मार्दव अर्थात् मृदुता, कोमलता, विनम्रता जो कि आत्मा का स्वभाव है। और वही मृदु स्वभाव आत्मा का धर्म है उसे ही मार्दव धर्म कहते है। किन्तु इस संसार में अनादिकाल से ही ये जीव अपने मृदु स्वभाव को भुला हुआ है और कोमलता के विपरीत मान कषाय को ही हितरूप जानकर निरंतर मान बढ़ाने के प्रयत्न करता है। जिसके कारण से इसमें एक अजीब सी अकड़ उत्पन्न हो जाती है, ये सबसे बड़ा दिखना चाहता है, ऊंचा दिखना चाहता है, सबसे आगे और सबसे ऊपर जाने की होड़ इसमें सदैव रहती है, सबको अपने से नीचा देखकर इसे आनन्द होता है, और इसी कारण से इसके अंदर में मृदुलता अर्थात् कोमलता के अभाव रूप और मान कषाय के सद्भाव रूप क्रूरता जन्म लेती है, ये जीव अपनी प्रशंसा दूसरों से सुनना चाहता है, अपनी प्रशंसा सुनने के लिए ये जीव किसी भी हद तक जा सकता है कुछ भी कर सकता है।
जो व्यक्ति संसार में दूसरों से अपनी प्रशंसा सुनने कि आशा रखता है, इच्छा रखता है वास्तव में कोई भी प्रशंसा, कितनी भी प्रशंसा की जाए वह उसके लिए कभी पर्याप्त होती ही नहीं है।
बहुत से लोग संसार में ऐसा कहते भी है कि दूसरे लोग प्रशंसा करें तो अच्छा लगता है हम खुद अपनी प्रशंसा करें तो अपने मुंह मियांमिट्ठू बन जाएंगे अहंकारी हो जाएंगे। जबकि वास्तव में ऐसा नहीं है। वास्तव में तो लोगों को अहंकार का अथवा मान कषाय का स्वरूप ही ज्ञात नहीं है।
मान कषाय की अथवा अहंकार की उत्पत्ति वास्तव में भय से होती है, भय इस बात की कहीं में दूसरों से पीछे ना रह जाऊं, भय इस बात का कि लोग मेरी और मेरे कार्यों की प्रशंसा नहीं करेंगे तो मेरा क्या होगा, भय इस बात का कि लोग मुझे नहीं जानेंगे तो क्या होगा, और फिर दूसरों की नजरों में ख्याति की प्राप्ति के लिए तरह-तरह के कार्य करता है और उसके अहंकार की सीमा भी पार होने लगती है।
इसलिए सर्वप्रथम तो दूसरों से प्रशंसा की इच्छा या दूसरों की नजरों में महान बनने की इच्छा का त्याग करना चाहिए जो करना है अपने लिए करो सही गलत के निर्णय पूर्वक करो, दूसरों की नजरों में महान बनने के लिए कार्य करने वाले कभी हित- अहित का विचार नहीं कर पाते बल्कि जो अपनी नज़रों में महान बनना चाहे वो सदैव आत्महित के विचार पूर्वक ही कार्य करता है।
कोई भी दूसरा व्यक्ति 3 कारण से आपकी प्रशंसा करता है:-
पहला कारण तो यह कि उसे आपसे अपना काम निकलवाना हो तो वह आपकी खूब प्रशंसा करेगा हवलदार होते हुए भी आपको इंस्पेक्टर कहेगा आपकी बहादुरी के झूठे कसीदे पढ़कर आपको खजूर के पेड़ पर चढ़ाएगा और अपना काम आपसे निकलवाएंगा।
अथवा संसार में ऐसा माना जाता है कि मानी व्यक्ति किसी की प्रशंसा नहीं करते दूसरों कि प्रशंसा करने वाले लोग खुद भी प्रशंसनीय बन जाते है ऐसा सोचकर सबको लगे कि में दूसरों की प्रशंसा करता हूं ऐसे विचार से सबके सामने मन में कुछ और होते हुए भी वह झूठी प्रशंसा करता है।
तीसरी बात कोई भी दूसरा व्यक्ति आपको उतना अच्छे से जनता ही नहीं जितना अच्छे से आप अपने आप को जानते हो। जरा विचार करो कि कोई व्यक्ति प्रतिदिन कोई अच्छा कार्य करता है मन्दिर जाता है या दान करता है तो सामने वाला व्यक्ति जो उसे देखेगा वो उसकी बहुत प्रशंसा करेगा की देखो ये कितना अच्छा है प्रतिदिन मन्दिर जाता है, दानधर्म करता है ऐसे लड़के आजकल कहां मिलते है। और वास्तविकता कुछ और ही थी उसी समय मन्दिर एक कन्या आती थी जिसपर वो मोहित था उसकी नजर में अच्छा बनने के लिए वह उसी समय पर मन्दिर जाता था और उसी कन्या के सामने अच्छा बनने के लिए वही दान करता था जहां वह कन्या उसे देखे तो दूसरे व्यक्ति को उसके मन का नहीं पता बाद बाहर के कार्यों को देखकर वह प्रशंसा कर रहे है। वास्तविकता उस लड़के को पता है कि वह कोई अच्छा कार्य नहीं कर रहा मात्र दिखावा कर रहा है।
में तो हमेशा एक बात कहता हूं जो शायद इस संसार के विरुद्ध भी है:- दूसरों की नजरों में महान बनना तो बहुत आसान है महान बनना है तो अपनी नज़रों में बनों।
क्योंकि दूसरे व्यक्ति की नजर में महान बनना तो बहुत आसान है मान लो घर में मेहमान आए तो बच्चें बिल्कुल अच्छे बन जाते है कोई शैतानी नहीं, चुपचाप एक जगह बैठ जाते है, किताब लेकर पढ़ने लगते है तो मेहमान को लगता है कि इनके बच्चे देखो कितने अच्छे है कोई शैतानी नहीं पढ़ाई कर रहे है और एक हमारे बच्चे दिनभर धमाचौकड़ी अब इनको क्या पता बच्चे तो सभी वैसे ही होते है ये बस आपके सामने शांत स्वभाव और पढ़क्कड़ होने का नाटक चल रहा है। ऐसे बहुत से उदाहरण देखने को मिल सकते है, कोई भी प्रशंसा पाने के लिए क्रूरता भी करता है, अत्याचार करता है, और बंदूक के दम पर भी लोगों में अपना अच्छाई का प्रचार करवाता है। ये सब तो देखने को मिलता ही है वर्तमान में संसार में।
किन्तु अपनी प्रशंसा हर कोई व्यक्ति नहीं कर सकता जो वास्तव में उस लायक होगा वहीं तो करेगा, जो व्यक्ति परीक्षा में टॉप करेगा वहीं तो सबसे कह सकेगा कि मैने टॉप किया हर कोई नहीं कह सकता है यदि उस अपनी नजर में अच्छा बनना है तो वास्तव में उसे अच्छा बनना पड़ेगा, किसी के सामने भी उसे खुद अपनी प्रशंसा करनी है तो वास्तव में उसे खुद वो कार्य करना होगा वरना अपनी प्रशंसा नहीं कर पाएगा। तो जो ये संसार में कहा जाता है कि अपनी प्रशंसा खुद नहीं करनी चाहिए दूसरा करे तो ही अच्छा लगता है तो ये सोच अज्ञान है, गलत है।
लोगों को लगता है कि अपनी प्रशंसा खुद करना अर्थात् अपने मुख से मियांमिट्ठू बनना बुरी बात है ऐसा तो अहंकारी लोग करते है जबकि ऐसा बिल्कुल नहीं है।
उस जैन को हालांकि धर्म का कोई विशेष ज्ञान भी नहीं था वह तो परिवार में कोई रात्रि भोजन नहीं करता था तो इतना सब तो उसने अपनी दादी मां से सुना था और वही वहां उसे समझाया किंतु अब घर आकर वह अपनी प्रशंसा खुद ही करता है कि मैने उसे ऐसे-ऐसे समझाया पहले उसने मजाक बनाया पर मैने इस तरह से उसे प्रेम से समझाया तो उसने भी हमारे सिद्धांतों की बहुत प्रशंसा की।
अब कोई मूर्ख व्यक्ति वहां होगा तो मूर्खतापूर्ण सूक्ति बोलेगा और कहेगा की अपने मुंह मियांमिट्ठू बन रहा है इसमें कौन सी बड़ी बात है, लोग क्या क्या करते है उन्हें इतना अहंकार नहीं है और तू इतनी सी बात में अपने इतने गुण गा रहा है। अब उस मूर्ख व्यक्ति को कौन समझाए की यह अहंकार नहीं मन की प्रसन्नता है, इतने बड़े-बड़े लौकिक कार्य और ओलंपिक के पुरस्कार जीतकर भी वह प्रसन्नता नहीं पाई जा सकती जो आज इसके मन में है।
क्योंकि आज उसने जैनधर्म की प्रभावना में छोटा सा कार्य किया है, जो कि संसार के हर कार्य से बढ़कर है। और इस बात का उसे अहंकार नहीं, प्रसन्नता है जो अपने परिवार के साथ बांट रहा है जिसप्रकार एक बालक पढ़ाई में टॉप करने पर अपनी सोसायटी में मिठाई बांटता है और प्रसन्न होकर कहता है कि मैने टॉप किया तो वह अहंकारी नहीं है बस अपनी प्रसन्नता बांट रहा है उसे अपने अच्छे कार्य पर गर्व है तो उसे हम अपने मुंह मियांमिट्ठू या अहंकारी नहीं कह सकते। क्योंकि वह तो अपनी मस्ती में मस्त है उसे आपसे प्रशंसा की इच्छा ही नहीं है वह तो अपने आप में अपने कार्य से स्वयं ही प्रसन्न और संतुष्ट है।
अहंकारी तो वह है तो दूसरों से प्रशंसा पाने की इच्छा रखता है। वह कभी संतुष्ट भी नहीं होता और उसे अच्छे-बुरे कार्य से कोई अंतर भी नहीं पड़ता। दूसरा प्रशंसा करे इसका अर्थ आपकी नजरो में अच्छे कार्यों का महत्व ही नहीं चार लोग आपकी तारीफ करे तो आपके कार्य का महत्व होगा, इसका अर्थ आप अच्छा क्या खुद से नहीं करते उन चार लोगों के लिए करते है??
अर्थात् जहां पर की
अपेक्षा होगी वहां निश्चित रूप से मान कषाय होगी और अहंकार सीमा पार करेगा, किन्तु
जिसे पर को अपेक्षा ही नहीं होगी, वह संसार के समस्त कार्यों से स्वयं को निर्भार अनुभव
करेगा, और प्रत्येक कार्य हित-अहित के विचार पूर्वक करेगा, अपने अच्छे कार्यों से स्वयं
ही प्रसन्न और संतुष्ट रहेगा, आत्महित के लिए ही वह कार्य करेगा, अच्छाई और सत्य की
खोज में चिंतन और मनन करेगा और तब ही उसे अपनी कोमलता और विनम्रता रूप मार्दवस्वभाव
का परिचय होगा, निर्णय होगा तथा अनुभव होगा और अपने इस मृदु स्वभाव का अनुभव होना वही
वास्तव में उत्तम मार्दवधर्म है।
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