व्यवहार संयम और निश्चय संयम
व्यवहार उत्तम संयमधर्म:-
व्यवहार संयम 2 प्रकार का होता है:-
1. इन्द्रिय संयम 2. प्राणी संयम
1. इन्द्रिय संयम:- पञ्चेंद्रिय और मन के विषयों की इच्छा का त्याग होना आवश्यक है यदि यह जीव पंचेंद्रियों के विषयों में उलझा रहेगा तो स्वयं के ज्ञान स्वभाव और अतीन्द्रिय आनन्द को कभी जान नहीं पाएगा, इसलिए प्रथम तो पंचेंद्रिय अर्थात् स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, कर्ण ये पांच इन्द्रिय तथा मन के विषयों की रुचि का त्याग कर अपने आत्मस्वभाव की ओर अग्रसर होना इन्द्रिय संयम है।
2. प्राणी संयम:- प्राणी संयम अर्थात् भूमिकानुसार षट्काय के जीवों की रक्षा का भाव अर्थात् जीवदया का भाव हृदय में होना अत्यंत आवश्यक है। षट्काय के जीव अर्थात् पांच स्थावर तथा एक त्रस जीव।
पांच स्थावर :- पृथ्वीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक, वायुकायिक, वनस्पतिकायिक ये पांच स्थावर सभी एकेंद्रिय जीव है।
त्रसजीव :- दो इन्द्रिय से पांच इन्द्रिय के सभी जीव उन्हें त्रस जीव कहते है।
इन सभी प्रकार के जीवों की रक्षा का भाव होना ये प्राणी संयम है, भुमिकानुसार इन सभी षट्काय के जीवों की हिंसा ना हो इस प्रकार से क्रियाएं जिनके जीवन में होती है वे प्राणीसंयम के धारी कहलाते है।
निश्चय उत्तम संयमधर्म:- निश्चय से तो वास्तव में अपनी सीमा में रहना उत्तम संयम धर्म है, और सीमा से बाहर रहना ही असंयम है।प्रत्येक आत्मा का घर उसकी सीमा स्वयं वह आत्मा है, मेरा घर, मेरी सीमा स्वयं में ही हूं। किन्तु जब हम अपने घर के बाहर परद्रव्यों में अपनापन करते है, निज घर को भूलकर परघर में ही अपनापन मानते है तो वास्तव के हम अपनी सीमा में न रहकर सीमा से बाहर चले जाते है और यही असंयम है, यही अधर्म है। और जब श्री गुरु द्वारा समझाने पर, शास्त्र स्वाध्याय पूर्वक, चिन्तन-मनन पूर्वक स्वयं का, निजघर का ख्याल आता है तो यह जीव निजघर में रहने लगता है अर्थात् अपनी सीमा में रहने लगता है तब इस जीव को वास्तव में उत्तम संयमधर्म प्रगट होता है।
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