निजातम ध्यान लगा रे...
परद्रव्यों से भिन्न निजातम ध्यान लगा ले रे...
क्रोध भी तू नहीं, मान भी तू नहीं,
माया तुझमें नहीं, लोभ भी तू नहीं।
इन कषायों से भिन्न निज रूप जान ले रे...
लगा ले रे...
ज्ञाता दृष्टा है तू, और अकर्ता है तू,
गुण अनन्त है तुझमें, सुख स्वरूप है तू,
तू एक शुद्ध अकर्ता निज रूप जान ले रे...
लगा ले रे...
***
भजन:- हे गुरुवर धन्य हो तुम...
हे गुरवर धन्य हो तुम, कितना परिषह सहते हो?
सर्दी-गमी या बरसात तुम अपने में रहते हो
समता रस को पीते हो, जग से न्यारे रहते हो....
हे गुरवर...
महाऋषि आचार्य अकंप ने ऐसा संघ रचाया।
घोर हुआ उपसर्ग था उन पर, फिर भी धर्म निभाया।
प्रभु के जैसे हम सब बने, सब जीवों से कहते हो..
हे प्रभुवर...
उज्जैनी के राजा श्री वर्मा थे उनके मंत्री चार।
धर्म विरोधी बालि नमुचि, और बृहस्पति प्रहलाद।
मुनि निन्दा सुनकर भी उनको जैनधर्म सिखलाते हो...
हे प्रभुवर
वाद-विवाद हुआ मुनिवर से, श्रुत सागर से वे हारे।
अपमानित हो सोच रहे थे कैसे उनको मार डालें।
उपसर्ग जान निज पर श्रुत सागर, निज स्वरूप में रहते हो..
हे प्रभुवर...
दूर किया उपसर्ग देव ने, कीलित हो गए मंत्री चार।
राजा को जब पता चला तो अपमानित कर दिया निकाल।
अकंपनादि सात सौ मुनिवर, आत्म ध्यान रत रहते हैं...
हे प्रभुवर...
मंत्री पहुँचे हस्तिनापुर, राजा था खुश उनके साथ।
मुँह माँगा वरदान माँगलो, बलि बोले लूँगा पश्चात्।
अकंपनादि मुनि हस्तिनापुर आ वीतराग समझाते हो..
हे प्रभुवर....
बलि आदि को पता चला तो राजा से मांगा वरदान।
आठ दिनों का पाके राज, उपसर्ग किया मुनि पे महान।
आग लगी है चारों ओर, पर तुम अपने में रहते हो...
हे प्रभुवर...
एक क्षुल्लक जी जान के सब कुछ विष्णुमुनि के पास गए।
पास आपके ऋद्धि विक्रिया , मुनि उपसर्ग को दूर करें।
साधर्मी पर संकट जान, उपसर्ग दूर कर देते हो...
हे प्रभुवर...
रक्षा हुई मुनि संघ की, रक्षाबंधन पर्व चला।
कर्मों से सब जीव की रक्षा रक्षाबंधन उसे कहा।
पाप -पुण्यादि कर्मों से, रक्षा निज की करते हो...
हे प्रभुवर...
***
भजन:- वीतरागी प्रभो! हे!... तुमको नमन...
वीतरागी प्रभो! हे... तुमको नमन, तेरे जैसा बनूं मैं मेरा है ये मन।
वीतरागी प्रभो!......
तेरे जैसे ही मोह को त्यागूंगा मैं।
तेरे जैसे ही घर को भी त्यागुंगा मैं।
तेरे जैसे ही वनों में जाऊंगा मैं..
तेरे जैसे ही ध्यान लगाऊंगा मैं.....
वीतरागी प्रभो! हे... तुमको नमन, तेरे जैसा बनूं मैं मेरा है ये मन।
तेरे जैसे ही व्रतों को धरूंगा मैं...
तेरे जैसे ही परिषह भी सह लूंगा मैं..
तेरे जैसे ही स्वातम में मस्त रहूं...
तेरे जैसे ही स्वातम को पाऊंगा मैं..
वीतरागी प्रभो! हे... तुमको नमन, तेरे जैसा बनूं मैं मेरा है ये मन।
तेरे जैसे ही क्रोधादि त्यागुंगा मैं..
तेरे जैसे ही रागादि त्यागुंगा मैं...
तेरे जैसे ही कर्मों को नाशूंगा मैं...
तेरे जैसे ही सिद्ध पद पाऊंगा मैं....
वीतरागी प्रभो! हे... तुमको नमन, तेरे जैसा बनूं मैं मेरा है ये मन।
***
(तर्ज:- अगर तुम मिल जाओ)
भजन :- प्रभु के गुण गाओ.....
प्रभु के गुण गाओ, गुरु भक्ति में झूमे हम - 2
जिनवाणी को पढ़ने से छूट जाते हैं सारे भ्रम...प्रभु के गुण गाओ,...
प्रभु की वीतराग मुद्रा लख निज का ध्यान आता है।
गुरू की सेवा करने से, अतिशय पुण्य होता है।
शास्त्र को पढ़ने समझने से,....
खुद को ही पा जाए हम...
प्रभु के गुण गाओ,...
प्रभु की भक्ति पूजा को, निष्फल कौन मानेंगा।
गुरु के दर्शन वंदन की, महिमा कौन जानेगा।
शास्त्र के प्रति समर्पण कर...
निज में ही अब जाए थम....
प्रभु के गुण गाओ.....
***
(तर्ज:- हमें और जीने की)
भजन:- हमें गुरू कहान का
हमें हम गुरू कहान का समागम न मिलता,
यह जिनवाणी का ज्ञान न मिलाता...
दया-दान-भक्ति करके, भव-भव ही बीते।
प्रक्षाल - पूजन.. रोज ही करते।
मगर सच्चे धर्म का मर्म न मिलता....
हमें गुरू कहान का...
गुरु ने बताया हम सब ही भगवन...
पर में एकत्व संसार का कारण...
सच्चा सुख है मुझमें... कैसे पता चलता...
हमें गुरू कहान का...
***
भजन:- सुनो संसार के प्राणी...
तर्ज:- सजन रे झूठ मत बोलो....
सुनो संसार के प्राणी
जिन्हें सुखधाम जाना है
सभी दु:खो का करके अन्त
जिन्हें सच्चा सुख पाना है
सुनो संसार के प्राणी
जिन्हें सुखधाम जाना है
सभी दु:खो का करके अन्त
जिन्हें सच्चा सुख पाना है
सुनो संसार के प्राणी....
वीतरागी ही सुखी है
हमें उन जैसा बनना है
वीतरागी ही सुखी है
हमें उन जैसा बनना है
सुनो जिनवाणी जो कहती
सुनो जिनवाणी जो कहती
उसी मारग पर चलना है
सुनो संसार के प्राणी
जिन्हें सुखधाम जाना है
देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा
सात तत्वों का हो श्रद्धान
देव-गुरु-धर्म की श्रद्धा
सात तत्वों का हो श्रद्धान
स्व-पर का हो भेदविज्ञान
स्व-पर का हो भेदविज्ञान
निज शुद्धात्म ध्याना है
सुनो संसार के प्राणी
जिन्हें सुखधाम जाना है
प्रथम तो तत्व का चिन्तन
और जब हो सम्यक् निर्णय
प्रथम तो तत्व का चिन्तन
और जब हो सम्यक् निर्णय
सभी विकल्प त्याग हो तभी
सभी विकल्प त्याग हो तभी
स्वयं का अनुभव होना है
सुनो संसार के प्राणी
जिन्हें सुखधाम जाना है
हुए जो आज तक सुखी
सभी इस ही विधि से होते
हुए जो आज तक सुखी
सभी इस ही विधि से होते
हमें इस मार्ग पर सम्यक्त्व
मोक्षमहल में जाना है
हमें इस मार्ग पर सम्यक्त्व
और सुखधाम जाना है
सुनो संसार के प्राणी
जिन्हें सुखधाम जाना है
***
तर्ज :- कभी प्यासे को पानी....
भजन :- निज आतम को मैने जाना नहीं...
निज आतम को मैने जाना नहीं,
मात्र शास्त्रों को रटने से क्या फायदा।
निज आतम का अनुभव हुआ ही नहीं,
व्रत, संयम ही कर लूं, तो क्या फायदा।
मैं तो मन्दिर गया, पूजा-भक्ति भी की,
पूजा करते हुए ये ख्याल आ गया।
पूजन-विधान का अर्थ जाना नहीं,
मात्र अर्घ्य चढ़ाने से क्या फायदा।।१।।
मैने व्रत भी किए और जप-तप किए,
व्रत करते हुए ये ख्याल आ गया।
बढ़ती इच्छाओं में कोई कमी ही नहीं,
मात्र जप-तप ही करने से क्या फायदा।।२।।
मैने शास्त्र पढ़े स्वाध्याय किया,
शास्त्र पढ़ते हुए ये ख्याल आ गया।
आत्मकल्याण का भाव आया नहीं,
मात्र शास्त्रों को पढ़ने से क्या फायदा।।३।।
ध्यान केन्द्र गया, तत्वचिन्तन किया,
चिंतन करते ही मुझको ख्याल आ गया।
कर्तत्व की बुद्धि तो छूटी नहीं,
मात्र ज्ञायक ही रट लूं तो क्या फायदा।।४।।
***
श्री मां जिनवाणी भक्ति
जिनवाणी माता की शरण आया हूं। -2
अपनी मुक्ति का रहस्य पाने आया हूं।।
जिनवाणी माता की शरण आया हूं...
कर्मों के डेरे चारों और माता मेरे है।
मिथ्यात्व के कारण अज्ञान अंधेरे है।।
ज्ञान का मैं दीप जलाने आया हूं...-2
जिनवाणी माता की शरण आया हूं...-2
पूजा-भक्ति करके शुभभाव मैने किया है।
किन्तु निज आत्मा पे ध्यान न दिया है।।
निज आत्मा का ज्ञान पाने आया हूं...-2
जिनवाणी माता की शरण आया हूं...
दान आदि करके व्यवहार सब किया है।
किन्तु मोक्षमार्ग का ज्ञान न लिया है।।
मोक्ष का ही मार्ग माता पाने आया हूं...-2
जिनवाणी माता की शरण आया हूं...
सच्चा सुख मैने बस पर में ही खोजा।
किन्तु मिला मुझको तो दुःख का ही बोझा।।
सच्चे सुख का रहस्य पाने आया हूं ...-2
जिनवाणी माता की शरण आया हूं...
~ सम्भव जैन शास्त्री, श्योपुर
पर्वोत्सव
ऐसा अवसर आया सुहाना...
ऐसा अवसर आया सुहाना,
कि देखो पर्वोत्सव है मनाना,
कि मंदिर में पुण्य करें...,
कि अंतर में धर्म करें...
दशलक्षण पर्व का, अवसर आया।
तप और ज्ञान का झंडा लहराया।।
जिनेन्द्र प्रभु की पूजन रचाएंगे,
मुनि ज्ञानियों से मोक्षमार्ग को पाएंगे, अवसर आया सुहाना,..
ऐसा अवसर आया सुहाना...
अष्टान्हिका पर्व है आए, नंदीश्वर सुर जाएं।
हम नहीं जा सकते हैं तो, पर्व यहां पर मनाए,
पर्व से पहले हम जिनमन्दिर सजाएंगे,
सिद्धचक्र-नंदीश्वर पूजन रचाएंगे, अवसर आया सुहाना...
ऐसा अवसर आया सुहाना...
छोटे-छोटे नियम लेकर, आगे बढ़ेंगे।
एक-एक सीढ़ी चलकर, मोक्ष महल पहुंचेंगे।
अष्टमी और चतुर्दशी को भी व्रत करेंगे,
जिनवाणी पढ़कर के आत्म ध्यान करेंगे,
अवसर आया सुहाना...
ऐसा अवसर आया सुहाना...
भजन - चल अकेला
चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला
यहां कोई नहीं है तेरा, चेतन चल अकेला
चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला
यदि मुक्ति पाना है तो, चेतन चल अकेला...
अनादि से
ही तू परिवार मोह में भटक रहा है...
आ...आ...आ...आ...आ...
पर में
ही सच्चे सुख को चेतन खोज रहा है...
आ...आ...आ...आ...आ...
है कौन
सा वो इन्सान जिसने पर में दुःख न झेला...
चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला
यदि
मुक्ति पाना है तो, चेतन चल
अकेला...
पर का
मोह त्यागकर निज स्वभाव में दृष्टि मोड़ ले,
आ...आ...आ...आ...आ...
निज आतम
में हो लीन, कर्मबंधन
को तोड़ दे...
आ...आ...आ...आ...आ...
सब
दु:खों से होकर मुक्त, सुख को
भोग अकेला...
चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला
यहां कोई नहीं है तेरा, चेतन चल अकेला
चल अकेला, चल अकेला, चल अकेला
यदि मुक्ति पाना है तो, चेतन चल अकेला...
~ सम्भव जैन शास्त्री, श्योपुर
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