Wednesday, February 26, 2025

मेरी मम्मा

 मेरी मम्मा

मैंने दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती  देखी है।

अपनी मां के रूप में एक अद्भुत शक्ति देखी है।।

यूं तो कठिनाइयां बहुत थी उनके जीवन में।

किन्तु अनेक समस्याओं में भी मैने 

अपनी मां मुस्कुराती देखी है।।

घर की जिम्मेदारी और बच्चों की चिन्ता।

समस्त कार्यों के बीच मन ऐसा उलझता।।

अनेक मुश्किलों से अकेले लड़ते देखी है।

बचपन से मैने एक अद्भुत शक्ति देखी है।।

हमें पढ़ाया, लिखाया और काबिल बनाया।

हर समस्या से लड़ना मां तूने सिखाया।।

हंसते, खेलते और सोते समय भी।

जीवन की शिक्षाएं तूने हमें दी।।

भविष्य की चिंताओं के बीच मुस्कुराती देखी है।

बचपन से मैने एक अद्भुत शक्ति देखी है।।

जीवन में संस्कार के बीज डाले।

जिनधर्म महिमा हृदय में संवारे।।

जिनदर्शन -पूजन, व्रतादिक सिखाया।

नीति से जीना मां तूने सिखाया।।

मैने मां के रूप में गुरु मां देखी है।

बचपन से मैने एक अद्भुत शक्ति देखी है।।


हे जन्मदाता, हे संस्कारदाता,

हे शिक्षा प्रदाता, मेरी प्रिय माता।।

तेरे जन्म दिन पर मेरी भावना है।

तू जन्मादि नाशे यही कामना है।।

मैं ही हूं भगवन ये स्वीकार करके, 

इस स्त्री पर्याय से मुक्त होके।

पुरुष बन, मुनि बन, निज आत्मा के बल से।

सदा मुक्त हो जाओ संसार दुःख से।।

सदा मुक्त हो जाओ संसार दुःख से।।

दूर है हम आपसे पर सदा दिल के पास है।

नेहा, विनय, सम्भव, हम आपके ही दास है।।


~ सम्भव जैन शास्त्री, श्योपुर



Saturday, May 25, 2024

कानजीस्वामी (सोनगढ़िया पंथ ) और वर्तमान दिगम्बर जैन पंथ में क्या अन्तर है...


कानजी स्वामी कौन है वो दिगम्बर जैन है अथवा श्वेताम्बर?

कानजी स्वामी का जन्म गुजरात के काठियावाड़ क्षेत्र के एक छोटे से गाँव उमराला में 1890 में एक स्थानकवासी परिवार में हुआ था। हालाँकि वह अपने विद्यालय में एक योग्य छात्र थे, लेकिन उन्हें हमेशा यह आभास होता था कि सांसारिक शिक्षाएँ ऐसी चीज़ नहीं थीं जिनकी उन्हें तलाश थी। जब वह तेरह वर्ष के थे तब उनकी माँ का देहांत हो गया और सत्रह वर्ष की आयु में उनके पिता का देहांत हो गया। इसके बाद, उन्होंने अपने पिता की दुकान संभालनी शुरू कर दी। उन्होंने दुकान में खाली समय का उपयोग धर्म और अध्यात्म पर विभिन्न पुस्तकें पढ़ने में किया। शादी के प्रस्तावों को ठुकराते हुए, उन्होंने अपने भाई से कहा कि वह ब्रह्मचारी रहना चाहते हैं और संन्यास लेना चाहते हैं।

वे बालपन से ही साधु-सन्तों को देखकर प्रसन्न होते थे, उनकी वैयावृत्ति करना तथा उनसे जिनवाणी का ज्ञान प्राप्त करना उन्हें अच्छा लगता था, मुक्ति की अभिलाषा को लिए हुए अधिक समय धार्मिक समय वातावरण में बीते यह विचारकर उन्होंने भी स्थानकवासी सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की, तब दीक्षा उत्सव के समय गजराज हाथी पर सवार होने के दौरान उनका वस्त्र फट गया जिसे उस समय अपशकुन माना गया तथा कानजी स्वामी कहते थे कि उस समय उन्हें ऐसा आभास हुआ कि कहीं वस्त्र रहित मार्ग ही सच्चा मुक्तिमार्ग तो नहीं ?

वे मुक्ति की अभिलाषा मन में लिए हुए मुक्तिमार्ग की खोज में सदैव स्वाध्याय में तथा आध्यात्मिक शास्त्रों के अध्ययन में तत्पर रहते थे, तथा प्रवचन भी करते थे, उनके आध्यात्मिक ज्ञान और चर्या के कारण उन्हें काठियावाड़ के कोहिनूर (काठियावाड़ क्षेत्र के रत्न) के रूप में जाना जाता था।

1921 के दौरान, उन्हें किसी दामोदर सेठ ने दिगम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध आचार्य कुन्दकन्द द्वारा रचित समयसार ग्रन्थ भेंट में दिया..और कानजी स्वामी ने जब प्रथम बार उसे खोला और पहली गाथा पढ़ते ही अपनी भाषा में उनके मुख से निकला આ તો અશરીરી હોવા નું શાસ્ત્ર છે. अर्थात् यह तो अशरीरी होने का शास्त्र है।

कानजीस्वामी अकेले बैठकर प्रतिदिन समयसार ग्रन्थ का गहराई से स्वाध्याय करने लगे, तथा समय के साथ उन्हें दिगम्बर सम्प्रदाय के अन्य शास्त्र भी प्राप्त होने लगे, नियमसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय, अष्टपाहुड, योगसार, परमात्म प्रकाश, पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, रत्नकरण्ड श्रावकाचार,   आदि अनेक दिगम्बर ग्रन्थों का गहराई से अध्ययन किया, दिगम्बर जैन शास्त्रों के प्राचीन प्रसिद्ध विद्वान पण्डित टोडरमलजी, पण्डित बनारसीदासजी, एवं श्रीमद् राजचन्द्रजी की लेखनी का भी उन्होंने गहराई से अध्ययन किया, तथा उनके जीवन, व्यवहार और भाषा में भी दिगम्बर शास्त्रों का प्रभाव दिखाई देने लगा, अपने प्रवचनों के दौरान, उन्होंने इन दिगम्बर जैन शास्त्रों के अध्ययनों से चुने गए विचारों को शामिल करना शुरू कर दिया और एक तरह का दोहरा जीवन जीना शुरू कर दिया, नाममात्र के लिए एक स्थानकवासी मठवासी रह गए किन्तु प्रतिसमय दिगम्बर ग्रन्थों  का जिक्र करते थे। 

उनका यह दावा है कि "आत्मा की समझ के बिना किए गए व्रत, दान और उपवास अंततः बेकार हैं" उन्हें स्थानकवासी समुदाय के लिए प्रिय नहीं बनाता था। उन्होंने स्थानकवासी मठवासी जीवन छोड़ दिया और 1934 में गुजरात के सोनगढ़ में खुद को ब्रह्मचारी दिगंबर विद्वान घोषित किया।

कानजी स्वामी के सोनगढ़ में भी नित्य प्रवचन होते थे, उनके प्रवचन में पुराने स्वाध्यायी जीव ही आया करते थे, और धीरे-धीरे उनके प्रवचन में श्रोताओं की संख्या बढ़ने लगी, उनके निमित्त से लगभग 1.5 लाख श्वेतांबर जैनों ने दिगम्बर जैनधर्म को ही सच्चा मुक्तिमार्ग मानकर स्वीकार किया।

ये सोनगढ़िया क्या है? सोनगढ़ और कानजी स्वामी का क्या सम्बन्ध है?

गुजरात प्रान्त के भावनगर जिले के एक छोटे से ग्राम का नाम सोनगढ़ है ये वही स्थान है जहां कानजी स्वामी ने 1934 में महावीर जयंती के शुभ अवसर पर स्थानकवासी साधुपना त्यागकर स्वयं को दिगम्बर ब्रह्मचारी सामान्य अवृती श्रावक घोषित कर दिया।..तथा यही पर प्रतिदिन दिगम्बर जैनशास्त्रों के आधार से उनके प्रवचन होने लगे तथा उनकी प्रेरणा से विशाल जिनमन्दिर और स्वाध्याय हॉल का निर्माण भी हुआ। 

इसके अलावा समय-समय पर शिक्षण शिविरों का आयोजन किया जाने लगा जिसमें पुराने स्वाध्यायी विद्वान शास्त्र के आधार से नए साधर्मियों को सरल भाषा में जैनशास्त्रों का अध्ययन कराते थे। 

कानजी स्वामी अब सोनगढ़ के निवासी बन गए थे इसलिए उन्हें तथा उनके पास जो जैनशास्त्रों का अध्ययन करने उनके प्रवचन सुनने जाते है उन्हें सोनगढ़िया कहा जाने लगा।

हमने सुना है कि कानजीस्वामी दिगम्बर मुनि को नहीं मानते और वे मुनिराज की निन्दा करते है ?

अब देखो सुनी सुनाई बातों का तो कोई अर्थ नहीं होता है, सत्य तो ये है जब कानजी स्वामी से एक इंटरव्यु के दौरान यह प्रश्न पूछा गया तो उन्होंने स्वयं कहा कि हम तो दिगम्बर मुनिराजों के दासानुदास (मुनिराज के दास के भी दास) है। आत्मज्ञानी दिगम्बर मुनिराज तो चलते-फिरते सिद्ध है। उनके दर्शन मिलना उन्हें आहारदान देने का अवसर जिस भक्त को मिल जाए उससे अधिक सौभाग्य शाली कोई दूसरा नहीं हो सकता। इसके अलावा कानजीस्वामी प्रवचन करते समय प्रारम्भ में णमोकर मंत्र बोलकर लोक के सभी मुनिराजों को नमस्कार करते थे, प्रतिदिन जिनमन्दिर देव-शास्त्र-गुरु पूजन करते समय देव, शास्त्र और गुरु तीनों की समान भाव से पूजा करते थे प्रतिदिन स्वयं अपने मुख से मन्दिरजी में बैठकर दिगम्बर मुनिराज का गुणगान करते थे। अपने प्रवचनों में अनेकों बार दिगम्बर मुनिराज की भक्ति में लीन होकर भावुक हो जाते थे.. इतना सब प्रसिद्ध है, प्रमाणित है, ऐसा सब करते हुए उनके फोटो, विडियो और अनेक प्रवचन उपलब्ध है, और सब कुछ प्रत्यक्ष प्रमाणित होते हुए भी कोई मात्र बदनाम करने के लिए ऐसी बातें जगत में फैला दे कि कानजीस्वामी मुनिराज को नहीं मानते तो इसमें कोई क्या कर सकता है, और सुनने वाला भी बिना प्रमाण किए, बिना सत्य का पता लगाए उसी बात को आगे बढ़ा देता है कि हमने सुना है कि कानजीस्वामी मुनि को नहीं मानते, इसप्रकार बात तो चारो तरफ फैल जाती है और सत्य का पता कोई लगाना ही नहीं चाहता, तथा ये बात भी प्रमाणित है कि जितने भी लोगों ने कही-सुनी बात पर भरोसा न करके सत्य का पता लगाया वो कानजीस्वामी के ही अनुयायी बन गए, इससे सिद्ध होता है कि कानजीस्वामी तो दिगम्बर मुनिराजों के परमभक्त थे अवश्य ही किसी ने द्वेष पूर्वक यह बात फैलाई है, और फिर भी किसी को संदेह है तो स्वयं इस विषय का पता लगाए उनके रिकॉर्डेड प्रवचन में दिगम्बर मुनिराजों की महिमा सुनकर स्वयं सत्य-असत्य का निर्णय करें, और रही बात निन्दा की तो उन्होंने अपने सम्पूर्ण जीवन में कभी किसी मुनि तो क्या किसी सामान्य विरोधी व्यक्ति की भी निन्दा नहीं की, उन्होंने अपने जीवन में किसी से कड़वे बोल तक नहीं बोले, और विश्वास नहीं तो स्वयं उनके जीवन पर रिसर्च करके पता करो, सोनगढ़ जाकर उनके व्यवहार और आचरण की सही जानकारी लेकर आओ, उनके 1000 से रिकॉर्ड प्रवचन है सुनो और कहीं भी एक लाइन भी ऐसी मिल जाए जिसमें उन्होंने किसी भी मुनि की निन्दा की हो तो बताओ, हम उसी दिन से उनके प्रवचन सुनना बंद कर देंगे।

हमने सुना है कानजी स्वामी पंचमकाल के साधु को नहीं मानते, और कानजीस्वामी कहते है कि पंचमकाल में सच्चे साधु ही नहीं होते?

यही तो समस्या है कि आपने सुना और मान लिया, स्वयं कभी सत्य जानने का प्रयास ही नहीं किया, अरे भाई कानजीस्वामी को जबसे समयसार ग्रन्थ मिला तब से उनका जीवन ही परिवर्तन हो गया था, और वो समयसार पंचमकाल के ही आचार्य कुन्दकुन्द द्वारा रचित है, कानजीस्वामी ने जीवनभर पंचमकाल के ही दिगंबर मुनिराजों के लिखे शास्त्रों पर प्रवचन किए और प्रतिदिन प्रवचन में वे कुन्दकुन्द आचार्य, उमास्वामी आचार्य अमृतचंद्राचार्य, जयसेनाचार्य, मुनि पद्मभमलधारिदेव, योगिंदु मुनि, समंतभद्र आचार्य आदि अनेक पंचमकाल के दिगंबर मुनिराजों को स्मरण किया करते थे,  और जैसा कि आपने कहा की कानजीस्वामी कहते थे कि पंचमकाल में साधु नहीं होंगे पता नहीं ये बातें कौन और कहां से फैला देते है और लोग कैसे अंधे होकर बिना किसी प्रश्न के सत्य-असत्य को जाने बिना स्वीकार भी कर लेते है, अरे भाई कानजीस्वामी ने तो अनेक शास्त्रों का गहराई से अध्ययन किया था और शास्त्र के अनुसार ही वे कहते थे कि पंचमकाल के अंत तक सच्चे दिगम्बर भावलिंगी मुनिराज होंगे, और उनके अनुयायी भी अपने प्रवचनों में ऐसा ही कहते है, यहां तक उनके अनुयायी तो भजन बनाकर ये गेट है, कि सर्वज्ञ के वचन सदा जयवंत रहेंगे, इस काल में सदा ही जैनसंत रहेंगे

पर क्या करें अंधभक्त जनता ऐसी ही होती है सत्य असत्य को जाने बिना ईधर से बात सुनी उधर निकाल दी और सही गलत को समझे बिना बातें फैल जाती है, प्रत्यक्ष सब जानते है कि कानजीस्वामी और उनके अनुयायी पंचमकाल के मुनिराज के ही ग्रन्थ पढ़ते और पढ़ाते है फिर भी किसी से सुनकर विश्वास कर लेते है कि वे पंचमकाल के मुनिराजों को नहीं मानते अत्यन्त आचार्य है।

Wednesday, May 15, 2024

धर्म और परम्परा एक सामान्य परिचय

 

धर्म शाश्वत है और परम्पराएं परिवर्तनशील होती है अर्थात् बदलती रहती है। कोई भी द्रव्य हो, कोई भी क्षेत्र हो, कोई भी काल हो, और कोई भी भाव हो, धर्म कभी नहीं बदलता , सदा एक जैसा ही रहता है, जैनदर्शन के दिगम्बर संत कार्तिकेय मुनिराज ने कहा है "वत्थु सहावो धम्मो" अर्थात् वस्तु का स्वभाव धर्म है और स्वभाव वो होता है जो सदा एक जैसा रहे, जिसका कभी नाश न हो, जैसे शक्कर का स्वभाव है मिठास जो कभी नहीं बदलता। 

किसी भी व्यक्ति के लिए, किसी भी क्षेत्र में, किसी भी काल में, किसी भी भाव में शक्कर अपनी मिठास को कभी नहीं छोड़ती, यदि मिठास ही न हो, तो शक्कर भी नहीं होगी। इसलिए वही उसका स्वभाव है और वही उसका धर्म है उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव है ज्ञान-दर्शन आदि जानना-देखना जो की सदैव रहता है निगोद में भी जीव अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता और स्वभाव ही धर्म है तथा धर्म सदैव शाश्वत होता है। 

किन्तु परम्परा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार बदलती रहती है, कभी किसी व्यक्ति के कारण से, किसी क्षेत्र के कारण से, किसी समय के कारण से अथवा किसी परिणाम के कारण से कोई एक नियम, रीति अथवा परम्परा बना दी जाती है और लोग उसे वैसा ही करने लगते है और समय के साथ वो परम्परा समाज की आदत बन जाती है और समाज उसे धर्म समझकर करने लगता है। 

ये परम्परा कभी तो उस समय किसी कारण से विशेष से समझदार पुरुष द्वारा समाज की भलाई के लिए प्रारम्भ की जाती है, और कभी किसी व्यक्ति के मजाक में भी कोई बात कहने से को बात कुछ सच मानकर फैला देते है तो भी परंपरा चल सकती है।

बिना सोचे समझे ऐसे ही किसी के कोई बात कह देने से अथवा किसी के ऐसे कुछ करने से अपने आप चल जाने वाली परम्परा:-

जैसे - एक बार की बात है एक नई नवेली दुल्हन का ग्रह प्रवेश का कार्यक्रम चल रहा था और वहां द्वार पर एक कलश रखा था जिसे दाएं पैर से गिराकर बहु ग्रहप्रवेश करने वाली थी किन्तु अचानक वहां एक बिल्ली घूमने लगी तो सासु मां ने सोचा कि कहीं ये बिल्ली कलश न गिरा दे तो सासु मां ने उस बिल्ली के ऊपर एक डलिया डालकर उसे ढंक दिया ये सब कुछ उस नई दुल्हन ने द्वार पर खड़े होकर देखा, और जब 25 वर्ष बाद उसके बेटे के विवाह का समय आया और दुल्हन का ग्रह प्रवेश होने ही वाला था तो उसने कहा कि रुको पहले एक बिल्ली लेकर आओ उसके ऊपर में डलिया डालकर उसे ढक दूंगी उसके बाद ही ग्रहप्रवेश होगा क्योंकि हमारे ग्रहप्रवेश के समय सासु मां ने भी ऐसा ही किया था।

एक बार की बात है शनिवार का दिन था एक लड़का अपनी माता  के पास जाकर बार-बार पकौड़े खाने की जिद कर रहा था और उस दिन घर में तेल नहीं था तो उसने जब पिता से कहा कि मुझे पकौड़े खाने है और घर में तेल नहीं है तो पिता ने उस बालक को टालने के लिए ऐसे ही कह दिया कि बेटा आज शनिवार है आज तेल नहीं खरीदते अशुभ होता है। बालक ने वही बात अपने विद्यालय में दोस्तों को बताई, दोस्तों ने दूसरे लोगों को बताई और समय के साथ वह परम्परा बन गई।

इसीप्रकार एक बार मंगलवार का दिन था एक ज्ञानचंद जी के बेटे के बाल बहुत बड़े थे तो विद्यालय में कहा गया कि कल बाल कटवाकर ही आना, और जब बालक ने घर जाकर अपने पिता ज्ञानचंदजी से कहा कि मुझे बाल कटवाने जाना है लेकर चलो तो ज्ञानचंदजी ने अपने शास्त्र अध्ययन में व्यस्थ होने के कारण ऐसे ही कह दिया कि आज मंगलवार है आज नहीं जाते कल चलेंगे और बालक ने यही बात अगले दिन कक्षा में अपने शिक्षक को बता दी तो शिक्षक ने भी सोचा की इनके पिता ज्ञानचंदजी शास्त्र बहुत पढ़ते है, पंडित है हो सकता है कहीं पढ़ा होगा, तो उन्होंने इस बात को आगे बढ़ा दी साथ ही पूरी कक्षा ने भी वो बात सुनकर आगे फैला दी इसप्रकार एक और नई परम्परा ने जन्म ले लिया कि मंगलवार को बाल नहीं कटायेंगे...

तो इसप्रकार बिना सोचे समझे गलत परम्परा चल जाती है।

सोच समझकर किसी कारणवश प्रारम्भ की गई परम्परा :-

जैसे - एक समय पर मुगल शासकों का जैनसमाज पर घोर अत्याचार हुआ था, जैनियों  को जिंदा जलाया गया जबरदस्ती धर्म परिवर्तन गया, उनके द्वारा हमारे मन्दिर तोड़े गए तब उस समय किसी एक समझदार महापुरुष ने  सबको सलाह दी कि कम से कम हमें अपनी जिन प्रतिमाओं को तो बचाना चाहिए तब उस समय समाज जन ने आपत्तिकाल में जिन प्रतिमाओं को स्वयं ही भू-गर्भ में छिपा दिया और स्वयं मन्दिर में मात्र शास्त्र विराजमान करके पूजा करने लगे ताकि मुगल शासकों को लगे कि जिसप्रकार हम भी मूर्तियों को नहीं पूजते कुरान को पूजते है ये भी वैसे ही है और इसप्रकार समझदारी से किसी महान व्यक्ति की सूझबूझ से उस समय धर्म की रक्षा हुई किन्तु आज कुछ लोग उसी परम्परा को निभाते हुए उसे ही धर्म मानने लगे और मूर्तिपूजा निषेधक बन गए।

इसीप्रकार एक बार शंकराचार्य और मीनाक्षीदेवी द्वारा जैनसमाज पर भयंकर उपसर्ग किया गया, 800 दिगम्बर मुनिराजों को सूली पर चढ़ाया, घानी में पेला गया, कई जैनों को जबरदस्ती हिन्दू धर्म में परिवर्तित कराया गया, तब उनसे बचने के लिए बहुत से लोगों ने अपने जैन मन्दिरों में ही जिनप्रतिमाओं को वैष्णव परम्परा के ही अनुसार पूजन प्रारम्भ कर दिया, जैसे पंचामृत अभिषेक, स्त्री अभिषेक, शांतिधारा, जिनप्रतिमाओं पर चंदन लेपन आरती, अग्नि हवन, फल-फूल से पूजा ये सब प्रारम्भ किया, और अपरिग्रही वीतराग जिनप्रतिमा को श्रृंगार युक्त परिग्रही रूप में भी पूजना प्रारंभ हो गया, और किसी समय धर्म को बचाने के लिए जो परम्परा प्रारम्भ हुई वो आज धर्म बन गई है।

इसप्रकार ये परम्पराएं कभी-कहीं किसी कारणवश प्रारम्भ होती है और अनेक लोगों पर इसका अलग-अलग अथवा एक जैसा प्रभाव पड़ जाता है, कभी-कहीं ये समय के साथ बदल जाती है और कभी-कहीं धर्म के रूप में लोग मृत्यु के सवाल पर भी पूर्वजों का कथन मानकर सदा इन परम्पराओं का पालन करते रहते है।

और वास्तव में ये परम्पराएं यदि हमें अत्यन्त आवश्यक प्रतीत हो, उससे हमें अथवा हमारे परिवार को कोई लाभ होता नजर आए तो निभाना चाहिए, अन्यथा उस परंपरा को अपनी समझ के अनुसार ऐसा करना जरूरी नहीं है, इससे कोई लाभ नहीं, उल्टा नुकसान ही है,  ये समझ आ जाए तो छोड़ देना चाहिए।

Thursday, November 9, 2023

खुश रहना वास्तव में कितना सरल है

वर्तमान में सभी को ये जीवन बड़ा ही कष्टमय लगता है, सभी लोग दुःखी है, सबके दु:खों के अपने-अपने, अलग-अलग कारण है धनवान हो, अथवा निर्धन, नामी, प्रतिष्ठित व्यक्ति हो अथवा इससे रहित कोई बेनाम अप्रतिष्ठित व्यक्ति सभी दुःखी है। 

और हमारे दुःखों मूल कारण है व्यर्थ के सपने, व्यर्थ की इच्छाएं, सबको अपने हिसाब से चलाने की सोच। 

विचार कीजिए कि आज सबके बड़े-बड़े सपने है, अनेकों इच्छाएं है, किसी को डॉक्टर बनना है, किसी को इंजीनियर बनना है, किसी को सी.ए. बनना है, किसी को इंस्पेक्टर बनना है, किसी को कलेक्टर बनना है, किसी को विश्वप्रसिद्ध गायक बनना है, किसी को विश्वप्रसिद्ध नर्तक बनना है, किसी को विश्वप्रसिद्ध तिरनबाज बनना है, किसी को विश्वप्रसिद्ध खिलाड़ी बनना है, किसी को चांद पर जाना है, किसी को मंगल तो किसी को सूरज पर जाना है, जिसको देखो वो अपने आप को बहुत ऊंचाई पर देखना चाहता है वह भी मात्र इसलिए कि दुनियां हमें जाने, लोग हमारी प्रशंसा करें उसके लिए दिन-रात बिना कुछ सोचे गधे की तरह मेहनत करता है और पूरी जिन्दगी मेहनत करने पर भी लक्ष्य का मिलना तो पुण्य के आधीन है और यदि मिल भी गया तो लक्ष्य मिलने भी खुशी ज्यादा देर नहीं टिकती आप उससे पूछो तो अब उसे, उससे भी बड़ा कुछ चाहिए।

अरे भाई पगला गए हो क्या? 

ये करना है, वो करना है, आगे ऐसा करूंगा, वैसा करूंगा, शान्ति से बैठा नहीं जाता थोड़ी देर।

ये कीमती मनुष्यभव ऐसे फालतू के लक्ष्य में समय बर्बाद करने के लिए नहीं मिला है थोड़ा विचार तो कर। 

दुनियां तुझे जाने ये महत्वपूर्ण नहीं है तू अपने आप को जान बस यही सुख का कारण है।

मैं एक उदाहरण देता हूं -

एक तरफ बचपन से जवानी तक अथवा बुढ़ापे तक एक व्यक्ति बहुत मेहनत करता है एक फालतू सा विश्वप्रसिद्ध कोई खिलाड़ी बनने का लक्ष्य कर लेता है अब उसका जीवन पूरा कष्टमय बीतता है खाना-पीना आदि सब उसे अपने खेल के नियमों के अनुसार करना होता है दिन-रात उसके मन में एक भय बना रहता है कि मेरा प्रथम नंबर नहीं आया तो क्या होगा। 

ऐसे लक्ष्य बनाने वाले कितने ही तो डिप्रेशन के शिकार हो जाते है और कितने ही पुरुष अथवा स्त्री हारने पर आत्महत्या आदि गलत कदम उठाते है। और यदि कोई विश्वप्रसिद्ध बन भी गया तो उसकी खुशी ज्यादा समय नहीं टिकती अखबार और न्यूजचैनल के माध्यम से कुछ समय लोग वाह! वाह! करते है, स्टेज पर कुछ सम्मान मिल जाता है और लोग उसे भूल जाते है कल इसी स्थान पर दुसरा होगा और उसी खुशी गायब। उसे अन्दर से प्रसन्नता होती ही नहीं है। क्योंकि वास्तव में ऐसा लक्ष्य बनाने वाला वो दुनियां की नजरो में महान बनने के लिए सब कुछ कर रहा था अपने लिए नहीं।

एक तरफ कोई साधारण सा व्यक्ति उसके घर में 5 सदस्य भी हो तो जितना भी धन हो मुस्कराकर खर्च करता है। 100 रूपए हो तो उसमे भी खुश रहता है 10 रूपए हो उसमें भी खुश रहता है। प्रतिदिन घर से शुद्ध भोजन बनाकर अपने हाथ से भूखे लोगों को भरपेट भोजन कराता है जो आवश्यक कार्य हो बस वही करता है। कोई मेरी प्रशंसा करेगा या नहीं, कोई मुझे सम्मान देगा या नहीं इस लोभ (लालच) से रहित वो हर परिस्थिति में खुश रहता है।

आज जब किसी धनवान की मृत्यु होती है यही समाज जिसकी दृष्टि में महान और धनवान बनने के लिए आप वर्तमान के आनंद को त्यागकर कष्टमय जीवन जीते है यही समाज कहता है कि दे:खो कितना धनवान व्यक्ति था कुछ साथ नहीं जा सका क्या लाभ हुआ दिन-रात गधे की तरह मेहनत करके करोड़ों रुपया जोड़ने का इससे अच्छा है वर्तमान जीवन का आनंद लो, वर्तमान में चाहे जैसी परिस्थिति हो उसकी शिकायत करने के बजाय उसी परिस्थिति में हमें खुश कैसे रहना ये सीख लो अगर आपने ये सीख लिया तो आप दुनियां के सबसे महान व्यक्तित्व होंगें। 

क्योंकि जो जीवन भर कष्ट सहता है मात्र शांतिपूर्ण जीवन जीने की आस में यदि वो समाज की दृष्टि में महान बन सकता है तो सोचो बिना किसी कष्ट के हर परिस्थिति में आप बचपन से ही खुश रहना सीख लो तो आप उससे भी कितने महान हो गए। 

अब आप सोचों कौन ज्यादा सही है?

बचपन से कष्टभरा जीवन जीकर 1 महीने वाहवाही लूटकर खुश रहने वाला अथवा प्रतिसमय स्वयं हर परिस्थिति में खुश रहकर अपनी योग्यता अनुसार आसपास के लोगों को भी खुश रखने वाला? 

वास्तव में ये जीवन हम कितने समय जीने वाले है कोई नहीं जानता कब ये देह साथ छोड़ दे और देह से देहांतर होना पड़े कौन जानता है?

आज जितने भी सफल व्यक्ति है चाहे वो बड़े व्यापारी हो अथवा किसी बड़े आधिकारिक पद पर हो, ऐसे व्यक्तित्व के विषय में यदि आप जानोगे तो समझोगे कि उन्होंने बचपन से अपने दिमाग पर कभी तनाव रखकर जीवन नहीं जिया, मार्कजुकरबर्ग ने कब सोचा होगा कि बड़ा होकर फेसबुक जैसा सॉफ्टवेयर बनाऊंगा, फिर दूसरी व्हाट्सएप जैसी कंपनी खरीदूंगा कभी नहीं वो सहज भाव से अध्ययन करते रहे, अपने आप विचार आते रहे और कार्य हो गया। आपको सोचने की, लक्ष्य बनाने की आवश्यकता ही नहीं है, आपके जीवन में आपकी रुचि के अनुसार सहज ही करियर बनता है। और हम जबरदस्ती वर्तमान में बैठे-बैठे पूरे भविष्य की चिन्ता करके अभी दुःखी रहते है ये पागलपन नहीं तो और क्या है?

यदि हमेशा खुश रहना है तो जीवन को समझो, जीवन का वर्तमान में आनंद लो भविष्य के विषय में सोचो, जीवन में योजना (Planning) नाम की कोई चीज नहीं होती चलते-चलते Adjust करना पड़ता है।

इसलिए आलतु-फालतू के लक्ष्य बनाना, धनादिक सामग्री जोड़ना, नाम और प्रतिष्ठा के लिए अपने जीवन को व्यर्थ गवां देना इससे अच्छा है लक्ष्य बनाना है तो अपने आप को जानने का लक्ष्य बनाओ, अपने स्वभाव को जानो यही मनुष्य जीवन का एकमात्र सबसे उत्कृष्ट और कार्यकारी लक्ष्य है इसी के साथ वर्तमान के पलों को सबके साथ प्रेम से खुशी से जिओ। 

जीवन मुश्किल नहीं लगेगा आप समझ पायेंगे कि खुशी से जीवन जीना कितना सरल है।

Sunday, November 5, 2023

रेस में मत भागो, विचार पूर्वक आगे बढ़ो

 

फिल्म के डायलॉग में भी शिक्षा योग्य बातें होती है -

लोगों तक नेक कार्य पहुंचने चाहिए किसने किया इससे कोई फर्क नहीं पड़ता। 

~ फिल्म - ध्रुव जगन्नाथ (DJ)

इसलिए हमारे जैनाचार्यों ने जंगल में मोक्षमार्ग के प्ररूपक शास्त्र लिखें जिससे की हम उन्हें पढ़कर मोक्षमार्ग में आगे बढ़ें। किन्तु उन्होंने उसमे अपने विषय में कुछ नहीं लिखा और हम अज्ञानी जीव, आचार्य ने जो शास्त्र में मोक्षमार्ग लिखा है, शुद्धात्मा की प्राप्ति का जो उपाय लिखा है उसे समझने के बजाय कौन सा शास्त्र किसने लिखा, कब लिखा उनके गुरु कौन थे, शिष्य कौन थे, उनकी गृहस्थ अवस्था कैसी थी, उनके माता-पिता, चाचा-मामा आदि रिश्तेदार कौन थे बस इसी में रुचि लेते है। 

यहां तक कि विद्यालय में भी हमें क्या करना चाहिए ये सिखाने के बजाय किसने, कौन से समय में, कौन से स्थान पर क्या झंडे गाड़े थे बस यही सिखाया जाता है। कौन बनेगा करोड़पति जैसे टी.वी. शो में भी इसी की बात होती है। 

तो कोई संस्कार की बात क्यों सीखना चाहेगा और कौन सिखाना चाहेगा?

वर्तमान में अच्छे कामों को याद रखना या अच्छे काम सीखने के बजाय केवल नौकरी, इनाम अथवा प्रसिद्धि पाने के लिए पूर्व में किसने क्या किया बस यही याद रखा जाता है। 

और स्वयं भी कुछ महान कार्य कर सकते है, कुछ अच्छा कर सकते है, समाज में हो रही विसंगतियों में सुधार कर सकतें है । पूरी समाज में नहीं तो अपने परिवार अथवा अपने जीवन में चल रही विसंगतियां तो हम सुधार ही सकते है। धर्म और त्यौहार के नाम पर अथवा समय-समय पर परम्परा के नाम पर सगे रिश्तों में लेन-देन के नाम पर जो मिथ्या परम्पराएं चल रही है उन्हें सुधार सकतें है।  

इतना भी निर्णय नहीं कर पाते समझ नहीं आता क्या संस्कार है और क्या शिक्षाएं है हमारी जब हम किसी बात पर सही और गलत का प्रश्न उठाकर विचार करने लायक भी नहीं हुएं। सभी को विचार करना चाहिए। कि केवल दुनिया में किसने, कब, क्या, किया? ऐसे सामान्य ज्ञान को रटकर ही जीना है या अपने अपने दिमाग से प्रत्येक स्थिति में सही-गलत का विचार करके स्वयं को महापुरुषों की गिनती में खड़ा करना है। 

याद रखिए लोग तो तीर्थंकरों को भी याद नहीं रखते तो हम और आप कौन है इसलिए जो भी करें लोग हमें याद रखें इस भावना से नहीं बल्कि हमारे परिणाम निर्मल रहें, हमारे कर्म अच्छे हो इस भावना से करें। 

क्योंकि मृत्यु के पश्चात् इस भव ने कमाया नाम साथ नहीं जाएगा। बल्कि हमारे कर्म ही हमारे साथ जायेंगे। 


Monday, May 22, 2023

श्रुतपंचमी महापर्व

 

इस कलिकाल में (ज्येष्ठ शुक्ल पंचमी) इस दिन जैनधर्म के प्रथम ग्रन्थ षट्खंडागमजी  की रचना पूर्ण हुई थी। इसलिए यह जैनधर्म का एक महापर्व माना जाता है।

इसे जैनधर्म के श्रद्धालु बहुत प्रकार से मनाते है। बहुत से नगरों में जिनमंदिर में जिनवाणी पूजन तथा श्रुतपंचमी विधान किया जाता है, विद्वानों के प्रवचन तथा गोष्ठी के माध्यम से जिनवाणी व इस पर्व का माहात्म्य समाज को समझाया जाता है। तथा नगरों में मां जिनवाणी के सम्मान में जिनवाणी को मस्तक पर धारण करके जुलूस इत्यादि भी निकाले जाते है।

किन्तु मैं इस विषय में कुछ और कहना चाहता हूं। आखिर श्रुतपंचमी क्या है? वह श्रुत (जिनवाणी) हमारे पास तक कैसे पहुंची है?  हमारे जीवन में इसका क्या महत्व है? इसे कैसे मनाना चाहिए? इसका सत्य स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है।

वास्तव में श्रुतपंचमी महापर्व समाज के कल्याण के लिए भावलिंगी दिगम्बर मुनिराजों का बलिदान है, उनका अनन्त पुरुषार्थ है, उनकी देह का रक्त है, जिसके हर शब्द में उनकी पीड़ा भी है। तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में जो द्वादशांग का वर्णन आया। उसका असंख्यातवां भाग गणधरदेव ग्रहण कर पाते है, ओर उसका असंख्यातवां भाग उनके उत्तरवर्ती आचार्य ग्रहण कर पाते है और इस तरह जिनवाणी कम होती जाती है। उस समय तक तो बुद्धि इतनी अच्छी होती थी कि बहुत सारा याद रह जाता था किन्तु आज हमें इतना याद नहीं रहता। 

आचार्य धरसेन स्वामी ये जानते थे कि भविष्य के जीवों को इसप्रकार जिनवाणी याद नहीं रह पाएगी। इसलिए इसे लिपिबद्ध करना आवश्यक है। किन्तु उन्हें क्या पड़ी थी? हमारे बारे में इतना सोचने की उनका कार्य तो हो गया था। वह तो भावलींगी संत थे। क्षण-क्षण में अंतर्मुख होकर आत्मा के अतीन्द्रिय सुख का वेदन करते थे। उन्हें तो हमारे लिए इतना सोचने कि आवश्यकता ही नहीं थी। क्यूंकि आज का मनुष्य जब स्वयं ही अपने विषय में जानना नहीं चाहता तो क्यूं आचार्यों ने वर्षों मेहनत की इस कार्य के लिए, ताड़पत्रो पर कांटो से जिनवाणी लिखी। पैरों में कांटे चुभते थे पर वह शुभभाव से जिनवाणी लिखते थे, इतना सारा लिखने से पीठ अकड़ जाती थी, पूरा शरीर दुखता था, किन्तु वह या तो अंतर्मुख होकर अतीन्द्रिय सुख भोगते थे या शुभभाव से जिनवाणी लिखते थे। वर्ष के चार माह तो ताड़पत्र मिलते भी नहीं थे। कहीं पत्र ज्यादा ना हो जाए, कोई पत्र खो ना जाय, इसलिए एक ही पत्र पर छोटे-छोटे अक्षरों में इतनी सारी गाथाएं और श्लोक लिखते थे। 

आखिर क्यूं करते थे इतनी मेहनत ताकि हम उन्हें अलमारी में रखकर उनकी आरती उतारें, उनकी पूजा करें? 

आज ऐसे बहुत कम लोग है को वीतराग भाव का अर्थ भी समझते है। आज समाज में बहुत से लोग जिनमन्दिर तो जाते है, किन्तु जिनेन्द्र परमात्मा के गुणों को भी नहीं जानते, देव-शास्त्र-गुरु की महिमा को नहीं समझते। इस लौकिक परंपराओं के जीवन में हम इतना घुल-मिल गए है कि जिसतरह बालक के लिए विद्यालय जाना आवश्यक है उसीतरह सबको प्रतिदिन सुबह मन्दिर जाना आवश्यक है। इसके अलावा लोग मन्दिर जाने का अर्थ ना तो समझते है और ना ही समझना चाहते है। 

तथा जो लोग कुछ ग्रंथो का अध्ययन करके जिनवाणी के अलौकिक ज्ञान को ग्रहण कर पाए, उन्होंने उसे दूसरों को भी पढ़ाया, लेकिन उनके जीवन में कोई बदलाव नहीं आया। 

आज हमारे विद्वान, स्वाध्यायी जीव, जिनवाणी का खूब अध्ययन करते है, दूसरों को भी कराते है, किन्तु जीवन में अपना ही नहीं पाते। जब उनसे पूछो तो उत्तर मिलता है कि अरे जिनवाणी की बातें सही है उस पर हमें श्रद्धा भी है किन्तु लौकिक जीवन में उन बातों का कोई महत्व नहीं है। समाज में रहना है तो समाज के हिसाब से जीना पड़ेगा यह हमारे कुछ स्वाध्यायी विद्वानों की सोच बन गई है। जिन विद्वानों का संकल्प था कि वो समाज से अज्ञान और मिथ्यात्व संबंधी परंपराओं का नाश करके धर्म की ध्वजा लहराएंगे, वही लोग आज समाज में जाकर उनके जैसे ही बन जाते है। झूठी परंपराओं को निभाने लगते है। 

मैं इसके उदाहरण भी दे सकता हूं -

जैसे रक्षाबंधन पर्व, हमारे बहुत से विद्वान गणधर की गादी पर बैठकर रक्षाबंधन का सत्य स्वरूप समझाते है और कहते है कि रक्षाबन्धन तो कर्मों के बंधन से आत्म स्वभाव की रक्षा का नाम है, बंधनों से रक्षा का नाम ही तो रक्षाबंधन है, बहन का भाई को राखी बांधना ये तो रक्षाबंधन पर्व है ही नहीं ये तो संसार का बन्धन है। किन्तु प्रवचन समाप्त होने के बाद स्वयं अपनी बहन से राखी बंधवाते है, और अपने बच्चों से भी वही करवाते है। इन विद्वानों के ऐसे व्यवहार से ऐसा लगता है जैसे जिनवाणी का मजाक बनाने का ठेका इन्होंने ही ले रखा है। 

उनसे इसका प्रश्न पूछो तो उत्तर मिलता है कि भाई संसार में रहते है तो संसार की परंपराओं को निभाना भी तो आवश्यक है। जबकि ये गलत है, वह अपने ही परिवार के सामने, अपनी ही समाज के सामने सत्य को लेकर खड़े होने में डरते है, कमजोरी को छुपाते है और उसे लौकिक परम्परा का नाम देकर जिनवाणी के ज्ञाता होकर भी मिथ्यात्व का प्रचार करते है। क्यूंकि असत्य का विरोध करने की और सत्य को स्वीकारने की क्षमता ही नहीं होती। 

इसीप्रकार हमारे स्वाध्यायी ज्ञानी विद्वान प्रवचन देते समय कहते है कि जन्म-मरण तो दुःख के कारण है, इसलिए हम पूजन में भगवान की स्थापना के बाद सर्वप्रथम जन्म-मरण के अन्त की भावना भाते है। जन्मोत्सव तो तीर्थंकरों का मनाया जाता है, क्यूंकि अब वो द्वारा जन्म नहीं लेंगे, उनकी देह अंतिम देह है। और उनका जन्म समस्त जीवों का कल्याण करने वाला है। तीर्थंकर या चरम शरीरी जीव का ही वास्तव में जन्मोत्सव मनाना चाहिए। किन्तु मन्दिर से बाहर निकलकर फिर वही स्वयं का जन्मदिवस, अपने बच्चों का जन्मदिवस मनाते है , कुछ लोग घर में बनाकर और कुछ बाजार के केक तक काटते है। मुझे तो समझ नहीं आता इनके मन से क्षण-क्षण में क्या जिनवाणी का ज्ञान लुप्त हो जाता है। 

मैं पूछता हूं क्या रक्षासूत्र नहीं बांधेंगे तो भाई, बहन की रक्षा नहीं करेगा ?

क्या अगर सड़क पर किसी और लड़की के साथ कुछ गलत होगा तो हम उसकी मदद नहीं करेंगे या इंतजार करेंगे कि अरे पहले रक्षाबंधन पर्व आयेगा फिर इससे राखी बंधवाई जाएगी फिर इसकी मदद करेंगे। और अगर ऐसा नहीं है तो क्यूं ऐसी मिथ्या परम्परा को अपनाते है हम, क्यूं जिनवाणी का मजाक बनाते है। 

और ऐसे ही जन्मदिवस पर मेहमान बुलाना केक कटवाना, गुब्बारे लगाना घर सजाना क्या है ये सब, किसलिए मिला था ये मनुष्य भव और क्या करने लगे, जिनवाणी पढ़कर क्या हासिल किया? इस जन्मदिवस को मनाना चाहते हो तो पहले इस जन्म के रहस्य को खोजो। जन्म के महत्व को समझो, इस मनुष्य देह के महत्व को समझो।

जैनधर्म मुक्ति भी देता है और जीवन का सही मार्ग भी, जिनवाणी केवल मोक्ष का मार्ग नहीं है बल्कि जीवन के प्रत्येक कदम की प्रेरक है जिनवाणी मां, जैसे एक बालक को उसकी मंजिल तक पहुंचाना ही उसकी मां का कर्तव्य नहीं होता, बल्कि उसके हर गलत कदम पर मां उसे टोकती है और समझाती है। तब अपनी मां के आदर्शों पर चलकर वह स्वयं मंजिल तक पहुंचता है। ऐसे ही सिर्क मोक्ष को समझने से मोक्ष मिल जाएगा ऐसा नहीं है। कदम-कदम कैसे आगे बढ़ना है, जिनवाणी में सारा ज्ञान है । 

अगर आप असत्य परम्परा को छोड़ नहीं सकते तो सत्य का ग्रहण कैसे करोगे? ध्यान रहे सत्य और असत्य कभी एक साथ नहीं होते। ज्ञान और अज्ञान कभी एक साथ नहीं होते। जहां असत्य है, अज्ञान है वहां सत्य का व ज्ञान का कोई स्थान नहीं और जहां सत्य है, ज्ञान है वहां असत्य का व अज्ञान का कोई स्थान नहीं।

श्रुत पंचमी पर जिनवाणी की महत्ता उनका पूजन करना, विधान करना जिनवाणी छपवाना ये तो अब सब जान गए है। किंतु में जिनवाणी का नहीं उसके अंदर के सत्य को ग्रहण करने की जो शक्ति हम सब में छिपी हुई है उसका ज्ञान कराना चाहता हूं। हम सबकुछ पढ़कर भी अनपढ़ है। क्यूंकि समाज ओर परंपराओं से बंधे है, इसकारण असत्य का विरोध करने से व सत्य को स्वीकार करने से घबराते है। 

हम स्वाध्याय करे किन्तु जीवन में ना अपनाएं, जीवन में ज्ञान तो ग्रहण करे किन्तु झूठी लौकिक परंपराओं के चलते अज्ञान का त्याग भी ना करे, तो हम कैसे अपने मनुष्य भव का लक्ष्य प्राप्त कर पाएंगे। 

आज हमारे विद्वान मुझे कहते है, कि लौकिक जीवन भी तो जीना है, समाज में, परिवार में रहना है तो वैसे जीना भी तो पड़ेगा। तो मैं आपको बता दू आज तक अनादिकाल से हम और क्या करते आ रहे है इस परिवार, समाज ओर संसार की चिंता में अनेक भव व्यर्थ गंवा दिए है हमने, आज अनन्त भवों के महापुण्य के उदय से जिनवाणी मिली, सत्य सामने है। किन्तु फिर भी पल-पल की झूठी खुशी के लिए मिथ्यात्व का हाथ पकड़ कर खड़े है। 

कैसे मनाओगे आज श्रुतपंचमी पर्व ?

ध्यान रहे जब तक आप झूठी लौकिक परम्परा को निभाओगे तब तक जिनवाणी के ज्ञान का प्रयोग आपके जीवन में हो ही नहीं सकता। एक से दूसरे तक ज्ञान बांट तो सकते है। किन्तु उसका प्रयोग नहीं कर सकते, जब तक अधर्म को आप धर्म समझोगे तक तक सच्चा धर्म कैसे समझोगे?

वास्तव में तो सत्य कि खोज ही सबसे बड़ा धर्म है। और सत्य का ज्ञान होने पर भी असत्य ना छूटे तो समझना अभी तक सत्य का ज्ञान है ही नहीं।

जिनवाणी मां कहती है कि है भव्यजीव तूने अनादिकाल से घर-परिवार, समाज के बंधनों में फंसकर अनन्त भव व्यर्थ गवां दिए, अब अनन्तभवों के महापुण्य के उदय से तूने ये नरभव, जैन कुल पाया है, दिगम्बर आचार्यों ने करुणा करके इतने अनन्त पुरुषार्थ से जिनवाणी लिपिबद्ध की, मात्र तेरे लिए, की एक दिन तू इसे पढ़े समझे और सारी मिथ्या मान्यताओं का त्याग करके जितना ज्यादा से ज्यादा हो सके सत्य के मार्ग पर निर्भय होकर आगे बढ़े। 

ये सब कहने का मेरा एक ही अर्थ है। की जिनवाणी की पूजन-विधान स्वाध्याय सब कुछ ठीक है। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण उस सत्य को अपनाना है। मंजिल पर जाते समय अगर एक रास्ता भी गलत हो तो कभी मंजिल नहीं मिलती। 

इसलिए मंजिल के बारे में नहीं सोचो, कर्म करो, अपना सच्चा कर्म करो, उसके परिणाम के बारे में भी मत सोचो। बस अपना एक-एक कदम पूर्णत: सत्य की छांव में रखो, अगर कोई असत्य लौकिक परंपरा सामने आए तो उसे भी लांघ जाओ और सत्य को अपनाओ और लोगो को भी सत्य का मार्ग दिखाओ।

क्यूंकि हमारा वर्तमान ही हमारा भविष्य निश्चित करता है।


मेरी मम्मा

 मेरी मम्मा मैंने दुनिया की सबसे बड़ी हस्ती  देखी है। अपनी मां के रूप में एक अद्भुत शक्ति देखी है।। यूं तो कठिनाइयां बहुत थी उनके जीवन में। ...