Monday, November 22, 2021

जिनप्रतिमा का प्रक्षाल-पूजन क्यों व कैसे एक चिंतन

 


अभिषेक व प्रक्षाल किसका करना चाहिए?

दिगम्बर जैन तेरापंथ आम्नाय के अनुसार वास्तव में परिग्रह रहित वीतराग मार्ग को प्रदर्शित करने वाली ऐसी कुशल प्रतिष्ठाचार्य द्वारा पंचकल्याणक अथवा वेदीप्रतिष्ठा में जिनागम के अनुसार वर्णित विधि-विधान पूर्वक जिनालय में प्रतिष्ठित जिनप्रतिमा तथा यंत्र जी अथवा दिगम्बर मुनिराज के प्रतिष्ठित चरण इत्यादि का प्रक्षाल किया जाता है, इसके अलावा पंचमेरू होते है जो कि अप्रतिष्ठित होते है किन्तु उनमें भी जिनबिम्ब होते है, अप्रतिष्ठित होते है पर उनका भी उसी विधि से प्रक्षालन किया जाता है।

अभिषेक-प्रक्षाल का उद्देश्य :-

जैन परम्परा में दिगम्बर मुनि का भी स्नान इत्यादि का त्याग होता है, हमारे यहां तो थोड़ा भी जल बेकार नहीं जाना चाहिए ऐसा सिखाया जाता है, वस्तु का उतना ही उपयोग होना चाहिए जितना आवश्यक है, चरणानुयोग के अनुसार एक सामान्य श्रावक को भी अपने दैनिक कार्यों में कम से कम पानी का उपयोग करना चाहिए। तो यदि किसी को ऐसा लगता है कि भगवान को नहलाया जाता है उसे अभिषेक कहते है तो ये बिल्कुल गलत है ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, दिगम्बर मुनि के ही स्नान का त्याग है तो हम अरिहंत परमेष्ठियों को नहलाने का भाव हृदय में कैसे ला सकते है?

तो कोई कह सकता है कि भगवान को सौधर्म इन्द्र जो पांडुकशिला पर ले जाकर अभिषेक करता है उसका क्या?

अरे भाई! वहां पांडुक शिला पर भगवान का नहीं एक बालक का अभिषेक होता है उस समय ना वो दिगम्बर मुनि होते है और ना ही अरहन्त, तो उस समय नहलाया जा सकता है। किन्तु यहां मन्दिर में जो प्रतिमा विराजमान है वो अरहन्त अवस्था की प्रतिमा है गृहस्थ बालक की नहीं।

इसलिए महिलाओं को इसप्रकार के नियम लेना कि भगवान का अभिषेक देखना ही है उसके बिना जलग्रहण नहीं करेंगे या भोजनग्रहण नहीं करेंगे। उसका क्या उद्देश्य है और कहां तक उचित है इस विषय में कृपया स्वयं विचार करें और निर्णय करें मुझे तो इस विषय का कोई उद्देश्य ख्याल में ही नहीं आता।

तो फिर आखिर क्यूं किया जाता है जिनप्रतिमा का अभिषेक-प्रक्षाल:- 

वास्तव में तो किसी भी दिगम्बर प्रतिमा के अभिषेक और प्रक्षाल का उद्देश्य एकमात्र साफ-सफाई ही है, ताकि जीव उत्पत्ति ना हो और हिंसा ना हो, इसलिए प्रतिमा-प्रक्षालन हम करते है। इसके अलावा कोई और उद्देश्य इसमें नहीं होता है। और इसके लिए सबको इतना भीड़ इकट्ठी करने की आवश्यकता नहीं है, जो कुछ 3-4 लोग नित्य करते है वह पूरी सावधानी पूर्वक करें और कभी किसी का भाव आ जाए तो को वह भी सहयोग कर सकते है। 

वर्तमान में ऐसा देखा जाता है कि बहुत से साधर्मीजनों को लगने लगा कि जब तक हम भगवान के उपर कलश भर कर पानी नहीं डाल देंगे तब तक हमारे पाप नहीं धुलेंगे और पुण्य नहीं होगा, और बड़े विधान आदि उत्सव के समय ऐसा ही होता है जबरदस्ती लोग धक्का-मुक्की करके चाहे जैसे शुद्ध-अशुध्द वस्त्रों से ही भगवान पर कलश भरकर जल डाल देते है और स्वयं को धन्य समझते है। जबकि ये बिल्कुल गलत है इसमें बहुत बार तो प्रतिमा गिर जाती है और टूट भी जाती है, जिससे भयंकर पाप का बंध होता है। तो आवश्यक नहीं है आप अभिषेक करे तो ही पुण्य होगा आप दूर से भाव भी कर सकते है जहां आवश्यकता है वहां प्रक्षाल करें, जहां पहले से ही बहुत सारे लोग है वहां आपको करने की कोई आवश्यकता नहीं है। क्यूंकि उद्देश्य प्रतिमा की साफ-सफाई है दूसरा कोई उद्देश्य है ही नहीं। तो क्यों करना चाहते है आप इतने सारे लोगो के होते हुए भी कृपया स्वयं विचार करें और निर्णय करें।

अब कोई कह सकता है कि इससे तो लोग मन्दिर आना ही बंद कर देंगे कुछ लोग तो इसी बहाने से मन्दिर आते है? और फिर नए लोग इसके लिए कैसे तैयार होंगे?

देखिए इसलिए हम स्वाध्याय की प्रेरणा दे रहे है, जिनमन्दिर समवशरण का प्रतीक है, समवशरण में अभिषेक या प्रक्षाल नहीं होता। बल्कि 3 समय दिव्यध्वनि खिरती है हमारे पास समय कम है, भगवान को अपनी ही मत सुनाइए, भगवान की भी कुछ सुनिए, शास्त्र खोलकर पढ़िए, मन्दिर जी में पाठशाला लगवाएं, शिविर लगवाएं ताकि अधिक से अधिक लोग धर्म से जुड़े, और बच्चे भी धर्म के सही स्वरूप को समझे और जुड़े रहे। और समय-समय पर सभी को, कोई एक कुशल व्यक्ति अपने निर्देशन में प्रक्षाल का महत्व भी समझाए, और उसे सारी क्रिया भी सिखाए, ताकि आवश्यकता पड़ने पर वह नए साधर्मीजन भी प्रक्षालन का कार्य कर सके।


प्रक्षाल की विधि :-

सर्वप्रथम तो जिनप्रतिमा को स्पर्श करने वाला व्यक्ति जमीकंद का त्यागी रात्रिभोजन का त्यागी होना आवश्यक है, क्यूंकि जमीकंद और रात्रिभोजन करना जिनागम में मांसभक्षण के समान माना है और ऐसा रात्रि भोजन करने वाला या जमीकंद खाने वाला, मदिरापान इत्यादि करने वाला व्यक्ति, पवित्र जिनप्रतिमा का स्पर्श नहीं कर सकता। अब ऐसा जमीकंद का तथा रात्रिभोजन का त्यागी तथा निरोगी अथवा स्वस्थ पुरुष, घर से नहाकर या मन्दिर में जहां स्नानघर हो वहां नहाकर, पूर्णगीले तौलिए को पहनकर ही शुद्ध (जिन्हें पूर्व में धोकर अन्य जनों का प्रवेश वर्जित है ऐसे स्थान पर सुखाया गया है, ताकि किसी और ने अशुद्ध वस्त्रों से जिन्हें नहीं छुआ है) ऐसे बिना सिले हुए धोती-दुपट्टे पहनकर ही प्रक्षाल के लिए जाएं।

आजकल कुछ लोग, जैसे चाहे अशुद्ध वस्त्र पहनकर भी मन्दिरजी में प्रक्षाल के लिए आ जाते है, घर से जो अंडरवियर-बनियान पहनकर आते है उसी के ऊपर से धोती पहनकर प्रक्षाल करने लगते है जबकि घर के अशुद्ध कपड़ों से जिनप्रतिमा को छूना निषेध है। और सिले हुए कपड़े पहनकर भी प्रक्षाल नहीं किया जाता है। अहिंसक कपड़े जो सिले ना गए हो ऐसे अखंड धोती और दुपट्टा पहनकर ही जिनप्रतिमा का स्पर्श करें।

वर्तमान में कुछ लोगो को धोती पहनने में कठिनाई होती है इसलिए धोती पहनना सीखने के बजाय आज अपनी व्यवस्था को देखते हुए कुछ मंदिरों में सिले हुए धोती-दुपट्टा पहनने लगे है जो कि आगम के विरुद्ध है यदि इसे ना रोका गया तो कल कुर्ता-पायजामा और कुछ दिन बाद जींस-टीशर्ट पहनकर भी लोग प्रक्षाल करते नजर आएंगे।कहीं-कहीं तो वर्तमान में भी ऐसा देखा जाने लगा है, इसलिए सभी लोग इस बात का ध्यान रखें कि एक बार धोने के पश्चात् किसी अन्य के द्वारा छुआ गया ना हो ऐसा शुद्ध और बिना सिला हुआ अखंड वस्त्र पूर्णगीले तौलिए से उठाकर फिर उसे पहनकर ही जिनप्रतिमा का स्पर्श करें। और ध्यान रहे अब हाथ में या गले में कोई अन्य धागा इत्यादि अथवा कलावा इत्यादि भी ना हो, मन्दिर जी के बाहर कोई कपड़े का आसन हो तो उस पर पैर ना रखे, आदि बातों का ध्यान रखना अत्यन्त आवश्यक है।

प्रक्षाल के जल के लिए मंदिरजी में कुंआ अथवा बोरिंग होना चाहिए और आवश्यकता के अनुसार ही, ऐसा मोटा कपड़ा जिसमें से सूर्य की किरण प्रवेश ना कर सके उससे उस जल को अत्यंत सावधानी पूर्वक जीवरक्षा करते हुए छानकर ही भरना चाहिए तथा उस छने जल से ही, उस कपड़े से सावधानी पूर्वक गिलछानी करना चाहिए ताकि जीवों को नुकसान ना हो। फिर उस जल को गर्म कर लेना चाहिए जिससे उस जल की 24 घंटे की मर्यादा हो जाती है।

अब जिनप्रतिमा का प्रक्षाल कैसे करना?

किसी भी दिगम्बर प्रतिमा अर्थात् मुनि अवस्था कि प्रतिमा हो जैसे फणवाली पार्श्वनाथजी की प्रतिमा या दिगम्बर मुनि के चरण या अरहन्त अवस्था की प्रतिमा हो तो उनका प्रक्षाल सबसे पहले सूखे कपड़े से परिमार्जन, फिर गीले कपडे से प्रतिमा को पोंछना और फिर सूखे कपड़े से ठीक से प्रतिमा को पोंछना इतना कर दिया तो बस हो गया। विशेष ध्यान देने योग्य बात ये है कि कम से कम जल का उपयोग करें और उसे अन्त में सूखे कपड़े से इतना अच्छे से साफ करें की कंही भी थोड़ा सा अर्थात् एक बूंद जल भी शेष ना रह जाए। और कभी-कभी कलश से प्रतिमा पर थोड़ा सा जल डालकर अभिषेक इसलिए करते है ताकि जहां-जहां तक कपड़ा नहीं पहुंच पाता है प्रतिमा के कुछ छोटे-छोटे हिस्सो में वहां भी सफाई हो जाए, अभिषेक के लिए इसके अलावा और कोई उद्देश्य मुझे तो समझ नहीं आता। 

तो कोई कहता है जब भगवान वीतरागी है, वो कुछ करते नहीं है मात्र ज्ञाता-दृष्टा है, आप अधिक जल भी उपयोग नहीं करना चाहते अभिषेक करने के लिए आपका उद्देश्य भगवान को नहलाना नहीं बल्कि साफ-सफाई और अहिंसा ही उद्देश्य है तो फिर शान्तिधारा क्यों करते है?

इसका उत्तर तो मैने भी बहुत विचार किया और बहुत लोगों से पूछा भी किंतु इसका ऐसा उत्तर मुझे स्वयं अब तक नहीं मिला जिससे मुझे संतोष हो।

जब में छोटा था विद्यालय में जाता है तब अखबारों में छपता था कि विश्वशांति के लिए शान्ति धारा करवाई गई, तो विद्यालय में अन्य जन पूछा करते थे कि अरे तुम्हारे जैन लोगो में विश्वशांति के लिए शांतिधारा करते है तो विश्वशांति तो होती नहीं है यहां तो युद्ध इत्यादि मारकाट, झगड़े, चोरी-चकारी सब वैसा ही चलता है तो या तो तुम्हारे भगवान झूठे है या तुम्हारी भक्ति झूठी है। उस समय मुझे भी नहीं पता था कि वास्तविकता क्या है।

मैने अपने बड़ों से पूछा कि शांतिधारा हम क्यों करते है, इसमें हम परिवार की, समाज की, विश्व की सुखशांति की भगवान से कामना करते है पर ऐसा तो कुछ होता नहीं है पर हमारे बड़ों का तो जवाब होता था कि बेटा ये श्रृद्धा की बात है, इसमें प्रश्न नहीं करते, और हमारे बड़ों ने भी यही सिखाया है और इतने ज्ञानी मुनि है वह भी ये कराते है तो सब करते है इसलिए हम भी करते है।

मुझे अपने बड़ों के उत्तर से कभी संतुष्टि नहीं हुई, किन्तु जब जिनवाणी से जाना की भगवान तो वीतरागी है अहिंसा का उपदेश देने वाले है, सबको भगवान बताने वाले है, तब समझ आया कि ये शांतिधारा का जिनागम में कोई उद्देश्य ही नहीं है। परिवार में अगर सुख शांति होती तो मुनिराज परिवार का त्याग ही क्यों करते, जो भगवान परिवार, समाज और संसार में सुख नहीं है ऐसा जानकर स्वयं में आत्मसुख में लीन होकर भगवान बने उनसे हम संसार के सुख कि कामना करें ये तो महाअज्ञानभाव है।

अब कोई कहे की मन्दिर में इसके माध्यम से पैसा इकट्ठा हो जाता है, और भगवान तो वीतरागी है पर हम तो भक्ति से ऐसा करते है- तो भैया अज्ञान में किसी दिगम्बर मुनिराज पर कड़कती सर्दी में कोई कम्बल डाल दें तो वह भक्ति नहीं मुनिराज पर घोर उपसर्ग है, और भगवान तो वीतराग-सर्वज्ञ है आप उनका भावों से गुणगान करके भी भक्ति कर सकते है, भर-भर कलश पानी डालने से कुछ नहीं होगा। व्यर्थ पानी को बर्बाद करना तो लोक में भी अच्छा नहीं माना जाता तो ये धर्म कैसे हो सकता है। और मन्दिर कोई दुकान नहीं है जो जिनप्रतिमा को यहां पैसे इकठ्ठा करने का साधन बनाया जा रहा है, मन्दिर में आवश्यक वस्तुएं ही होनी चाहिए यहां इतना पैसा इकठ्ठा करके एडवांस कार्य करके दिखावा करने से धर्म नहीं होता, ये बात हमें समझना चाहिए।

अब कोई कहता है कि जो सौधर्म इन्द्र इतने बड़े-बड़े 1008 कलशों से अभिषेक करता है तो वहां तो कितना जल बर्बाद होता है-

तो भैया में पहले ही बता चुका हूं कि वो भगवान का नहीं गृहस्थ बालक का अभिषेक करता है भक्ति से और उसमें भी वह पंचम सागर क्षीरसागर के जल से अभिषेक करता है, और असंख्यात देव वहां होते है, एक-एक बूंद भी वे देव गंधोदक के रूप में लेते है तो वहां एक बूंद जल नहीं बचता जो कि व्यर्थ गया हो।

मुझे बहुत विचार करने पर शान्तिधारा का जिनागम में तो कोई महत्व समझ नहीं आता। बाकि सबका अपना-अपना स्वाध्याय-चिन्तन और निर्णय है यदि किसी को कोई ठोस कारण समझ आता है जिनागम के अनुसार शांतिधारा का तो वह मुझे भी बताए ताकि में भी समझ सकुं कि इसका कारण क्या है जो मेरे स्वाध्याय और चिन्तन में नहीं आ पा रहा है।

इसके अलावा कहीं-कहीं ऐसा भी होता देखा जाता है कि कुछ लोग अभिषेक के लिए देरी से आते है और इधर वो धोती दुपट्टा पहन रहे है और उधर सब उनका इन्तजार कर रहे है कि वो भैया आए तो वो भी थोड़ा प्रतिमा पर जल डाल ले अन्यथा वो पुण्य से वंचित हो जाएंगे, जबकि ऐसा कुछ भी नहीं है, प्रतिमा की सफाई का जो हमारा प्रयोजन था वो पूर्ण हो चुका है कोई देरी से आता है तो उसके लिए जिनेन्द्र प्रतिमा को ऐसे ही छोड़कर अभिषेक के लिए उनका इंतजार करना ये बिल्कुल भी उचित नहीं है ऐसा नहीं होना चाहिए। कहीं-कहीं पर एक बार अभिषेक हो जाने के बाद भी कोई और आता है और वह भी करने लगता है और कभी-कभी, कहीं-कहीं पर तो अभिषेक होने के पश्चात कोई महिला अथवा पुरुष आते है तो उन्हें दिखाने के लिए भी लोग पुन: अभिषेक करते है ताकि वे अभिषेक देख लें। तो वह भी ठीक नहीं है क्योंकि उद्देश्य प्रतिमा की स्वच्छता है तो किसी को देखना या दिखाना ये आवश्यक है ही नहीं।

ये तो हुआ अभिषेक-प्रक्षालन का विषय अब हम विचार करते है 

पूजन क्यों करना व कैसे?

जैनधर्म में भगवान तो वीतरागी है, तो हम उनकी कितनी पूजा करते है, कैसे पूजा करते है, कितना गुणगान करते है, या क्या चढ़ाते है इससे भगवान को तो फर्क पड़ता नहीं है, और ना ही वे किसी का भला या बुरा करते है, वे तो सदा अपने ज्ञान स्वभाव में लीन रहते है और आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द को भोगते है। तो पूजन का उद्देश्य क्या है?

वास्तव में वीतराग-सर्वज्ञ भगवन्तों की पूजन का प्रथम उद्देश्य है परिणामों की निर्मलता। भगवान की पूजन करते समय पूजन में जो भगवान के गुण गाए जाते है उससे वास्तव में परिणाम अत्यन्त निर्मल हो जाते है और मेरे अन्दर भी ऐसे गुण है में भी भगवान बन सकता हूं ऐसा निर्णय पूजन करने से होता है।  पूजन भी एक तरह से स्वाध्याय ही है, जिसमें भगवान के गुण भी है और भेदविज्ञान की ऐसी बातें भी, जिससे समझ-समझ कर पढ़ने से भगवान के गुणों के विषय में ज्ञान बढ़ता है, परिणाम निर्मल होते है और स्वयं भी भगवान बन सकते है ऐसा विश्वास होता है, और वास्तव में जिनप्रतिमा के दर्शन और पूजन सम्यकदर्शन में निमित्त भी है।

अब प्रश्न ये होता है कि जिनेन्द्र भगवान की पूजन कैसे करना चाहिए?

तो यदि विचार किया जाए तो जैन परम्परा में भगवान के दर्शन या पूजन की कोई विधि नहीं होती, वास्तव में तो जिनेन्द्र भगवान को देखकर हमारे मन में जो भी भगवान के बहुमान में भाव उमड़ते है, वह भाव ही दर्शन है, वह भाव ही भक्ति है, वह भाव ही पूजन है और वही आरती है। 

                                 

अब कोई कह सकता है कि हमने तो किताबों में दर्शन और पूजन दोनों की विधि पढ़ी है, बचपन से पढ़ते-सुनते आए है तो क्या वह सब गलत है?

तो नहीं वह सब सही होता है, बच्चों को पता नहीं होता मन्दिर में कैसे जाना, क्या लेकर जाना, क्या लेकर नहीं जाना, क्या बोलना चाहिए भगवान के सामने क्या नहीं, तो उन्हें ये सब सिखाने के लिए दर्शन की विधि बताई है, जब हम समझदार हो जाते है तो जानते है की मन्दिर में खाने-पीने की वस्तु नहीं ले जाते, हिंसा से बनी वस्तुएं मन्दिर में नहीं लेकर जाते, घर-परिवार की बातें मन्दिरजी में नहीं करते तो बच्चों को ये सब सिखाने के लिए वो विधि होती है जो हमारे जीवन में बड़े होने पर सहज आ जाती है, बड़े होने के बाद वही रटी-रटायी स्तुति कब तक जीवन भर भगवान को सुनाते रहेंगे, बड़े होने के बाद भगवान के गुणों को गाते-गाते स्वयं की ही नयी स्तुति और पूजन की रचना हो जाना चाहिए।

अब कोई कहे कि पूजन की विधि तो है पहले विनय पाठ, फिर मंगल पाठ, फिर स्वस्ति मंगल पाठ, इत्यादि पूरी पूजा पीठिका और फिर पूजन फिर बाद में सबको अर्घ्य फिर महार्घ्य, शांति पाठ, विसर्जन पाठ उसकी तो पूरी विधि है ना?

ये भी बस सिखाने की दृष्टि से है ऐसा आवश्यक नहीं है कि ये सब बोला ही जाए ये तो वर्तमान में एक सुविधा के लिए विधि बना दी गई है वास्तव में पूजन की कोई विधि नहीं होती।

हम यदि विचार करें कि विनय पाठ नाथूराम जी ने लिखा है तो उससे पहले तक क्या विनयपाठ नहीं बोला जाता था क्या? ऐसे ही बाकी पीठिका महार्घ्य इत्यादि सब, कुछ समय पहले लिखे गए इसके पहले लोग क्या बोलते होंगे? और ये भी आवश्यक नहीं कि सारे अर्घ्य बोले ही जाए या फिर पहले देव-शास्त्र-गुरु फिर मुलनायक, फिर कल्याणक के हिसाब से, फिर वार के हिसाब से, पूजन करनी ही पड़ती है ऐसा कुछ भी नहीं है। यहां कोई जबरदस्ती नहीं है। ये भगवान की पूजन है, आराधना है, कोई काम नहीं है, जो करना ही पड़ता है। मुझे लगता है मन्दिरजी में सभी भगवान वीतराग-सर्वज्ञ है, हमारे जैनधर्म में तो नाम से कोई पूज्य ही नहीं होता बल्कि गुणों से पूज्य होते है, हमारे यहां तो गुणों की पूजा की जाती है तो जैसा अधिकांश लोगो को लगता है कि सबसे पहले देव-शास्त्र-गुरु की पूजा होना आवश्यक है फिर मूलनायक, फिर वार के हिसाब से फिर कोई कल्याणक के हिसाब से मतलब ऐसे लगभग 4-5 पूजन होनी ही चाहिए मन्दिर में समय हो ना हो फिर भी फटाफट एक घंटे में पूरी रफ्तार के साथ पूजन करके अपने काम के लिए भी जाना आवश्यक है। तो मेरा मात्र इतना कहना है आपके पास समय यदि कम है तो जबरदस्ती इतनी सारी पूजन राजधानी एक्सप्रेस की रफ्तार में करने की आवश्यकता नहीं है इससे पुण्य का तो नहीं अपितु पाप का ही बंध होगा। मुझे तो लगता है कि जब जिस भगवान की पूजा करने का भाव आए कर लेना चाहिए, समय कम है तो एक पूजन ही करो कोई भी, पर पूर्ण भाव से, श्रृद्धा से, बिना किसी जल्दबाजी के, पूजन के एक-एक शब्द का अर्थ और भावार्थ समझ-समझ कर, जब जो इच्छा हो वहीं पूजन कर लीजिए सच में बहुत आनन्द आयेगा।

वास्तव में भगवान को देखकर जो मन में भाव आते है वो उनके सामने बोलना वह भी भगवान की पूजन ही है, पूजन भी है, भक्ति भी है और आरती भी वही है। ये भी करना पड़ता है ये भी करना पड़ता है ऐसी जैनधर्म में कोई विधि नहीं है।

अब बात आती है भगवान को चावल, लवंग, बादाम, गोला इत्यादि ही क्यों चढ़ाते है, नेवेद्य बोलते है और चटक चढ़ाते है, दीप बोलते है और चंदन वाली चटक चढ़ाते है ऐसा क्यों?

तो इस विषय में विचार किया जाए तो जिनागम में भगवान को क्या चढ़ाना चाहिए इसके लिए कहीं कोई सामग्री का विशेष उल्लेख नहीं मिलता किन्तु विशेष ध्यान रखने कि बात ये है कि जिनेन्द्र भगवान को प्रासुक द्रव्य ही चढ़ाया जाता है।


प्रासुक़ द्रव्य का अर्थ होता है जीवरहित अर्थात् जो हिंसा से बिल्कुल रहित है जो प्रासुक है वहीं भगवान को चढ़ाया जाता है। रत्न इत्यादि से पहले भगवान की पूजन होती थी, आज हम प्रासुक चावल, लवंग, बादाम, गोला इत्यादि से भगवान की पूजा करते है, जिसमें व्यर्थ ही जीव हिंसा हो ऐसे द्रव्य भगवान को नहीं चढ़ाते। जिन पदार्थों के कारण से चींटी मच्छर इत्यादि छोटे जीव की भी उत्पत्ति हो या जीवों का मरण हो ऐसे पदार्थ जिनेन्द्र भगवान को नहीं चढ़ाते।

अब यहां कोई कह सकता है कि भगवान तो वीतरागी है उन्हें कुछ चढ़ाने की आवश्यकता ही क्यों? वे तो सर्वत्यागी है उन्हें किसी चीज की आवश्यकता ही नहीं है फिर क्यों चढ़ाना?

तो इस विषय में यदि विचार किया जाए तो वैसे तो उत्तर प्रश्न में ही है भगवान को कुछ चढ़ाना ही क्यों? क्यूंकि वे तो वीतरागी है, किन्तु फिर भी एक लोकव्यवहार की दृष्टि से यदि अपने किसी इष्ट से मिलने जाते है तो कुछ उत्तम वस्तु भेंट स्वरूप ले जाते है। किसी राजा से मिलते है तो वैसे तो प्रजा राजा से ही सहायता मांगने जाती है राजा को किसी भेंट की आवश्यकता नहीं होती फिर भी लोकव्यवहार की दृष्टि से प्रजा कुछ फल इत्यादि वहां राजा के लिए लेकर ही जाती है। ऐसे ही कोई भी व्यक्ति जब जिनमन्दिर में जिनेन्द्र देव के दर्शन के लिए जाता है तो सर्वोत्कृष्ट द्रव्य सामग्री लेकर जाता है, यहां उत्कृष्ट से भी विशेष सर्वोत्कृष्ट का अर्थ जीवरहित प्रासुक सामग्री से है। उससे ही जिनेन्द्र भगवान की पूजन की जाती है। और यदि कोई सामग्री ना भी ले जाएं तो उसमें कोई समस्या नहीं है उद्देश्य तो भगवान से भगवान बनने की विधि सीखना है उन्हें सामग्री चढ़ाने या एक थाली का माल दूसरी थाली में करना हमारा उद्देश्य नहीं है। 

बहुत से लोग ऐसे भी होते है जो भगवान को बहुत अच्छी सामग्री भेंट करते है नित्य शुद्ध चावल, बादाम, लवंग, गोला इत्यादि से पूजन करते है किन्तु भगवान के गुण जैनधर्म के महत्व से अनजान होते है, स्वाध्याय भी नहीं करते है और कुछ लोग ऐसे होते है जो नित्य स्वाध्याय करते है तत्वचिन्तन करते है, संसार के व्यापार आदि से अधिक समय मन्दिर के कार्यों में देते है। जैनधर्म की प्रभावना की बात आए तो व्यापार छोड़कर पहले धर्म प्रभावना के लिए आगे आते है और आप उन्हें दर्शन करते देखेंगे तो मन्दिर में खाली हाथ भी आ जाते है तो इसका अर्थ ये नहीं की वे भाव से पूजन नहीं करते या भाव से दर्शन नहीं करते। ये तो जिनमन्दिर है यहां आने का उद्देश्य एक मात्र भगवान के गुणगान है और भगवान की वाणी अर्थात् जिनवाणी से भगवान बनने की विधि सीखना है, भगवान को कुछ चढ़ाना नहीं, वह इतना अधिक महत्वपूर्ण नहीं है।

ये पूरा प्रक्षाल और पूजन के संबंध में मेरे विचार है मेरा चिन्तन है, आगम में इसका इतना उल्लेख नहीं मिलता है इसलिए आगम के ज्ञान के अनुसार जितना मेरा स्वाध्याय है, जितना में समझ पाया हूं, उतना मैने इसमें लिखा है बाकि सभी अपना-अपना निर्णय स्वयं ही लेवें।

जिनप्रतिमा प्रक्षाल के समय ध्यान देने योग्य कुछ महत्वपूर्ण बातें :-

1. जिनप्रतिमा का अभिषेक नहीं होता, जिनबिम्ब का प्रक्षाल किया जाता है, जो अभिषेक के नाम से प्रचलित है।

2. प्रक्षाल मात्र पुरुषों द्वारा ही किया जाएं, महिलायें जिनबिम्ब को स्पर्श न करें एवं जिनप्रतिमा का प्रक्षाल प्रीतिदिन एक बार हो जाने के पश्चात् बार-बार न करें।

3. प्रक्षाल के निर्धारित समय पर अगर कोई व्यक्ति नहीं आता है तो उसके लिए जिनप्रतिमा को इन्तजार नहीं करवाना चाहिए, निर्धारित समय पर प्रक्षाल हो जाना चाहिए।

4. बिना सिले हुए वस्त्र (शुद्ध धोती-दुपट्टा) जो ऐसे स्थान पर धोकर सुखाएं हो जिन्हें कोई सामान्य वस्त्र पहनकर स्पर्श न करें, और प्रातःकाल स्नान के पश्चात् पूर्ण गीला तौलिया लगाकर ही उस धोती दुपट्टे को स्पर्श करें ऐसे शुद्ध वस्त्र पहनकर ही प्रक्षाल करना चाहिए।

5. कुछ लोग वर्तमान में सिले हुए वस्त्र पहनकर प्रक्षाल करते है जो कि अनुचित है, उनका तर्क होता है कि बिना सिले पहनना नहीं आता अथवा समय अधिक लगता है तो उनको समझना चाहिए कि हम अपने करियर के लिए इतना कुछ नया सीखते है, इतनी भाषाएं सीखते है, बहुत कुछ सीखते है तो जिनप्रतिमा के प्रक्षाल के लिए बिना सिले वस्त्र (शुद्ध धोती-दुपट्टा) पहनना तो सीख ही सकते है।

6. फिर भी जो लोग सिले वस्त्र पहनते है उनमें कुछ लोग तो अंडरगारमेंट्स पहनकर भी प्रक्षाल करते है जो कि सर्वथा अनुचित है और अगर हठपूर्वक पहनते भी है तो इतना विवेक तो अवश्य रखें की उन्हें प्रक्षाल के बाद धोती-दुपट्टा के साथ ही अलग रखें नित्य प्रयोग वाले अंडरगारमेंटस् पहनकर आप जिनप्रतिमा को स्पर्श नहीं कर सकते। 

7. प्रक्षाल के समय हाथ में कलावा, गले में किसीप्रकार का कोई धागा, अथवा जनेऊ इत्यादि पहनकर भी कुछ लोग प्रक्षाल कर लेते है, कुछ लोग साथ में रुमाल ले लेते है, यह भी सर्वथा अनुचित है। 

दिगम्बर आम्नाय में यदि कोई प्रक्षाल वाले वस्त्र (शुद्ध धोती-दुपट्टा) पहनकर एक बार किसी मुनिराज को आहार दे देता है तो उन वस्त्रों को सखरा माना जाता है, फिर उन वस्त्रों को धोकर-सुखाकर भी दोबारा पहनकर प्रक्षाल नहीं कर सकता, उन वस्त्रों को सदैव के लिए अलग ही कर दिया जाता है। तो कलावा इत्यादि पहनकर तो हम खाते भी है, फ्रेश होने भी जाते है और भी पता नहीं क्या-क्या करते है तो उसे पहनकर जिनप्रतिमा को स्पर्श नहीं कर सकते।

8. शुद्धवस्त्र पहनकर जो व्यक्ति प्रक्षाल करने हेतु जिनमन्दिर में प्रवेश कर रहा है उसे ध्यान रखना चाहिए की कोई कपड़े का आसन अथवा पर्दा इत्यादि कहीं लगा है उसे स्पर्श न करे अथवा किसी अन्य सामान्य वस्त्र पहने हुए व्यक्ति अथवा बच्चे से दूर रहे।

9. यदि शरीर से रक्त इत्यादि बह रहा है, फोड़े फुंसी में से पानी निकल रहा है शरीर में कोढ़ इत्यादि है अथवा अंगोपांग में हिनाधिकता है तो ऐसे व्यक्ति को भी जिनप्रतिमा को स्पर्श नहीं करना चाहिए।

10. ध्यान रहे प्रतिष्ठा ग्रन्थ के अनुसार प्रक्षाल के समय अथवा प्रतिष्ठा आदि कार्यों के समय यदि शुद्धता का ध्यान न रखा जाए और अशुद्धता पूर्वक ये सब कार्य किए अथवा कराए जाएं तो तीव्र पाप का बंध होता है नरक आदि गति का भी बंध हो सकता है।


14 comments:

  1. Siddh parmeshthi ko Arihant parmeshthi Mankar kyon pujyateHain

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    1. जिनमंदिर में जो प्रतिमा अधिकतर विराजमान की जाती है वो अर्हंत अवस्था की है कारण कि अरहंत अवस्था में ही उन्होंने भव्य जीवों को मोक्षमार्ग दिखलाया था, और समाज उनकी पूजा करता है जिनसे उन्हें कुछ लाभ मिला है भले अभी चौबीस तीर्थंकर सिद्ध हो गए है किन्तु हमारे सुख का मार्ग उन्होंने जिस अवस्था में बताया था हम उन्हे उसी अवस्था में पूजते है। और सिद्धों की पूजन नहीं करते ऐसा नहीं है, हम सिद्ध भगवान की भी पूजन करते है उसी विधि से अष्टद्रव्य से तो हमारे लिए पंच परमेष्ठी समान रूप से पूज्य है।

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