(वीरछंद)
आज हम इतिहास में जाकर, देखेंगे ओर समझेंगे।
माँ जिनवाणी बहुत रोयी है, उसके आंसू पोंछेगे।।
तीर्थंकर और आचार्यो के, श्रीमुख से श्रुत निकला था।
किन्तु कम होते-होते बस, अंत मे थोड़ा बचा था।।
भद्रबाहु की परिपाटी में, हुए धरसेन आचार्य।
पुष्पदंत और भूतबलि से ग्रंथ उन्होंने लिखवाये।।
पुष्पदंत की आयु थी कम, भूतबलि ने पूरा ग्रंथ लिखा।
णमोकार की रचना कर, पुष्पदंत मुनि कल्याण किया।।
ग्रंथ बना वो षट्खंडागम, श्रुतपंचमी पर्व हुआ।
जय पुष्पदंत ओर भूतबलि जंगल मे भी उत्सव हुआ।।
कुन्दकुन्द आचार्य हुए, जो अध्यात्म के ग्रंथ लिखे।
जंगल मे आचार्यो ने, कैसे-कैसे कार्य किये।।
सोचो जरा विचार करो, अब मुनिराजों के बारे में।
कैसे ग्रंथ लिखे होंगे, तब वन में इतनी मुश्किल में।।
स्याही नहीं था, पेन नहीं था, कागज कॉपी कुछ नहीं था।
ताड़ पत्र पर कांटों से ही, मेरे लिए ये ग्रंथ लिखा।।
पीठ अकड़ जाती थी, दोनो आंखों में होता था दर्द।
लेकिन ग्रंथ लिखा जिससे कि जीवित रहेगा ये जिनधर्म।।
अमृतचंद्रादि आचार्य हुए, ग्रंथ लिखे टिकायें लिखी।
ताड़पत्र पर कैसे, कितनी मुश्किल से जिनवाणी लिखी।।
पूज्यपाद आचार्य ने जब ग्रंथ लिखा इक घटना घटी।
इतना सारा लिखने से उनके आंखों की ज्योति गयी।।
किन्तु देखो अतिशय पुण्य, लिखा उन्होंने इक अष्टक।
आंखों की ज्योति चमकी, जयकार हुआ चारों ही तरफ।।
देखो जरा विचार करो, आचार्यों ने भी कष्ट सहे।
फिर भी देखो समझ न आये जिनवाणी का दर्द हमे।।
अब भी दिल नही पिघला है, तो और सुनो ये कहानी।
कुछ ऐसे भी परिवार हुए, जो मेरे लिए हुए बलिदानी।।
औरंगज़ेब और मुग़ल हुए, तब मंदिर अपने तोड़े गए।
लोगो को भी मारा-पीटा, शास्त्र हमारे जलाये गए।।
खोज-खोज कर घर-घर से, जिनवाणी को मंगवाया था।
पापोदय था काल बुरा था, जिनवाणी को जलाया था।।
जिनवाणी की रक्षा के, जैनो के मन में भाव हुए।
घर में ख़ुफ़िया अलमारी में, शास्त्र उन्होंनें छिपा दिए।।
राजा को जब पता चला तो, परिवारों को बुलाया गया।
दी प्रताड़ना बुरी तरह, और हंटर से भी मारा गया।।
अपनों की आँखों के सामने, जला दिया परिवारों को।
जिनवाणी की रक्षा की, नमन है उन बलिदानो को।।
आगें सुनो फिर करुण कहानी, कैसे जिनवाणी आयी।
षट्खण्डागम ग्रन्थ था दुर्लभ, फिर कैसी युक्ति लगायी।।
कर्नाटक में श्रवणबेलगोला व मूड़बद्री इक क्षेत्र।
जिनवाणी थी वहां सुरक्षित, भट्टारकों का था वो क्षेत्र।।
दर्शनमात्र ही कर सकते थे, षट्खण्डागम ग्रन्थ के।
पढ़ने वाला कोई नहीं था, ज्ञाता ढूंढे प्राकृत के।।
मुंबई से यात्रा लेकर के, माणिकचंद जी पहुंचे सेठ।
ग्रन्थ हाथ में लिया तो जागी, मन में उनके भावना नेक।।
ताड़पत्र जो हाथ में ले तो, झर-झर झड़ने लगते थे।
लिपि करना है इनको जल्दी, माणिकचंद जी सोचते थे।।
बहुत समय तक खोजे तब, जाकर के इक विद्वान मिले।
हीराचंद सेठजी को तब, ब्रम्हसुरी विद्वान मिले।।
ब्रम्हसुरीजी एक शास्त्री, ग्रन्थ उन्होंने जब खोला।
आँखें नम थीं मन में खुशियां, हर्ष अपार ही छाया था।।
सन् 1884 में, प्रथम बार सुन मंगलाचरण।
सेठ माणिकचंद हीराचंद, के कर्ण हुए थे अतिपावन।।
भट्टारक की शर्त थी मुश्किल, ग्रंथ नही ले जाओगे।
पढ़ना है तो यहीं पढ़ो, पर ग्रंथ यहीं रख जाओगे।।
ब्रह्मसुरि, गणपतिजी शास्त्री, दोनों ने लिपि कार्य किया।
छुपकर के इक प्रति लिखी, और हम पर तो उपकार किया।।
पंद्रहसौ श्लोक प्रमाण की, प्रति लिखी ब्रह्मसुरी ने।
गुजर गए बीमार हुए तो, जिनवाणी थी मुश्किल में।।
बुद्धिमान गणपति शास्त्री, जिनवाणी की महिमा आयी।
पत्नी विदुषी लक्ष्मीबाई, जिनवाणी छुपकर लिखवाई।।
छिप-छिप कर के गुप्त रूप से, जिनवाणी की प्रति लिखी।
किन्तु आज खुशी का अवसर, जिनवाणी स्वतंत्र हुई।।
गणपति शास्त्री ले के शास्त्र को, पहुचे मुम्बई नगरी में।
माणिकचंद ने नहीं खरीदा, कहा कि लिखा है चोरी से।।
गणपतिजी जिनवाणी लेकर, सब सेठों के पास गए।
किन्तु नही खरीदा किसी ने, जिनवाणी के आंसू बहे।।
आया भाग्य सहारनपुर के, जम्बुप्रसाद सेठजी का।
गणपतिजी के कर से लेकर, दर्श किया षट्खन्डागम का।।
किन्तु एक समस्या थी, कन्नड़ भाषा मे था वो ग्रंथ।
तभी गणपति जी शास्त्री बोले, चिंता छोड़ो है श्रीमंत।।
सेठ जम्बूप्रसादजी ने, खरीदा षट्खंडागम को।
गणपतिजी अनुवाद करे, और आगे बढ़ाएं आगम को।।
काल निकट आया फिर देखो, गणपति जी भी चले गए।
देवनागरी लिपि में इसके, आगे कौन अनुवाद करे।।
फिर खोजा विद्वान जिसे, संस्कृत कन्नड़ भी आती हो।
देवनागरी लिपि का भी वह, अच्छा भाषा ज्ञानी हो।।
गीताराम शास्त्री एक विद्वान, आए सहारनपुर से।
उन्नीस सौ सोलह से तेईस, अनुवाद किया देवनागरी में।।
गीताराम शास्त्री जी ने, काम किया है बहुत ही नेक।
फिर द्वारा षट्खंडागम की, प्रतियां उनने लिखी अनेक।।
अमरावती, कारंजा, आगरा, सोलापुर, मुम्बई, दिल्ली।
अजमेर, झालरापाटन और इंदौर में वह प्रतियां भेजीं।।
अब तक ग्रंथ छपे नही, और मिले नहीं थे पढ़ने को।
समय व्यर्थ ही निकल रहा, तब जागा भाव कुछ करने को।।
सन 1933 में एक, कार्य हुआ था अतिपावन।
अखिलभारतीय जैन अधि-वेशन हुआ था मनभावन।।
अध्यक्ष सेठ जमुनाप्रसाद, उस अधिवेशन में पता चला।
सेठ लक्ष्मीचंद विदिशा, की योजना का पता चला।।
बहुत रुपये खर्चा करके, वह गजरथ एक चलाएंगे।
तभी सेठ जमुनाप्रसादजी, उनको जा समझायें है।।
जुलूस निकालो खूब बडा तुम, जय-जयकारे खूब करो।
पैसा सारा खर्च हुआ, पर लाभ क्या है विचार करो।।
कहे सेठ जमुनाप्रसाद, हम चाहे ऐसा काम करो।
घर-घर में जिनवाणी पहुचे, पैसे का सत् उपयोग करो।।
हुआ भाव में परिवर्तन, गज नहीं ज्ञान रथ चलना है।
जिनधर्म की रक्षा करने को, अब जिनवाणी ही छपना है।।
लक्ष्मीचंद सेठजी अब, श्रीमंत दानवीर सेठ बने।
नाम से उनके नगरी में, सहित्यखण्ड का ट्रस्ट बने।।
सन 1933 में ग्रंथ छपना, वह प्रारम्भ हुआ।
1958 में फिर, छपकर वह तैयार हुआ।।
कैसी-कैसी मुश्किल आयी, बहुत आयीं थीं विपदाएं।
पूर्व भवों का पुण्य हमारा, शास्त्र यहाँ हम पढ़ पाएं।।
एक समय था, पुण्य उदय था, भट्टारक जी स्वयं कहें।
ग्रन्थ जांच लो एक बार फिर गलती कोई नहीं रहे।।
समयसार आदिक आध्यात्मिक, ग्रन्थ आज जो हमें मिले।
उपकार गुरु कानजीस्वामी, जो पुण्य उदय से हमे मिले।।
आज बताता हूँ में आपको, जिनवाणी कैसे उपलब्ध।
दुर्लभ थे जो ग्रन्थ सदा, वो कैसे आज है सहज सुलभ।।
हुए श्रीमद् राजचन्द्र, जो गुरु महात्मागाँधी के।
श्वेताम्बर से हुए दिगम्बर जिनवाणीमां को पढ़ के।।
मन में बहुत सी शंकाएं, लेकर जब ध्यान लगाया था।
हुआ जातिस्मरण ज्ञान, पूर्वभवों का दर्शन पाया था।।
समयसार जब पड़ा उन्होंने, मन ही मन वो हर्षाये।
तभी अगास आश्रम से उन्होंने, एक हज़ार ग्रन्थ छपवाएं।।
200 ग्रन्थ तो बांट दिए और शेष ग्रन्थ सब रखे रहे..
२८ वर्षों तक देखो, ग्रन्थ ८०० रखे रहे।।
गुजरात राज्य के स्वर्णपुरी में, कानजी स्वामी थे इक संत।
श्वेताम्बर मत में प्रसिद्ध, ज्ञानीध्यानी थे इक महंत।।
दिया किसी ने भेंट उन्हें, वो समयसारजी ग्रंथ महान।
पढ़ा उन्होनें छिप-छिप कर, जीवन में हुई क्रांति महान।।
कहकर अपने भैया से, ग्रन्थ उन्होंने मंगा लिये।
समयसार पढ़कर के निज को, समयसार ही बना लिये।।
श्वेताम्बर मत को तजकर के, धर्म दिगम्बर अपनाया।
सवा-लाख श्वेताम्बर ले संग, धर्म दिगम्बर अपनाया।।
तब से क्रान्ति हुई जगत में, मानो सब कुछ बदल गया।
हर जैनी अब पढ़े शास्त्र, और सच्चे धर्म को समझ गया।।
जगह-जगह तब बने दिगम्बर, जिनमन्दिर स्वाध्याय भवन।
जिनमें गूंजे दिव्यध्वनि, और सबका होता मन पावन।।
गुरु कहान के ही प्रताप से, हरिजन के भी मन बदले।
उमराला में नित्य दिगम्बर, जिनग्रन्थों को वे पढ़ते।।
उपकार गुरु कानजी स्वामी का, शिविर लगाते थे अनेक।
शास्त्रों की चर्चा होती, विद्वान हुए तैयार अनेक।।
आओ हम आभार करे, धनिवाद करें सब गुरुओं का।
और सभी ले द्रढ़ संकल्प, कल्याण करे निज आतम का।।
(दोहा)
दुर्लभ मां जिनवाणी है, दुर्लभ है निज ज्ञान।
जो समझे भव दुःख नशे, पावे शिवसुख धाम।।
Excellent story telling by means of this poem. Jinvani ma ki jai ho 🙏
ReplyDeleteThanks.🙏
ReplyDeleteBohot sundar
ReplyDeleteजी धन्यवाद 🙏
Delete