श्रुतधर आचार्य की परम्परा में कुन्दकुन्दाचार्य का स्थान अत्यन्त महत्वपूर्ण है। इनकी गणना ऎसे युगसंस्थापक आचार्यों के रूप में की गयी है, जिनके नाम से उत्तरवरर्त्ती परम्परा कुन्दकुन्द-आम्नाय के नाम से प्रसिद्ध हुई है। किसी भी कार्य के प्रारम्भ में मंगलरूप में इनका स्तवन किया जाता है। मंगलस्तवन का प्रसिद्ध पद्य निम्न प्रकार है-
मंगलं भगवान वीरो मंगलं गौतमो गणी ।
मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो जैनधर्मोस्तु मंगलं ॥
जिस प्रकार भगवान महावीर, गौतम गणधर और जैनधर्म मंगलरूप हैं, उसी प्रकार कुन्दकुन्द आचार्य भी। इन जैसा प्रतिभाशाली आचार्य और द्रव्यानुयोग के क्षेत्र में प्रायः दूसरा आचार्य दिखलाई नहीं पड़ता।
आचार्य कुन्दकुन्दाचार्य के जीवन-परिचय के सम्बन्ध में विद्वानों ने सर्वसम्मति से जो स्वीकार किया है, उसके आधार पर यह कहा जा सकता है कि ये दक्षिण भारत के निवासी थे। इनके पिता का नाम गुणकीर्ति और माता का नाम शान्तला था इनका जन्म ’कौण्डकुन्दपुर’ नामक स्थान में हुआ था। इस गाँव का नाम कुरुमरई भी कहा गया है। यह स्थान पेदथानाडु नामक जिले में है। कहा जाता है कि कर्मण्डुदम्पति को बहुत दिनों तक कोई सन्तान नहीं हुई। अनन्तर एक तपस्वी ऋषि को दान देने के प्रभाव से पुत्ररत्न की प्राप्ति हुई, इस बालक का नाम आगे चलकर ग्राम के नाम पर कुन्दकुन्द प्रसिद्ध हुआ। बाल्यावस्था से ही कुन्दकुन्द प्रतिभाशाली थे। इनकी विलक्षण स्मरणशक्ति और कुशाग्रबुद्धि के कारण ग्रन्थाध्ययन में इनका अधिक समय व्यतीत नहीं हुआ। युवावस्था में इन्होंने दीक्षा ग्रहणकर आचार्यपद प्राप्त किया।
आचार्य कुन्दकुन्द का वास्तविक नाम क्या था, यह अभी तक विवादग्रस्त है। द्वादश अनुप्रेक्षा की अन्तिम गाथा में उसके रचयिता का नाम कुन्दकुन्द दिया हुआ है। जयसेनाचार्य ने समयसार की टीका में पद्मनन्दि का जयकार किया है। इन्द्रनन्दि ने अपने श्रुतावतार में कौण्डकुन्दपुर के पद्मनन्दि का निर्देश किया है। श्रवणबेलगोल के शिलालेख नं. ४० तथा ४२, ४३, ४७ और ५० वें अभिलेख में भी उक्त कथन की पुनरावृत्ति है।
स्पष्ट है कि इनका पद्मनन्दि नाम था। पर वे जन्मस्थान के नाम पर कुन्दकुन्द नाम से अधिक प्रसिद्ध हुए।
आचार्य कुन्दकुन्द के षट्प्राभृतों के टीकाकार श्रुतसागर ने प्रत्येक प्राभृत के अन्त में जो पुष्पिका अंकित की है उसमें इनके पद्मनन्दि, कुन्दकुन्द, वक्रग्रीव, एलाचार्य और गृद्धपिच्छ ये नाम दिए हैं।
इनकी परम्परा इस प्रकार है - भद्रबाहु के गुरु माघनन्दि, माघनन्दि के जिनचन्द्र और जिनचन्द्र के शिष्य कुन्दकुन्दाचार्य हुए। इनके पांच नाम थे - पद्मनन्दी, कुन्दाचार्य, वक्रग्रीवाचार्य, एलाचार्य एवं गृद्धपिच्छाचार्य। इनको जमीन से चार अंगुल ऊपर आकाश में चलने की ऋद्धि प्राप्त थी। उमास्वामी इनके शिष्य थे। भारतीय श्रमणपरम्परा में कुन्दकुन्दाचार्य का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय है। इन्होंने आध्यात्मिक योगशक्ति का विकास कर अध्यात्मविद्या की उस अवच्छिन्न धारा को जन्म दिया था जिसकी निष्ठा एवं अनुभूति आत्मानन्द की जनक थी। ये बड़े तपस्वी थे। क्षमाशील और जैनागम के रहस्य के विशिष्ट ज्ञाता थे। उनकी आत्म-साधना कठोर होते हुए भी दुखनिवृत्ति रूप सुखमार्ग की निदर्शक थी। वे अहंकार ममकार रूप कल्याण भावना से रहित तो थे ही, साथ ही उनका व्यक्तित्व असाधारण था। वास्तव में कुन्दकुन्दाचार्य श्रमण मुनियों में अग्रणी थे। यही कारण है कि - ’मंगलं भगवान वीरो’ इत्यादि पद्यों में निहित ’मंगलं कुन्दकुन्दाद्यो’ वाक्य के द्वारा मंगल कार्यों में आपका प्रतिदिन स्मरण किया जाता है।
प्रथम श्रुतस्कन्धरूप आगम की रचना धरसेनाचार्य के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि द्वारा हो रही थी। द्वितीय श्रुतस्कन्धरूप परमागम का क्षेत्र खाली था। मुक्तिमार्ग का मूल तो परमागम ही है अतः उसका व्यस्थित होना आवश्यक था तथा वही कार्य आपने पूर्ण किया।
दिगम्बर आम्नाय के इन महान् आचार्य के विषय में विद्वानों ने सर्वाधिक खोज की है कौण्डकुण्डपुर गाँव के नाम से पद्मनन्दि कुन्दकुन्द नाम से विख्यात हुए। पी.बी. देसाई कृत जैनिज्म के अनुसार यह स्थान गुण्टकुल रेलवे स्टेशन से चार मील दक्षिण की ओर कोकोणडल नामक गाँ प्रतीत होता है। यहाँ से अनेकों शिलालेख प्राप्त हुए हैं। इन्द्रनन्दि श्रुतावतार के अनुसार मुनि पद्मनन्दि ने कौण्ड़कुण्ड्पुर जाकर परिकर्म नामक टीका लिखी थी।
अटल नियम पालक- मुनिपुंगव कुन्दकुन्द जैन श्रमणपरम्परा के आवश्यक मूलगुण और उत्तर गुणों का पालन करते थे और अनशनादि बारह प्रकार के अन्तर्बाह्य तपों का अनुष्ठान करते हुए तपस्वियों में प्रधान महर्षि थे। उन्होंने प्रवचनसार में जैन श्रमणों के मूलगुण इस प्रकार बतलाए हैं- पाँच महाव्रत, पाँच समिति, पाँच इन्द्रियों का निरोध, केशलोंच, षट्आवश्यक क्रियाएँ- आचेलक्य (नग्नता), अस्नान, क्षितिशयन, अदन्तधावन, स्थिति भोजन और एक भुक्ति (एकासन) जैन श्रमणों के अट्ठाईस मूलगुण जिनेन्द्र भगवान ने कहे हैं।
कुन्दकुन्दाचार्य मूलसंघ के आदिप्रवर्तक माने जाते हैं। कुन्दकुन्दान्वय का सम्बन्ध भी इन्हीं से कहा गया है। वस्तुतः कौण्डकुण्डपुर से निकले मुनिवंश को कुन्दकुन्दान्वय कहा गया है। कुन्दकुन्द का समय - नन्दिसंघ की पट्टवली में लिखा है कि कुन्दकुन्द वि.सं. ४९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पद पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी कुल आयु ९५ वर्ष १० महीने १५ दिन की थी।
पोन्नुरपर्वत तथा आचार्य कुंदकुंद महामुनिराज का विदेहगमन:-
महान चारणऋद्धि धारी कुन्दकुन्दाचार्य जो कि तमिलनाडु में स्थित चेन्नई के समीप पोन्नुर नामक पर्वत पर अपनी आत्मसाधना में लीन रहते थे तथा एक दिन अपने मन में उत्पन्न तीर्थंकर भगवान के दर्शन की पवित्र भावना तथा किसी पूर्वभव के देव मित्र का निमित्त पाकर वे साक्षात् तीर्थंकर परमात्मा के समवशरण में जाकर सीमंधर भगवान की दिव्यध्वनि सुनकर पुन: इसी पर्वत पर आए तथा जिनेन्द्र भगवान की दिव्यध्वनि का सार प्रवचनसार, समयसार इत्यादि उपलब्ध पंचपरमागम रूप द्वितीय श्रुतस्कंध तथा अनेक अनुपलब्ध महाग्रंथों की रचना की।
आचार्य कुन्दकुन्द मुनिराज की रचनाएँ –
आचार्य कुन्दकुन्द की निम्न कृतियां उपलब्ध हैं। पंचास्तिकाय संग्रह, समयसार प्राभृत, प्रवचनसार और नियमसार, अष्टपाहुड़। कुछ विद्वान् बारस अणुवेक्खा भत्तिसंगहो, रयणसार, कुरल काव्य और मूलाचार को भी आपकी कृतियाँ मानते हैं।
आचार्य कुन्दकुन्द मुनिराज की इन्हीं रचनाओं के कारण आज इस पंचमकाल में भी जैन धर्म कि प्रभावना हो रही है तथा पंचमकाल के अंत तक होती रहेगी।
आचार्य
कुन्दकुन्द की कृतियों
का संक्षिप्त परिचय
निम्न प्रकार है:-
१.
समयसार - आचार्य कुन्दकुन्द का
समयसार ग्रन्थ आत्मतत्त्व विवेचन
का अनुपम ग्रन्थ है। मूल प्राकृत
में इसका नाम
’समयपाहुड’ है, जिसे
संस्कृत में समयप्राभृत
कहते हैं। समयसार में सम्यग्दर्शन
का विशद और
विशिष्ट विवेचन है। सम्पूर्ण
ग्रन्थ में शुद्धनय
और अशुद्धनय की दृष्टि
से कथन किया
गया है
२.
प्रवचनसार - प्रवचनसार ग्रन्थ में
सम्यक्चारित्र के प्रतिपादन
की प्रमुखता है।
इस ग्रन्थ के
ज्ञानाधिकार, ज्ञेयाधिकार और चारित्राधिकार
में क्रमशः ज्ञान,
ज्ञेय एवं चारित्र
का वर्णन किया
गय है।
३.
पंचास्तिकाय - सम्यग्ज्ञान की कथन
की दृष्टि से
पंचास्तिकाय ग्रन्थ का मह्त्त्व
है। इस ग्रन्थ
में द्रव्य, नव
पदार्थ एवं मोक्षमार्ग
चूलिका ये तीन
अधिकार हैं।
४.
नियमसार - आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा
रचित नियमसार अपूर्व
आध्यात्मिक ग्रन्थ है। इसमें
प्रमुखरूप से शुद्धनय
की दृष्टि से
जीव, अजीव, शुद्धभाव,
प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त, समाधि,
भक्ति, आवश्यक, शुद्धोपयोग आदि
का विवेचन किया
गया है।
५.
अष्टपाहुड़ - जैन मूलसंघ
की परम्परानुसार अष्टपाहुड़
दिगम्बर जैन मुनियों
के आचार का
प्रतिपादन करने वाला
महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। दर्शन,
चारित्र, सूत्र, बोध, भाव,
मोक्ष, लिंग और
शील ये अष्टपाहुड़
हैं। इनका संक्षिप्त
विवेचन अधोलिखित है -
दंसणपाहुड़
- इसमें सम्यग्दर्शन का एकरूप
और महत्त्व ३६
गाथाओं द्वारा बतलाया गया
है। दूसरी गाथा
में बताया गया
है धर्म का
मूल सम्यग्दर्शन है।
सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट
व्यक्ति को निर्वाण
नहीं हो सकता।
चरित्तपाहुड़
- इसमें ४४ गाथाओं
द्वारा चारित्र का प्रतिपादन
किया गया है।
चारित्र के दो
भेद हैं - सम्यक्त्वाचरण
और संयमाचरण।
सुत्तपाहुड़
- इसमें २७ गाथाएं
हैं जिसमें सूत्र
की परिभाषा बताते
हुए कहा है
कि जो अरहन्त
के द्वारा अर्थरूप
से भाषित और
गणधर द्वारा कथित
हो उसे सूत्र
कहते हैं।
बोधपाहुड़
- बोधपाहुड़ में ६२
गाथाओं द्वारा आयतन, चैत्यगृह,
जिनप्रतिमा दर्शन, जिनबिम्ब, जिनमुद्रा
आत्मा, ग्य़ान, देव, तीर्थ,
अर्हन्त और प्रवज्या
का स्वरूप बतलाया
है। अन्तिम गाथाओं
में कुन्दकुन्द ने
अपने को भद्रबाहु
का शिष्य प्रकट
किया है।
भावपाहुड़
- इसमें १६३ गाथाओं
द्वारा भाव की
महत्ता बताते हुए भाव
को ही गुण
दोषों का कारण
बतलाया है और
लिखा है कि
भाव की विशुद्धि
के लिए ही
परिग्रह का त्याग
किया जाता है।
इसमें कर्म की
अनेक मह्त्त्वपूर्ण बातों
का विवेचन आया
है।
मोक्खपाहुड़
- मोक्खपाहुड़ की गाथा
संख्या १०६ है
जिसमें आत्मद्रव्य का महत्त्व
बतलाते हुए आत्मा
के तीन भेदों
को परमात्मा, अन्तरात्मा
और बहिरात्मा की
चर्चा करते हुए
बहिरात्मा को छोड़कर
अन्तरात्मा के उपाय
से परमात्मा के
ध्यान की बात
कही गई है।
लिंगपाहुड़
- इसमें १ से
२२ गाथाओं का
वर्णन है। तथा
द्रव्यलिंग व भावलिंग
का वर्णन किया
गया है।
शीलपाहुड़
- इसमें ४० गाथाएँ
हैं जिसके द्वारा
शील का महत्त्व
बतलाया गया है
और लिखा है
कि शील का
ज्ञान के साथ
कोई विरोध नहीं
है। परन्तु शील
के बिना विषय-वासना से ज्ञान
नष्ट हो जाता
है। जो ज्ञान
को पाकर भी
विषयों में रत
रहते हैं वे
चतुर्गतियों में भटकते
हैं और जो
ज्ञान को पाकर
विषयों से विरक्त
रहते हैं, वे
भवभ्रमण को काट
डालते हैं।
६.
वारसाणुवेक्खा (द्वादशानुप्रेक्षा) - इसमें ९१ गाथाओं
द्वारा वैराग्योत्पादक द्वादश अनुप्रेक्षाओं का
बहुत ही सुन्दर
वर्णन हुआ है।
वस्तु स्वरूप के
बार-बार चिन्तन
का नाम अनुप्रेक्षा
है उनमें नामों
का क्रम इस
प्रकार है - अध्रुव,
अशरण, एकत्व, अन्यत्व,
संसार, लोक, अशुचित्व,
आस्रव, संवर, निर्जरा, धर्म
और बोधि। तत्त्वार्थ
सूत्रकार ने अनुप्रेक्षाओं
के क्रम में
कुछ परिवर्तन किया
है।
७.
भक्तिसंग्रह - प्राकृत भाषा की
कुछ भक्तियां भी
कुन्दकुन्दाचार्य की कृति
मानी जाती हैं।
भक्तियों के टीकाकार
प्रभाचन्द्राचार्य ने लिखा
है - संस्कृ की
सब भक्तियां पूज्यपाद
की बनाई हुई
और प्राकृत की
सब भक्तियां कुन्दकुन्दचार्य
कृत हैं। दोनों
भक्तियों पर प्रभाचन्द्राचार्य
की टीकाएं हैं।
कुन्दकुन्दाचार्य की आठ भक्तियां प्राप्त हैं, जिसके नाम इस प्रकार हैं-
१.सिद्ध भक्ति २.
श्रुत भक्ति ३.
चरित्र भक्ति ४. योगि
(अनगार) भक्ति ५. आचार्य
भक्ति ६. निर्वाण
भक्ति ७. पंचगुरु
(परमेष्ठी) भक्ति ८. थोस्मामि
थुदि (तीर्थंकर भक्ति)।
सिद्ध
भक्ति - इसमें १२ गाथाओं
के द्वारा गुण,
भेद, सुख, स्थान,
आकृति, सिद्धि के मार्ग
तथा क्रम का
उल्लेख करते हुए
अति भक्ति से
उनकी वन्दना की
गई है।
श्रुतभक्ति
- एकादश गाथात्मक इस भक्ति
में जैन्श्रुत के
आचारांगादि द्वादशांगों का भेद-प्रभेद सहित उल्लेख
करके उन्हें नमस्कार
किया गया है।
साथ ही, १४
पूर्वों में से
प्रत्येक की वस्तु
संख्या और प्रत्येक
वस्तु के पाहुड़ों
(प्राभृतों) की संख्या
भी दी है।
चारित्रभक्ति
- चातित्रभक्ति-दश अनुष्टुप्,
पद्यों में श्री
वर्धमान प्रणीत, सामायिक, छेदोपस्थापना,
परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय और यथाख्यातनाम
के पांच चारित्रओं,
अहिंसादि २८ मूलगुणों,
दशधर्मों, त्रिगुप्तियों, सकल्शीलों, परिषह्जय और
उत्तरगुणों का उल्लेख
करके उन्की सिद्धि
और सिद्धिफल (मुक्ति
सुख) की कामना
की है।
जोइभक्ति
योगी (अनगार) भक्ति
- यह भक्ति पाठ
२३ गाथात्मक है
इसमें जैन साधुओं
के आदर्श जीवन
और उनकी चर्चा
का सुन्दर अंकन
किया गया है।
उन योगियों की
अनेक अवस्थाओं ऋद्धियों,
सिद्धियों और गुणों
का उल्लेख करते
हुए उन्हें भक्तिभाव
से नमस्कार किया
गया है।
आचार्य
भक्ति - इसमें दस गाथाओं
द्वारा आचार्य परमेष्ठी के
विशेष गुणों का
उल्लेख करते हुए
उन्हें नमस्कार किया है।
निर्वाण
भक्ति - २७ गाथात्मक
इस भक्ति में
निर्वाण को प्राप्त
हुए तीर्थंकरों तथा
दूसरे पूतात्म पुरुषों
के नामों का
उन स्थानों के
नाम सहित तथा
वन्दना की गई
है जहाँ से
उन्होंने निर्वाण पद की
प्राप्ति की है।
इस भक्ति पाठ
में कितनी ही
ऎतिहासिक और पौराणिक
बातों एवं अनुभूतियों
की जानकारी मिलती
है।
पंचगुरु
(परमेष्ठी) भक्ति - इसमें छह
पद्यों में अर्हत्,
सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और
साधु ऎसे पांच
परमेष्ठियों का स्तोत्र
और उनका फल
दिया है। और
पंचपरमेष्ठी के नाम
देकर उन्हें नमस्कार
करके उनसे भव-भव में
सुख की प्रार्थना
की गई है।
तीर्थंकर
भक्ति - थोस्सामि थुदि (तीर्थंकर
भक्ति) यह थोस्सामि
पद से प्रारम्भ
होने वाली अष्टगाथात्मक
स्तुति है जिसे
तित्थ्यर भक्ति कहते हैं।
इसमें वृषभादि वर्द्धमान
पर्यन्त चतुर्विंशति तीर्थंकरों की
उनके नामोल्लेखपूर्वक वन्दना
की गई है।
मूलसंघ
और कुन्दकुन्दान्वय - भगवान
महावीर के समय
में जैन साधु
सम्प्रदाय निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय के
नाम से प्रसिद्ध
था। इसी कारण
बौद्ध त्रिपिटकों में
महावीर को निगंठ
नात्तपुत्र लिखा मिलता
है। अशोक के
शिलालेखों में भी
’निगंठ’ शब्द से
निर्देश किया गया
है।
कुन्दकुन्दाचार्य मूलसंघ के आदिप्रवर्तक माने जाते हैं। कुन्दकुन्दान्वय का सम्बन्ध भी इन्हीं से कहा गया है। वस्तुतः कौण्डकुण्डपुर से निकले मुनिवंश को कुन्दकुन्दान्वय कहा गया है। कुन्दकुन्द का समय - नन्दिसंघ की पट्टवली में लिखा है कि कुन्दकुन्द वि.सं. ४९ में आचार्य पद पर प्रतिष्ठित हुए। ४४ वर्ष की अवस्था में उन्हें आचार्य पद मिला। ५१ वर्ष १० महीने तक वे उस पद पर प्रतिष्ठित रहे। उनकी कुल आयु ९५ वर्ष १० महीने १५ दिन की थी।
पोन्नूर पर्वत पर जिनदर्शन:-
वर्तमान में पोन्नूर पर्वत पर भू-गर्भ से प्राप्त भगवान श्री महावीर स्वामी की जिन प्रतिमा तथा आचार्य श्री कुन्दकुन्द मुनिराज के अति प्राचीन तथा नवीन स्थापित चरण पादुका के भव्य दर्शन उपलब्ध है।
किन्तु वर्तमान में जैन समाज में ऐसे बहुत ही कम लोग है जो इस महान तीर्थभूमि से परिचित है तथा इन महाग्रंथों के माहात्म्य से परिचित है, ऐसे में आचार्य कुन्दकुन्द मुनिराज के महत्व को तथा आचार्य कुन्दकुन्द मुनिराज की तपोभूमि तथा उन अध्यात्म ग्रन्थों की रचना जिस स्थान पर हुई है, ऐसे उस स्थान को भी अनेक वर्षों तक लोग जाने इसके लिए श्री कुन्दकुन्द-कहान पारमार्थिक ट्रस्ट अनेक वर्षों से प्रयासरत है,
आचार्य कुन्दकुन्द जैन संस्कृति सेन्टर :-
पोन्नूरमलै के इसी माहात्म्य से प्रभावित होकर यहां तलहटी में गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के जिनतत्व प्रभावना योग में आचार्य कुन्दकुन्द जैन संस्कृति सेन्टर की स्थापना की गई। इसमें भव्य जिनमंदिर, स्वाध्याय भवन, भोजनशाला का निर्माण किया गया है। श्री कुन्दकुन्द-कहान पारमार्थिक ट्रस्ट, विलेपार्ले मुम्बई के अन्तर्गत श्री अनंतराय ए. सेठ एवं श्री नेमिषभाई शांतिलाल शाह परिवार द्वारा 1 जनवरी 2004 को भव्य वेदी प्रतिष्ठा समारोहपूर्वक जिनमंदिर में श्री सीमंधर स्वामी एवं भगवान श्री महावीर स्वामी आदि भगवंतों के मनोहारी जिनबिम्ब विराजमान किये गये।
वर्तमान गतिविधियां :-
वर्तमान में आचार्य कुन्दकुन्द जैन संस्कृति सेन्टर द्वारा श्री कुन्दकुन्द-कहान पारमार्थिक ट्रस्ट, विले पार्ले मुम्बई के सहयोग से शिक्षण शिविर, बाल शिविर, महिला शिविर, साहित्य प्रकाशन, असहाय सहायता, तमिलनाडु के प्राचीन तीर्थों और जिनमंदिरों का जीर्णोद्धार आदि की अनेक योजनायें संचालित की जा रहीं हैं।
जिनवाणी संवर्धन केन्द्र:-
आचार्य कुन्दकुन्द जैन संस्कृति सेन्टर, पोन्नुर में, कुन्दकुन्द-कहान पारमार्थिक ट्रस्ट द्वारा अनेक जैनाचार्यों द्वारा रचित प्राचीन ताड़पत्र ग्रन्थों की सुरक्षा व संरक्षण कार्य भी यहां 2 वर्षों से चल रहा है। जो की अत्यन्त सावधानी पूर्वक पूर्ण अहिंसक विधि से अहिंसक तेल द्वारा ताड़पत्र ग्रन्थों का संरक्षण तथा कम्प्यूटर स्कैनिंग द्वारा उन ग्रन्थों को भविष्य के लिए सुरक्षित रखने हेतु कार्यरत है।
यहां पोन्नूर क्षेत्र के आसपास अनेक प्राचीन जिनमन्दिर है, जैन समाज है वहां मन्दिरजी में समाज में घरों में प्राचीन ताड़पत्र जिनवाणी सुरक्षित है किन्तु इन सभी ताड़पत्रों पर समय के साथ दीमक लग जाती है अन्य सूक्ष्म जीवों की भी उत्पत्ति होती है। उसे रोकने के लिए, उनसे संरक्षण के लिए ताड़पत्रों पर, लवंग, अरंडी, लेमन इत्यादि का अहिंसक तेल मिलाकर इन्हें ताड़पत्रों को अत्यन्त सावधानी पूर्वक हल्के हाथ से साफ करके इन पर लगाते है, ताकि जीव-जन्तु वहां से हट जाए और उनकी हिंसा भी ना हो।
और इसी के साथ इन ताड़पत्रों को आचार्य कुन्दकुन्द पारमार्थिक ट्रस्ट, विलेपार्ले मुम्बई द्वारा आचार्य कुन्दकुन्द जैन संस्कृति सेन्टर, पोन्नुर में स्कैन करवाकर डिजिटलाइज्ड भी करवाया जा रहा है।
और सम्पूर्ण संरक्षण कार्य होने के पश्चात जिस भी मन्दिर जी से ताड़पत्र आते है उन्हें ससम्मान वापस दे दिया जाता है, तथा उन्हें यदि स्कैनिंग किया डाटा चाहिए हो तो वो भी उन्हें उनकी हार्डडिस्क अथवा पेनड्राइव इत्यादि में दे दिया जाता है।
इस परम पुनीत भूमि के दर्शन हेतु आपको सादर आमंत्रण है, आप यहाँ पधारें और आचार्य कुन्दकुन्द की भूमि की छांव में जिनशासन के महान सिद्धान्तों को समझकर भवान्तकारी भेदविज्ञान का पुरुषार्थ करें।
पोन्नूरमलै चेन्नई से 125 कि.मी., पॉन्डिचेरी से 90 कि.मी. एवं कांचीपुरम से 50 कि.मी. की दूरी पर स्थित है। तीनों स्थानों से यहां के लिए बस उपलब्ध रहती है, चेन्नई के किलमबक्कम बस स्टैंड से 148, 208, 422 नम्बर की सरकारी बस सीधे पोन्नूरमलै ही आती है।
चेन्नई सेंट्रल स्टेशन से आप लोकल ट्रेन से तांबरम आ जाएं और वहां से लोकल बस से अथवा ऑटो से किलम्बक्कम बस स्टैंड आ जाएं वहां से 148 नंबर की बस से पोन्नुर आ सकते है।
चेन्नई एयरपोर्ट से किलंबक्कम बस स्टैंड की सीधी बस उपलब्ध रहती है वहां से 148 नंबर की बस से सीधे पोन्नूरमलै आ सकते है।
Ponnur Bus Stop Name - Tiruvalluvar Engineering College, Ponnurmalai
इसके अलावा अपनी स्वयं की गाड़ी भी बुक करके आ सकते है, Google पर One Way Trip से आप टैक्सी बुक कर सकतें है,...
कांचीपुरम अथवा पॉन्डिचेरी से आने वाले साधर्मी यहां से 10 कि.मी. दूर वंदावासी आकर वहां से दूसरी बस से पोन्नूरमलै तक आ सकते है।
आप अपनी गाड़ी बुक करके भी सीधे पोन्नूरमलै आ सकते है।
टैक्सी हेतु इस क्षेत्र के जानकार भैया का सम्पर्क सूत्र - :-
श्री जहांगीरभाई, वंदावासी - 9443214848
आचार्य कुंदकुंद जैन संस्कृति सेन्टर, पोन्नूर -
आवास एवं भोजन की व्यवस्था पूर्व सूचना के आधार पर ही की जायेगी, अत: आने से पूर्व सूचित अवश्य करें।
सम्पर्क सूत्र - श्री शैलेशभाई शाह, मुम्बई - 9892436799
व्यवस्थापक :- श्री राजीवजी जैन - 9976975074
जिनवाणी संवर्द्धक - पं. सम्भवजी शास्त्री, पोन्नूर - 8302047216
पोन्नूर के समीपवर्ती प्राचीन जिनमंदिरों के दर्शन की जानकारी :-
दक्षिण दिशा की और:-
पोन्नूर से अरिहंतगिरी (दूरी 50 कि.मी.)
अरिहंतगिरी से जिनजी (दूरी 50 कि.मी.)
जिनजी से मेलसित्तामूर (दूरी 15 कि.मी.)
मेलसित्तामूर से विलुक्कम (दूरी 10 कि.मी.)
विलुक्कम से पेरामुंडूर (दूरी 20 कि.मी.)
पेरामुंडूर से आलाग्रामम् (दूरी 15 कि.मी.)
आलाग्रामम् से पोन्नूर (दूरी 50 कि.मी.)
आलाग्रामम् से पुड्डुचेरी (दूरी 50 कि.मी.)
उत्तर दिशा की और :-
पोन्नूरहिल से वंगाराम (दूरी 7 कि.मी.)
वंगाराम से पोन्नुर ग्राम (दूरी 2 कि.मी.)
पोन्नूर ग्राम से एलंगाडु (दूरी 2 कि.मी.)
एलंगाडु से वंदावासी (दूरी 5 कि.मी.)
वंदावासी से बिरदुर (दूरी 2 कि.मी.)
बिरदूर से वंदावासी (दूरी 2 कि.मी.)
वंदावासी से वेलकुंडरम (दूरी 2 कि.मी.)
वेलकुंडरम से सलुकई (दूरी 5 कि.मी.)
सलुकई से करन्दै (दूरी 35 कि.मी.)
(करन्दै - अकलंक मुनि का बौद्ध गुरु से वाद विवाद इसी स्थान पर हुआ था)
करन्दै से तिरुपतिकुंडरम (दूरी 20 कि.मी)
तिरुपतिकुंडरम से पोन्नुर (दूरी 50 कि.मी)
तिरुपतिकुंडरम से चेन्नई (दूरी 80 कि.मी)
यात्रा हेतु वाहन के लिए सम्पर्क सूत्र :-
श्री जहांगीरभाई, वंदावासी -
9443214848