Wednesday, November 24, 2021

जैनपर्वों के सम्बन्ध में कुछ चिन्तन:-

 

पर्व अर्थात् त्यौहार जिन्हें संसार में खुशियों के दिन कहां जाता है। 

जैनदर्शन में दो तरह के पर्व है:- त्रैकालिक और तात्कालिक।

त्रैकालिक:- अर्थात् जो अनादि-अनन्त है। हमेशा से मनाए जा रहे है और हमेशा मनाए जाएंगे।  

जैसे:- दशलक्षण महापर्व, अष्टान्हिका महापर्व। 

तात्कालिक;- अर्थात् जो किसी विशेष अच्छी या बुरी घटना के कारण, उस घटना की याद में कुछ समय तक मनाए जाते है, और कालान्तर में समय के साथ उन घटनाओं का विस्मरण हो जाता है।

जैसे:- महावीर निर्वाणोत्सव, रक्षाबंधन, महावीर जयंती, सभी तीर्थंकरों के कल्याणक, जन्मदिन इत्यादि विशेष दिन। 

जो बाते सब लोग जानते है, और मानते भी है, में उन विषयों में ज्यादा नहीं कहना चाहता किन्तु कुछ ऐसी बाते जो जानते तो सब है किन्तु स्वीकार नहीं कर पाते, त्यौहारों को मनाते तो बड़ी उत्सुकता से है, बड़े हर्ष और उल्लास के साथ मनाते है, किन्तु अज्ञानवश पर्व के सही मतलब को समझे बिना परम्परा के अनुसार ही मनाते है। में उस विषय में यहां लिखना चाहता हूं।  ताकि सब लोग जैनपर्व को मनाएं तो उचित तरीके से समझकर सही स्वरूप से मनाएं।

सबसे पहले हम त्रैकालिक पर्व की बात करते है। त्रैकालिक पर्वों में सबसे विशेष पर्व है दशलक्षण महापर्व और अष्टान्हिका महापर्व! दशलक्षण और अष्टान्हिका महापर्व वर्ष में 3 बार आते है। और बहुत उत्साह से ये पर्व मनाएं जाते है, और ये पर्व क्यूं मनाएं जाते है ये तो अधिकतर सभी लोग जानतें है, में तो सिर्फ उन बातों की चर्चा करना चाहता हूं जो मोक्षमार्ग के लिए अति आवश्यक है।

भादौ मास के दशलक्षण महापर्व जब आते है तो समाज में बहुत उत्साह होता है, पर्व के कुछ दिन पूर्व से ही जिनमन्दिरों को सजाया जाने लगता है, बिजली के अत्यधिक उपयोग के द्वारा झालर आदि से पूरे मन्दिर को सजाते है। प्रात:काल ही जिनमंदिरो में पूजन-विधान के कार्यक्रम प्रारम्भ हो जाते है, कुछ मन्दिर में स्वाध्याय होता है और बहुत से मंदिरों में इन दिनों भी स्वाध्याय नहीं होता। शाम को तरह-तरह के सांस्कृतिक कार्यक्रम होते है। इतना सब तो होता ही है सभी जिनमन्दिर में। 

अब में यह कहना चाहता हूं कि जैसे पर्व के कुछ दिन पूर्व से ही मन्दिर को सजाया जाने लगता है बहुत अच्छी बात है करना भी चाहिए। 

किन्तु क्या ये झालर लगाना आवश्यक है? भादौ माह के दशलक्षण पर्व, जो कि वर्षा ऋतु का समय होता है कितने ही जीवजंतु सूर्यास्त के बाद बिजली से उत्पन्न होते है और ऐसे समय पर हमारे बहुत से जिनमंदिरों में अनावश्यक बिजली का उपयोग होता है, जिससे कि मन्दिर चमकता-दमकता दिखे, जबकि यह सर्वथा अनुचित है, वर्षाऋतु में रात्रि के समय इतनी बिजली जलाना और फिर सुबह देखो तो कितने ही मरे हुए कीड़े-मकोड़े दिखाई देते है, चारो तरफ जो कि रात्रि में स्वाध्याय इत्यादि में आए हुए लोगो के पैरों के नीचे आ जाते है। और हमारे मन्दिर के कमेटी और व्यवस्थापक इतना भी नहीं समझ पाते कि जैनदर्शन में दिखावे का कोई स्थान नहीं है, हमारे जिनमन्दिर बिजली के प्रकाश से नहीं चमकते बल्कि ज्ञान के अद्वितीय प्रकाश अर्थात् स्वाध्याय से चमकते है इसलिए प्रतिदिन मन्दिर  में स्वाध्याय होना ही चाहिए। और बिजली का उपयोग आवश्यकता के अनुसार ही होना चाहिए।

इसके अलावा दशलक्षण और अष्टान्हिका पर्व हर वर्ष हमें संसार के अनन्त दुःखों से बचने के लिए मोक्षमार्ग को सीखने के लिए आते है। ताकि हम पूजन-विधान, स्वाध्याय, नाटक इत्यादि के द्वारा जिनवाणी की बातों को सरलता से समझ सके। और अपने मोक्षमार्ग को प्रशस्त कर सके। किन्तु हम स्वाध्याय करते है, प्रवचन करते है, सुनते है, किन्तु वहीं पल्ला झाड़कर वापस चले जाते है। 

मैने पूर्व के दशलक्षण पर्व में देखा था, एक अमीर सेठ जिसे लोग धार्मिक कहते है, उत्तम क्षमाधर्म का पहला दिन था, एक घंटा गुरुदेव श्री कानजीस्वामी के सी.डी. प्रवचन सुने, फिर एक घंटा आमंत्रित विद्वान के प्रवचन सुने। कि हमें अपने विकारी भावों पर नियन्त्रण रखना चाहिए, क्रोध मनुष्य को जला देता है, संसार में जो कुछ जैसा होना होता है वैसा ही होता है फिर क्यों यह जीव व्यर्थ ही क्रोध करके स्वयं को व अन्य को दुःख देता है हमें यदि सुखी होना है तो क्रोध का त्याग करके अपने क्षमाभाव को प्रगट करना चाहिए सदैव निज स्वभाव अर्थात् क्षमाभाव को धारण करना चाहिए। ये सब प्रवचन समाप्त होते ही सब अपने घर जाने लगे और मन्दिर के कर्मचारी अपना-अपना नित्य का कार्य करने लगे। इतने में ही वह धार्मिक सेठ आते है और कर्मचारी को किसी बात पर जोर से क्रोधित होकर उसे झाड़ कर चले जाते है, अब में ये सोच रहा था कि 2 घंटे ये बैठकर यहां कर क्या रहे थे। 2 घंटे के प्रवचन का असर 5 मिनिट भी नहीं रहा। अपने से छोटे व्यक्ति को परेशान करना, उस पर चिल्लाना, उसे नीचा दिखाना, ये सब ना करे तो वर्तमान के अमीर सेठो को लगता ही नहीं की हमारे जीवन में आनंद है। ये सिर्फ एक सेठ जी की बात नहीं है, हम सबकी यही अवस्था है कहीं ना कहीं हम सब संसार की व्यवस्थित व्यवस्था को अव्यवस्थित समझकर उसे व्यर्थ ही व्यवस्थित करने की इच्छा से दूसरों पर क्रोधित होते है, और स्वयं दुःखी होते रहते है। 

और कुछ लोग यह कहते है की लोक व्यवहार में ये सब बहुत आवश्यक है। तो में सिर्फ इतना कहूंगा की लोकव्यवहार का अर्थ ये नहीं कि अपने से कमजोर को दबाकर रखो। उस पर चिल्लाओ उसे परेशान करो, बल्कि अपनी बात उसे प्यार से कहो। लोकव्यवहार का अर्थ किसी दूसरे की मदद करना है उससे प्यार से बात करना है, दूसरों को प्यार बांटना है, ना कि अपने ज्ञान, पैसे, जाति, कुल आदि के मानवश होकर किसी दूसरे से ठीक से बात तक नहीं करना ये लोक व्यवहार नहीं है। कम से कम इतना हमें सीखना चाहिए। यही सब तो हमे मोक्षमार्ग में लेकर जाएगा। 

जिनेन्द्र भगवान का प्रक्षाल-पूजन करना स्वाध्याय, भक्ति, आरती करना या व्रत उपवास इत्यादि करना ये सब सुखी होने का उपाय नहीं है। बल्कि क्रोध, मान, माया, लोभ ये छोड़ने पर मोक्ष का मार्ग खुलता है। सर्वप्रथम मिथ्यात्व के साथ अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ का नाश होता है तब जाकर जीव को सम्यक्दर्शन होता है। और हमारे कुछ स्वाध्यायी विद्वान ये कहते है कि लोक व्यवहार में ये सब जरूरी है। जबकि ये झूठ है, बिल्कुल झूठ बल्कि लोकव्यवहार भी विकारी भावों को त्यागने से अच्छा बनता है। ना कि कषायी जीवों के साथ खुद कषायी बनने से, ये हमें समझना चाहिए।

रक्षाबन्धन पर्व:-

रक्षाबन्धन पर्व क्यों मनाया जाता है, और कैसे मनाया जाना चाहिए, ये एक अपने आप में बहुत बड़ा प्रश्न है। 

अगर हम वर्तमान समय में देखते और सुनते है तो हमें पता चलता है कि रक्षाबंधन पर बहने अपने भाई को रक्षासूत्र बांधती है जिसे राखी भी कहा जाता है। और उसका कारण होता है कि बहन राखी बांधते हुए भाई से अपनी जीवनभर के लिए रक्षा का वचन लेती है। 

इसके अलावा इसे धार्मिक पर्व कहकर इस दिन अच्छे-अच्छे पकवान बनाए जाते है, अलग-अलग प्रकार की मिठाइयां बनाई जाती है, इसप्रकार रक्षाबन्धन पर्व मनाया जाता है।

किन्तु फिर भी मेरे मन में इसके विषय में कुछ प्रश्न उत्पन्न हुए की ये पर्व क्यों मनाया जाता है, इसके पीछे भाई-बहन के स्नेह की क्या कथा है ये जानने की मुझे अति जिज्ञासा हुई। इसलिए अन्य मत में मैने पता किया, अन्य मत के विद्वानों से पूछा किंतु रक्षाबंधन की भाई-बहन से सम्बंधित कहीं कोई बात नजर ही नहीं आती।

जैनमत के अनुसार देखे तो एक सप्ताह से राजाबलि द्वारा अकंपनाचार्यादि 700 दिगम्बर भावलिंगी संतों पर हस्तिनापुर के पास एक जंगल में भयंकर उपसर्ग किया गया, मुनिराजों के चारो तरफ भयंकर अग्नि जलवाई जिससे चारो तरफ भयंकर धुआं-धुआं हो गया, और चारो तरफ की अग्नि की तपन से मुनियों के शरीर में भयंकर जलन होने लगी, शरीर में धुंआ प्रवेश करने लगा। किन्तु सभी मुनिराज उपसर्ग दूर होने तक आहार-पानी का त्याग करके निजशुद्धात्मा के ध्यान में लीन हो गए। तत्पश्चात् विष्णुकुमार मुनिराज जिन्हें आत्मध्यान रूपी तप द्वारा विक्रियाऋद्धि प्राप्त हुई थी, एक क्षुल्लकजी द्वारा उन्हें सूचना मिलने पर  उन्होनें मुनिअवस्था का त्याग कर एक ठिगनेवामन का रूप रखकर राजाबलि से तीनपग भूमि दान मांगी और फिर अपनी विक्रियाऋद्धि से ज्योतिष लोक तक ऊंचाई वाला शरीर बनाकर उन्होंने अपना एक पग मेरु पर्वत पर और दूसरा पग मानुषोत्तर पर्वत पर रखा, और तीसरे पग के लिए कोई स्थान ही शेष नहीं बचा, तब राजाबलि ने क्षमा मांगी। और इस तरह उपसर्ग दूर हुआ और 700 दिगम्बर महामुनिराजों की रक्षा हुई। ये कथा हमें जैनमत में मिलती है। 

किन्तु इस कथा में भी भाई-बहन के रक्षाबन्धन पर्व का कोई विवरण नहीं है, जो कि वर्तमान समय में मनाया जाता है। 

हम अगर इस कथा को ध्यान से देखे तो रक्षाबंधन पर्व कुछ इसप्रकार का प्रतीत होता है। हमें द्वीपायन मुनि की कहानी याद करना चाहिए किसी ने थोड़ा अपमान किया और वो विचलित हो गए द्वारिका जलाई और कर्मबंधन किया अपना संसार बढ़ाया, सर्व और अहित हुआ।

अकंपनाचार्यादि 700 मुनि भी अपने तप के प्रभाव से कुछ भी कर सकते थे, उनके तप के प्रभाव से पूर्ण हस्तिनापुर नष्ट हो सकता था, किन्तु यहां इतने घोर उपसर्ग होने पर भी अकंपनाचार्यादि 700 दिगम्बर मुनिराज अपने आत्मस्वभाव में लीन रहे, और कर्मों से स्वयं की रक्षा की, संसार के बंधन से भी अपना रक्षा की। ये है रक्षाबंधन अर्थात् बन्धन से स्वयं की रक्षा यही तो है वास्तविक रक्षाबंधन।

वास्तव में तो हमारे आदर्श परम दिगम्बर मुनिराज, जो उन्होंने उस दिन किया वही हमें आज उनकी याद में करना चाहिए। नियम, संयम, स्वाध्याय, ध्यान ये सब करके संसार बन्धन से स्वयं की रक्षा करना चाहिए।

अब कुछ लोग कहते है कि इसके बाद सबने एक दूसरे को राखी बांधी और एक दूसरे की रक्षा का वचन दिया।

चलो ठीक है माना वैसे तो देखा जाए तो कोई किसी की रक्षा में समर्थ ही नहीं है सब कुछ क्रमनियमित है, किन्तु फिर भी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध से हम कहीं ना कहीं किसी की रक्षा का भाव करते है, प्रयास करते है और उसमें सफल भी हो जाते है। किन्तु इसमें एक धागा बांधने का क्या चक्कर है ये समझ नहीं आता। 

अकंपनाचार्यादि मुनिराजों ने कोई राखी या रक्षासूत्र तो नहीं बांधा था विष्णुकुमार मुनि को पर फिर भी उन्होंने सूचना मिलते ही तुरंत रक्षा के भाव से वहां पहुंचे इससे सिद्ध होता है कि रक्षासूत्र बांधने से रक्षाबंधन पर्व का कोई मतलब नहीं है। और अगर फिर जो कुछ लोग कहते है कि मुनिरक्षा के बाद सब लोग एक दूसरे को रक्षासूत्र बांधते है। तो फिर वर्तमान में बहन ही भाई को क्यों बांधती है, और लोग क्यों नहीं। एक पत्नी भी पति को बांध सकती है क्या पति अपनी पत्नी की रक्षा नहीं करेगा? और अन्य सब भी एक-दूसरे को बांध सकते है किन्तु बहन ही भाई को क्यों? इसका उत्तर किसी धर्म ग्रंथ में या इतिहास में प्राप्त नहीं होता।

और फिर आपको क्या लगता है अगर कोई भाई अपनी बहन से राखी नहीं बंधवायेंगे तो क्या समय आने पर वह उसकी रक्षा नहीं करेंगे? या फिर जो भाई राखी बंधवाता है तो इसका क्या प्रमाण है कि वो समय आने पर बहन के साथ ही होगा, वह रक्षा कर ही पाएगा, तो कहते है कि कुछ भी हो सकता है ये तो नियति में निश्चित होगा। 

वास्तव में तो जब कोई अनजान लड़की या कोई अनजान व्यक्ति मुसीबत में हो तो भले लोग उनकी मदद करते ही है, ये नहीं देखते कि अरे, इन्होंने मेरे राखी तो बांधी ही नहीं, में क्यों रक्षा करूं, वो तो रक्षा करते ही है। तो समझ नहीं आता ये रक्षाबंधन पर्व क्यूं? कैसे? इसका क्या महत्व है?

अब कोई महापुरुष ये भी कहते है कि भाई लोग कुछ भी करे परम्परा है, चलने दो ना तुम्हे क्या दिक्कत है, तुम्हें एक धागा बांधने में क्या दिक्कत है।

तो में सिर्फ इतना कहना चाहूंगा कि अज्ञान में हम बहुत से पाप करते है, और कुछ ऐसे पाप भी होते है जिन्हें हम नहीं छोड़ सकते जैसे भोजन पानी, जरूरत की व्यवस्था इत्यादि। 

किन्तु इसके अलावा धर्म के नाम पर चलने वाली कुप्रथा इसे निभाना हमें आवश्यक नहीं है, धर्म के नाम पर चलने वाली कुप्रथा का त्याग आवश्यक है अन्यथा राजावसु जैसी गति हो सकती है।

हम स्वाध्याय करते है, जिनवाणी की बातों को मस्तक पर धारण करते है। किन्तु सबकुछ जानकर भी धर्म के नाम पर चलने वाली कुप्रथा का समर्थन मात्र करने से राजावसु सीधा सातवे नरक गए, तो मुझे तो ऐसी कुप्रथा के समर्थन से भय लगता है। 

अब कुछ लोग कहते है कि भैया हम कोई मुनि या त्यागी तो है नहीं, हम तो साधारण से गृहस्थ लोग है हमें अगर गृहस्थ जीवन जीना है, परिवार में समाज में रहना है तो ये प्रथा भी निभाना पड़ता है।

तो हिन्दुओं के भागवतपुराण पर आधारित एक राधेकृष्णा सीरियल आता है टेलीविजन पर उसमे एक बहुत ही प्यारी लाइन आई थी कृष्ण उपदेश में कि:- 

"प्रथा मनुष्य के लिए है, मनुष्य प्रथा के लिए नहीं।"

आप प्रथा के नाम पर खुद को बन्धन में मत बांधो की भैया ये तो परम्परा है निभाना ही पड़ेगा। कुप्रथा का त्याग अत्यंत आवश्यक है।

और वर्तमान में गृहस्थ जीवन हम इसलिए जी रहे है क्यूंकि मुनि बनने का 22 परिषह सहने का हमारे दुर्बल शरीर में अभी सामर्थ्य नहीं है, इसका अर्थ ये तो नहीं कि हमें ऐसी कुप्रथा को चलाने का, पाप मार्ग में लगने का लाइसेंस मिल गया हो, अरे हमें ये सोचना चाहिए कि हम मुनिव्रत नहीं ले सकते तो क्या हुआ हम गृहस्थ जीवन में मुनि जैसा जीवन जीने का प्रयास करेंगे। लेकिन हम लोग तो ये सोचते है कि हम तो गृहस्थ है, हमें तो पाप करना जरूरी है, वरना कैसे गृहस्थ?

अब कोई यह भी कहता है, परिवार वाले मिलते है रिश्तेदार लोग घर आते है, सब खुश रहते है इत्यादि-इत्यादि तो यदि इस बहाने खुशी मिलती है सबको तो क्या समस्या है?

हां तो भैया परिवार वालो से मिलना है तो मन्दिर में विधान कराओ, भव्य शिविर लगाओ, विद्वानों को बुलाओ। परिवार वाले अगर शादी के निमंत्रण पर आते है, तो आपके द्वारा निर्मल परिणामों से कराए ऐसे धर्मप्रभावना रूप कार्यक्रम के निमंत्रण पर भी अवश्य आयेंगे। आप भावना तो भाकर देखो। और रही बात खुश रहने की, मिठाइयां बनाना, पकवान बनाना मस्ती करना खुश रहना। तो वह तो आप कभी भी कर सकते है, उसके लिए किसी कुप्रथा को बढ़ावा देने की क्या आवश्यकता?

और फिर अमूल्यतत्वविचार नामक एक काव्य में श्रीमद् राजचंद्रजी कहते है- 

वह सुख सदा ही त्याज्य रे, पश्चात् जिसके दुःख भरा।

वर्तमान में जिस कुप्रथा के माध्यम से आप आनंद मनाना चाहते है, उसके फल में होने वाले दुःख को भोगने में उतना ही हमें रोना पड़ेगा।

और फिर आप स्वयं विचार कीजिए हमारे परिवार में कोई अग्नि से पीड़ित व्यक्ति जिसके देह की हालत बिगड़ी हुई हो किसी अग्नि दुर्घटना में और कोई व्यक्ति उसकी जान बचाने में सफल हो जाता है, और उसकी जान बच गई हो तो क्या आप उसकी जान बचने की खुशी में खीरपूड़ी बनवाएंगे या उसका इलाज करवाएंगे उसके लिए चिंतित होंगे? अरे एक निवाला मुख में नहीं जाता। तो विचार करो एक सप्ताह से मुनि पर होने वाला घोर अग्नि उपसर्ग उनकी देह की अवस्था, शरीर में धुंआ प्रवेश कर गया होगा। किन्तु उन्होंने आत्मध्यान में लीन रहकर कर्मों से स्वयं की रक्षा की। इतनी मुश्किलों से उपसर्ग तो टल गया पर क्या इतने में ही आपके अंदर का दुःख खत्म हो गया? क्या  मुनिराज के देह कि स्थिति देखकर भी आप खीर-पूड़ी और मिठाइयां खा पाएंगे?

अरे एक निवाला नहीं खा सकते है। इसलिए इस दिन हम सबको उन अकंपनाचार्यादि 700 मुनिराजों को आदर्श मानकर उनकी तरह संयम-नियम आदि करके तथा मन्दिर में दिगम्बर मुनिराजों की भक्ति करके ये पर्व मानना चाहिए।

कुछ लोग ये सुनकर ये भी कह सकते है कि सम्भवजी आपको लोकव्यवहार की समझ नहीं है, तो ये तो ऐसा लगता है जैसे मछली से बोला जा रहा है तुम्हे तैरना नहीं आता या तुम्हे जल में रहना नहीं आता। क्योंकि हम संसार में अनादि से लोकव्यवहार में इतने अभ्यस्त है कि हमें इसे सीखने की आवश्कता नहीं है। हां लोकव्यवहार का त्याग करना सीखने की आवश्यकता अवश्य है। और में समझता हूं कि मुझे ये मनुष्यभव लोकव्यवहार निभाने के लिए नहीं बल्कि इसका त्याग करने के लिए मिला है। अपने जैनकुल और नरतन की महत्ता को समझना बहुत आवश्यक है।

वास्तव में संसार एक बहुत बड़ा बन्धन है, और बन्धन ही तो दुःख का कारण है, इसलिए अनन्तभवों से हम इस बंधन से मुक्त होने का प्रयास कर रहे है अनन्तभवों की पुण्य की कमाई है ये जैनधर्म। आज अगर जैनधर्म के सिद्धान्तों का सम्मान हम ना कर पाए और इधर-उधर भटकने लगे, तो हमें फिर अनन्तभवों तक जैनकुल मिलने वाला नहीं है।।

श्रुतपंचमी महापर्व:-

श्रुतपंचमी महापर्व, इस दिन इस कलिकाल में जैनधर्म के प्रथम ग्रन्थ षट्खंडागमजी की रचना पूर्ण हुई थी। इसलिए यह जैनधर्म का एक महापर्व माना जाता है। 

इसे जैनधर्म के श्रद्धालु बहुत प्रकार से मनाते है। बहुत से नगरों में, जिनमंदिर में, जिनवाणी पूजन तथा श्रुतपंचमी विधान किया जाता है, विद्वानों के प्रवचन तथा गोष्ठी के माध्यम से जिनवाणी (श्रुत) व इस पर्व का माहात्म्य समाज को समझाया जाता है। तथा नगरों में मांजिनवाणी के सम्मान में जिनवाणी को मस्तक पर धारण करके जुलूस इत्यादि भी निकाले जाते है।

किन्तु में इस विषय में कुछ और कहना चाहता हूं। आखिर श्रुतपंचमी क्या है। वह श्रुत (जिनवाणी) हमारे पास तक कैसे पहुंची है। हमारे जीवन में इसका क्या महत्व है, इसे कैसे मनाना चाहिए। इसका सत्य स्वरूप समझना बहुत आवश्यक है।

वास्तव में श्रुतपंचमी महापर्व समाज के कल्याण के लिए भावलिंगी दिगम्बर मुनिराजों का बलिदान है, उनका अनन्त पुरुषार्थ है, उनकी देह का रक्त है, जिसके हर शब्द में उनका अनन्त पुरुषार्थ भी है और अंतरंग की शुद्धता भी है।

तीर्थंकर भगवान महावीर की दिव्यध्वनि में जो द्वादशांग का वर्णन आया। उसका असंख्यातवां भाग गणधरदेव ग्रहण कर पाते है, ओर उसका असंख्यातवां भाग उनके उत्तरवर्ती आचार्य ग्रहण कर पाते है और इस तरह जिनवाणी कम होती जाती है। पहले के उस समय तक तो लोगो की बुद्धि इतनी अच्छी होती थी कि बहुत सारा विषय याद रह जाता था। किन्तु आज हमें इतना याद नहीं रहता। 

आचार्य धरसेनस्वामी को तब ये विचार आया कि भविष्य के जीवों को इसप्रकार जिनवाणी याद नहीं रह पाएगी। इसलिए इसे लिपिबद्ध करना आवश्यक है। 

लेकिन जरा विचार करो कि उन्हें क्या पड़ी थी, हमारे बारे में इतना सोचने की उनका कार्य तो हो गया था। वह तो भावलींगी संत थे। क्षण-क्षण में अंतर्मुख होकर आत्मा के अतीन्द्रिय सुख का वेदन करते थे। उन्हें तो हमारे लिए इतना सोचने कि आवश्यकता ही नहीं थी। क्योंकि आज का मनुष्य जब खुद ही अपने विषय में जानना नहीं चाहता तो क्यों आचार्यों ने वर्षों तक मेहनत की इस कार्य के लिए, ताड़पत्रो पर कांटो से जिनवाणी लिखी। पैरों में कांटे चुभते थे पर वह शुभभाव से जिनवाणी लिखते थे, इतना सारा लिखने से पीठ अकड़ जाती थी, पूरा शरीर दुखता था, किन्तु वह या तो अंतर्मुख होकर निज शुद्धात्मा का अतीन्द्रिय सुख भोगते थे या शुभभाव से जिनवाणी लिखते थे। वर्ष के चार माह तो ताड़पत्र मिलते भी नहीं थे। कहीं पत्र ज्यादा ना हो जाए, कोई पत्र खो ना जाय इसलिए एक ही पत्र पर छोटे-छोटे अक्षरों में इतनी सारी गाथाएं और श्लोक लिखते थे। 

आखिर क्यों करते थे आचार्य इतनी मेहनत, ताकि हम उन्हें अलमारी में रखकर उनकी आरती उतारें, उनकी पूजा करें? 

आज ऐसे बहुत कम लोग है जो वीतराग भाव का अर्थ भी समझते है। आज समाज में बहुत से लोग जिनमन्दिर तो जाते है, किन्तु जिनेन्द्र परमात्मा के गुणों को भी नहीं जानते, देव-शास्त्र-गुरु की महिमा को नहीं समझते। इस लौकिक परंपराओं के जीवन में हम इतना घुल मिल गए है, कि जिस तरह बालक के लिए विद्यालय जाना आवश्यक है उसी तरह सबको प्रतिदिन सुबह मन्दिर जाना आवश्यक है। इसके अलावा लोग मन्दिर जाने का अर्थ ना तो समझते है और ना ही समझना चाहते है। तथा जो लोग कुछ ग्रंथो का अध्ययन करके जिनवाणी के अलौकिक ज्ञान को ग्रहण कर पाए। उन्होंने उसे दूसरों को भी पढ़ाया लेकिन उनके जीवन में भी कोई बदलाव नहीं आया। 

आज हमारे विद्वान, स्वाध्यायी जीव जिनवाणी का खूब अध्ययन करते है, दूसरों को भी कराते है, किन्तु जीवन में अपना ही नहीं पाते। जब उनसे पूछो तो उत्तर मिलता है कि अरे जिनवाणी की बाते सही है उस पर हमें श्रद्धा भी है किन्तु लौकिक जीवन में उन बातों का कोई महत्व नहीं है। समाज में रहना है तो समाज के हिसाब से जीना पड़ेगा। यह हमारे स्वाध्यायी विद्वानों की सोच बन गई है। जिन विद्वानों का संकल्प था कि वो समाज से अज्ञान और मिथ्यात्व संबंधी परंपराओं का नाश करके धर्म की ध्वजा लहराएंगे वही लोग आज समाज में जाकर उनके जैसे ही बन जाते है। झूठी परंपराओं को निभाने लगते है। में इसके उदाहरण भी दे सकता हूं-

जैसे रक्षाबंधन पर्व, हमारे बहुत से विद्वान गणधर की गादी पर बैठकर रक्षाबंधन का सत्य स्वरूप समझाते है और कहते है कि रक्षाबन्धन तो कर्मों के बंधन से आत्म स्वभाव की रक्षा का नाम है, बंधनों से रक्षा का नाम ही तो रक्षाबंधन है, बहन का भाई को राखी बांधना ये तो रक्षाबंधन पर्व है ही नहीं, ये तो संसार का बन्धन है। किन्तु प्रवचन समाप्त होने के बाद स्वयं अपनी बहन से राखी बंधवाते है, और अपने बच्चों से भी वही करवाते है। इन विद्वानों के ऐसे व्यवहार से ऐसा लगता है जैसे जिनवाणी का मजाक बनाने का ठेका इन्होंने ले रखा है। 

उनसे इसका प्रश्न पूछो तो उत्तर मिलता है कि भाई संसार में रहते है तो संसार की परंपराओं को निभाना भी तो आवश्यक है। जबकि ये गलत है वह अपने ही परिवार के सामने, अपनी ही समाज के सामने सत्य को लेकर खड़े होने में डरते है, कमजोरी को छुपाते है और उसे लौकिक परम्परा का नाम देकर जिनवाणी के ज्ञाता होकर भी मिथ्यात्व का प्रचार करते है। क्यूंकि असत्य का विरोध करने की और सत्य को स्वीकारने की क्षमता ही नहीं होती।

इसीप्रकार हमारे स्वाध्यायी ज्ञानी विद्वान प्रवचन देते समय कहते है कि जन्म-मरण तो दुःख के कारण है, इसलिए हम पूजन में भगवान की स्थापना के बाद सर्वप्रथम जन्म-मरण के अन्त की भावना भाते है। जन्मोत्सव तो तीर्थंकरों का मनाया जाता है, क्यूंकि अब वो द्वारा जन्म नहीं लेंगे, उनकी देह अंतिम देह है। और उनका जन्म समस्त जीवों का कल्याण करने वाला है। तीर्थंकर या चरम शरीरी जीव का ही वास्तव में जन्मोत्सव मनाना चाहिए। किन्तु मन्दिर से बाहर निकलकर फिर वही स्वयं का जन्मदिवस अपने बच्चों का जन्मदिवस मनाते है, कुछ लोग घर में बनाकर और कुछ बाजार के केक तक काटते है। मुझे तो समझ नहीं आता इनके मन से क्षण-क्षण में क्या जिनवाणी का ज्ञान लुप्त हो जाता है। 

में पूछता हूं क्या रक्षासूत्र नहीं बांधेंगे तो भाई अपनी बहन की रक्षा नहीं करेगा? क्या अगर सड़क पर किसी और लड़की के साथ कुछ गलत होगा तो हम उसकी मदद नहीं करेंगे या इंतजार करेंगे की अरे पहले रक्षाबंधन पर्व आयेगा फिर इससे राखी बंधवाई जाएगी फिर इसकी मदद करेंगे। और अगर ऐसा नहीं है तो क्यों ऐसी मिथ्या परम्परा को अपनाते है हम क्यों इसतरह जिनवाणी का मजाक बनाते है। 

और ऐसे ही जन्मदिवस पर मेहमान बुलाना केक कटवाना, गुब्बारे लगाना घर सजाना, क्या है ये सब, किसलिए मिला था ये मनुष्य भव और क्या करने लगे, जिनवाणी पढ़कर क्या हासिल किया?

इस जन्मदिवस को मनाना चाहते हो तो पहले इस जन्म के रहस्य को खोजो अपने इस जन्म के महत्व को समझो, इस मनुष्य देह के महत्व को समझो।

जैनधर्म मुक्ति भी देता है और जीवन का सही मार्ग भी, जिनवाणी केवल मोक्ष का मार्ग नहीं है, जीवन के प्रत्येक कदम की प्रेरक है जिनवाणीमां, जैसे एक बालक को उसकी मंजिल तक पहुंचाना उसकी मां का कर्तव्य नहीं होता बल्कि उसके हर गलत कदम पर मां उसे टोकती है और समझाती है तब अपनी मां के आदर्शों पर चलकर वह स्वयं मंजिल तक पहुंचता है। ऐसे ही केवल मोक्ष को समझने से मोक्ष मिल जाएगा ऐसा नहीं है। जिनवाणी में सारा ज्ञान है कदम-कदम कैसे आगे बढ़ना है। अगर आप असत्य परम्परा को छोड़ नहीं सकते तो सत्य का ग्रहण कैसे करोगे? 

ध्यान रहे सत्य और असत्य कभी एक साथ नहीं होते। ज्ञान और अज्ञान कभी एक साथ नहीं होते। जहां असत्य है, अज्ञान है वहां सत्य का व ज्ञान का कोई स्थान नहीं, और जहां सत्य है, ज्ञान है वहां असत्य का व अज्ञान का कोई स्थान नहीं।

श्रुत पंचमी पर जिनवाणी की महत्ता उनका पूजन करना, विधान करना, जिनवाणी छपवाना ये तो अब सब जान गए है। किन्तु में जिनवाणी का नहीं उसके अंदर के सत्य को ग्रहण करने की जो शक्ति हम सब में छिपी हुई है उसका ज्ञान कराना चाहता हूं। हम सबकुछ पढ़कर भी अनपढ़ है। क्यूंकि समाज ओर परंपराओं से बंधे है, इसकारण असत्य का विरोध करने से व सत्य को स्वीकार करने से घबराते है। हम स्वाध्याय करे किन्तु जीवन में ना अपनाएं। जीवन में ज्ञान तो ग्रहण करे, किन्तु झूठी लौकिक परंपराओं के चलते अज्ञान का त्याग भी ना करे तो हम कैसे अपने मनुष्यभव का लक्ष्य प्राप्त कर पाएंगे। 

आज हमारे विद्वान मुझे कहते है, कि लौकिक जीवन भी तो जीना है समाज में परिवार में रहना है तो वैसे जीना भी तो पड़ेगा। 

तो में आपको बता दू आज तक अनादिकाल से आप और क्या करते आ रहे है, इस परिवार, समाज ओर संसार की चिंता में अनेक भव व्यर्थ गंवा दिए है हमने। पूर्वभव में निर्ग्रंथ मुनि बनने की पावन भावना भाई होगी, तब जाकर आज अनन्तभवों के महापुण्य के उदय से जिनवाणी मिली सत्य सामने है, किन्तु फिर भी पल-पल की झूठी खुशी के लिए मिथ्यात्व का हाथ पकड़ कर खड़े है। 

कैसे मनाओगे अब श्रुतपंचमी पर्व- 

ध्यान रहे जब तक आप झूठी लौकिक परम्परा को निभाओगे तब तक जिनवाणी के ज्ञान का प्रयोग आपके जीवन में हो ही नहीं सकता। एक से दूसरे तक ज्ञान बांट तो सकते है। किन्तु उसका प्रयोग नहीं कर सकते, जब तक अधर्म को आप धर्म समझोगे तक तक सच्चा धर्म कैसे समझोगे?

वास्तव में तो सत्य की खोज ही सबसे बड़ा धर्म है। और सत्य का ज्ञान होने पर भी असत्य ना छूटे तो समझना अभी तक सत्य का ज्ञान है ही नहीं।

जिनवाणी मां कहती है कि है भव्यजीव! तूने अनादिकाल से घर-परिवार, समाज के बंधनों में फंसकर अनन्त भव व्यर्थ गवां दिए, अब अनन्तभवों के महापुण्य के उदय से तूने ये नरभव जैन कुल पाया है, दिगम्बर आचार्यों ने करुणा करके इतने अनन्त पुरुषार्थ से जिनवाणी लिपिबद्ध की, मात्र तेरे लिए, कि एक दिन तू इसे पढ़े-समझे और सारी मिथ्या मान्यताओं का त्याग करके जितना ज्यादा से ज्यादा हो सके सत्य के मार्ग पर निर्भय होकर आगे बढ़े। 

ये सब कहने का मेरा एक ही अर्थ है। कि जिनवाणी की पूजन-विधान, स्वाध्याय सब कुछ ठीक है। किन्तु सबसे महत्वपूर्ण उस सत्य को अपनाना है। 

जब मंजिल पर जाते समय अगर एक रास्ता भी गलत हो तो कभी मंजिल नहीं मिलती। इसलिए मंजिल के बारे में नहीं सोचो कर्म करो, अपना सच्चा कर्म करो, उसके परिणाम के बारे में भी मत सोचो, बस अपना एक-एक कदम पूर्णत: सत्य की छांव में रखो, अगर कोई असत्य लौकिक परंपरा सामने आए तो उसे भी लांघ जाओ और सत्य को अपनाओ और लोगो को भी सत्य का मार्ग दिखाओ। क्योंकि हमारा वर्तमान ही हमारा भविष्य निश्चित करता है।

श्रुत के महत्व को अगर समझ जाओगे तो पूजन-पाठ की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी।

जैन आम्नाय में महावीर निर्वाणोत्सव पर्व:- 

वर्तमान में अलग-अलग मत में अलग-अलग तरह से दीपावली और महावीर निर्वाणोत्सव पर्व मनाया जाता है।

कुछ लोग इसे खुशी का पर्व मानते हैं, तो कुछ लोग दुःख का पर्व भी मानते है, लेकिन वास्तव में जैन दर्शन के अनुसार देखा जाए तो महावीर निर्वाणोत्सव न तो खुशी का पर्व है, और ना ही दुःख का पर्व है। ना तो मिठाइयां बांटने का पर्व है, और ना ही आंसू बहाने का पर्व है। वास्तव में तो महावीर निर्वाणोत्सव वैराग्य का पर्व है।

30 वर्षों से मंगलकारी दिव्यध्वनि का रसपान करने वाले जीव जिनके ह्दय में जिनवाणी है, ऐसे जीव महावीर निर्वाण के समय खुशियां और दुःख नहीं मनाते बल्कि समताभावधारण करते है।

अगर हम उस समय का विचार करें तो उस समय बहुत से जीवों ने वैराग्य धारण करके जिन दीक्षा अंगीकार की और भगवान महावीर के बताए मार्ग पर चल पड़े। कुछ जीवों ने सम्यक्दर्शन किया होगा, अणुव्रत धारण किए होंगे, कुछ जीवो ने अपनी-अपनी योग्यता के अनुसार त्याग और संयम धारण किया होगा।

वास्तव में तो हमें भी इस दिन अपनी नगरी में 4-5 दिन का कार्यक्रम मन्दिर में करना चाहिए। विधान-प्रवचन और पाठशाला चलानी चाहिए। क्यूंकि वह दिव्यदेशना आज भी हमारे पास उपलब्ध हैं, अगर हम उस दिव्यध्वनि को समझ पाएं तो आज भी हम अपनी तेरस धन्य कर सकते है। 

आज भी मन्दिर में भगवान के रूप को देखकर अपना रूप देख पाएं तो आज भी हम रूप चौदस मना सकते है। और आज भी हम मन्दिरजी में स्वाध्याय के बल से तत्वचिंतन पूर्वक स्वयं का निर्णय करके, भेदविज्ञान का पुरुषार्थ करके महावीर निर्वाणोत्सव मना सकते है।

दीपक जलाकर लाखों का घी तेल बर्बाद करके, और चारों तरफ हजारों तरह की बिजली जलाकर इतनी सूक्ष्मजीवों की हिंसा करके कोई पर्व नहीं मनाया जाता। इससे अच्छा तो वो पैसा घी, तेल में बर्बाद करने के बजाय किसी जरूरतमंद को दे देना। आज तो हम मन्दिरजी में पूजन-विधान करें, प्रवचन सुनें, स्वाध्याय करें, तत्व चिंतन करें, प्रेम व्यवहार से सभी के साथ समता का भाव रखे। व्रत, उपवास करें, कुछ ना कुछ प्रिय वस्तु का त्याग करें।

भविष्य में महावीर भगवान की दिव्यध्वनि की रक्षा करने का, उसका रसपान करने का तथा उसे जन-जन तक पहुंचाने का प्रण लेना चाहिए। और जितना हो सके अपना मुक्तिमार्ग प्रशस्त करने का पुरुषार्थ करना चाहिए। तब हम वास्तव में इस पर्व को समझ पाएंगे।।

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