उत्तम तपधर्म की चर्चा जब भी चलती है तो एक बहुत ही प्यारा सूत्र याद आता है,
इच्छानिरोधोस्तप:।
अर्थात् इच्छाओं का अभाव ही वास्तव में उत्तम तप कहलाता है।
वर्तमान में व्रत उपवास इत्यादि को समाज में तप समझा ज्यादा जाता है, जो जितने उपवास करता है वो उतना तपस्वी कहलाता है। जबकि लोग तो उपवास का भी सही अर्थ नही समझ पाते।
उपवास अर्थात् अपनी आत्मा के समीप वास करना।
लोग व्रत उपवास करते है और साथ में घर के व्यापार के अनेक कार्य भी करते है, कषाय भी नहीं छोड़ पाते तो वह उपवास वास्तव में उपवास रहता ही भी वह तो लंघन बन जाता है।
उपवास का अर्थ भोजन का त्याग नहीं अपितु विषय-कषायों का त्याग है।
उत्तम तप को यदि समझना है तो जिनागम में 2 प्रकार से उत्तम तप का वर्णन आता है।
व्यवहारतप और निश्चय तप।
व्यवहारतप:-
व्यवहारतप 2 प्रकार का है, बाह्य तप और अंतरंग तप।
बाह्य तप 6 प्रकार का है :- अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रस परित्याग, विविक्तशय्यासन और कायक्लेश।
1 - अनशन:- आत्म साधना के लिऐ विकल्प रहित उपवास को यानि ४ प्रकार के आहार का त्याग करने को अनशन तप कहते है।
2 - अवमौदर्य:- भूख से कम भोजन करना उनोदर या अवमौदर्य तप कहलाता है।
3 - वृत्तिपरिसंख्यान तप:- आहार के लिऐ जाते समय किसी घर , गली या दिशा या किसी वस्तु का नियम ले लेना वृत्तिपरिसंख्यान है।
4 - रस परित्याग:- इन्द्रिय विजय प्राप्त करने के लिऐ घी, दूध , दही, मीठा नमक व तेल ये षटरस आदि का त्याग करके आहार करना रस परित्याग है।
5 - विविक्त श्य्यासन:- ज्ञान ध्यान की सिद्धि के लिऐ एवं भय जीतने के लिऐ - एकांतस्थान मे उठना बैठना , लेटना विविक्तशय्यासन है।
6 - कायक्लेश तप:- शरीर से ममत्व न रखकर सर्दी-गर्मी सहते हुऐ कठिन तपस्या करना कायक्लेश तप कहलाता है।
अंतरंग तप भी 6 प्रकार का है :- प्रायश्चित, विनय, वैयावृत्य, स्वाध्याय, व्यूत्सर्ग, ध्यान।
1 - प्रायश्चित तप:- प्रमाद अथवा अज्ञान से लगे हुऐ दोषो की शुद्धि करना यानि गलती हो जाने पर, मुलगुणो मे दोष लग जाने पर गलती को स्वीकार करना प्रायश्चित तप है।
2 - विनय तप:- पूज्य पुरुषो व धर्मात्मा का आदर सत्कार करना विनय तप है।
3 - वैय्यावृत तप:- रोगी एवं वृद्ध साधूऔ व धर्मात्माऔ की सेवा करना वैय्यावृत तप है।
4 - स्वाध्याय तप:- राग द्वेष की निवृति के लिऐ आत्म निरीक्षण करना व शास्त्रो का अध्य्यन करना स्वाध्याय तप है।
5 - व्युत्सर्ग तप:- अंतरंग व बहिरंग परिग्रह तथा शरीर से ममत्व का त्याग करना व्युतसर्ग तप है।
6 - ध्यान तप:- चित की चंचलता को रोककर किसी एक पदार्थ के चिंतवन मे स्थिर होना ध्यान तप कहलाता है।
इस प्रकार से 6 बहिरंग और 6 अंतरंग तप होते है।
ये सभी 12 व्यवहार तप दिगम्बर मुनिराजों के सहज रूप से पलते है।
निश्चय तप:- समस्त संसार से पर द्रव्यों से दृष्टि हटाकर निज शुद्धात्मा में जम जाना, रम जाना ही वास्तव में निश्चय से उत्तमतप कहलाता है। अर्थात् निर्विकल्प अवस्था को ही निश्चय से उत्तमतप धर्म कहते है।
और सविकल्प दशा में व्यवहार से कहे गए 12 व्यवहार तप मुनिराजों के सहज रूप से पलते है। जो कि निश्चय तप में सहायक सिद्ध होते है।
ये बारह प्रकार से तप करने से विषयों की इच्छा कम होती है और और मुनिराज अधिक समय ज्ञान-ध्यान में रत रह पाते है, और जितने समय तक निर्विकल्प अवस्था में रहे उतने समय निश्चय से उत्तपतपस्वी कहलाते है। और वास्तव में वे ही उत्तम तपधर्म के धारक होते है।
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ReplyDeleteThank you
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