Saturday, September 18, 2021

उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म:-


ब्रह्म शब्द का अर्थ होता है आत्मा और चर्य अर्थात् चर्या, अर्थात् लीनता, अर्थात् अपनी ही आत्मा में जम जाना, रम जाना, लीन हो जाना वह वास्तव में निश्चय से उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म है। तथा इस उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म में अर्थात् आत्मलीनता में बाधक जो पंचेंद्रिय के विषय है उनका पूर्णत: त्याग, अर्थात् पंचेंद्रिय के विषयों पर विजय प्राप्त करना वह व्यवहार से उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म है। 

वर्तमान में सामान्य रूप से ब्रह्मचर्य की जब-जब बात चलती है तो बस एक ही बात पर ध्यान जाता है, एक स्पर्शन इन्द्रिय के त्याग को ही वर्तमान में ब्रह्मचर्य समझा जाता है, अथवा स्त्री सेवन त्याग को ही ब्रह्मचर्य मान लिया जाता है। उसमें भी पूर्णरूप से स्त्रीसेवन त्याग को लोग नहीं समझ पाते, बल्कि मात्र एक क्रियाविशेष मैथुन नाम की क्रिया के त्याग को ही ब्रह्मचर्य माना जाता है।

जबकि ऐसा नहीं है। आचार्यों ने ग्रन्थों में आत्मलीनता में बाधक जो पंचेंद्रिय के विषय है उनका पूर्णत: त्याग, अर्थात् पंचेंद्रिय के विषयों पर विजय प्राप्त करना वह व्यवहार से उत्तम ब्रह्मचर्यधर्म है, ऐसा कहा है।

कहीं-कहीं ग्रन्थों में स्पर्शन इन्द्रिय के त्याग को ब्रह्मचर्य कहा है, किंतु वहां भी उसका अर्थ पंचेंद्रिय के विषयों पर विजय ही समझना चाहिए जैसे भारत कहने पर मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट्र सब आ जाते है, उसीप्रकार स्पर्शन अर्थात् पूरा शरीर और उसी में नाक, कान, आंख आदि आ जाते है अर्थात् स्पर्शन इन्द्रिय में ही पांचों इन्द्रिय के विषय गर्भित हो जाते है। अभी तो बहुत से लोग पूर्ण रूप से अकेली स्पर्शन इन्द्रिय के विषय को भी नहीं जान पाते।  

स्पर्शन इन्द्रिय के भी आठ विषय है- हल्का-भारी, रूखा-चिकना, कड़ा-नरम, ठंडागरम। ऐसे ही पंचेन्द्रिय के सम्पूर्ण विषयों का त्याग ब्रह्मचर्यमहाव्रत में होता है। तथा एक देश त्याग ब्रह्मचर्याणुव्रत होता है। 

स्त्रीरागकथाश्रवण:- स्त्रियों की रागवर्द्धक बातों का कहना या सुनना। तन्मनोहराडगनिरिक्षण:- स्त्रियों के मनोहर अंगों को देखना। पूर्वरतानुस्मरण:- पहले समय की कामलीला का स्मरण करना। वृष्येष्टरस:- गरिष्ट काम-उद्दीपक पदार्थ खाना। स्वशरीरसंस्कारत्याग:- अपने शरीर का श्रृंगार करना, ये पाँच अतिचार ब्रह्मचर्य अणुव्रत के हैं। ब्रह्मचर्य व्रत वाले को इनसे बचना चाहिए।

अर्थात् ब्रह्मचारी जीव के लिए, महिलाओं से बात करना, महिलाओं के विषय में सोचना, उनके फोटो देखना, ये सब वर्जित है। वर्तमान में तो ब्रह्मचर्य व्रत के धारी जीव महिलाओं का और कन्याओं का नृत्य जिनमन्दिर जी में कराते है और स्वयं भी देखते है जिससे उनका ब्रह्मचर्य का नियम खंडित हो जाता है,  वैसे भी स्त्रियों का और कन्याओं का नृत्य जिनमन्दिर जी में कराना धर्मविरुद्ध है, एक दिगम्बर मुनिराज के सामने यदि कोई स्त्री नृत्य करे तो उसे मुनिराज पर उपसर्ग माना जाता है, फिर वीतराग जिनेन्द्र परमात्मा के समक्ष महिलाओं का इस प्रकार का नृत्य तो अत्यन्त अशोभनीय है, पापक्रिया है। आचार्यों ने शास्त्रों में महिलाओं के मन्दिर में करने योग्य कार्यों के विषयों में विशेष लिखा है, कि जिनमन्दिर जी में शालीनता युक्त मर्यादित वस्त्र पहनकर प्रवेश करे,  तथा सिर ढ़़ककर ही भगवान के दर्शन करें। तथा दीवार की साईड खड़े होकर दर्शन करे कोई पुरुष पीछे से भगवान के दर्शन करे तो आपका शरीर उन्हें नहीं दिखना चाहिए और पुरुषों की भांति धोक ना देकर गौआसन में ही भगवान को धोक दे, ताकि आपको देखकर मन्दिरजी में दूसरे किसी दर्शनार्थी के परिणाम खराब ना हो। जब इतना सब लिखा है तो महिलाओं का कमरिया मटका-मटकाकर जिन मन्दिर में नृत्य करना ये तो कदापि उचित नहीं हो सकता है, और ब्रह्मचर्य व्रत के धारी की उपस्थिति में ऐसा कहीं हो तो उन्हें तथा अन्य भी विज्ञ पुरुषों को वहां नहीं रुकना चाहिए।

इसके अलावा ब्रह्मचारी जीव वास्तव में किन्हें कहते है हम इस विषय पर थोड़ा विचार कर लेते है, ब्रह्मचारी जीव वो है जो वास्तव में मुनि बनना चाहते है, जिनकी मुनि बनने की इच्छा होती है, किंतु वर्तमान में इतनी योग्यता, उतने परिणाम ना पक पाने के कारण जो मुनि बनने का अभ्यास करते है तो उनका जीवन उनके आचार-विचार सब मुनिराज की नकल रूप होते है ताकि वे भी पूर्ण रूप से योग्यता पकने पर मुनि दीक्षा ले सके।

अर्थात् एक ब्रह्मचारी जीव अखबार नहीं पड़ सकता, अधिक परिग्रह नहीं सकते, धनवान जीवों की चापलूसी करना, प्रसिद्धि की इच्छा, अच्छा-अच्छा खाने की इच्छा, शरीर का आवश्यकता से अधिक ही ध्यान रखना अधिक समय शरीर की सुरक्षा का ही ध्यान रखना ये सब भी ब्रह्मचर्य के नियम के विरुद्ध है, इस प्रकार से हमें समस्त पंचेंन्द्रिय के विषय लगा लेना चाहिए। अर्थात् जिसके अंतर में पंचेंद्रिय के किसी एक भी विषय के प्रति महिमा का भाव है अथवा लालसा है, इच्छा है तो वह ब्रह्मचर्य का धारक नहीं हो सकता।

समस्त पंचेंन्द्रिय के विषय जो कि आत्मकल्याण में बाधक है उन सबका त्याग करके जो जीव निरंतर आत्म कल्याण के लिए प्रयत्न करता है, आत्मा में जम जाता है, रम जाता है, लीन हो जाता है, वास्तव में तो वहीं उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म का धारक बनता है।



No comments:

Post a Comment

 मेरी मम्मा मैंने दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती  देखी है। अपनी मां के रूप में एक अद्भुत शक्ति देखी है।। यूं तो कठिनाइयां बहुत थी उनके जीवन में। ...