शौच अर्थात् शुचिता अर्थात् पवित्रता।
मेरा आत्मतत्व समस्त संसार में सबसे पवित्र पदार्थ है किन्तु अनादिकाल की भूल और अज्ञान के कारण ये जीव स्वयं की अनंतशक्ति, अपने अनन्तगुण, तथा अनंत पवित्रता को भूलकर पर वस्तुओं के पीछे भागता रहता है, चाहे वह परवस्तु कितनी ही अपवित्र क्यों ना हो फिर भी उसके पीछे भागता है और इसके मन का लोभ, इसके मन का लालच इतना बढ़ जाता है कि लालच के कारण परवस्तु की प्राप्ति की इच्छा में ये कोई भी पाप करने से नहीं चूकता, बड़े से बड़ा पाप करने को तैयार रहता है। और फिर उन पापों के फल में अधोगति में जाकर गिरता है।
ये अज्ञानी जीव शरीर को सजाने में इस शरीर की सुरक्षा के लिए, दिन-रात अनंत प्रयास करता है, और ये शरीर जो कि महा अपवित्र पदार्थ है, उसकी इस जीव को महिमा आती है, उस शरीर में ये अपनापन समझता है, इस अपवित्र शरीर के प्रति ये में हूं ऐसी मिथ्याबुद्धि अनादिकाल से इस जीव में पड़ी हुई है और स्वयं जो संसार का सबसे पवित्र, परमपवित्र चेतनतत्व आत्मा है उसकी इसे खबर ही नहीं है।
यदि शौचधर्म इस जीव को अंतर में प्रगट करना है तो पर वस्तुओं का लोभ छोड़ना होगा, लालच का पूर्णत: त्याग करना होगा, और अपनी निज शुद्धात्म तत्व की पवित्रता की पहचान और अनुभव करना होगा।
ये पवित्रता अनादि-अनंत प्रत्येक द्रव्य में विद्यमान है। प्रत्येक द्रव्य वास्तव में पवित्र है, और मेरे लिए तो इस समस्त संसार में मुझसे अधिक पवित्र पदार्थ है ही नहीं ऐसा समझना, ऐसा निर्णय करना और परम पवित्र पदार्थ शुद्धात्मा का ज्ञान, निर्णय, और अनुभव करना वही वास्तव में उत्तम शौचधर्म है।
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