Friday, October 14, 2022

अष्टाह्निका महापर्व

अष्टाह्निका पर्व कब और क्यों मनाते है:-

अष्टांहिका महापर्व भी दशलक्षण महापर्व की भांति शाश्वत अर्थात् त्रैकालिक पर्व है।

अष्ट अर्थात् आठ और अन्हि अर्थात् दिन अर्थात् ये पर्व आठ दिन के होते है।

संपूर्ण श्रेष्ठ पर्वों में अष्टाह्निका पर्व का अपना विशेष महत्व है कार्तिक,फाल्गुन एवं आषाढ़ के शुक्ल पक्ष के अष्टमी से प्रारंभ होकर चतुर्दशी व पूर्णिमा तक अंतिम ८ दिनों में यह पर्व आता है। 

इस पर्व के दौरान स्वर्ग के संपूर्ण देव मिलकर मध्य लोक के आठवें नंदीश्वर द्वीप में जाते हैं और धूमधाम से भक्तिभाव से अकृत्रिम चैत्यालयों में स्थित जिनबिंबों की अर्चना करते हैं।


नंदीश्वर द्वीप कहां है और कैसा है:-

इस मध्यलोक में असंख्यात द्वीप-समुद्र है जो कि चूड़ी के समान गोल आकार के है और सभी द्वीप-समुद्र एक दूसरे को घेरे हुए है।

जिसमे सबसे मध्य में एक लाख योजन का जंबूद्वीप है जिसके मध्य में एक लाख योजन का सुमेरू पर्वत है। 

1 योजन = लगभग 6000 किलोमीटर

 जम्बूद्वीप को घेरे हुए 2 लाख योजन का लवण समुद्र है। तथा लवण समुद्र को घेरे हुए 4 लाख योजन का धातकीखण्ड द्वीप है। इसके बाहर 8 लाख योजन का कालोदधि समुद्र है तथा उसके बाहर 16 लाख योजन का पुष्करद्वीप है जिसके मध्य में चूड़ी के समान ही गोल आकार में विशाल मानुषोत्तर पर्वत है इसके बाहर न तो मनुष्य जा सकते है और न ही उत्पन्न होते है। 

इसलिए जम्बूद्वीप, धातकीखण्ड द्वीप तथा अर्धपुष्कर द्वीप इसे ही ढ़ाईद्वीप कहा जाता है। 

पुष्करद्वीप को चारो और से घेरे हुए 16 लाख योजन का पुष्करवर समुद्र है तथा उसे घेरे हुए 32 लाख योजन का 

 वारुणीवरद्वीप है तथा उसे घेरे हुए 64 लाख योजन का वारुणीवर समुद्र इसप्रकार एक दूसरे को घेरे हुए असंख्यात द्वीप-समुद्र है जो की पहले वाले से दुगने-दुगने आकार वाले है।

इसी क्रम में 163 करोड़ 84 लाख योजन का आंठवा नंदीश्वरद्वीप है, जहां कार्तिक,फाल्गुन एवं आषाढ़ के शुक्ल पक्ष के अंतिम ८ दिनों में  स्वर्ग के संपूर्ण देव मिलकर धूमधाम से भक्तिभाव से अकृत्रिम चैत्यालयों में स्थित जिनबिंबों की अर्चना करते हैं।

अष्टम नंदीश्वर द्वीप:-

नंदीश्वर द्वीप में कुल ५२ चैत्यालय होते हैं चूंकि हम नंदीश्वर द्वीप जाने में असमर्थ हैं अतःभक्तगण यहां कृत्रिम देव का रुप धारण कर भक्तिभाव से अष्टान्हिका पर्व में विधानानुसार पूजन करते हैं।

नंदीश्वर द्वीप की चारों दिशाओं में चारों ओर काले रंग के चार अंजन गिरि होते हैं जोकि ८४००० योजन विस्तार वाले होते हैं। ये पर्वत ढोल के समान गोल होते है तथा उनपर सुंदर जिनमंदिर होते हैं।

इन ४ अंजन गिरि के चारों दिशाओं में चार-चार कुल १६ वापियाँ बताई गई है।ये वापियाँ एक लाख योजन विस्तार वाली व निर्मल जल से भरी हैं।

इन १६ वापियों के मध्य में १०००० योजन विस्तार वाले सफेद रंग के १६ दधिमुख पर्वत होते हैं जिनके ऊपर भी मंदिर होते हैं।

इन १६ वापियों के किनारों पे चारों ओर दिशाओं में १ लाख योजन वाले ४ वन होते हैं।

प्रत्येक वापिका के बाहरी दोनों कोनों में २-२ लाल रंग के रतिकर पर्वत हैं इस प्रकार १६ वापिकाओ के ३२ रतिकर पर्वत हैं।इनका प्रत्येक का विस्तार १००० योजन है।इन ३२ रतिकर पर्वतों पर भी जिन मंदिर हैं।

सभी मिलाकर कुल ५२ अकृत्रिम चैत्यालय ५२ पर्वत १६ वापियाँ और ६४ वन होते हैं।

सभी पर्वतों के शीश पर एक-एक जिनमंदिर होता है, जिनमें नयनो को मोहित करने वाले एक-एक जिनमंदिर में 108-108 अर्थात् कुल 5616 रत्नमयी प्रतिमाएं होती है। सभी प्रतिमाएं ५०० धनुष उत्तंग व कांति से युक्त होती हैं। इनके मुख मंडल सूर्य के समान दैदीप्यमान एवं श्वेत व श्याम रंग के सुंदर नेत्र हैं। ये प्रतिमाएं समचतुरस्त्र संस्थान वाली अतीव सुंदर होती हैं।उनकी सुंदरता का वर्णन करते हुए कहा जाता है कि देखने वाले वहां से अपने नेत्र हटाना ही नहीं चाहते,अपलक देखते ही रहते हैं। भौंह एवं सिर के केश श्यामवर्णी अतीव सुंदर होते हैं उन श्री जिन की प्रतिमाएं निहारते हुए ऐसा लगता है मानो वे हमसे बातें कर रही हों तथा हमें देख प्रसन्नता से मुस्करा रहे हों।उनका आकर्षण अकथनीय होता है।

उन श्री जिनबिंबों की कांति करोड़ों सूर्य-चंद्रमाओं की कांति को भी लज्जित करने वाली होती है।उन जिनबिंबों के दर्शन मात्र से प्राणियों के परिणाम वैराग्यमय हो जाते हैं और भव्य प्राणी उनके दर्शन पा सम्यकदर्शन को प्राप्त कर लेते हैं।

पूर्व दिशा में कल्पवासी, दक्षिण में भवनवासी, पश्चिम में व्यंतर व उत्तर में ज्योतिष देव व देवी पूजा करते हैं।

चुंकि हम वर्तमान में वहां जाने में समर्थ नहीं है इसलिए हम सभी को इन दिनों में यहीं जिनालय में जिनेन्द्र भगवान की भक्ति-पूजन करना चाहिए। सिद्धचक्र अथवा पंचमेरू नंदीश्वर विधान इत्यादि करवाना चाहिए, तथा भक्तिभाव पूर्वक विधान करके उन विधानों अर्थ समझना चाहिए  इसके अलावा मंदिरजी में जैन शास्त्रों के जानकार विद्वानों को आमंत्रित करके शास्त्र सभा भी लगानी चाहिए। तथा इन दिनों जितना हो सके हम सभी संयम से रहना चाहिए, कुछ न कुछ नियम भी लेने चाहिए। 

इस प्रकार भक्तिभाव पूर्वक ये पर मानना चाहिए।

नंदीश्वरद्वीप की रचना को सरलता से समझने हेतु:-

अंजनगिरी पर्वत:- 

चारों दिशाओं में चार पर्वत है

रंग - अंजन अर्थात् काजल के समान काला

आकार - ढो़ल के समान

विस्तार - 84000 योजन


वापियाँ :-

इन चार अंजनगिरी पर्वत के चारों और कुल सोलह वापियाँ

जल - स्वच्छ व निर्मल जल

विस्तार - 1 लाख योजन


दधिमुख पर्वत :-

इन सोलह वापियों के मध्य में 16 दधिमुख पर्वत है

रंग - दही के समान सफेद

आकार - ढो़ल के समान

विस्तार - 10000 योजन


वन:-

सोलह वापियों के किनारों पर चारों और 4 वन होते है।

विस्तार - 1 लाख योजन


रतिकर पर्वत :-

प्रत्येक वापिका के बाहरी कोनों में 2-2 लाल रंग के रतिकर पर्वत है इसप्रकार 16 वापिकाओं के 32 रतिकर पर्वत है।

रंग - लाल

आकार - ढो़ल के समान

विस्तार - 1000 योजन

एक-एक पर्वत पर एक-एक जिनमंदिर है इस प्रकार 52 पर्वत पर 52 अक्रत्रिम जिनमंदिर है।

एक-एक मंदिर में 108-108 रत्नमयी प्रतिमाएं होती है। एक-एक प्रतिमा की ऊंचाई 500 धनुष है।




8 comments:

  1. Pujan ki jaymala saralta se samjayi.
    Bahot Umda Tarike se

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  2. बहुत-बहुत अच्छा

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  3. मेरी जैसी मोटी बुद्धि के जीव को बहुत ही अच्छा लगा यह समझ कर 👌🌹👌🌹

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    1. जी धन्यवाद 🙏 ज्ञान सबका निर्मल ही होता है बस उसका उपयोग सही दिशा में होना चाहिए

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