धर्म शाश्वत है और परम्पराएं परिवर्तनशील होती है अर्थात् बदलती रहती है। कोई भी द्रव्य हो, कोई भी क्षेत्र हो, कोई भी काल हो, और कोई भी भाव हो, धर्म कभी नहीं बदलता , सदा एक जैसा ही रहता है, जैनदर्शन के दिगम्बर संत कार्तिकेय मुनिराज ने कहा है "वत्थु सहावो धम्मो" अर्थात् वस्तु का स्वभाव धर्म है और स्वभाव वो होता है जो सदा एक जैसा रहे, जिसका कभी नाश न हो, जैसे शक्कर का स्वभाव है मिठास जो कभी नहीं बदलता।
किसी भी व्यक्ति के लिए, किसी भी क्षेत्र में, किसी भी काल में, किसी भी भाव में शक्कर अपनी मिठास को कभी नहीं छोड़ती, यदि मिठास ही न हो, तो शक्कर भी नहीं होगी। इसलिए वही उसका स्वभाव है और वही उसका धर्म है उसी प्रकार आत्मा का स्वभाव है ज्ञान-दर्शन आदि जानना-देखना जो की सदैव रहता है निगोद में भी जीव अपने स्वभाव को नहीं छोड़ता और स्वभाव ही धर्म है तथा धर्म सदैव शाश्वत होता है।
किन्तु परम्परा द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव के अनुसार बदलती रहती है, कभी किसी व्यक्ति के कारण से, किसी क्षेत्र के कारण से, किसी समय के कारण से अथवा किसी परिणाम के कारण से कोई एक नियम, रीति अथवा परम्परा बना दी जाती है और लोग उसे वैसा ही करने लगते है और समय के साथ वो परम्परा समाज की आदत बन जाती है और समाज उसे धर्म समझकर करने लगता है।
ये परम्परा कभी तो उस समय किसी कारण से विशेष से समझदार पुरुष द्वारा समाज की भलाई के लिए प्रारम्भ की जाती है, और कभी किसी व्यक्ति के मजाक में भी कोई बात कहने से को बात कुछ सच मानकर फैला देते है तो भी परंपरा चल सकती है।
बिना सोचे समझे ऐसे ही किसी के कोई बात कह देने से अथवा किसी के ऐसे कुछ करने से अपने आप चल जाने वाली परम्परा:-
जैसे - एक बार की बात है एक नई नवेली दुल्हन का ग्रह प्रवेश का कार्यक्रम चल रहा था और वहां द्वार पर एक कलश रखा था जिसे दाएं पैर से गिराकर बहु ग्रहप्रवेश करने वाली थी किन्तु अचानक वहां एक बिल्ली घूमने लगी तो सासु मां ने सोचा कि कहीं ये बिल्ली कलश न गिरा दे तो सासु मां ने उस बिल्ली के ऊपर एक डलिया डालकर उसे ढंक दिया ये सब कुछ उस नई दुल्हन ने द्वार पर खड़े होकर देखा, और जब 25 वर्ष बाद उसके बेटे के विवाह का समय आया और दुल्हन का ग्रह प्रवेश होने ही वाला था तो उसने कहा कि रुको पहले एक बिल्ली लेकर आओ उसके ऊपर में डलिया डालकर उसे ढक दूंगी उसके बाद ही ग्रहप्रवेश होगा क्योंकि हमारे ग्रहप्रवेश के समय सासु मां ने भी ऐसा ही किया था।
एक बार की बात है शनिवार का दिन था एक लड़का अपनी माता के पास जाकर बार-बार पकौड़े खाने की जिद कर रहा था और उस दिन घर में तेल नहीं था तो उसने जब पिता से कहा कि मुझे पकौड़े खाने है और घर में तेल नहीं है तो पिता ने उस बालक को टालने के लिए ऐसे ही कह दिया कि बेटा आज शनिवार है आज तेल नहीं खरीदते अशुभ होता है। बालक ने वही बात अपने विद्यालय में दोस्तों को बताई, दोस्तों ने दूसरे लोगों को बताई और समय के साथ वह परम्परा बन गई।
इसीप्रकार एक बार मंगलवार का दिन था एक ज्ञानचंद जी के बेटे के बाल बहुत बड़े थे तो विद्यालय में कहा गया कि कल बाल कटवाकर ही आना, और जब बालक ने घर जाकर अपने पिता ज्ञानचंदजी से कहा कि मुझे बाल कटवाने जाना है लेकर चलो तो ज्ञानचंदजी ने अपने शास्त्र अध्ययन में व्यस्थ होने के कारण ऐसे ही कह दिया कि आज मंगलवार है आज नहीं जाते कल चलेंगे और बालक ने यही बात अगले दिन कक्षा में अपने शिक्षक को बता दी तो शिक्षक ने भी सोचा की इनके पिता ज्ञानचंदजी शास्त्र बहुत पढ़ते है, पंडित है हो सकता है कहीं पढ़ा होगा, तो उन्होंने इस बात को आगे बढ़ा दी साथ ही पूरी कक्षा ने भी वो बात सुनकर आगे फैला दी इसप्रकार एक और नई परम्परा ने जन्म ले लिया कि मंगलवार को बाल नहीं कटायेंगे...
तो इसप्रकार बिना सोचे समझे गलत परम्परा चल जाती है।
सोच समझकर किसी कारणवश प्रारम्भ की गई परम्परा :-
जैसे - एक समय पर मुगल शासकों का जैनसमाज पर घोर अत्याचार हुआ था, जैनियों को जिंदा जलाया गया जबरदस्ती धर्म परिवर्तन गया, उनके द्वारा हमारे मन्दिर तोड़े गए तब उस समय किसी एक समझदार महापुरुष ने सबको सलाह दी कि कम से कम हमें अपनी जिन प्रतिमाओं को तो बचाना चाहिए तब उस समय समाज जन ने आपत्तिकाल में जिन प्रतिमाओं को स्वयं ही भू-गर्भ में छिपा दिया और स्वयं मन्दिर में मात्र शास्त्र विराजमान करके पूजा करने लगे ताकि मुगल शासकों को लगे कि जिसप्रकार हम भी मूर्तियों को नहीं पूजते कुरान को पूजते है ये भी वैसे ही है और इसप्रकार समझदारी से किसी महान व्यक्ति की सूझबूझ से उस समय धर्म की रक्षा हुई किन्तु आज कुछ लोग उसी परम्परा को निभाते हुए उसे ही धर्म मानने लगे और मूर्तिपूजा निषेधक बन गए।
इसीप्रकार एक बार शंकराचार्य और मीनाक्षीदेवी द्वारा जैनसमाज पर भयंकर उपसर्ग किया गया, 800 दिगम्बर मुनिराजों को सूली पर चढ़ाया, घानी में पेला गया, कई जैनों को जबरदस्ती हिन्दू धर्म में परिवर्तित कराया गया, तब उनसे बचने के लिए बहुत से लोगों ने अपने जैन मन्दिरों में ही जिनप्रतिमाओं को वैष्णव परम्परा के ही अनुसार पूजन प्रारम्भ कर दिया, जैसे पंचामृत अभिषेक, स्त्री अभिषेक, शांतिधारा, जिनप्रतिमाओं पर चंदन लेपन आरती, अग्नि हवन, फल-फूल से पूजा ये सब प्रारम्भ किया, और अपरिग्रही वीतराग जिनप्रतिमा को श्रृंगार युक्त परिग्रही रूप में भी पूजना प्रारंभ हो गया, और किसी समय धर्म को बचाने के लिए जो परम्परा प्रारम्भ हुई वो आज धर्म बन गई है।
इसप्रकार ये परम्पराएं कभी-कहीं किसी कारणवश प्रारम्भ होती है और अनेक लोगों पर इसका अलग-अलग अथवा एक जैसा प्रभाव पड़ जाता है, कभी-कहीं ये समय के साथ बदल जाती है और कभी-कहीं धर्म के रूप में लोग मृत्यु के सवाल पर भी पूर्वजों का कथन मानकर सदा इन परम्पराओं का पालन करते रहते है।
और वास्तव में ये परम्पराएं यदि हमें अत्यन्त आवश्यक प्रतीत हो, उससे हमें अथवा हमारे परिवार को कोई लाभ होता नजर आए तो निभाना चाहिए, अन्यथा उस परंपरा को अपनी समझ के अनुसार ऐसा करना जरूरी नहीं है, इससे कोई लाभ नहीं, उल्टा नुकसान ही है, ये समझ आ जाए तो छोड़ देना चाहिए।