वास्तव में देखा जाए तो सांसारिक जीवन का मूलभूत आधार प्रेम है। सांसारिक जीवन का महत्वपूर्ण भाव वास्तव में प्रेम भाव है। किन्तु वर्तमान में ऐसे बहुत ही कम लोग है जो प्रेम के वास्तविक स्वरूप को समझते है।
हमारे देश में प्रेमी होने का दावा करने वाले अनेक लोग मिल सकते है किन्तु, सच्चा प्रेम, वास्तविक प्रेम, परिशुद्ध प्रेम को समझने वाले लोग गिनती के ही है।
अगर हमें दुनियां में, सांसारिक जीवन में खुश रहना सीखना है, स्वतंत्र जीवन जीना सीखना है, अपने आप को दुःख के साधनों के बीच में भी दुःखी रहने से बचाना है तो हमें प्रेम समझना होगा सच्चा प्रेम, शुद्ध प्रेम समझना होगा। वर्तमान में मैने प्रेम की अनेक परिभाषा सुनी है:-
जैसे:- कुछ लोगो को लगता है कि प्रेम का वास्तविक अर्थ विवाह है अगर विवाह हो गया तो प्रेम सार्थक हो गया किन्तु ऐसा नहीं है प्रेम का विवाह से कोई संबंध ही नहीं है प्रेम तो भावना है , मन का शुद्ध भाव है। विवाह हो या ना हो ये तो नियति की बात है। किन्तु विवाह नहीं हुआ तो प्रेम सार्थक नहीं हुआ या प्रेम का अन्त हो गया ऐसा नहीं है। प्रेम तो विवाह समाज परिवार सभी बंधनों से मुक्त है , दुनियां की या स्वयं की इच्छाओं से भी परे है परिपूर्ण शुद्ध प्रेम।
बहुत से लोगो का ऐसा मानना है कि प्रेम तो किसी एक ही से हो सकता है एक से अधिक लड़की से या लड़के से प्रेम करना ये धोखा है दुष्चरित्र है किन्तु ऐसा भी नहीं है। प्रेम में ऐसा भाव की मेरा प्रेमी केवल मुझसे ही प्रेम करे अन्य किसी से नहीं ये तो ईर्ष्या का भाव है और प्रेम में ईर्ष्या का कोई स्थान नहीं होता, अगर आप अपने प्रेमी को किसी और कि अधिक चिंता करते हुए देखते है और आपको बुरा लगता है, ईर्ष्या का भाव होता है तो वह शुद्ध प्रेम नहीं है सच्चा प्रेम नहीं है। प्रेम एक से भी हो सकता है, दस से भी हो सकता है और हजार से भी हो सकता है, प्रेम स्त्री से, पुरुष से, मानव से, पशु से किसी से भी हो सकता है, प्रेम में किसी तरह का कोई बन्धन नहीं होता, कोई सीमा नहीं होती, कोई कारण नहीं होता, कोई प्रश्न नहीं होता, कोई उत्तर नहीं होता। प्रेम इन सब से परे होता है जो केवल एक शुद्ध भावना है सभी के प्रति समान भावना है वहीं तो सच्चा प्रेम है।
अब आज के समय में बहुत से लोग प्रेम को रोग कहते है, उन्हें लगता है प्रेम में हमेशा धोखा मिलता है, प्रेम करने योग्य नहीं है, प्रेम करना बुरी बात है जबकि ऐसा भी नहीं है, लोग ऐसा अज्ञान के कारण कहते है क्यूंकि उन्हें वास्तविक प्रेम का पता ही नहीं होता इसलिए वह प्रेम से डरने लगते है।
वास्तव में तो प्रेम में धोखा हो ही नहीं सकता प्रेम की सबसे बड़ी ताकत होती है विश्वास, अगर हमें हमारे प्रेम पर, हमारे प्रेमी पर विश्वास है तो कोई प्रेमी हमें धोखा दे ही नहीं सकता, जब प्रेमी कुछ गलत करे तो उसे प्रेम से सही रास्ते पर लाना हमारा कर्तव्य बन जाता है ना कि उसे छोड़ देना अगर हमारा प्रेमी हमारे विरुद्ध भी हो तो भी उससे प्रेम ही करना वह वास्तविक प्रेम है। अगर हमारा प्रेमी हमारी आंखो के सामने किसी और से प्रेम करे तो भी हमारे चेहरे पर अगर नि:स्वार्थ भाव से मुस्कान है, मन में कोई ईर्ष्या का भाव नहीं है तो ही हमारा प्रेम सच्चा व शुद्ध प्रेम है।
इसके अलावा प्रेम में भय का भी कोई स्थान नहीं है, हमें लगता है कि हम यदि किसी से प्रेम करते है तो छुपकर करना चाहिए, किसी को पता चल गया तो लोग क्या सोचेंगे, अथवा ये ठीक है या नहीं, ऐसा करना ठीक होगा या नहीं, ऐसे बहुत से प्रश्न मन में उत्पन्न होते है, किन्तु ये सब प्रश्न मन में तब होते है जब किसी कार्य में आपका कोई स्वार्थ हो, नि:स्वार्थ प्रेम में तो भय का कोई स्थान ही नहीं है।
और भय भी किसका? संसार के अन्य लोगो का? जबकि ये संसार, इस संसार के लोग क्या सोचते है, क्या कहते है, क्या करते है, उसका सत्य स्वयं इन्हें ही नहीं पता होता। कोई बहुत अधिक क्रोध करे किसी को मारे-पीटे, दूसरों को दुःख दे, लूटपाट करे, ऐसे अपराधी व्यक्ति को ये संसार उतनी बुरी नजर से नहीं देखता किन्तु 2 व्यक्ति अपनी इच्छा से प्रेम करे तो उसे ये ऐसे देखते है जैसे संसार का सबसे बुरा कार्य इन्होंने ही किया है प्रेम करके, वह लोग प्रेम की महानता को समझ ही नहीं पाते।
यही कारण है कि आज संसार में घर-घर में, हर परिवार में, हर समाज में, प्रेम की जगह हर व्यक्ति के मन में सदैव क्रोध दिखाई देता है, प्रेम तो अब लोगो के हृदय में से जैसे गायब ही हो गया, लोग समझ ही नहीं पाते कि प्रेम करना कोई बुरी बात नहीं है बल्कि इस संसार का आधार प्रेम ही है।
और वास्तव में इस प्रेम से बढ़कर इस संसार में यदि कोई भाव है तो वह है वीतराग भाव, इस संसार के समस्त दुःखो से छूटने का उपाय है वीतरागता, अगर इस जीव को वास्तव में सभी दुःखो का अन्त करना है तो मोह-राग-द्वेष, प्रेम, क्रोध, भय, ईर्ष्या, अहंकार इत्यादि सभी विकारों का त्याग करना अनिवार्य है समस्त विकारी भावों से रहित वीतराग भाव प्रगट करना अनिवार्य है, किन्तु जब तक संसार के व्यवहारिक जीवन जीने की कला सीखनी है तो शुद्ध प्रेम को समझना बहुत आवश्यक है।
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DeleteSo true & good thoughts
ReplyDeleteThank you
DeleteAgreed 🙏👌👍
ReplyDeleteJi Thanks 🙏
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