Saturday, May 25, 2024

कानजीस्वामी (सोनगढ़िया पंथ ) और वर्तमान दिगम्बर जैन पंथ में क्या अन्तर है...


कानजी स्वामी कौन है वो दिगम्बर जैन है अथवा श्वेताम्बर?

कानजी स्वामी का जन्म गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र के एक छोटे से गाँव उमराला में 1890 में एक स्थानकवासी परिवार में हुआ था। हालाँकि वह अपने विद्यालय में एक योग्य छात्र थे, लेकिन उन्हें हमेशा यह आभास होता था कि सांसारिक शिक्षाएँ ऐसी चीज़ नहीं थीं जिनकी उन्हें तलाश थी। जब वह तेरह वर्ष के थे तब उनकी माँ का देहांत हो गया और सत्रह वर्ष की आयु में उनके पिता का देहांत हो गया। इसके बाद, उन्होंने अपने पिता की दुकान संभालनी शुरू कर दी। उन्होंने दुकान में खाली समय का उपयोग धर्म और अध्यात्म पर विभिन्न पुस्तकें पढ़ने में किया। शादी के प्रस्तावों को ठुकराते हुए, उन्होंने अपने भाई से कहा कि वह ब्रह्मचारी रहना चाहते हैं और संन्यास लेना चाहते हैं।

वे बालपन से ही साधु-सन्तों को देखकर प्रसन्न होते थे, उनकी वैयावृत्ति करना तथा उनसे जिनवाणी का ज्ञान प्राप्त करना उन्हें अच्छा लगता था, मुक्ति की अभिलाषा को लिए हुए अधिक समय धार्मिक समय वातावरण में बीते यह विचारकर उन्होंने भी स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की, तब दीक्षा उत्सव के समय गजराज हाथी पर सवार होने के दौरान उनका वस्त्र फट गया जिसे उस समय अपशकुन माना गया तथा कानजी स्वामी कहते थे कि उस समय उन्हें ऐसा आभास हुआ कि कहीं वस्त्र रहित मार्ग ही सच्चा मुक्तिमार्ग तो नहीं ?

वे मुक्ति की अभिलाषा मन में लिए हुए मुक्तिमार्ग की खोज में सदैव स्वाध्याय में तथा आध्यात्मिक शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते थे, तथा प्रवचन भी करते थे, उनके आध्यात्मिक ज्ञान और चर्या के कारण उन्हें काठियावाड़ के कोहिनूर (काठियावाड़ क्षेत्र के रत्न) के रूप में जाना जाता था।

1921 के दौरान, उन्हें किसी दामोदर सेठ ने दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य कुन्दकन्द द्वारा रचित समयसार ग्रन्थ भेंट में दिया..और कानजी स्वामी ने जब प्रथम बार उसे खोला और पहली गाथा पढ़ते ही अपनी भाषा में उनके मुख से निकला આ તો અશરીરી હોવા નું શાસ્ત્ર છે. अर्थात् यह तो अशरीरी होने का शास्त्र है।

कानजीस्वामी अकेले बैठकर प्रतिदिन समयसार ग्रन्थ का गहराई से स्वाध्याय करने लगे, तथा समय के साथ उन्हें दिगम्बर सम्प्रदाय के अन्य शास्त्र भी प्राप्त होने लगे, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड, योगसार, परमात्म प्रकाश, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, रत्नकरण्ड श्रावकाचार,   आदि अनेक दिगम्बर ग्रन्थों का गहराई से अध्ययन किया, दिगम्बर जैन शास्त्रों के प्राचीन प्रसिद्ध विद्वान पण्डित टोडरमलजी, पण्डित बनारसीदासजी, एवं श्रीमद् राजचन्द्रजी की लेखनी का भी उन्होंने गहराई से अध्ययन किया, तथा उनके जीवन, व्यवहार और भाषा में भी दिगम्बर शास्त्रों का प्रभाव दिखाई देने लगा, अपने प्रवचनों के दौरान, उन्होंने इन दिगम्बर जैन शास्त्रों के अध्ययनों से चुने गए विचारों को शामिल करना शुरू कर दिया और एक तरह का दोहरा जीवन जीना शुरू कर दिया, नाममात्र के लिए एक स्थानकवासी मठवासी रह गए किन्तु प्रतिसमय दिगम्बर ग्रन्थों  का जिक्र करते थे। 

उनका यह दावा है कि "आत्मा की समझ के बिना किए गए व्रत, दान और उपवास अंततः बेकार हैं" उन्हें स्थानकवासी समुदाय के लिए प्रिय नहीं बनाता था। उन्होंने स्थानकवासी मठवासी जीवन छोड़ दिया और 1934 में गुजरात के सोनगढ़ में खुद को ब्रह्मचारी दिगंबर विद्वान घोषित किया।

कानजी स्वामी के सोनगढ़ में भी नित्य प्रवचन होते थे, उनके प्रवचन में पुराने स्वाध्यायी जीव ही आया करते थे, और धीरे-धीरे उनके प्रवचन में श्रोताओं की संख्या बढ़ने लगी, उनके निमित्त से लगभग 1.5 लाख श्वेतांबर जैनों ने दिगम्बर जैनधर्म को ही सच्चा मुक्तिमार्ग मानकर स्वीकार किया।

ये सोनगढ़िया क्या है? सोनगढ़ और कानजी स्वामी का क्या सम्बन्ध है?

गुजरात प्रान्त के भावनगर जिले के एक छोटे से ग्राम का नाम सोनगढ़ है ये वही स्थान है जहां कानजी स्वामी ने 1934 में महावीर जयंती के शुभ अवसर पर स्थानकवासी साधुपना त्यागकर स्वयं को दिगम्बर ब्रह्मचारी सामान्य अवृती श्रावक घोषित कर दिया।..तथा यही पर प्रतिदिन दिगम्बर जैनशास्त्रों के आधार से उनके प्रवचन होने लगे तथा उनकी प्रेरणा से विशाल जिनमन्दिर और स्वाध्याय हॉल का निर्माण भी हुआ। 

इसके अलावा समय-समय पर शिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाने लगा जिसमें पुराने स्वाध्यायी विद्वान शास्त्र के आधार से नए साधर्मियों को सरल भाषा में जैनशास्त्रों का अध्ययन कराते थे। 

कानजी स्वामी अब सोनगढ़ के निवासी बन गए थे इसलिए उन्हें तथा उनके पास जो जैनशास्त्रों का अध्ययन करने उनके प्रवचन सुनने जाते है उन्हें सोनगढ़िया कहा जाने लगा।

हमने सुना है कि कानजीस्वामी दिगम्बर मुनि को नहीं मानते और वे मुनिराज की निन्दा करते है ?

अब देखो सुनी सुनाई बातों का तो कोई अर्थ नहीं होता है, सत्य तो ये है जब कानजी स्वामी से एक इंटरव्यु के दौरान यह प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने स्वयं कहा कि हम तो दिगम्बर मुनिराजों के दासानुदास (मुनिराज के दास के भी दास) है। आत्मज्ञानी दिगम्बर मुनिराज तो चलते-फिरते सिद्ध है। उनके दर्शन मिलना उन्हें आहारदान देने का अवसर जिस भक्त को मिल जाए उससे अधिक सौभाग्य शाली कोई दूसरा नहीं हो सकता। इसके अलावा कानजीस्वामी प्रवचन करते समय प्रारम्भ में णमोकर मंत्र बोलकर लोक के सभी मुनिराजों को नमस्कार करते थे, प्रतिदिन जिनमन्दिर देव-शास्त्र-गुरु पूजन करते समय देव, शास्त्र और गुरु तीनों की समान भाव से पूजा करते थे प्रतिदिन स्वयं अपने मुख से मन्दिरजी में बैठकर दिगम्बर मुनिराज का गुणगान करते थे। अपने प्रवचनों में अनेकों बार दिगम्बर मुनिराज की भक्ति में लीन होकर भावुक हो जाते थे.. इतना सब प्रसिद्ध है, प्रमाणित है, ऐसा सब करते हुए उनके फोटो, विडियो और अनेक प्रवचन उपलब्ध है, और सब कुछ प्रत्यक्ष प्रमाणित होते हुए भी कोई मात्र बदनाम करने के लिए ऐसी बातें जगत में फैला दे कि कानजीस्वामी मुनिराज को नहीं मानते तो इसमें कोई क्या कर सकता है, और सुनने वाला भी बिना प्रमाण किए, बिना सत्य का पता लगाए उसी बात को आगे बढ़ा देता है कि हमने सुना है कि कानजीस्वामी मुनि को नहीं मानते, इसप्रकार बात तो चारो तरफ फैल जाती है और सत्य का पता कोई लगाना ही नहीं चाहता, तथा ये बात भी प्रमाणित है कि जितने भी लोगों ने कही-सुनी बात पर भरोसा न करके सत्य का पता लगाया वो कानजीस्वामी के ही अनुयायी बन गए, इससे सिद्ध होता है कि कानजीस्वामी तो दिगम्बर मुनिराजों के परमभक्त थे अवश्य ही किसी ने द्वेष पूर्वक यह बात फैलाई है, और फिर भी किसी को संदेह है तो स्वयं इस विषय का पता लगाए उनके रिकॉर्डेड प्रवचन में दिगम्बर मुनिराजों की महिमा सुनकर स्वयं सत्य-असत्य का निर्णय करें, और रही बात निन्दा की तो उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में कभी किसी मुनि तो क्या किसी सामान्य विरोधी व्यक्ति की भी निन्दा नहीं की, उन्होंने अपने जीवन में किसी से कड़वे बोल तक नहीं बोले, और विश्वास नहीं तो स्वयं उनके जीवन पर रिसर्च करके पता करो, सोनगढ़ जाकर उनके व्यवहार और आचरण की सही जानकारी लेकर आओ, उनके 1000 से रिकॉर्ड प्रवचन है सुनो और कहीं भी एक लाइन भी ऐसी मिल जाए जिसमें उन्होंने किसी भी मुनि की निन्दा की हो तो बताओ, हम उसी दिन से उनके प्रवचन सुनना बंद कर देंगे।

हमने सुना है कानजी स्वामी पंचमकाल के साधु को नहीं मानते, और कानजीस्वामी कहते है कि पंचमकाल में सच्चे साधु ही नहीं होते?

यही तो समस्या है कि आपने सुना और मान लिया, स्वयं कभी सत्य जानने का प्रयास ही नहीं किया, अरे भाई कानजीस्वामी को जबसे समयसार ग्रन्थ मिला तब से उनका जीवन ही परिवर्तन हो गया था, और वो समयसार पंचमकाल के ही आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित है, कानजीस्वामी ने जीवनभर पंचमकाल के ही दिगंबर मुनिराजों के लिखे शास्त्रों पर प्रवचन किए और प्रतिदिन प्रवचन में वे कुन्दकुन्द आचार्य, उमास्वामी आचार्य अमृतचंद्राचार्य, जयसेनाचार्य, मुनि पद्मभमलधारिदेव, योगिंदु मुनि, समंतभद्र आचार्य आदि अनेक पंचमकाल के दिगंबर मुनिराजों को स्मरण किया करते थे,  और जैसा कि आपने कहा की कानजीस्वामी कहते थे कि पंचमकाल में साधु नहीं होंगे पता नहीं ये बातें कौन और कहां से फैला देते है और लोग कैसे अंधे होकर बिना किसी प्रश्न के सत्य-असत्य को जाने बिना स्वीकार भी कर लेते है, अरे भाई कानजीस्वामी ने तो अनेक शास्त्रों का गहराई से अध्ययन किया था और शास्त्र के अनुसार ही वे कहते थे कि पंचमकाल के अंत तक सच्चे दिगम्बर भावलिंगी मुनिराज होंगे, और उनके अनुयायी भी अपने प्रवचनों में ऐसा ही कहते है, यहां तक उनके अनुयायी तो भजन बनाकर ये गेट है, कि सर्वज्ञ के वचन सदा जयवंत रहेंगे, इस काल में सदा ही जैनसंत रहेंगे

पर क्या करें अंधभक्त जनता ऐसी ही होती है सत्य असत्य को जाने बिना ईधर से बात सुनी उधर निकाल दी और सही गलत को समझे बिना बातें फैल जाती है, प्रत्यक्ष सब जानते है कि कानजीस्वामी और उनके अनुयायी पंचमकाल के मुनिराज के ही ग्रन्थ पढ़ते और पढ़ाते है फिर भी किसी से सुनकर विश्वास कर लेते है कि वे पंचमकाल के मुनिराजों को नहीं मानते अत्यन्त आचार्य है।

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