Saturday, December 11, 2021

सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का यथार्थ निर्णय :-

 

पूज्य कौन, कैसे व क्यों ??

इस संसार में अनन्त जीव रहते है, सभी दुःखी है और सुख की चाह में या सुख की खोज में दिन-रात प्रयत्न करते है फिर भी दुःखी ही रहते है, क्योंकि वह प्रयत्न सही दिशा में नहीं होता। 

इस प्रथ्वी पर जीवन आज भी एक बहुत बड़ा प्रश्न है, मनुष्य, तिर्यंच, स्त्री, पुरुष, हाथी, घोड़ा, कबूतर आदि अनेक तरह के प्राणी, पेड़-पौधे, फल-फूल, जल-पर्वत, सूरज-चन्द्रमा इत्यादि समस्त ग्रह, प्रथ्वी की ये सुनियोजित व्यवस्था कैसे चलती है, इसे चलाने वाला कौन है, इस पर आज भी एक बहुत बड़ा प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है।

अब हम जैसा कि देखते है एक छोटा सा बालक जिसका अभी-अभी जन्म हुआ है, वह रोते-रोते यहां मनुष्यगति में जन्म लेता है, अभी तक वह अकेला है लेकिन अचानक वह एक परिवार का सदस्य बन जाता है, वह अनजान लोग जिनसे वह अभी पूरी तरह अपरिचित है, उनमें से आज से कोई एक उसकी माता है, और एक पुरुष उसके पिता है, कोई दादी है, तो कोई दादा है, कोई चाची है, तो कोई चाचा है, मामा-मामी, मौसी, बुआ इत्यादि अनेक रिश्तेदार बन जाते है, वह बालक कहां से आया कैसा है, कौन है कोई उसके बारे में कुछ नहीं जानता। किंतु इस गति में जन्म लेते ही वह अनजान बालक परिवार जनों के लिए प्राणों से प्रिय हो जाता है। इसमें ध्यान देने कि बात यह है कि अभी-अभी जन्म लेते ही उस बालक के इतने रिश्तेदार बन जाते है जो उसके लिए बिल्कुल अनजान थे। इस छोटे से जीवन में उसे बहुत से साथी मिल जाते है, और फिर जैसे-जैसे उस बालक को उसके माता-पिता या रिश्तेदार जो कुछ सिखाते है, वह सीखता जाता है, बोलने लगता है, चलने लगता है, हंसने लगता है, और धीरे-धीरे बड़ा होने लगता है, और समय के साथ वह समझदार भी बन जाता है।

और जब वह सोचने समझने के योग्य हो जाता है तो मन में बहुत से प्रश्न उत्पन्न होने लगते है कि - में कौन हूं?, में इस मनुष्य जन्म में कैसे आया? ये संसार ऐसा कैसे है, ये परिवार ये सब रिश्तेदार मेरे कैसे हो गए है और ये कब से मेरे है ओर कब तक रहेंगे, मेरी उम्र अभी 8 वर्ष की है वर्तमान में, तो क्या 8 वर्ष से पहले जब मेरा जन्म नहीं हुआ था तब मेरा इनसे कोई संबंध नहीं था और जन्म होते ही इतना गहरा सम्बन्ध इनके बिना रहा नहीं जाता ऐसा क्यों होता है? आयु पूर्ण होने के बाद सब कहां जाते है? क्या आयु पूर्ण होने पर सब उनका नाश हो जाता है अर्थात् एक दिन मेरा भी नाश हो जाएगा? फिर क्या होगा? इस तरह के बहुत सारे प्रश्न दिमाग में घर करने लगते है।

अब इस दुनियां को समझने के लिए आधुनिकता में विज्ञान को सबसे महान कहा जाता है, क्युकी वह हर चीज की खोज करता है, परीक्षा करके ही उसे स्वीकार करता है, किन्तु जब वह बालक विज्ञान में अधिक रुचि लेता है सब सीखने लगता है तो एक बात समझ आने लगती है कि विज्ञान की खोज हमेशा अधूरी रही है, अब तक बहुत समय निकल जाने पर भी वह संसार के इस रहस्य को १ प्रतिशत भी नहीं समझ पाएं है। और जिन्हें पढ़कर ये वैज्ञानिक लोग खोज करते है और प्रयोग करते है उनका नाम है धार्मिक ग्रंथ।

कोई कहता है कि किसी महान पुरुष अर्थात् भगवान ने इस संसार को बनाया है, और वही इसकी सारी व्यवस्था को संचालित करता है।

किन्तु फिर मन में पुन: प्रश्न उत्पन्न होता है कि वह भगवान कैसा होगा? उसे किसने बनाया होगा? वह पहले से था या अचानक उत्पन्न हो गया, और यदि उन्हें किसी और ने बनाया है तो जिसने उन्हें बनाया उसे किसने बनाया होगा, आखिर समय के प्रारम्भ में समय के आदि में ये संसार कैसे प्रारम्भ हुआ होगा, तो बहुत विचार करने पर, बहुत अध्ययन करने पर भी इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिल पाता।

सभी धर्मों से अलग जैनदर्शन ही एक मात्र ऐसा दर्शन है जिसमें इस संसार का कर्ता किसी को नहीं माना बल्कि प्रत्येक वस्तु की स्वतंत्रता को घोषित करता है जैन धर्म।

जैनदर्शन में इस संसार को अनादिनिधन कहा है, स्वसंचालित कहा है, अर्थात् ना ही कोई इसे बनाने वाला है और ना ही कोई इसे मिटाने वाला है। ये समय के प्रारम्भ से है ओर समय के अंत तक रहेगा, और सदैव समय के अनुसार अपने आप परिवर्तित भी होता रहेगा और सदैव व्यवस्थित भी रहेगा। 

किन्तु ये तो जैनदर्शन में बताया गया है, जैनधर्म के ग्रंथों में इसका वर्णन मिलता है, जैसे अन्य-अन्य दर्शन में अपनी-अपनी, अलग-अलग बात कही है वैसे ही जैनदर्शन में भी अपनी बात कही है किन्तु हम किसे सही माने और किसे गलत? हम स्वयं तो अज्ञानी है इस जन्म के पूर्व का या भविष्य के समय का कुछ भी हमें ज्ञात नहीं है तो हम कैसे इस संसार को समझ सकते है, और फिर हमारे पास समय कम है और मनुष्यभव का समय पूरा होने से पहले हमें इस मनुष्यभव का उद्देश्य पता करना ही होगा।

अब वह बालक इतना तो समझ जाता है कि हमारे हर प्रश्न का उत्तर और समस्त सांसारिक दुःखों का इलाज धार्मिक ग्रंथों में ही छिपा हुआ है। किन्तु अब समस्या ये है धर्म तो यहां बहुत दिखाई देते है, हर धर्म की अपनी-अपनी, अलग-अलग मान्यता है, और सभी तो सच हो नहीं सकते। क्युकि सभी की बातें परस्पर विरुद्ध है। कोई कुछ कहता है कोई कुछ। समय के साथ कुछ लोगों ने अपनी सोच के अनुसार, अपनी सामर्थ्य के अनुसार, अपनी रुचि के अनुसार, अपनी जरूरत के अनुसार, और अपनी सुविधा के अनुसार धर्म के स्वरूप को बदल दिया है, और जैसे-जैसे समय बदला है लोगों ने अपनी सुविधा के अनुसार अपना धर्म का स्वरूप भी बदल दिया है, जैसे वर्तमान में भी दिखाई देता है, लोग अपनी मर्जी के अनुसार कुछ भी कहते है जिनको उन पर विश्वास होता है वह उसे सच मानते है और वैसा ही करने लगते है बिना किसी सवाल के, बिना किसी कारण को जाने, हमसे बड़ा है, समझदार है ऐसा जानकर जैसा वह जो कह देता है वहीं मानने लगते है और वही धार्मिक भावना और धार्मिक त्यौहार भी बन जाते है ऐसा वर्तमान में भी देखा जाता है।

कुछ लोग अपने गुरु पर इतना विश्वास करते है कि उनकी किसी भी बात पर उनके किसी पर आचरण पर प्रश्न नहीं उठाते चाहे वह सही हो या गलत बस नमस्कार करके उन्हें लगता है कि काम हो गया। 

अब ये भी उस बालक को ठीक नहीं लगता क्युकि गुरु-शिष्य का सम्बन्ध तो वास्तव में पिता-पुत्र की तरह होता है, यदि कोई भी शंका है तो गुरु से पूछना ही चाहिए, सच्चा शिष्य वही होता है जो गुरु की हर बात पर प्रश्न उठाएं, और तब तक उठाएं जब तक मन को संतुष्टि ना हो जब तक वह बात समझ ना आए तब तक प्रश्न उठाना चाहिए जो लोग कक्षा में बैठकर या गुरु की बात में भैंस की भांति गर्दन हिलाकर बस हां में हां मिलाते है उन्हें सच्चा शिष्य नहीं कहा जाता अर्थात् वह धर्म के सच्चे स्वरूप को प्राप्त नहीं होते या फिर जीव वास्तव में इसे धर्म को समझना ही नहीं चाहते इसलिए उन्हें जिज्ञासा ही नहीं पूर्ण सच को जानने की।

अब वह बालक सोचता है कि वर्तमान में, इतने सारे धर्म है, सभी धर्मों के अनुसार अपने-अपने अनेक देवी-देवता है, इतने सारे अलग-अलग धर्मों के अलग-अलग अनेक शास्त्र है, धार्मिक ग्रंथ है, तथा उन सभी धर्मों के शास्त्रों को कहने वाले अलग-अलग  अनेक गुरु है, क्या वह सभी सही है? किन्तु सभी अलग-अलग बात कहते है तो सभी सही कैसे हो सकते है?

आचार्य समंतभद्र स्वामी भी आप्तमीमांसा में कहते है:-

तीर्थकृत्समयानां च, परस्परविरोधतः।

सर्वेषामाप्तता नास्ति,  काश्चिदेव भवेद्गुरुः ।।

संप्रदाय-पंथ रूप तीर्थो को चलाने वाले अनेक हैं और उन सब के वचन प्रायः परस्पर विरोधी हैं। परस्पर विरोधी वचनों वाले सब तो भगवान हो नहीं सकते ? उनमें से कोई एक ही भगवान होगा।।

क्यूंकि सबकी बातें ही परस्पर विरुद्ध है एक ही संसार के विषय में सबकी अलग-अलग धारणाएं है किन्तु सब तो सच हो नहीं सकती कोई एक ही इनमें से सच हो सकता है। यदि सच्चे सुख की प्राप्ति को मोक्ष कहा जाता है और वह मोक्ष एक ही है तो उस मोक्ष को पाने का मार्ग भी एक ही होगा उसका पता करना बहुत ही आवश्यक है, ये दुर्लभ मनुष्य भव की आयु समाप्त होने से पहले उस मोक्षमार्ग का पता लगाना अत्यन्त आवश्यक है।

अब जब उस बालक को इतना निश्चय हो जाता है कि स्वयं को और संसार को जानना है तो प्राचीन धार्मिक ग्रन्थों को पढ़ना आवश्यक है, किन्तु अनेक धर्म है और सबके अलग-अलग, अपने-अपने अनेक धार्मिक ग्रन्थ, अब सत्य को समझने के लिए पहले सभी धर्मों के मन्दिर तथा देव, शास्त्र और गुरु को समझना होगा। और उनके गुण उनकी बातें और उनकी विशेषता को जानना होगा, और उन सभी देवी-देवताओं में से सच्चा सुखी कौन है? ऐसे कौन से भगवान है या कौन ऐसा व्यक्ति है जो अनन्त सुखी है जिसे कभी दुःख आता ही नहीं, वही मेरे आदर्श होंगे। क्यूंकि मुझे ऐसा ही सच्चा सुख चाहिए जिसके बाद द्वारा कभी दुःख का अनुभव ही ना हो। 

जैसे किसी व्यक्ति को गणित की पढ़ाई करनी हो तो वह गणित के विशेषज्ञ शिक्षक की खोज करता है उसी की बात मानता है उसी से सीखता है। किसी को क्रिकेटर बनना हो तो वह ऐसे व्यक्ति से सीखता है जो स्वयं क्रिकेट में निपुण हो, यदि उसे धन चाहिए तो ऐसे व्यक्ति के पास जाता है जिसके पास बहुत सारा धन है और यदि मुझे ऐसा सच्चा सुख चाहिए की फिर कभी एक समय के लिए भी मुझे दुःख ना हो तो मुझे ऐसे व्यक्ति की ही खोज करनी होगी, जो अनन्त सुखी है जिसे कभी दुःख आता ही नहीं उसी से मुझे सच्चे सुख की विधि सीखनी होगी।

इतना विचारने और समझने के बाद वह सभी देवी-देवताओं के स्वरूप और उनकी बातों को उनके जीवन को जानने की कोशिश करने लगता है। नित्य अलग-अलग मन्दिर में जाता है वहां के भगवान की विशेषता के बारे पूछता है और वहां उन भगवान को क्यों पूजा जाता है इस विषय में वहां पूजन करने वाले लोगो से वहां के पण्डित इत्यादि से पूछता है और स्वयं विचारने लगता है कि जिस सच्चे सुख की खोज में, मैं निकला हूं वह मुझे यहां से प्राप्त हो सकेगा या नहीं?

अब वह बालक जब कुछ मंदिरों में गया तो देखा कि वहां के मंदिरों में अलग-अलग रूप में भगवान थे, किसी को भगवान इसलिए कहा जाता था क्युकी उन्होंने जीवन में बहुत अच्छे कार्य किए, अपने माता-पिता का सम्मान करना, बड़े भाई का सम्मान करना, पिता के कहने मात्र पर कुछ भी करने को तैयार हो जाना, कोई राक्षस पत्नी को उठाकर ले गया तो वह ज्यादा शक्तिशाली है या कम ये सोचे बिना उससे लड़ना, अपने वचन का पालन करना इन कारणों से इन्हें भगवान माना जाता है।

इसके अलावा किसी को इसलिए भगवान कहते है कि वह बचपन से ही राक्षसों को मारने लगे। और गांव ओर नगर की रक्षा, लोगो की रक्षा करने लगे। बड़े-बड़े दुर्गम कार्य भी छोटी सी अवस्था में उन्होंने किए पूरे जीवन बुरे लोगो को मार दिया और अच्छे लोगो की सहायता की। उन्हें राक्षस जाति के लोगों से बचाया इसलिए भगवान है। ऐसे ही अलग-अलग बहुत सी देवियां भी है उन सबका भी यही काम है।

फिर वहां मन्दिर में शास्त्र के जानकार जो पण्डित जी थे उनसे जब भगवान के विषय में और उनके धर्मग्रंथ के अनुसार जगत के विषय में सच पूछा तो उन्होने कहा कि जगत में एक ही भगवान है, उन्होंने ही सारी दुनियां बनाई है, वह ही इसकी रक्षा करते है और वही इसका नाश करेंगे। जगत में जो कुछ होता है वह सब भगवान की इच्छा से होता है हम सब उनकी कठपुतली है, उनके अलग-अलग अनेक रूप है, एक रूप में उन्होने जगत बनाया है, फिर जगत की रक्षा के लिए वह दूसरा रूप धारण करते है, फिर नाश करने के लिए उनका एक अलग रूप है इसलिए ऐसे ३ रूप हो गए। इसके अलावा समय-समय पर वह धर्म के संतुलन के लिए अवतार भी लेते है। वह सर्वज्ञ होते है, सब जानते है जगत में कहा पर और क्या हो रहा है, कुछ भी उनसे छुपा नहीं है, उनकी इच्छा के बिना एक पत्ता तक नहीं हिलता, जो कुछ भी होता है उनकी इच्छा से होता है। इसके अलावा जगत में जितने जीव है सब उनका ही रूप है उनसे ही जन्मते है और मरने के बाद उन्हीं में मिल जाते है। उनकी पत्नी भी है, बच्चे भी है, उनके अवतार लेने पर उन्हें भी बहुत से दुःख भोगने पड़ते है। 

ये सारी बातें सुनकर अब वह बालक विचार करने लगता है। कि यदि ऐसा है कि जगत में कोई भगवान है उसने इस संसार को बनाया तो सबसे पहले तो जब उसने संसार बनाया था तब वह स्वयं कहा था संसार में या संसार के बाहर जिस जगह वह था उसे कौन सा स्थान कहेंगे? और फिर दूसरा प्रश्न यह कि उन्हें क्या जरूरत पड़ गई इस संसार को बनाने की बैठे-बैठे मन नहीं लग रहा तो संसार ही बना लूं क्या ऐसा विचार करके उन्होंने ये सब बनाया? तीसरा प्रश्न जब सभी जीव भगवान का ही रूप है उनसे ही उत्पन्न हुआ है उनमें ही मिल जाना है और जब सब कुछ उनकी इच्छा से होता है तो फिर पाप-पुण्य, धर्म-कर्म का क्या अर्थ है? 

इसका मतलब जगत में यदि बलात्कार खून जैसे घिनौने कार्य होते है, क्या वह भी भगवान की इच्छा से होते है ? क्यूंकि पण्डित जी ने कहा था कि उनकी इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता तो भगवान ऐसा क्यों चाहेंगे? किसी को धन से संपन्न, किसी को गरीब, किसी को कुत्ता, किसी को घोड़ा, किसी को कम दुःखी, किसी को अधिक दुःखी, यदि सब कुछ एक व्यक्ति के हाथ में है तो ये सब कैसे? उनकी इच्छा तो ऐसी होनी चाहिए कि जगत में सब जीव अच्छे कार्य करे कोई दुःखी ना हो, सब सुखी रहे, और फिर उनकी इच्छा के अनुसार वैसा ही होगा संसार में सब बुरे कर्म ख़तम हो जाएंगे, सभी सुखी होंगे, किन्तु ऐसा तो नहीं होता। और फिर उन्हें हर कार्य के लिए अलग-अलग रूप धारण करने की क्या आवश्यकता है वह तो इच्छा मात्र से सब कुछ ठीक कर सकते है तो इतनी मेहनत क्यों करना।

और यदि वह सर्वज्ञ है तो कुछ बाते उन्हें पता चलती है कुछ नहीं, क्या उन्हें नहीं पता था कि पत्नी का हरण होगा, क्या उन्हें नहीं पता था महायुद्ध होगा और जानबूझ कर यदि पत्नी का हरण होने दिया तो पापी वो स्वयं कहलाएंगे अन्य नहीं। जानबूझकर बिना कारण इतने जीवों को युद्ध में मारना ये तो महापाप है, और फिर जो व्यक्ति स्वयं अनेकों बार अनेक दुःख का स्वयं अनुभव करता है वह मुझे ऐसे सच्चे सुख का मार्ग कैसे सिखाएगा, कि जिससे कभी दुःख ही ना हो।

फिर वह बालक अन्य सभी धर्मों के मन्दिर में भी गया वहां भी जानकारी ली, तो पता चला जगत में जितने भी धर्म है वह सब यही मानते है कि कोई एक है जो ऊपर रहता है वह भगवान है वहीं इस जगत का कर्ता-धर्ता है, भगवान अपने लोगो की रक्षा करने के लिए गांव-नगर की रक्षा के लिए राक्षसों का बुरे लोगो का वध करते है, उन्हें जान से मार डालते है और अच्छे लोगो पर अत्याचार होने से बचा लेते है। इसी तरह किसी धर्म के भगवान स्वयं फांसी पर लटक गए धर्म कि रक्षा के लिए। गुरुगोविन्दसिंह जी इत्यादि अनेक महागुरु हुए जिन्होंने नगर-गांव-देश तथा अच्छे लोगो की रक्षा के लिए अपना जीवन गवां दिया। ऐसे ही अन्य-अन्य धर्म में भी अच्छे कार्यों के लिए उनके महान कार्यों के लिए उन्हें भगवान माना जाता है। उनमें से किसी की अलग-अलग तरह से प्रतिमा बनाकर तरह-तरह से उनकी पूजा की जाती है और किसी धर्म के अनुसार उन्हें किसी ने नहीं देखा ऐसा मानकर ऊपर आसमान की तरफ देखकर उन्हें ऊपर वाला कहकर उनकी पूजा की जाती है।

अब ये सब विचार करने के बाद मन में एक और विचार आता है कि हम भी तो ऐसे ही है। बड़ो का सम्मान करना, माता-पिता की बात मानना, यहां तक कि विद्यालय में कोई बालक हमारे माता-पिता या भाई-बहन के विषय में कोई बुरी बात कह दे तो हम अपनी शक्ति थोड़ी है ऐसा विचार किए बिना लड़ने लगते है, और फिर अगर कोई हमारी पत्नी को उठाकर ले जाए तो हम क्या कुछ नहीं करेंगे।  इस हिसाब से उनमें और हममें क्या अंतर है ? हम भी छोटी-छोटी बात से दुःखी हो जाते है, दिन-रात अच्छे-बुरे की ही चिंता में रहते है, शुभ-अशुभ परिणाम से घिरे रहते है, और उन सभी भगवान में भी ऐसा ही है तो हममें उनमें क्या अंतर है? 

और यदि लोगो का भला करना बुरे लोगो को मार डालना, जो अच्छे लोगो को हानि पहुंचाए उन पर अत्याचार करे, उन्हें जान से मार डालना यही भगवान का कार्य है तो फिर हर ईमानदार नेता और हर ईमानदार पुलिसवाला, फौजी भाई ये सब भगवान ही कहलाएंगे। क्यूंकि ये भी अपनी पूरी शक्ति से ईमानदारी से अपने गांव-नगर-देश की रक्षा करते है, देश की रक्षा के लिए परिवार से दूर रहते है महीने, वर्ष बीत जाते है परिवार से नहीं मिल पाते, बहुत बार देश की रक्षा के लिए गोली खानी पड़ती है, हाथ-पैर टूट जाते है विकलांग हो जाते है और जान भी गवानी पड़ती है इस हिसाब से तो हर दूसरा ईमानदार व्यक्ति भगवान कहलाएगा उसकी पूजा होगी। हर फिल्मी हीरो भगवान कहलाएंगे क्यूंकि वह फिल्मों में यही करते है बुरे लोगो को मारते है अच्छे लोगो की मदद करते है। 

लक्षण से ही लक्ष्य की पहचान होती है यहां भगवान के जो लक्षण बताए गए है उसके अनुसार हर अच्छा ओर ईमानदार व्यक्ति भगवान हो जाएगा पर ऐसा नहीं है क्यूंकि अच्छे व्यक्ति भी दुःखी है, वह भी संसार को जानते ही नहीं है और मुझे तो ऐसे व्यक्ति की खोज करनी है जिसे कभी दुःख नहीं होता वह अनन्त सुखी है जो कभी दुःखी होगा ही नहीं मेरे लिए तो वहीं भगवान होगा।

इस प्रकार सभी धर्मों के देवी-देवताओं को जानने के बाद, मन्दिर इत्यादि जाने के बाद सभी धर्मों की जानकारी लेने के बाद अब वह अन्त में जिनमन्दिर जा पहुंचता है। 

जब वह बालक जिनमन्दिर में प्रवेश करता है तो उसे वहां अत्यन्त शांति की अनुभूति होती है। सामने वेदी पर जिनप्रतिमा विराजमान है और जब वह जिनप्रतिमा को देखता है तो बस देखता ही रहता है शान्त मूर्ति और सौम्य मुद्रा। अभी तक वह जहां भी गया वहां हथियारों के साथ कषाय और भय से सहित भगवान उसने देखे जिन्हें देखकर ही उसे भय और कषाय के भाव उत्पन्न होते थे किन्तु आज जिनप्रतिमा को देखकर उस बालक को अपूर्व शान्ति की अनुभूति हुई है और मन में कुछ ऐसे भाव उमड़ने लगे है, 

कैसी  सुन्दर जिनप्रतिमा है  कैसा सुन्दर है जिन रूप।

जिसे देखते स्वयं दिखता सबसे सुन्दर आत्मस्वरूप।।

वहां पूजन करने वाले लोगो से उसने पूछा कि ये कौन है? आप इनकी पूजन क्यों करते है ? प्रक्षाल क्यों करते है  इन सबसे क्या लाभ है?

तब उन पूजा करने वाले लोगों ने उसे कहा कि ये हमारे भगवान है, ये जैन मन्दिर है, और हम जैन है, हमारे यहां  भगवान ऐसे ही होते है और प्रतिदिन यहां पुरुष लोग भगवान की प्रतिमा का ऐसे अभिषेक-प्रक्षाल और पूजन करते है और महिलाएं भगवान को नहीं छू सकती इसलिए वह दूर से ऐसे पूजन करती है अष्टद्रव्य से। 

फिर वह बालक पुन: पूछता है कि अच्छा लेकिन क्यों इन्हें भगवान क्यों माना जाता है इनकी क्या विशेषता है और इनकी पूजन ऐसे ही करना ये अष्टद्रव्य ही चढ़ाना, फल-फूल इत्यादि नहीं चढ़ाना ऐसा क्यों? 

फिर वहां पूजा करने वाले लोगों ने कहा कि ये भगवान है इसलिए इनकी पूजा करते है और हमारे जैनधर्म में ऐसा ही होता है बाकि हमें ज्यादा कुछ पता नहीं है हमारे बड़ों ने हमें इतना ही सिखाया है।

ये सब जानकर वह बालक थोड़ा निराश हुआ वह सोचने लगा कि ऐसा कैसे? ये भगवान क्यों है इन्होंने ऐसा क्या किया है कि लोग इनकी पूजा करते है इतने सुन्दर-सुन्दर मन्दिर बनाते है, इतने शान्तभाव को समता भाव को प्रगट करने वाली ये जिनप्रतिमा और जैनधर्म के रहस्य का पता लगाना ही होगा। वह ये सब सोच ही रहा था कि उसकी नजर वहां बैठे एक व्यक्ति पर पड़ी जो बड़े ही ध्यान से शास्त्र पड़ रहे थे और उनके चेहरे को देखकर लग रहा था कि वह शास्त्र पड़कर बहुत मन ही मन आनंदित अनुभव कर रहे हो, तो वह बालक सोचता है कि जरूर ये जैनधर्म के रहस्य को समझते होंगे इसलिए शास्त्र पड़कर इन्हें अत्यन्त आनन्द की अनुभूति हो रही है। यही मेरे समस्त प्रश्नों का उत्तर दे सकते है। ऐसा सोचकर वह बालक विनम्र भाव से उन स्वाध्यायी व्यक्ति के पास जाता है। और उनसे कहता है कि भैया में यहां नया हूं मुझे यहां जैन धर्म को समझना है, जिनेन्द्र भगवान के स्वरूप को समझना है, उन्हें भगवान क्यों मानते है, उनकी पूजा क्यों करते है  क्या लाभ है, और जैन शास्त्रों के अनुसार जगत का क्या स्वरूप है, मानवजीवन का क्या उद्देश्य है? में सब कुछ जानना चाहता हूं। ऐसा सुनकर वह स्वाध्यायी व्यक्ति उसकी जिज्ञासा की भावना को समझकर बोले की बेटा आपका नाम क्या है तो वह बालक कहता है कि मेरा नाम विवेक है तो ये सुनकर वह स्वाध्यायी व्यक्ति बोले कि विवेकभैया मेरा नाम ज्ञानचंद जैन है और मैने जैसा देखा, जाना-सुना और शास्त्रों में पढ़ा और फिर स्वयं विचार चिन्तन करके आज तक जो कुछ समझ पाया हूं उसके अनुसार तुम्हें सब कुछ बताने का समझाने का प्रयत्न करूंगा तुम्हारे मन में जितने भी प्रश्न है तुम एक-एक करके पूछना में सारे प्रश्नों का उत्तर अपनी समझ के अनुसार देने कि पूरी कोशिश करूंगा। 

ये सुनकर वह बालक विवेक अत्यन्त हर्षित होता है, और ज्ञानचंद जी से प्रश्न पूछना प्रारम्भ कर देता है।

विवेक :- जिनप्रतिमा की तरफ हाथ करते हुए, इन्हें भगवान क्यों माना जाता है?

ज्ञानचंद जी:- वे वीतरागी और सर्वज्ञ है  इसलिए इन्हें भगवान माना जाता है।

उस बालक विवेक ने पहली बार आज वीतराग शब्द सुना था उसने फिर से पूछा की ये वीतरागी और सर्वज्ञ क्या होता है ? इसका वीतरागता का क्या अर्थ है ?

ज्ञानचंद जी :- जो मोह-राग-द्वेषादि समस्त विकारी भावों से रहित हो जाते है वे सभी वीतरागी होते है। और वीतरागी होने के साथ-साथ जो तीनलोक-तीनकाल के समस्त पदार्थों को एक साथ-एक समय में जानते है वे सर्वज्ञ होते है ।

विवेक:- ये मोह-राग-द्वेष आदि विकारी भाव क्या है कृपया समझाइये ना ?

ज्ञानचंद जी :- परद्रव्यों के प्रति ममत्व का परिणाम यह मेरा है इस तरह भाव वह मोह है:- 

जैसे :- हमें लगता है मम्मी-पापा, भाई-बहन, पत्नी-पुत्र, गाड़ी-बंगला, दुकान इत्यादि ये सब मेरे है। जबकि ये सब मेरे कभी थे ही नहीं, जब मेरा जन्म हुआ तब ये सब बिल्कुल अनजान थे, लोकव्यवहार में हमें जैसा-जैसा सिखाया गया, हमने वही मान लिया है। पर इनमें से वास्तव में हमारा कोई नहीं है मेरा इन सबसे कोई सम्बन्ध नहीं। इनमें से यदि कोई भी मेरा अपना होता तो मुझे कभी दुःख नहीं देता, किन्तु वर्तमान में तो लोग अपनों से ही ज्यादा दुःखी होते है। अर्थात् ये सब मेरे नहीं है। किन्तु बहुत समय साथ में रहने से हमारी इनमें ममत्व बुद्धि हो गई है। 

अलग-अलग गति में ऐसे अनेक साथी हमें मिलते है। जैसे एक नौकरी करते समय वहां का मालिक और काम करने वाले सभी हमारे मित्र और अपने लगते है, और इस नौकरी को छोड़कर जब दूसरी नौकरी लग जाती है तो यहां के मालिक और कर्मचारी अपने लगने लगते है। और पूर्व नौकरी और वहां के मालिक से अब कोई सम्बन्ध नहीं होता।

वैसे ही पूर्वभव में कोई और ही माता-पिता, रिश्तेदार इत्यादि थे, आज गति बदलने से रिश्तेदार भी बदल गए। और पूर्व के रिश्तेदार हमें याद भी नहीं ऐसा ही भविष्य में होने वाला है वर्तमान में जो अपने लगते है वास्तव में वह अपने होते ही नहीं है। किन्तु मोहवश हम उन्हें अपना मानते है उनके अनुसार ही सब करते है उनकी खुशी के लिए पाप भी करना पड़े तो करते है और उसी जिम्मेदारी में ये दुर्लभ मनुष्य भव व्यर्थ चला जाता है।

 ये तो हुई मोह की बात अब राग द्वेष को समझो।

राग-द्वेष:- किसी वस्तु को अच्छा जानकर उसे चाहने का भाव और किसी वस्तु को बुरा जानकर उसे दूर करने का भाव वह द्वेष कहलाता है, वास्तव में तो संसार की कोई भी वस्तु अच्छी-बुरी होती ही नहीं है, वह तो जैसी है वैसी ही रहती है, किन्तु हम अज्ञानवश अपनी मान्यता में अपने प्रयोजन के अनुसार उसे अच्छा-बुरा समझते है। जैसे:- वह पंखा जो गर्मी के समय में बहुत अच्छा लग रहा था, वही पंखा सर्दियों के मौसम में कोई चालू करदे तो बुरा लगने लगता है, जबकि पंखा तो वहीं है किन्तु हम अपने प्रयोजन के अनुसार उसे अच्छा-बुरा समझते है।

जैसे कोई व्यक्ति कपड़े की दुकान पर जाता है, तो दुकानदार से कहता है कि हमें अच्छे कपड़े दिखाओ। अब स्वयं सोचो वह दुकान वाला क्या 2 तरह के कपड़े रखता है अच्छे या बुरे? नहीं बल्कि किसको कौन सा पसन्द आ जाए वही उसे अच्छा लगने लगता है, जिस कपडे को एक ग्राहक बहुत बुरा कहकर वही दुकान पर छोड़ देता है दूसरा ग्राहक उसी कपड़े को बहुत अच्छा कहकर खरीद लेता है इससे पता चलता है कि वास्तव में जगत में कोई भी वस्तु अच्छी या बुरी नहीं है वस्तु तो वस्तु जैसी ही है बस अपने प्रयोजन के अनुसार हम अज्ञानवश उसे अच्छा बुरा समझते है, राग-द्वेष करते है, और सुखी दुःखी होते रहते है।

इसी के साथ इच्छा, क्रोध, मान, माया, लोभ, हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील, परिग्रह, इत्यादि ये सब विकारी भाव है, जो परद्रव्यों के निमित्त से आत्मा में उत्पन्न होते है। और जो जीव आत्मा के सच्चे स्वरूप को समझ लेता है और जिनके मन में ये विकारी भाव उत्पन्न नहीं होते उन्हें ही वीतरागी कहते है। और वीतरागता ही पूज्य है।

जितने-जितने अंश में जीव के रागादि, कषायादि का अभाव होता है, उतने-उतने अंश में वह वीतरागी व पूज्य होता जाता है और पूर्ण रूप से रागादि व कषाय के अभाव होने पर पूर्ण वीतरागता व केवलज्ञान प्रगट होता है। तब वह जीव पूर्ण वीतरागी व सर्वज्ञ होकर भगवान बन जाते है।

विवेक:- इसका अर्थ है भैयाजी जिनेन्द्र भगवान अपनी आत्मा के स्वरूप का ध्यान करके रागादि का अभाव होने पर भगवान बनें। तो क्या वह पहले से भगवान नहीं थे स्वयं पुरुषार्थ करके भगवान बनें?

ज्ञानचंद जी :- और नहीं तो क्या भगवान जन्मते थोड़ी है, भगवान तो बनते है, वह भी पहले हमारे जैसे ही थे, बाद में स्वयं आत्मध्यान रूप महापुरुषार्थ पूर्वक समस्त विकारी भावों का अभाव हो जाने पर भगवान बनें। अर्थात् आत्मा का शुद्ध परमात्म स्वरूप प्रकट हो गया। ऐसे ही हम और तुम भी भगवान बन सकते है।

जैसे मिट्टी मिले हुए सोने को, तपाने से शुद्ध सोना प्रकट हो जाता है। वैसे ही ये आत्मा तो अनादि से परमात्म स्वरूप ही है, किन्तु रागादि विकारी भावों के कारण से इसका परमात्म स्वरूप प्रगट नहीं है, आत्मध्यान रूप तप करने पर ही वह परमात्म स्वरूप प्रगट होगा।।

विवेक:- तो जिनेन्द्र भगवान करते क्या है? भगवान बनकर क्या वह सभी के दु:खों को दूर करते है? इच्छानुसार वरदान देते है? बुरे लोगो को सजा तथा अच्छे लोगो की मदद करते है?

ज्ञानचंद जी:- अरे नहीं-नहीं, भगवान कुछ करते नहीं, मात्र जानते है। 

जीव तो स्वयं स्वभाव से ही अकर्ता है , वह परद्रव्य का कुछ कर ही नहीं सकता। प्रत्येक जीव अपनी भूल के कारण दुःखी है और अपनी भूल को सुधारकर ही सुखी हो सकता है, अपने निज शुद्धात्म स्वरूप को भूला हुआ ये जीव भव-भव में दर-दर भटकता है, भगवान के पास आकर सुखी होने की भीख मांगता है। किन्तु भगवान के बताए उपदेश को स्वीकार नहीं करता। इसलिए वह दुःखी रहता है। भव्य जीवों के पुण्योदय से भगवान ने दुःख दूर करने का मार्ग तो बताया है। पर वे स्वयं किसी का दुःख दूर नहीं करते।

विवेक:- जब जिनेन्द्र भगवान हमारा कुछ करते ही नहीं, हमारे दु:ख दूर नहीं कर सकते हमें खुशहाल जीवन नहीं दे सकते तो फिर हम मन्दिर क्यों जाते है लोग उनकी इतनी पूजा क्यों करते है ? 

ज्ञानचंद जी:- जिनमंदिर भिक्षालय नहीं शिक्षालय है। कोचिंग वाले शिक्षक हमें विद्यालय में पास नहीं कराते फिर भी हम उनके पास जाते है उनसे ये कहने नहीं की सर ये फीस लो हमें पास करवा देना अच्छे नम्बर से हम ऐसा कभी नहीं करते बल्कि पास कैसे होना है अच्छे नंबर लाने के लिए कैसे पढ़ाई करनी है हम ये सीखने वहां जाते है।

सचिन तेंदुलकर स्वयं किसी को बड़ा क्रिकेटर नहीं बनाने वाला, कोई फिल्मी हीरो कोई ऐसा वरदान देने नहीं आने वाला कि आप भी उनकी तरह हीरो बन सको, कोई बड़ा बिजनेसमैन आपके लिए अपनी तरह कोई कम्पनी खोल कर नहीं देगा फिर भी जो लोग इनके जैसा बनना चाहते है इन्हें अपना आदर्श मानते है इनसे कभी मिले नहीं है फिर भी  वो उन्हें अपना आदर्श मानकर अपने कमरे में अलमारी में उनकी फोटो लगाते है, कुछ लोग तो पूजा भी करते है, उनके इन्टरव्यू देखते है उनकी बातें पढ़ते है, उनके विचार सोशलमिडिया पर दूसरों को भी भेजते है क्यों? क्योंकि वो उनके आदर्श है, वो सब लोग उनके जैसा बनना चाहते है। इसलिए वो लोग ऐसा करते है। ऐसे ही जिनेन्द्र भगवान स्वयं तो वीतरागी और सर्वज्ञ है, अनन्त सुखी है, अनन्त गुण के स्वामी है। और हम भी ऐसे ही सुखी होना चाहते है इसलिए उनके पास जाते है, वे वीतरागी-सर्वज्ञ भगवान हमारे आदर्श है।

इसलिए हम पंचकल्याणक पूर्वक आगम अर्थात् जिनवाणी के कथन के अनुसार पवित्र मंत्रों की शुद्धि पूर्वक जिनालय में जिनप्रतिमा स्थापित करवाते है। और फिर भव्य जीव विशुद्ध भाव से नित्य उनका प्रक्षाल-पूजन भक्ति इत्यादि करते है, तथा जिनप्रतिमा को देखकर में भी ऐसा ही हूं ऐसा विचार करते है। तथा मन्दिरजी में रखे हुए शास्त्र, भगवान की दिव्यध्वनि का ही अंश है जिसमें भगवान बनने की पूरी विधि है।  पूजन-विधान भक्ति ये सब स्वाध्याय ही है, इन सभी में भगवान के सच्चे गुण बताए जाते है तथा हम भी भगवान कैसे बन सकते है इसका पूरा उपदेश इन सभी शास्त्रों में सर्वज्ञवाणी के अनुसार मिलता है।

विवेक:- अच्छा लेकिन भगवान सर्वज्ञ है संसार में सब कुछ जानते है तो वर्तमान में जो  लोगो के साथ अन्याय होते है, असहाय लोगों को लूटा जाता है, गरीबों को ठगा जाता है, निर्दोष बच्चियों तक के बलात्कार हो जाते है, भयंकर आतंकवादी हमले होते है, महामारी फैलती है, लोग ऐसे समय में भगवान की इतनी पूजा-पाठ करते है, इतना याद करते है उन्हें तो क्या सब जानते हुए भी उन्हें कुछ करने का भाव नहीं आता होगा? अच्छे लोगो की रक्षा का बुरे लोगो को दण्ड देने का भाव नहीं आता होगा?

ज्ञानचंद जी:- जिनेन्द्र भगवान सर्वज्ञ है, अर्थात् वे जानते है कि प्रकृति में किसी के साथ अन्याय नहीं होता। जो कुछ हो रहा है वहीं हो रहा है जो होने योग्य है जो भी हो रहा है वह उचित ही हो रहा है यहां कुछ भी अनुचित नहीं हो रहा है।

इस संसार में सभी जीवों को अपने-अपने परिणामों के अनुसार कर्म का बन्धन होता है तथा कर्मोदय के कारण जीव दुःखी अथवा सुखी होता है, वर्तमान में यदि किसी गरीब असहाय को लूटा जा रहा है तो वहां उस व्यक्ति ने पूर्वभव में निश्चय ही उसे लूटा होगा और अन्य भी बहुत लोगो को लूटा होगा वर्तमान में इस जीव की यही दयनीय दशा है यदि किसी छोटी सी बच्ची के साथ भी कोई महाभयंकर घटना घट जाती है तो इसका अर्थ है कि उसने भी पूर्वभव में किसी के साथ ऐसा ही महाभयंकर अपराध किया है, तथा वर्तमान में जो अपराध करते दिखाई देते है वह यहां वर्तमान में पुर्वोपार्जित पुण्योदय के कारण बच भी जाए तो भी वर्तमान के अपराध का यथायोग्य फल उन्हें भोगना ही होगा। अर्थात् प्रकृति की ऐसी सुव्यस्थित व्यवस्था है कि किसी को कुछ करना ही नहीं पड़ता। 

और जिनेन्द्र भगवान सर्वज्ञ होने से पहले वीतरागी है, रागी-द्वेषी जीवों को किसी का भला या बुरा करने का भाव आता है किन्तु जिनेन्द्र भगवान को किसी के प्रति ना तो राग है और ना ही किसी के भी प्रति द्वेष है। ना उनके लिए कोई अपना है, और ना ही कोई पराया। वे तो सदा अपनी आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द को भोगते है, यद्यपि भगवान के निर्मल ज्ञान में तीनलोक-तीनकाल के समस्त पदार्थ एकसाथ एकसमय में स्पष्ट रूप से झलकते है किन्तु फिर भी उनके ज्ञान में कोई अंतर नहीं पड़ता वे तो अपने ज्ञान के आनन्द को ही भोगते है। जिस प्रकार दर्पण के सामने काला व्यक्ति आए या गोरा, अच्छा आए या बुरा दर्पण के निर्मल स्वभाव में कोई अंतर नहीं पड़ता वो वैसा ही रहता है, वैसे ही संसार की कैसी भी अच्छी-बुरी घटना भगवान के ज्ञान में झलके उनके निर्मल ज्ञानस्वभाव में कोई अन्तर नहीं पड़ता। वे सदा आत्मा के अनन्त अतीन्द्रिय सुख को ही भोगते है।

विवेक:- आपके कहने के अनुसार आपके शास्त्रों के अनुसार भगवान वीतरागी है उन्हें किसी से राग-द्वेष नहीं है, और भगवान से हम लौकिक सुख-सम्पदा कुछ मांगते नहीं बस उनके जैसा बनने की भावना रखते है? किन्तु में तो आए दिन अखबार में पढ़ता हूं कि विश्वशांति के लिए शांतिधारा कराई गई। और बहुत से जैन लोग भगवान से लौकिक सुख सुविधा की मांग करते है कुछ लोग लौकिक सुख के लिए व्रत-उपवास इत्यादि भी करते है  पति की लम्बी उम्र , बच्चों की सुरक्षा, घर की सुख-शांति, अच्छा पति मिलना इत्यादि अलग-अलग कार्य के लिए अलग-अलग दिन अलग-अलग तरह के व्रत-उपवास जैन समाज में भी बहुत से लोग करते है फिर ये सब क्यों?

ज्ञानचंद जी :- जो कुछ आपने सुना है वो वास्तव में जैनमत के अनुसार नहीं है। आज के समय में धर्म करना तो सभी चाहते है पर धर्म का सच्चा स्वरूप क्या है वो समझने का समय बहुत कम लोगो के पास ही है, ज्यादातर लोग वर्तमान समय में कुछ भी घटना घट जाए तो भगवान को बीच में ले आते है। 

जैसे कोई बालक अपनी मेहनत और अपने पुण्य के उदय से परीक्षा पास हुआ, तो कहते है भगवान की दया से पास हो गया। कोई अपनी वर्तमान आयु पूर्ण होने पर मर जाता है तो  कहते है कि हे भगवान! ये क्या कर डाला?

अगर कोई मरते-मरते बच गया, तो इलाज तो डॉक्टर कर रहे है पर शुक्रिया भगवान का कहते है कि हे भगवान! तेरा लाख-लाख शुक्र है तूने बचा लिया है।

और विचार करें, तो चार महीने से सब कुछ अच्छे से देखकर-दिखाकर रिश्तेदारों की सलाह से लड़के-लड़की की शादी तय करते है फिर भी जोड़ी ऊपर वाले ने बनाई है। अरे ऐसा ही था तो इतना क्यों देखा, पहले रिश्ते को ही हां कर देते?

यहां तक कि अगर पति-पत्नी के परिवार में कोई नया मेहमान आता है कोई बच्चा पैदा होता है तो उसका श्रेय भी सीधा भगवान को।

और यही कारण है कि आजकल के बच्चे और युवापीढ़ी धर्म से जुड़ना ही नहीं चाहती वे धर्म को ढोंग समझते है।क्यूंकि उन्हें भी बचपन से यही सिखाया जाता है कि भगवान ने हमें बनाया है, जो कुछ होता है उनकी मर्जी से होता है, उनकी पूजा करोगे तो वह तुमसे खुश होंगे फिर तुम्हारा सब अच्छा होगा। और बच्चे ऐसा समझकर भगवान की पूजा-पाठ करते है, उन्हें लगता है परीक्षा में पास हो जाएंगे। छोटी-छोटी बातों में भगवान से शिकायत करते है कि भगवान आज पापा की डांट से बचा लो। भगवान आज अध्यापक की मार से बचा लो। भगवान अब तक आपने मेरी कोई बात नहीं मानी कम से कम आज मान लो आज मुझे परीक्षा में पास करा दो। नौकरी लगवा दो, इत्यादि-इत्यादि। किन्तु जब ऐसा कुछ नहीं होता तो बच्चों का भगवान पर से विश्वास उठ जाता है, ना तो महामारी रुकती है, ना ही अन्याय और ना ही बलात्कार जैसी घटना, पूजा-पाठ का कोई असर दिखाई नहीं देता, तो माता-पिता, इत्यादि बड़ों के द्वारा बालक को भगवान का जो गलत स्वरूप बताया गया था उसके कारण से वे अब मन्दिर और धर्म को मजाक समझने लगते है। भगवान के सच्चे वीतराग-सर्वज्ञ रूप को वे जान ही नहीं पाते, अतीन्द्रिय सुख और उसे पाने का मार्ग, ये उत्तम मनुष्यभव जैनकुल पाकर भी वह इससे वंचित रह जाते है।

और लोग वर्तमान में जैसा देखा-जाना-सुना, उसकी बिना परीक्षा किए ही उसे धर्म मान लेते है। जैनधर्म के अतिरिक्त सभी धर्मों में भगवान को कर्ता-धर्ता-हर्ता बताया है कहा जाता है कि उनकी इच्छा के बिना पत्ता तक नहीं हिलता, किन्तु यहां जैनदर्शन के सिद्धांतों के अनुसार तो भगवान इच्छा से ही रहित होते है क्यूंकि इच्छा तो महादु:ख का कारण है, इच्छा अर्थात् तृष्णा जो ऐसा गढ्डा है कि कभी नहीं भरता, तो जो इच्छा से सहित है वह तो स्वयं सदा आकुलित और दुःखी रहता है, वह भगवान कैसे माना जा सकता है क्यूंकि हमारे भगवान, हमारे आदर्श तो महासुखी है जिन्हे कोई चिंता नहीं, कोई आकुलता नहीं, कोई कार्य नहीं, कोई राग अथवा द्वेष नहीं ऐसे हमारे वीतरागी भगवान है, और अनन्त भगवान मिलकर भी जो कार्य होना है जैसा होना है उसे बदल नहीं सकते। 

बहुत कम लोग है जो शास्त्र पड़ते है, इन बातों को समझते है, जैनदर्शन के इन महान सिद्धांतों को समझते है। और ऐसे लोग जो कभी शास्त्र इत्यादि का अध्ययन नहीं करते बस जैसा दिखता है, जो स्वयं के अनुकूल होता है, स्वयं को अच्छा लगता है, वह सही है या नहीं इसके विवेक के बिना कुछ भी करते है। 

भगवान से तरह-तरह की भीख मांगते है, शांतिधारा करते समय भी अपने पूरे परिवार के नामों के साथ परिवार कि सुख-शांति, धन-संपत्ति की कामना करते है इतना भी नहीं समझते कि यदि घर में, परिवार में, समाज में, संसार में, कहीं भी सुख होता तो भगवान क्यों सब कुछ छोड़कर दिगम्बर मुनि दीक्षाधारण करते? क्यों सब कुछ छोड़कर संयम को अपनाते? और फिर जिस, भोगसामग्री परिवार, समाज इत्यादि को दु:खरूप जानकर उन्होंने त्याग दिया आप वही उनसे मांग रहे है, इतना तो विचार करें की जिन भोगसामग्री को इन्होंने त्याग दिया है ऐसे दिगम्बर मुनिराज वो हमें त्यागी हुई वो सामग्री कहां से देंगे। 

वैराग्य भावना में कविवर भूधरदासजी कहते है :-

जो संसार विषय सुख हो तो तीर्थंकर क्यों त्यागे।

काहे को शिव साधन करते संजम में अनुरागे।।

कुछ लोग अज्ञान में भगवान से मांगते है, कुछ लोग शास्त्रज्ञानी होकर भी ऐसा करते है। प्रतिदिन देशभर में अनेक जिनमंदिर में परिवार की, देश की, विश्व की शान्ति के लिए शांतिधारा होती है. किन्तु उसका परिणाम क्या है, अशांति तो अब भी है। इसका अर्थ ये नहीं की धर्म बेकार है, या कोई फायदा नहीं है। बल्कि आपको धर्म की सच्ची समझ नहीं है। 

अरे भैया आपको आंख का इलाज करना है और आप कान के डॉक्टर के पास जाकर बार-बार आंख के इलाज की उम्मीद करोगे, तो निराशा ही हाथ लगेगी ना। यहां आपको चाहिए सच्चा सुख और आप भगवान के पास जाकर  उनसे सांसारिक सुख की मांग करोगे तो निराशा ही हाथ लगेगी ना, क्यूंकि संसार को उन्होंने स्वयं ही दुःखरूप जानकर त्याग दिया। और जो सच्चे सुख उन्होंने प्राप्त किया है वो कैसे प्राप्त किया है वह सब जिनवाणी में दिया है वह हम पढ़ना और समझना नहीं चाहते उसके लिए हमारे पास समय नहीं है तो फिर सुख मिलेगा कैसे?

यहां किसी भी भगवान या पूजा-पाठ का निषेध नहीं है बल्कि पूजा करो भजन गाओ पर उनमें भीख मत मांगो।

जैनधर्म ही नहीं अन्य धर्मों के ग्रंथों को भी बारीकी से देखा जाए तो वहां भी यही कहा है कि आप जैसा कर्म करोगे वैसा ही फल मिलेगा। भगवान भी नियति के आगे कुछ नहीं कर सकते। भगवद्गीता के अनुसार भी देखे तो कृष्ण यही उपदेश देते की नियति में कोई भी कोई बदलाव नहीं कर सकता। इसलिए बिना कुछ मांगे भगवान के गुणों का बखान करो ओर उन जैसा बनने की भावना भाओ। धर्म को गलत मत समझो बल्कि धर्म के सच्चे स्वरूप को समझो, तभी सच्चा मार्ग मिलेगा।

वास्तव में जैनधर्म के अनुसार तो भगवान वीतरागी ही है, अकर्ता है, वे किसी का कुछ नहीं करते, और जैनधर्म के अनुसार भगवान की पूजन-भक्ति इत्यादि में भगवान के गुण गाए है। और उनके जैसा बनने की भावना ही भायी जाती है। उनके द्वारा जो उपदेश दिया गया है वह ही आचार्य परम्परा के माध्यम से हमारे पास तक पहुंचा है ताकि उसे पढ़कर-समझकर हम स्वयं भी जितना हो सके अपनी वर्तमान सामर्थ्य के अनुसार मोक्षमार्ग की और बढ़े, और हम भी भगवान बन सके।

अब उस बालक को जिनेन्द्र भगवान के सम्बन्ध में बहुत सी बातें समझ आने लगती है फिर भी मन में एक और प्रश्न उत्पन्न होता है और वह पूछने लगता है -

विवेक:- आपके जिनेन्द्र भगवान को आप सबसे सुखी, अनन्त सुखी मानते है, स्वयं भी उनके जैसा बनना चाहते है, और आपके शास्त्रों में उसी को मोक्ष कहा है? किन्तु ऐसे हाथ पर हाथ रखे बैठे रहना इसमें कैसा सुख, ना अच्छा खाने मिलता है और ना ही घूमने-फिरने मिलता है, अपनी इच्छा से कुछ कर ही नहीं सकते फिर क्या लाभ ऐसे भगवान बनने का, इससे तो संसार में रहना अच्छा है, टी.वी. देख सकते है, अच्छा-अच्छा खाने-पीने को मिलता है, घूमने जाते है तो आनन्द आता है, ऐसे बैठे रहने से तो संसार में ही अधिक सुख नजर आता है?

ज्ञानचंद जी:- इच्छा तो स्वयं ही महादु:ख है क्यूंकि इच्छारूपी गढ्डा कभी भरता ही नहीं इसे हम पहले बता चुके है, और जिसे हम सुख समझते है वह वास्तव में सुख है ही नहीं, मात्र सुखाभास है, सुख जैसा लगता तो है, पर वह वास्तव में सच्चा सुख नहीं है।

हमें लगता है कि अच्छा-अच्छा खाने में हमें सुख मिलता है, हमें लगता है कि टी.वी. देखने में सुख है, हमें लगता है कि मोबाइल में सुख है, किन्तु देखा जाए तो ये सब तो पुद्गल है, अचेतन है, इनमें सुख कहां से आया, इनमें खुद ही सुख नहीं है तो हमें इनमें से कैसे आनन्द आ सकता है?

अरे भाई जरा विचार तो करो! जब-जब हम यह सब कार्य करते है तब जिस ज्ञान के द्वारा निर्णय किया जाता है तब वास्तव में आनन्द ज्ञान का ही होता है। जैसे कोई कुत्ता हड्डी चबाता है तो उसके जबड़े में से खून निकलने लगता है और उसे लगता है कि इस हड्डी में से खून आ रहा है, जबकि हड्डी में तो खून है ही नहीं तो आयेगा कहां से, जिसका उसे स्वाद मिल रहा है वह खून स्वयं उसी का होता है। वैसे ही हम कोई भी कार्य करते है हमें लगता है उसमे से आनन्द आ रहा है किन्तु वास्तव में तो वह आनन्द हमारे ज्ञान का ही होता है स्वयं आत्मा का ही आनंद होता है।

जैसे किसी बालक ने रसगुल्ला खाया, अब हमें लगता है रसगुल्ले में से आनन्द आ रहा है किन्तु यदि विचार किया जाए तो रसगुल्ले में तो आनन्द नाम का गुण ही नहीं है और यदि रसगुल्ला खाने से आनन्द आता है तो किसी मृत व्यक्ति को रसगुल्ला खिलाएं तो उसे आनन्द क्यों नहीं आता? अर्थात् आनन्द रसगुल्ले का नहीं बल्कि ज्ञान का है, रसगुल्ला खट्टा है या मीठा है इस बात का निर्णय कौन करता है ज्ञान ही करता है, अर्थात् वह आनन्द ज्ञान में से, अर्थात् स्वयं में से ही आया।

ठीक इसीप्रकार टी.वी. देखते समय मोबाईल चलाते समय कौन सा चैनल अच्छा है, क्या देखना, क्या नहीं ये निर्णय कौन करता है हमारा ही अपना ज्ञान, अगर टी.वी. में से आनन्द आता तो कभी भाई-बहन में रिमोड को लेकर झगड़ा ही नहीं होता, क्युंकी यदि टी.वी. में से आनन्द आता तो सबको एक जैसा आता। जबकि ऐसा तो होता नहीं है, ऐसे ही मोबाईल चलाना, घूमना-फिरना इन सब में वास्तव में निर्णय हमारे ज्ञान का ही होता है, ज्ञान में से ही आनन्द आता है, में स्वयं, मेरा ज्ञान, मेरा सुख नाम का गुण, वही वास्तव में आनन्द का स्रोत है, और वही से जीव को आनन्द मिलता है अर्थात् स्वयं में से ही आनंद आता है।

और वास्तव में प्रत्येक आत्मा में अनन्तज्ञान है, अनंतशक्ति है, किन्तु हमारी भूल के कारण जो कर्म का आवरण है उसके कारण से वह शक्ति, वह ज्ञान, वह अनन्तगुण प्रगट रूप में नहीं है।

जैसे सूर्य का प्रकाश अनन्त है किन्तु बड़ी-बड़ी, मोटी-मोटी, दीवारों के कारण वह प्रकाश हमारे घर में, कमरे में प्रवेश नहीं कर पाता। इसका अर्थ ये नहीं है कि सूर्य के प्रकाश में कोई कमी है, ठीक उसीप्रकार अनादिकाल से जो हम अपनी ज्ञानादि शक्तियों को भूलकर परद्रव्यों में रागादि करके कर्म बांधते है, और कर्म हमें हमारी शक्तियां प्रगट नहीं होने देते, सो जितना-जितना आवरण नहीं होता उतना-उतना हम जान पाते है। थोड़ा-बहुत जान पाना, थोड़ा-बहुत ज्ञान भी हमें सुख देता है, तो यदि किसी जीव को तीनलोक-तीनकाल के समस्तपदार्थों को एकसाथ-एकसमय में जानने योग्य ज्ञान अर्थात् केवलज्ञान की प्राप्ति हो जाए तो उसे कितना आनंद आता होगा, उसके प्रतिसमय के आनन्द का तो वर्णन करना भी असंभव है। वास्तव में वही जीव अनन्त सुखी होता है।

वास्तव में यदि संसार में किसी जीव को कोई सबसे बड़ा दुःख है तो वह अज्ञान का दुःख है, कुछ नहीं जान पाने का दुःख है, और यदि इस संसार में कोई सबसे बड़ा सुख है तो वह ज्ञान का हीं सुख है , जानने का आनंद है। जब कभी हम कहीं बाजार में जा रहे हो, कहीं बहुत जल्दी जाना हो, तब रास्ते में यदि कहीं भीड़ इकट्ठी हो, तो हम वहां रुक जाते है और हमारी कोशिश होती है कि हमें पता चले, कि वो भीड़ किसलिए लगी है, जबकि हमारा उस बात से, उस भीड़ से कोई लेना-देना नहीं फिर भी हमें जानकारी चाहिए होती है। 

हम रोज सुबह अखबार पढ़ना चाहते है, टी.वी. पर समाचार देखना चाहते है कि दुनियां में कहां क्या हो रहा है जबकि हमारा उन सब बातों से कोई लेना-देना नहीं होता। 

इसके अलावा जब हम किसी के साथ किसी विशेष बात में व्यस्थ हो और बात करते-करते किसी तीसरे की तरफ हाथ चला जाए तो उसे लगता है कि जरूर ये दोनों मेरे बारे में बात कर रहे है। वह खाना भी नहीं खा पाता, यही सोचता रहता है कि आखिर वह दोनों मेरे बारे में क्या बात कर रहे थे। फिर वह दोनों से अलग-अलग मिलकर पूछता भी है और वह दोनों बता देते है कि अरे नहीं हम तो किसी और विषय में बात कर रहे थे, ऐसे ही हाथ आपकी तरफ चला गया होगा हमनें तो आपको देखा भी नहीं था, पर फिर भी उसे विश्वास नहीं होता और वह जानना चाहता है कि आखिर बात क्या थी।

इसके अलावा संसार का हर व्यक्ति संसार के रहस्य को जानना चाहता है। बड़े-बड़े देश इसके लिए कितना ही पैसा खर्च करते है, दूसरे ग्रहों को जानना चाहते है, समुद्र में कितने जीव है, कौन-कौन से है, उनकी क्या विशेषता है। जमीन के नीचे, आकाश के ऊपर क्या है हम सब कुछ जानना चाहते है। और नहीं जान पाने के कारण स्वयं को दुःखी अनुभव करते है।

और ऐसे में वीतराग-सर्वज्ञ भगवान ही ऐसे जीव है जो स्वयं मोह-राग-द्वेष, जन्म-मरण, क्षुधा-तृषा, प्रेम, दया, अहंकार, इच्छा, क्रोधादि समस्त विकारों से रहित है, और तीनलोक-तीनकाल के समस्त पदार्थों को एकसाथ-एकसमय में स्पष्टरूप से जानते है और प्रतिसमय नया-नया जानते है, और प्रतिसमय नया-नया आनन्द भोगते है। वही वास्तव में हमारे आदर्श है, और हमें भी उन जैसा ही बनना है। यही इस मनुष्य जीवन का एकमात्र लक्ष्य है।



सच्चे शास्त्र की पहचान:-

विवेक :- संसार में अनेक शास्त्र है, अलग-अलग धर्म के अपने-अपने अलग-अलग बहुत से शास्त्र है, सभी प्राचीन शास्त्र है, सभी अपने को सही बताते है, और आप भी अपने शास्त्रों को सही बताते है, आपके अनुसार, जैन धर्म के अनुसार सच्चे शास्त्रों की क्या पहचान है ?

ज्ञानचंद जी :- देखो जिस व्यक्ति को जिस विषय में जानकारी चाहिए, उसके लिए वही किताब, अच्छी किताब बन जाती है। जैसे किसी को विज्ञान की जानकारी चाहिए तो वह विज्ञान की किताब पढ़ता है, और यदि किसी को सामाजिक विज्ञान की जानकारी चाहिए तो वह उसकी किताब पढ़ता है।

अब प्रश्न यह है कि आपको क्या चाहिए, आपको संसार में नाम कमाना है, पैसा कमाना है, या सबको हराने के लिए स्वयं को विजेता बनाने के लिए बहुत सारी शक्ति चाहिए या फिर ऐसा सच्चा सुख चाहिए जिसके बाद दुःख ही ना आए, अनंतकाल तक वीतराग-सर्वज्ञ होकर जन्म-मरण से छुटकारा पाकर जिनेन्द्र भगवान की तरह सच्चे सुखी होना है? उसी आधार पर सच्चे शास्त्र का निर्णय होगा।

यदि कहीं किसी शास्त्र में हिंसा का उपदेश है, हिंसा को धर्म बताया गया है तो वो सच्चा शास्त्र कैसे हो सकता है, हिंसा से कभी किसी को सुख नहीं मिलता है, किसी भी जीव को मारने से स्वयं को व उस अन्य जीव को दुःख ही होता है। संसार में सभी जीवों को अपनों के खोने का दु:ख होता है किन्तु कुछ हिंसक जीव किसी और को मारने से पहले विचार तक नहीं करते की ऐसा करने का क्या परिणाम होगा, उसका पूरा परिवार शोक के सागर में डूब जाएगा। कुछ लोग तो अपनी जीभ के स्वाद के लिए निर्दोष प्राणियों को मार डालने में भी धर्म समझते है। किसी को लगता है की भगवान या किसी देवी माता के सामने किसी की बलि दो तो वो प्रसन्न होंगे। ये कैसे सच हो सकता है, एक तरफ वो यह भी कहते है कि सबको भगवान ने बनाया दूसरी तरफ उन्हीं भगवान की खुशी के लिए निर्दोष प्राणी को मारना अपना अधिकार समझ लेते है, ये कैसे धर्म हो सकता है। और सत्य तो यह है जो किसी अन्य को दुःख पहुंचाता है उतना ही दुःख उसे भी सहना ही होता है ये प्रकृति का नियम है। अर्थात् किसी भी प्रकार से हिंसाधर्म हो ही नहीं सकता। वह तो महापाप है। 

वास्तव में तो धर्मी जीव वही है जो स्वयं के प्राणों का संकट आने पर भी अपने प्राण लेने वाले को भी समता भाव के द्वारा क्षमा कर दे वही वास्तव में सच्चा धर्मी है। और ऐसा समता भाव मात्र जैनदर्शन में देखने को मिलता है।
इस संसार में अलग-अलग धर्म के अलग-अलग शास्त्र है, किन्तु हमारे लिए तो सच्चे शास्त्र वही है जो हमें अनन्त सुख प्राप्त करने का मार्ग बताए, सच्चा सुख प्राप्त करने का मार्ग बताए, आकुलता से रहित होने का मार्ग बताए। 
इसलिए हम सभी धर्मों के सभी शास्त्रों के कथन को एक बार समझे तो समझ आएगा, कि सभी शास्त्रों में बुरे कार्यों को पाप और अच्छे कार्यों को धर्म कहा है, और इससे आगे जिस निराकुल सुख की हमें तलाश है उस सच्चे अतीन्द्रिय सुख को पाने का मार्ग जैन शास्त्रों के अतिरिक्त कहीं भी किसी भी शास्त्र में मिलता ही नहीं उसकी कहीं चर्चा भी नहीं है यहां तक कि जैन शास्त्रों के अलावा सभी धर्मों के अनुसार भगवान भी सच्चे सुखी नहीं है, उन्हें भी बहुत प्रकार के दु:ख भोगने पड़ते है, जिस प्रकार सामान्य मानव के जीवन में सुख-दुःख रूपी चक्र सदैव चलता है वैसे ही सभी भगवान के जीवन में सुख-दुःख रूपी वही चक्र चलता रहता है।

वह भगवान जो सामान्य मानव कि तरह पल में क्रोधित हो जाते है पल में शान्त हो जाते है, थोड़ा सा उनके नाम का जाप करलो तो प्रसन्न होकर कुछ भी वर देते है, किसी ने कुछ कह दिया तो युद्ध के लिए तैयार रहते है अनेकों प्रकार के हथियार जिनके पास होते है, जो ये सूचित करते है कि उनके जीवन में शान्ति नहीं है कभी भी कोई मारने वाला आ सकता है इसलिए अनेक प्रकार के हथियार साथ रखने होते है, भूख प्यास की वेदना, स्त्री, काम वासना आदि से भी जो पीड़ित है, सामान्य मानव की तरह जिनके जीवन में अनेक आकुलता है, समस्या है। किन्हीं शास्त्रों में ऐसे व्यक्ति को भगवान माना गया है। 

तथा कुछ शास्त्रों में कोई भी सामान्य मानव कोई अच्छा कार्य करता है, अपनी जाति के लोगों को भला करता है उनके लिए स्वयं का बलिदान दे देता है तो वह भगवान बन जाता है उसे पूजा जाने लगता है। और इन सब शास्त्रों के अनुसार अच्छे काम करना और भगवान को पूजना यही धर्म है इसके आगे कुछ नहीं। तो जो व्यक्ति इतने मात्र से ही प्रसन्न है उसके लिए तो यही सच्चे धर्म और यही सच्चे शास्त्र है।  

किन्तु जो व्यक्ति इन सबसे बढ़कर वास्तविक सुख, निराकुल सुख, समस्त दु:खों का अन्त, तथा अनन्त काल तक परमसुखी होना चाहता है, उसे एक बार जैन शास्त्रों को पढ़ना-समझना अत्यन्त आवश्यक है। क्यूंकि जैनशास्त्र ही है, जो सच्चे सुख को पाने का मार्ग बताते है, जन्म-मरण के अनंत दु:खों से छूटने का मार्ग बताते है, भक्त नहीं, अपितु भगवान बनने की कला सिखाते है।


अरे भगवान बनने की कला क्या जीव तो स्वयं शक्ति अपेक्षा भगवान ही है बस जीव को बारंबार अपने अनन्त वैभव अनन्त शक्ति की याद दिलाते है, वह जैनशास्त्र हमें वीतराग-सर्वज्ञ बनने का मार्ग बताते है और वास्तव में यही शास्त्र सच्चे शास्त्र है, जो वीतरागता का उपदेश दे, वीतरागता को ही हितकर बताए वास्तव में वही शास्त्र सच्चे शास्त्र है।

विवेक:- सर्वज्ञ परमात्मा तो अभी दिखाई नहीं देते, वह तो हजारों वर्ष पुरानी बात हो गई, अंतिम तीर्थंकर महावीर भगवान को मोक्ष गए आज 2500 से ज्यादा वर्ष हो गए है किन्तु आज जो जिनवाणी, जो शास्त्र हमारे पास में है वो उनकी वाणी उनकी दिव्यध्वनि के अनुसार ही है ऐसा कैसे माना जाए ? 

ज्ञानचंद जी:- देखो भाई तीर्थंकर स्वयं शास्त्र नहीं लिखते, वे तो बोलते भी नहीं है, वहां समवशरण में तो भव्यजीवों के पुण्य के उदय से स्वयं ही सर्वज्ञ देव के सर्वांग से ओंकारमयी दिव्यध्वनि खिरती है, और सभी भव्य जीवों को, देव हो, मनुष्य हो, या तिर्यंच हो सभी को अपनी-अपनी भाषा में वो समझ आता है। चूंकि ये जिनेन्द्र परमात्मा की वाणी है इसलिए जिनवाणी कहलाती है। समवशरण में चार प्रकार रूप सम्यक्ज्ञान के धारी गणधर महामुनिराज भी होते है। और अनेक विशेष ज्ञानी, आत्मानुभवी आचार्य और मुनिराज होते है। जो कि अपने शिष्यों को पढ़ाते है। और फिर वे उनके शिष्यों को पढ़ाते है, इस तरह ये आगम परम्परा चलती रहती है।

पहले के समय में तो सभी विशेष बुद्धिजीवी लोग होते थे, सबको एक-दो बार कहने, समझाने मात्र से ही बहुत कुछ याद हो जाता था, लिखना नहीं पढ़ता था। बाद में समय के अनुसार जब लोगो की स्मरण शक्ति कमजोर होने लगी। तो उस समय के महान आचार्य धरसेन स्वामी के उपदेश से आचार्य पुष्पदंत और आचार्य भूतबलि द्वारा सूखे और अहिंसक ताड़पत्रों पर प्रथम ग्रन्थ षट्खंडागम जैसे महान आगम ग्रन्थ की रचना हुई। तत्पश्चात् उसी क्रम में कुंदकुंदाचार्य, अमृतचंद्राचार्य, उमास्वामी आचार्य, समंतभद्राचार्य, आचार्य अकलंकदेव, सिद्धांत चक्रवर्ती नेमिचंद्राचार्य इत्यादि अनेक आचार्यों द्वारा चारों अनुयोग के ग्रंथों की रचना हुई है, आचार्यों के मूल ग्रन्थ पर उत्तरवर्ती अनेक आचार्यों ने अनेक टीकाएं भी लिखी। समय के अनुसार भाषा परिवर्तन के कारण जो प्राचीन और वर्तमान दोनों भाषा के जानकार होते थे वह ताड़पत्रों पर ही वैसे के वैसे ग्रन्थ उतार देते थे। और वर्तमान में भाषा परिवर्तन अनुवाद इत्यादि भी किए जाते है ताकि विषय को सरलता से समझा जा सकें।


समय के साथ बहुत से व्रती, श्रावक इन प्राचीन ग्रंथो को सुरक्षित रखते थे, ताकि अधिक समय तक जिनवाणी लोगो तक पहुंच सके। उसके विषय में मैने जो जिनवाणी पूजन लिखी है उसकी जयमाला में बहुत कुछ लिखा है ज्यादा जानने के लिए वह पूजन कि जयमाला भी एक बार पढ़ना चाहिए।

विवेक:- तो 2000 वर्ष पहले आचार्य कुंदकुंदादि अनेक आचार्य हुए तब से ताड़पत्र सुरक्षित रहना मुश्किल है इतने समय तक, और फिर तब से अब तक अनेक तरह के श्रावक हुए होंगे, हो सकता किसी ने कुछ बदलाव किया हो तो आप क्या उसे सर्वज्ञ की वाणी समझकर सही ही मानेंगे? भले किसी और ने कुछ बदलाव कर दिया हो बीच में?

ज्ञानचंद जी:- देखो शास्त्र की, जिनवाणी की भी संसार व आत्मा के स्वरूप समझाने की, उस एक ही मोक्षमार्ग को समझाने की अलग-अलग शैली है, जैसा विचार वाला जैसी बुध्दि वाला जीव है, उसे उसके अनुसार ही, जितना हो सके मोक्षमार्ग में वीतराग मार्ग में लगाने का प्रयत्न किया जाता है।

इनमें प्रथमानुयोग, चरणानुयोग, तथा द्रव्यानुयोग के शास्त्रों में बहुत सी बातों में स्वयं अपनी बुध्दि के अनुसार सही गलत का निर्णय लिया जा सकता है। जो वीतराग जैन धर्म को समझता है, स्वाध्याय करता है ऐसे व्यक्ति को कहीं ऐसा शास्त्र मिल जाए जिसमें बदलाव किया हो जो जैन परम्परा के अनुसार सही ना हो, किन्तु शास्त्र में लिखा हो तो वह स्वयं समझ जाता है कि ये जैनधर्म के अनुसार नहीं है, या तो ये ग्रन्थ छापने में कोई गलती हुई है या फिर जरूर किसी ने कुछ बदलाव किया है और उस अनुसार स्वयं निर्णय करके आगे बढ़ता है। 

किन्तु करणानुयोग जिसमें लोकालोक का पूरा स्वरूप है, कर्मचक्र, का जो वर्णन है उसमें तो जैसा कहा है वैसा ही स्वीकृत करना होगा क्यूंकि वह सर्वज्ञज्ञान का ही विषय है हमारे ज्ञान का नहीं, और यदि फिर भी कोई शंका हो तो अन्य आचार्यों के ग्रन्थों से मिलान करना चाहिए क्यूंकि सभी ग्रन्थों में एक ही चीज को कोई बदल सके ऐसा नहीं हो सकता, अनेक आचार्य हुए है, जो भारत के अलग-अलग क्षेत्र में हुए है, सबके ज्ञान में वही बात आई है तो वह परम सत्य है और इस प्रकार अनेक आचार्यों की वाणी से मिलान करना चाहिए और उस आधार पर स्वयं सही-गलत का निर्णय करना चाहिए।
इस प्रकार सच्चे शास्त्र का स्वरूप हमने समझा कि जो शास्त्र, अन्त में वीतरागता को ही हितकर बताए, प्रत्येक जीव स्वतंत्र है, शक्ति रूप से परमात्मा है, और वीतरागता ही सच्चे सुख का एक मात्र उपाय है, ऐसा आत्म सुख का वीतरागता की प्राप्ति का उपदेश देने वाले शास्त्र है वही वास्तव में सच्चे शास्त्र है।

सच्चे गुरु का निर्णय:-

विवेक:- अच्छा तो ये जो गणधर, आचार्य और मुनि परम्परा में जो शास्त्र लेखन करते है, वे सब भी क्या भगवान है?

ज्ञानचंद जी:- नहीं वे हमारे परम दिगम्बर वीतरागी मुनिराज, वे पूर्णरूप से भगवान तो नहीं, किन्तु हमारे लिए भगवान से कम भी नहीं है। इसलिए ही तो हम उन्हें चलते-फिरते सिद्ध अर्थात् चलते-फिरते भगवान कहते है।

जैसे यहां जिनमंदिर में अरिहन्त भगवान की प्रतिमा विराजमान है जिसे देखते ही मन में आनन्द उमड़ने लगता है,  नग्न-दिगम्बर स्वरूप जो कि हमें दर्शाता है कि संसार में कुछ भी मेरा नहीं नहीं है, जैसे आए है वैसे ही जाना है, और वास्तव में यही मेरा सच्चा स्वरूप है, जिनके दोनों हाथ एक के ऊपर एक ऐसे रखे है मानो अब उन्हें संसार में कोई करने योग्य कार्य लगता ही नहीं, अर्थात् संसार में कुछ करने योग्य है ही नहीं, मात्र जानने योग्य है मेरा कार्य तो वास्तव में जानना ही है, कुछ करना धरना नहीं। ऐसी शान्त मूर्ति सौम्य मुद्रा, भव्य जीवों के अंतर में साम्यभाव को जगाने वाली जिनप्रतिमा जो प्रतिमा हमें साक्षात् अरिहंत भगवान की ही याद दिलाती है।

वैसे ही हमारे वे परम दिगम्बर संत, शान्त भाव और सौम्य मुद्रा के धारी है, आंशिक वीतरागी है, जिन्हें संसार में अब कोई कार्य रुचिकर नहीं लगता, कोई कार्य करने योग्य नहीं लगता, संसार के प्रति अब उनके मन में कोई इच्छा शेष ही नहीं है, जिन्होंने इन्द्रियों को, इच्छाओं को जीत लिया है, जो वैराग्यरस से ओतप्रोत है,  जिनके मुखरूपी मंडल से समस्त भव्य जीवों के लिए सदा साम्यभाव झलकता है, जिनके लिए शत्रु और मित्र, राजा और रंक, सभी समान है, जो अंतरंग और बहिरंग समस्त परिग्रह के त्यागी है,  ऐसे वे बाह्य में 28 मूलगुणों का निरतिचार पालन करने वाले जो निरंतर बाह्य परिषह सहन करते है, वे नग्न दिगम्बर  महामुनिराज ही हमारे सच्चे गुरु है।

विवेक:- किन्तु आपके जैनसमाज के गुरु मुनिराज हमेशा नग्न ही क्यों रहते है?

ज्ञानचंद जी:- क्यूंकि उन्हें वस्तु स्वरूप का सच्चा ज्ञान हुआ है, संसार के स्वरूप को जानते तो सभी है किन्तु फिर भी सब उसमें उलझे रहते है, और दुःखी रहते है। ये तो वे महान संत है जिन्होंने संसार के समस्त सुखों को गरजते बादल और चमकती बिजली की भांति क्षणभंगुर जानकर संसार की समस्त मोह-माया, पर द्रव्यों में इष्ट-अनिष्ट की मान्यता, समस्त अंतरंग और बहिरंग परिग्रह का त्याग किया है वे महान संत ही वास्तव में हमारे सच्चे-गुरु है। अंतरंग और बहिरंग समस्त परिग्रह के त्याग में वस्त्र भी आ गए। वास्तव में तो जीव ने आज तक पर वस्तुओं का ग्रहण ही नहीं किया तो त्याग कैसे कर सकता है, ये तो मोह है जिसके कारण अर्थात् मोह के वशीभूत होकर जीव पर वस्तुओं में अपनेपन की मिथ्याबुध्दि करके बैठ जाता है। सम्यक्दृष्टि ज्ञानी जीव एवं महाज्ञानी दिगम्बर मुनिराज तो यह शरीर भी मेरा नहीं है इसप्रकार जानकर शरीर से भी मोह त्याग कर अपनी आत्मा की आराधना के लिए घर-परिवार, व्यापार, वस्त्र इत्यादि सब कुछ त्याग कर मात्र मयूर द्वारा स्वयमेव अपनी इच्छा से छोड़े हुए मयूरपंख के समूह रूप पिच्छी तथा एक सामान्य कमण्डलु लेकर निर्जन वनों में रहकर आत्म साधना करते है ताकि कोई संसारचक्र में फंसा व्यक्ति, विषयों की इच्छाओं से दग्ध प्राणी उनके पास आकर संसार की इधर-उधर की बातें करके उनकी मोक्षमार्ग की साधना में विघ्न ना डाले। जिस संसार को दुःखरूप जानकर मुनिराज ने उसे छोड़ दिया है, उनसे बार-बार उसी संसार की बातें करके उन्हें परेशान ना करें।

विवेक:- जब सब कुछ छोड़ ही दिया है तो पिच्छि-कमंडल भी साथ क्यों रखते है?

ज्ञानचंद जी :- पिच्छी-कमण्डलु तो मुनिराज के संयम के साधन है, मयूरपंख अत्यन्त कोमल होते है उनसे सूक्ष्म जीवों को भी हानि नहीं पहुंचती जीव हिंसा नहीं होती, इसलिए  मुनिराज पिच्छी हमेशा अपने साथ रखते है, मुनि जहां-जहां बैठते है, चलते है, नित्यक्रिया इत्यादि करते है तो पहले उस स्थान को अपनी पिच्छिका से साफ कर देते है। ताकि यदि वहां कोई सूक्ष्म जीव भी हो तो उनकी हिंसा ना हो। और वे शौच इत्यादि के लिए जाते है या आहार के लिए जाते है या कभी जिनमन्दिर में दर्शन के लिए जाते है तो उन्हें हाथ-पैर धोने की आवश्यकता पड़ती है उसके लिए वे उस कमंडलु में प्रासुक जल रखते है, जिससे वे हाथ-पैर इत्यादि धो सकें।

जब वे आहार के लिए जाते है तो श्रावकजन उनके कमंडल में 24 घण्टे की मर्यादा का उबला हुआ प्रासुक जल उनके कमण्डलु में स्वयं ही भर देते है। मुनिराज इसके लिए भी पराधीन नहीं होते, वनों में बहुत से झरने इत्यादि बहता हुआ पानी होता है तो इसे झरने इत्यादि में जो पानी ऊपर से गिरकर पहले किसी पत्थर से टकराता है और पत्थर से टकराकर सीधा उसे कमण्डलु में भर लिया जाता है तो वह जल भी प्रासुक ही होता है, ये सारा जल मुनि को हाथ-पैर धोने के उपयोग में आता है और  वे अपना कमंडलु हमेशा साथ में ही रखते है।

विवेक:- जैसे उन्होंने अपने संयम की आवश्कता के लिए सर्व परिग्रह त्यागी होने पर भी पिच्छी-कमण्डलु साथ में रखा तो यदि एक लंगोट और साथ में रख लेते तो क्या समस्या थी। वर्तमान में दिगम्बर मुनि को देखकर कुछ अन्य मत के जीवों को प्रश्न होता है कि पूर्ण नग्न होने की क्या आवश्यकता है? बहुत से लोगो को उससे समस्या होती है तो यदि एक लंगोट रख लेते तो क्या समस्या थी?

ज्ञानचंद जी :- ऐसा होता तो बहुत समस्या हो जाती क्यूंकि दिगम्बर मुनिराज स्वाधीन प्रवृत्ति वाले होते है वे पराधीन नहीं होते और चूंकि वे सर्व परवस्तुओं के त्यागी है। यदि वे लंगोट रखते तो उसे धोना, धोने के लिए साबुन चाहिए, अलग से अधिक जल भी चाहिए, और फिर उसे सुखाना कोई पक्षी या बन्दर इत्यादि ले ना जाए इसका ध्यान रखना। यदि फट जाए तो नयी कहां से लाएं, पैसा तो है नहीं सब कुछ त्याग कर दिया है, तो एक लंगोटी मात्र से उनका बहुत सा अमूल्य समय भी व्यर्थ जाता ओर संयम भी नहीं रह पाता इसलिए स्वाधीनता के लिए मोक्षमार्ग की सच्ची साधना के लिए वस्त्रों का पूर्ण त्याग आवश्यक ही है। और जैसा कि मैने कहा दिगम्बर मुनि संसार को दुःख रूप जानकर छोड़ चुके है और निर्जन वनों में रहते है। आहार इत्यादि के लिए ही वे नगर में जाते है। तो उनसे किसे समस्या हो सकती है। और फिर दिगम्बर मुनि तो सदैव अंतरंग और बहिरंग से निर्विकारी है। तो उनसे किसी को कोई समस्या नहीं होनी चाहिए।

विवेक:- जैसे अन्य मत के बाबा इत्यादि जो समाज कल्याण के कार्य करते है, समाज के लिए पैसे इकठ्ठा कराना, मन्दिर के लिए पैसे इकठ्ठा कराना, गरीबों के उत्थान के लिए विशेष व्यापार इत्यादि करना, लोगो को विशेष व्यापार का सलाह मश्वहरा देना ऐसे कार्य करते है, तो क्या दिगम्बर मुनिराज भी संसार के कल्याण के लिए गरीबों के उत्थान के लिए, समाज के नाम, सम्मान और कल्याण के लिए व्यापार इत्यादि सीखने-सीखने का उपदेश भी देते है? क्या दिगम्बर मुनि समाज कल्याण के लिए योजनाएं बनाते है?

ज्ञानचंद जी:- मुनि दीक्षा आत्मकल्याण के लिए ली जाती है संसार के कल्याण के लिए नहीं। आप स्वयं विचार करो कि व्यापार करने के लिए ना तो वे व्यापारी है, और ना ही समाज कल्याण के लिए कोई नेता या समाजसेवी है। ना ही वो गरीबों के लौकिक उत्थान के लिए कोई कार्य करते है और ना ही उसके कार्य में किसी भी प्रकार की कोई सलाह इत्यादि देते है। 

अरे परम दिगम्बर वीतरागी मुनिराज तो संसार को असार जानकर, संसार में कहीं भी रंचमात्र भी सुख नहीं है ऐसा जानकर जीवों को यदि उपदेश देते है तो मात्र आत्मकल्याण का अन्य किसी कार्य का नहीं। जो जीव आत्मकल्याण के लिए महाव्रत अथवा अणुव्रत भी नहीं ले पाते उन्हें कुछ यथाशक्ति नियम-संयम पूर्वक न्याय और नीति से गृहस्थ धर्म के पालन की तथा स्वाध्याय और तत्व चिन्तन की प्रेरणा देते है।

विवेक:- क्या दिगम्बर मुनिराज भी अन्य मत के बाबाओं जैसे मन्दिर धर्मशाला इत्यादि बनवाना उनकी देखरेख करना ये सब कार्यों में रुचि लेते है, इसके लिए समाज को उपदेश देते है?

ज्ञानचंद जी:- नहीं ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, जैसा कि हम स्वयं विचार कर सकते है कि दिगम्बर मुनि को तो स्वयं के आत्म चिन्तन-मनन से ही फुर्सत नहीं मिलती और ये मन्दिर बनवाना, धर्मशाला इत्यादि बनवाना ये सारे कार्य तो समाज के गृहस्थ जीवों का, नगर के प्रमुख सेठों का है, जो कि उन्हें स्वयं अपनी इच्छा से उत्साह पूर्वक करना ही चाहिए। इसमें सलाह इत्यादि के लिए समाज के प्रमुख प्रतिष्ठाचार्य, विद्वतजन, शास्त्रों के जानकार नित्य स्वाध्याय करने वालें गृहस्थ इत्यादि श्रावकों की सलाह से ये सारे कार्य होना चाहिए। 

परम दिगम्बर मुनिराज तो मन्दिर बनाने का नहीं अपितु स्वयं को भगवान बनने का उपदेश देते है। दिगम्बर महामुनिराज स्वयं तो आत्मा के अतीन्द्रिय आनन्द में मग्न रहते ही है, अन्य जीवों को भी उस आत्मसुख को पाने की ही प्रेरणा देते है। सच्चे दिगम्बर मुनिराजों को तो स्वयं में ही द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से रहित परमशुद्ध त्रिकाली भगवान आत्मा अनुभव में आता है उन्हें तो किसी और काम में रुचि ही नहीं होती। और जब वे निर्विकल्प से सविकल्प दशा में आते है तो सहज ही बाह्य 28 मूलगुणों का भी उनके पालन होता है। और नित्यक्रिया, शास्त्रलेखन, आहार इत्यादि कार्य भी होता है।

यदि संसार के कार्यों में समाजकल्याण इत्यादि के कार्यों में उन्हें थोड़ी भी रुचि होती तो वे समाजसेवी बनते, नेता बनते या कुछ और बनते किन्तु दिगम्बरमुनि नहीं बनते क्यूंकि दिगम्बरमुनि तो आत्मकल्याण के लिए बनते है अन्य किसी कार्य के लिए नहीं।

विवेक:- क्या आवश्यकता पड़ने पर दिगम्बर मुनि थोड़ा बहुत परिग्रह रख सकते है?

ज्ञानचंद जी:- नहीं। पहली बात तो ये कि वे दिगम्बर मुनिराज है, वे मुनिराज जिन्होंने पहले ही पांच पापों का सर्वथा त्याग कर दिया है। जिन्हें शरीर से भी मोह नहीं है, जो स्वयं ज्ञान के धनी है आत्मानुभवी है, तथा जो विषयों की समस्त इच्छाओं से रहित है अर्थात् जिन्हें अब संसार की किसी वस्तु की प्राप्ति की इच्छा ही नहीं है तो ऐसे दिगम्बर मुनिराज को किसी परवस्तु की क्या आवश्कता? 

और यदि कोई रोग उन्हें हो जाता है तो ऐसे में भी वे आहार के समय में अहिंसक पूर्णत: प्रासुक औषधि, आहार में लेते है वो भी श्रावक स्वयं मुनि के रोग को समझकर स्वयं औषधि तैयार करके आहार के समय मुनि को उसके विषय में बताते है और यदि मुनि के उस प्रासुक औषधि की सामग्री का त्याग नहीं होता है तो वे लेते है, यदि किसी ऐसी सामग्री से वह औषधि बनी है जिसका मुनिराज के पहले से ही त्याग है तो वे उसे ग्रहण नहीं करते।

हम उदाहरण देख सकते है, एक चांडाल जिसे कौवे के मांस का त्याग कराया गया था तो उसे यह पता था कि यही एकमात्र औषधि है जिससे मेरे प्राण बच सकते है किन्तु मैने इसका त्याग किया है अब यदि प्राण भी चले जाए तो भी अपने नियम का, अपनी प्रतिज्ञा का पालन करूंगा। ऐसे ही दिगम्बर मुनिराज दीक्षा के समय अपने गुरु से महाव्रत ग्रहण करते है सर्वपरिग्रह त्याग की प्रतिज्ञा लेते है तो वे कितनी भी कैसी भी आवश्यकता हो परिग्रह ग्रहण कर ही नहीं सकते, यदि वो थोड़ा भी परिग्रह ग्रहण करेंगे तो वे दिगम्बर मुनि ही नहीं रह जाएंगे। 

और यदि कोई ऐसा रोग हो जिससे मुनिचर्या में समस्या उत्पन्न होती है तो आगम के अनुसार 2 ही कार्य किए जा सकते है या तो गुरु की आज्ञा से सल्लेखना धारण करना चाहिए अथवा  गुरु की आज्ञा से जब तक रोग की समस्या का उचित समाधान का हो जाए तब तक मुनि अवस्था को छोड़कर सामान्य श्रावक बनकर रोग का उपचार करना चाहिए जैसे आचार्य समंतभद्र स्वामी ने किया था। किन्तु दिगम्बर मुनि के स्वरूप में एक हाथ में पिच्छिका और एक हाथ में कमंडलु इसके अलावा धागा मात्र भी परिग्रह सच्चे दिगम्बर मुनिराज नहीं रखते है।

विवेक:- किन्तु पहले के काल की बात और थी यह पंचमकाल है, निकृष्ट काल है, जीवों की बुध्दि अल्प है, शक्ति थोड़ी है, तो यदि थोड़ा बहुत अगर चला भी लें तो इसमें क्या समस्या है?

ज्ञानचंद जी:- बिल्कुल आपकी बात स्वीकार है कि ये पंचमकाल है, जीव का क्षयोपशम ज्ञान चतुर्थकाल के जीवों की अपेक्षा बहुत अल्प है, शक्ति अल्प है, सच्चे श्रावक भी देखने नहीं मिलते है कि मुनि को ठीक से मुनिचर्या के अनुसार आहार इत्यादि की व्यवस्था भी जो कर सके।  किन्तु ये सब होने के बाद भी सत्य तो यह है कि धर्म में परिवर्तन नहीं होता। धर्म में शिथिलता को बढ़ावा देना अधोगति का कारण है। अरे भाई! काल कोई भी हो चाहे चतुर्थकाल हो या पंचमकाल हो, किन्तु यदि तेरी शक्ति अल्प है तो शक्ति के अनुसार ही कार्य करना चाहिए, शक्ति से अधिक कार्य करना ही क्यों चाहता है। 

जरा विचार करो कि अपनी शक्ति से अधिक शक्ति वाले पुरुष से लड़ोगे तो क्या होगा सब जानते है कि अपना ही नुकसान होगा। 

जरा सोचो तो आपको तैरने का अभ्यास ही नहीं है, और जोश-जोश में सीधा बड़ी गहरी नदी या सागर में कूद जाओ तो क्या पार हो पाओगे, अरे नहीं डूब जाओगे बिल्कुल वैसे ही यदि महाव्रत ग्रहण करने की, 28 मूलगुणों का निरतिचार पालन करने की, 22 परीषहों को सहने की, 10 धर्मों के पालन की शक्ति ही नहीं है तो मुनिव्रत अथवा महाव्रत ग्रहण ही क्यों करना। घर में रहकर स्वाध्याय, चिन्तन इत्यादि करना चाहिए। अणुव्रत ग्रहण कर सकते है, ब्रह्मचर्य व्रत लें सकते है, 11 प्रतिमा, 12 व्रत बहुत से साधन बताएं है जिनागम में जिसकी जैसी शक्ति है जिसके जैसे भाव है उसे वैसे ही कार्य करने का उपदेश है फिर यदि शक्ति अल्प है तो अपनी शक्ति के अनुसार नियम लेना चाहिए किन्तु नियम तो मुनिव्रत का है और काल का बहाना लेकर उसमें शिथिलाचार करें ये तो ठीक नहीं है। अर्थात् जैसा जिनवाणी में दिगम्बर मुनिराज का स्वरूप बताया है उसमें अगर थोड़ा भी दोष हुआ तो या तो शीघ्र ही गुरु के पास जाकर गुरु की आज्ञा से यथायोग्य प्रायश्चित लेना चाहिए और दोबारा चर्या में कोई दोष ना हो इसका ध्यान रखना चाहिए। 

किन्तु जैसा कि आपका प्रश्न है कि काल के अनुसार थोड़ा बहुत तो चलता है तो ये तो बहाना है, शिथिलाचार है, और इसको बढ़ावा देना निश्चित ही अधोगति का कारण है। और ऐसा करने से धीरे-धीरे थोड़ा तो चलता है के नाम पर भविष्य में इतना चल जाएगा कि सच्चा मुनिधर्म विलुप्त ही हो जाएगा। क्यूंकि संसार में तो बालक बचपन से जो देखते है वहीं सच मान लेते है। ग्रन्थ या जिनवाणी खोलने का तो समय ही नहीं है तो सच्चे दिगम्बर मुनि का स्वरूप तो इस संसार से फिर विलुप्त ही हो जाएगा और शिथिलाचार अर्थात् आगम में जैसा मुनि का स्वरूप बताया है उसमें थोड़ा-बहुत, थोड़ा-बहुत चलाकर भविष्य में वही दिगम्बर मुनि का स्वरूप बन जाएगा। 

वास्तव में तो कैसा भी काल हो, कोई भी क्षेत्र हो, ढाईद्वीप या सम्पूर्ण तीनलोक में धर्म का जैसा स्वरूप सर्वज्ञवाणी में आया है सदा वैसा ही रहेगा उसमें रंचमात्र भी परिवर्तन संभव नहीं है। या दूसरे शब्दों में कहें तो तीनलोक-तीनकाल में धर्म का स्वरूप किसी भी स्थिति में बदलने वाला नहीं है। तो पंचमकाल का बहाना देना उचित नहीं है।

आगम कहता है कि पंचमकाल के अंत तक सच्चे भावलिंगी संत होंगे, सच्चे दिगम्बर मुनिराज होंगे और सच्चे श्रावक भी होंगे। और किसी अन्य शिथिलाचारी को देखकर स्वयं उससे प्रेरणा लेकर जिनवाणी के मार्ग से थोड़ा भी, एक कदम भी इधर का उधर हुए तो मोक्षमार्ग से भटक जाएंगे और संसाररूपी महादु:ख के सागर में ही उलझ कर रह जाएंगे।

विवेक:- आपके दिगम्बर साधु मुनिराज इतने महान तपस्वी होते है किन्तु वर्तमान में तो ऐसे बहुत से लोग है जो जैनश्रावक होकर भी स्वयं ग्रंथों का स्वाध्याय करते है, सदैव आत्मकल्याण की बात करते हैं और जैन साधु की ही निंदा करते है उनका अपमान करते है, कुछ साधुओं को अच्छा कहते है और कुछ को बुरा कहते है?  

ज्ञानचंद जी:- जो व्यक्ति सच्चे दिगम्बरमुनि की निंदा करते है, मुनियों को अपशब्द कहते है ऐसे लोग निश्चित ही अधोगति के पात्र है, वे संसार में अत्यंत भयंकर महादु:खी होते है, नरक-निगोदों के दु:खों के पश्चात भी मनुष्य भव में भी तिरस्कार के पात्र होते है जब तक वे पुन: सन्मार्ग पर नहीं आ जाते, जब तक वे दिगम्बर मार्ग की महिमा को नहीं समझ पाते तब तक सदैव ऐसे जीवों का अपमान होता रहता है। 

किन्तु वर्तमान में जैसा देखा जा रहा है तो यहां बात साधु परमेष्ठियों को अच्छा बुरा कहने की नहीं है पहले विवाद किस बात का है ये समझना आवश्यक है। यहां बात किसी के अपमान और सम्मान की नहीं बल्कि पहचान की है।

पहचान इस बात की, कि हमारे सामने जो व्यक्ति पूज्यनीय बनकर बैठे है क्या वह वास्तव में सर्वज्ञवाणी के अनुसार, महावीर स्वामी, गौतम गणधर, आदि समस्त गुरु परम्परा के अनुसार क्या वह वास्तव में पूजनीय है या नहीं। और हमें किसी के बारे कुछ नहीं कहना बस इतना कहना चाहेंगे कि आगम में जो देव-शास्त्र-गुरु की परिभाषा, जो लक्षण बताएं है हम तो उसी के अनुसार उन्हें पहचानकर नमन करेंगे। केवल मुनि ही नहीं बल्कि देव शास्त्र गुरु तीनों।

देव:-

आप्तेनोच्छिन्नदोषेण सर्वज्ञेनागमेशिना। 

भवितव्यं नियोगेन नान्यथा ह्याप्तता भवेत्।।5।।

(दोहा )

वीतराग सर्वज्ञता, हित उपदेशक जान।

निश्चय से गुरुवर कहे, उनको आप्त बखान।।5।।

शास्त्र:-

आप्तोपज्ञमनुल्लंध्यमदृष्टेष्ट विरोधकम्। 

तत्त्वोपदेशकृतसार्वं शास्त्रं कापथघट्टनम्।।9।।

( दोहा )

वीतराग सर्वज्ञ कथित, बाधा रहित है बैन। 

सच्चा सब उपदेश है, जिनवाणी है ऐम।।।।

अब कोई मुनि का स्वरूप पूछता है तो हम आगम के अनुसार यही कहेंगे की :-

विषयाशावशातीतो निरारम्भोऽपरिग्रहः। 

ज्ञानध्यानतपोरक्तः तपस्वी स प्रशस्यते।।10।।

 (दोहा)

विषयकषाय आरम्भ अरु, परिग्रह रहित है जे। 

ज्ञान ध्यान में रत रहे, सच्चे गुरु हैं वे।।10।।

बाकि कोई क्या करता है हमें इससे कोई मतलब नहीं है पर हम आगम के हिसाब से कार्य करेंगे। कुछ लोग ये भी बोल सकते है आप श्रावक तो अच्छे बनो पहले?

में बस इतना बोलना चाहूंगा की आदिमुनिराज के समय की कथा पढ़ लेना उसमें साफ लिखा है कि आदिमुनि तो दीक्षा के बाद ध्यनास्थ हो गए, उनके साथ जो राजा और राजकुमार दीक्षित हुए थे, उन्हें मुनिधर्म का ज्ञान नहीं था। आदि मुनिराज ने सब कुछ जानते हुए भी किसी को मुनि धर्म समझाना भी जरूरी नहीं समझा, क्यूंकि तीर्थंकर मुनिराज दीक्षा के बाद बोलते ही नहीं है। और वास्तव में तो दिगम्बरमुनि दीक्षा आत्म कल्याण के लिए होती दूसरों के कल्याण के लिए नहीं। फिर कुछ मुनि भूख इत्यादि से परेशान होकर इधर-उधर कुछ भी खाने-पीने लगे तब देवो ने एक ही बात कही थी कि आप वेश बदलकर जो करना है करो पर जिनलिंग में रहकर आप नियम विरुद्ध नहीं रह सकते। 

आप श्रावक बन पा रहे है, नहीं बन पा रहे है, इसकी बात ही नहीं है, घर में जो आपकी मर्जी आप करे पर यदि दिगम्बर मुनि दीक्षा मुझे लेनी है तो पहले मुझे उसके लायक बनना ही होगा ये समझना आवश्यक है और अगर नहीं हो पाता है तो जिनलिंग धारण करके नियम विरुद्ध कार्य करके हम जिनलिंग का अपमान ना करे इसका हमें ध्यान रखना चाहिए।।

विवेक:- किन्तु यदि कोई शिथिलाचार भी है तो भी हमसे तो अच्छे ही है कितना कुछ तो सहते है, एक समय भोजन, बहुत बार तो आहार ही नहीं हो पाता, और इतनी गर्मी, इतनी सर्दी सब सहन करते है, हम तो कुछ भी नहीं करते तो ऐसे में यदि वे अल्पशक्ति के कारण यदि थोड़ा बहुत कुछ मुनिचर्या विरुद्ध करते भी है तो भी हमसे तो अच्छे ही है ? 28 में से यदि 27 मूलगुण भी है तो भी हममें तो एक भी नहीं है हमसे तो बहुत अच्छे है तो हमें तो उन्हें आदर्श ही मानना चाहिए?

ज्ञानचंद जी:- नहीं ऐसा नहीं होता है, यदि दिगम्बर मुद्रा अर्थात् जिनमुद्रा को धारण करके एक छोटा सा भी गलत कार्य करें तो वे महादोषी कहलाएंगे।

आप स्वयं विचार कीजिए, एक ऐसा व्यक्ति जो दिन में दो समय नियम से भोजन करता है और एक ऐसा व्यक्ति जिसने प्रात: भगवान के सामने निर्जला उपवास का नियम लिया है तो  पहले तो हमें यह सुनकर जिसने निर्जल उपवास किया है उसकी महिमा आयेगी। किन्तु जब उसे घर में भोजन करता देखो तो क्या आप ऐसा कह सकोगे कि आज उसका उपवास है, यदि वह निर्जल उपवास की प्रतिज्ञा लेने के बाद थोड़ा सा पानी भी पी लेता है तो उसे पुण्य नहीं पाप का बंध होता है और जिसके 2 समय भोजन की प्रतिज्ञा है और वह प्रतिज्ञा का ठीक से पालन कर रहा है तो उसे उतने पुण्य का बंध का होता है। और प्रशंसा योग्य भी वह 2 समय भोजन करने वाला होगा। नियम भंग करने वाला लोक में प्रशंसा का नहीं अपितु निंदा का पात्र बन जाता है। जैनधर्म में निंदा तो एक पशु की भी नहीं की जाती प्रत्येक जीव कारण परमात्मा है, शक्ति अपेक्षा भगवान ही है यहां निंदा तो हमें किसी की करना ही नहीं चाहिए। किन्तु जो जोश में बड़े-बड़े नियम लेकर नियम भंग करे वे प्रशंसा के योग्य भी नहीं। 

यदि एक ऐसा डॉक्टर है जिसका बहुत नाम है, बहुत पढ़ा लिखा है, डीग्री धारी है और मरीजों की जान बचाता है किन्तु वह अपने डॉक्टर के वेश में लोगो को लूटता है गरीबों के साथ खिलवाड़ करता है ऐसा वह डॉक्टर जिसे वेश और शिक्षा के कारण सब उसे सम्मान देते है जब उसकी ऐसी गन्दी हरकतों का पता चले तो हम उसे कभी अच्छा नहीं कहते बल्कि उसके प्रति कुछ समय पहले जो भगवान जैसा सम्मान उमड़ रहा था अब मन से सारा सम्मान चला जाता है और उसके प्रति ग्लानि का भाव आता है भले वो एक महान डॉक्टर है और हम अनपढ़ गंवार तो भी सोचते है कि अगर डॉक्टर ऐसे होते है तो इससे अच्छा डॉक्टर ही ना हो तो ज्यादा अच्छा रहेगा।

ऐसे ही भले हम कोई नियम पालन नहीं कर सकते किन्तु हमारे गुरु में भी हम कोई दोष स्वीकार नहीं कर सकते।

विवेक:- किन्तु लोक में ऐसा कहा जाता है कि जीवन में गुरु तो होना ही चाहिए, गुरु बिना कैसा जीवन?

ज्ञानचंद जी:- जी बिल्कुल होना चाहिए और हमारे अन्दर गुरु भक्ति भी अपार है, ये आवश्यक नहीं कि गुरु सामने हो तो ही गुरुभक्ति होगी। 

अरे जैसे वर्तमान में हमारे पापकर्म के कारण हमारे तीर्थंकर का विरह है, ऐसे ही पापकर्म का उदय जब तक होगा, जब तक महापुण्य का उदय नहीं आयेगा तब तक सच्चे दिगम्बरमुनि का भी समागम नहीं होता, और जब तक सच्चेमुनि का समागम नहीं होता तब तक मुनि जैसे दिखने वाले किसी को भी मुनि स्वीकार नहीं किया जा सकता। 

जैसा कि मैने कहा था कि जैनधर्म में ना तो कोई व्यक्ति नाम से पूज्य होता है और ना ही पद से पूज्य होता है जैनधर्म में तो गुणों की पूजा होती है। जैसे हम मन्दिर में बैठकर भगवान के गुण गाते है ऐसे ही गुरुभक्ति भी कर सकते है। 

और गुरु उपदेश चाहिए तो जो शास्त्र मन्दिर में विराजमान है महान आचार्यों, महान मुनिवर जो कि भावलींगी दिगम्बर सच्चे संत है ऐसे गुरुवर द्वारा रचित शास्त्र है उन्हें पढ़ना चाहिए। वह भी तो गुरु का ही उपदेश है, सर्वज्ञवाणी के अनुसार है, यदि समझ में नहीं आता है तो ग्रंथों की जो भाषा है इसी संस्कृत और प्राकृत भाषा के ज्ञानी तथा स्वाध्यायी विद्वान, ऐसे शास्त्री विद्वानों से समझ सकते है। और फिर शास्त्रों के अनुसार सच्चे देव-शास्त्र-गुरु का निर्णय हमें करना चाहिए।

विवेक:- तो वास्तव में जैनधर्म के अनुसार सच्चेमुनि की क्या पहचान है?

ज्ञानचंद जी:- देखो में अपने स्वाध्याय ज्ञान और चिन्तन के अनुसार जो में समझ पाया हूं तो वो में आपको बताता हूं। 

जिनागम में 2 प्रकार के मुनि की बात आती है।

1) द्रव्यलिंगी मुनिराज :- द्रव्यलिंगी मुनिराज तीन अवस्थाओं में देखे जा सकते है। 

1) प्रथम गुणस्थानवर्ती द्रव्य लिंगी मुनिराज:- जो अभी तक मिथ्यादृष्टि है, जिनके अभी तक एक भी कषाय का अभाव नहीं हुआ, किन्तु वे 28 मूलगुणों का निरतिचार पालन करते है शास्त्र लेखन तथा आत्मचिंतन में निमग्न रहते है।

2) चतुर्थ गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज:- जिनके आत्मानुभव हो चुका है जिन्होंने अपने आत्म स्वभाव के अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन किया है। तथा जो मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी कषाय चौकड़ी का अभाव हो जाने से सम्यक्दृष्टि हुए है और स्वरूपाचरण चारित्र प्रगट हुआ है, तथा 28 मूलगुणों का निरतिचार पालन करते है शास्त्र लेखन तथा आत्मचिंतन में निमग्न रहते है। ऐसे चतुर्थ गुणस्थानवर्ती द्रव्य लिंगी मुनिराज है। 

3) पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज:- जिनके आत्मानुभव हो चुका है जिन्होंने अपने आत्मस्वभाव के अतीन्द्रिय आनन्द का वेदन किया है। तथा जो मिथ्यात्व और अनंतानुबंधी तथा अप्रत्याख्यानावरण कषाय चौकड़ी का अभाव हो जाने से अब देशचारित्र जिनके प्रगट हुआ है तथा 28 मूलगुणों का निरतिचार पालन करते है शास्त्र लेखन तथा आत्मचिंतन में निमग्न रहते है। ऐसे पंचम गुणस्थानवर्ती द्रव्य लिंगी मुनिराज है।

2) भावलिंगी मुनिराज:- सातवें-छठवें गुणस्थान में जो निरंतर झूला झूलते रहते है आत्मस्वभाव साधन द्वारा जिनके मिथ्यात्व के साथ अब अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण और प्रत्याख्यनावरण कषाय चौकड़ी का अभाव हो जाने से अब सकालचारित्र प्रगट हुआ है तथा बाह्य में 28 मूलगुणों का निरतिचार पालन करते है शास्त्र लेखन आहार इत्यादि कार्य भी जिनके सहज होते है। तथा कभी निर्विकल्प दशा (सातवें गुणस्थान) में तो कभी सविकल्प दशा (छठवें गुणस्थान में) झूलते रहते है ऐसे महान परम दिगम्बर वीतरागी भावलिंगी मुनिराज होते है।   

विवेक:- अच्छा तो क्या ये सभी सच्चे मुनिराज होते है ? इनमें से पूज्य कौन है? और पहचान क्या है द्रव्यलिंगी और भावलिंगी मुनिराज की हमें कैसे पता चलेगा की कौन आत्मनुभावी है और कौन नहीं?

ज्ञानचंद जी:- देखो वास्तव में देखा जाए तो जैनधर्म के अनुसार तो वीतरागता ही पूज्य है। 

जिस जीव के जितने-जितने अंश में कषाय का अभाव होता है, उतने-उतने अंश में उसके वीतरागता प्रगट होती है और जितने-जितने अंश में जीव को वीतरागता होती है उतने-उतने अंश में वह पूज्य है। अर्थात् उसी अनुसार वह जीव यथायोग्य विनय का पात्र होता है।

संसार में विनयशील जीव बहुत प्रशंसा पाता है, जो जितना विनयशील होता है उसकी उतनी ही प्रशंसा की जाती है किन्तु यहां जैनधर्म के हिसाब से विनय भी यथायोग्य होना चाहिए ना तो कम और ना अधिक अर्थात् जिस जीव की जैसी पात्रता है उसकी उसी अनुसार, उतनी ही विनय होना चाहिए उससे अधिक विनय करेंगे तो वह फिर विनय मिथ्यात्व कहलाएगा।

अब यदि पहचान की बात करें तो हमने देखा कि वास्तव में वीतरागता ही पूज्य है। पहले गुणस्थानवर्ती द्रव्यलिंगी मुनिराज के यद्यपि मिथ्यात्व और कषाय का अभाव नहीं हुआ है, आत्मानुभव नहीं हुआ है किन्तु उनके भी 28 मूलगुणों का निरतिचार पालन होता है, वे भी 22 परिषह सहन करते है। उनकी बाह्यचर्या बिल्कुल समान ही होती है और उनके अंतरंग भाव उनके कषाय का अभाव हुआ है या नहीं, या वे वर्तमान में कौन से गुणस्थानवर्ती है, ये या तो केवलज्ञानगम्य होता है या अनुभवगम्य होता है हम अज्ञानी जीव इसकी पहचान नहीं कर सकते।

इसलिए हम बाह्यचारित्र को देखकर उनके 28 मूलगुणों के पालन रूपी चर्या को देखकर ही उनकी पूजा करते है। उन्हीं को सच्चे गुरु मानते हैं।

और जिनके 28 मूलगुण का पालन ही नहीं है, जो बेवजह क्रोध करने लगे या प्रत्यक्ष रूप से परिग्रह रखते है, तथा जो आत्मकल्याण के बजाय सांसारिक कार्यों में रुचि रखते है,  ऐसे हमारे सच्चे दिगम्बर मुनि नहीं होते है।  इतनी पहचान तो कोई भी अज्ञानी जीव भी कर ही सकता है।

विवेक:- तो ये 28 मूलगुण क्या है, कृपया मुझे 28 मूलगुण का सामान्य स्वरूप बताईए संक्षेप में ताकि में जैन शास्त्रों के अनुसार सच्चे गुरु की पहचान कर सकूं।

ज्ञानचंद जी:- साधु परमेष्ठी के 28 मूलगुण होते हैं- 5 महाव्रत, 5 समिति, 5 इन्द्रिय निरोध, 6 आवश्यक और 7 शेष गुण।

महाव्रत एवं उसके भेद-

हिंसादि पाँचों पापों का मन, वचन, काय व कृत, कारित, अनुमोदना से त्याग करना महापुरुषों के महाव्रत है। इसके 5 भेद हैं। 

अहिंसा महाव्रत - छ: काय के जीवों को मन, वचन, काय और कृत, कारित, अनुमोदना से पीड़ा नहीं पहुँचाना, सभी जीवों पर दया करना, अहिंसा महाव्रत है।

सत्य महाव्रत - क्रोध, लोभ, भय, हास्य के कारण असत्य वचन तथा दूसरों को संताप देने वाले सत्य वचन का भी त्याग करना, सत्य महाव्रत है। 

अचौर्य महाव्रत - वस्तु के स्वामी की आज्ञा बिना किसी वस्तु को ग्रहण नहीं करना, अचौर्य महाव्रत है। 

ब्रह्मचर्य महाव्रत - जो मन, वचन, काय एवं कृत, कारित, अनुमोदना से वृद्धा, बाला, यौवन वाली स्त्री को देखकर अथवा उनकी फोटो को देखकर उनको माता, पुत्री, बहिन समझ स्त्री सम्बन्धी अनुराग को छोड़ता है, वह तीनों लोकों में पूज्य ब्रह्मचर्य महाव्रत है।

परिग्रह महाव्रत - अंतरंग चौदह एवं बाहरी दस प्रकार के परिग्रहों का त्याग करना तथा संयम, ज्ञान और शौच के उपकरणों में भी ममत्व नहीं रखना, परिग्रह त्याग महाव्रत है।

 समिति एवं उसके भेद -

‘सम्’अर्थात् सम्यक् ‘इति'अर्थात् गति या प्रवृत्ति को समिति कहते हैं। चलने-फिरने में, बोलने-चालने में, आहार ग्रहण करने में, वस्तुओं को उठाने-रखने में और मल-मूत्र का निक्षेपण करने में यत्न पूर्वक सम्यक् प्रकार से प्रवृत्ति करते हुए जीवों की रक्षा करना समिति है।

ईर्या समिति - प्रासुक मार्ग से दिन में चार हाथ (छ: फुट) प्रमाण भूमि देखकर चलना, यह ईर्या समिति है। भूमि देखकर चलने का अर्थ भूमि पर चलने वाले जीवों को बचाकर चलना। 

भाषा समिति - चुगली, निंदा, आत्मप्रशंसा आदि का परित्याग करके हित, मित और प्रिय वचन बोलना, भाषा समिति है। जैसे-कपड़ा मीटर से नापते हैं और धान्य आदि बाँट से तौलते हैं, वैसे ही नाप-तौल कर बोलना चाहिए अर्थात् हमारे वाक्य ज्यादा लम्बे न हों फिर भी अर्थ ठोस निकले। 

एषणा समिति - 46 दोष एवं 32 अंतराय टालकर सदाचारी उच्चकुलीन श्रावक के यहाँ विधि पूर्वक निर्दोष आहार ग्रहण करना, एषणा समिति है

आदाननिक्षेपण समिति - शास्त्र, कमण्डलु, पिच्छी आदि उपकरणों को देखकर-शोधकर रखना और उठाना आदाननिक्षेपण समिति है। 

कायोत्सर्ग समिति - जीव रहित स्थान में मल-मूत्र आदि का त्याग करना, कायोत्सर्ग समिति है।

पञ्चेन्द्रिय निरोध एवं उसके भेद- 

स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँच इन्द्रियों के मनोज्ञ-अमनोज्ञ विषयों में राग-द्वेष का परित्याग करना पञ्चेन्द्रिय निरोध है।

स्पर्शन इन्द्रिय निरोध - शीत-उष्ण, कोमल - कठोर, हल्का - भारी और स्निग्ध - रूक्ष इन स्पर्शन इन्द्रिय के विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, स्पर्शनेन्द्रिय निरोध है।

रसना इन्द्रिय निरोध - खट्टा, मीठा, कडुवा, कषायला और चरपरा इन रसना इन्द्रिय के विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, रसना इन्द्रिय निरोध है। 

घ्राण इन्द्रिय निरोध - सुगंध और दुर्गध इन घ्राण इन्द्रिय के विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, घ्राण इन्द्रिय निरोध है। 

चक्षु इन्द्रिय निरोध - काला, पीला, नीला, लाल और सफेद इन चक्षु इन्द्रिय के विषयों में राग-द्वेष नहीं करना, चक्षु इन्द्रिय निरोध है। 

श्रोत्र इन्द्रिय निरोध - मधुर स्वर, गान, वीणा आदि को सुनकर राग नहीं करना एवं कठोर निंद्य, गाली आदि के शब्द सुनकर द्वेष नहीं करना, श्रोत्र इन्द्रिय निरोध है।

 आवश्यक एवं उसके भेद-

अवश्य करने योग्य क्रियाएँ आवश्यक कहलाती हैं। साधु को अपने उपयोग की रक्षा के लिए नित्य ही छ: क्रियाएँ करनी आवश्यक होती हैं, उन्हें ही छ: (षट्) आवश्यक कहते हैं। 

जो कषाय, राग-द्वेष आदि के वशीभूत न हो वह अवश है। उस अवश का जो आचरण होता है वह आवश्यक है, आवश्यक छ: होते हैं।

समता या सामायिक - राग-द्वेष आदि समस्त विकार भावों का तथा हिंसा आरम्भ आदि समस्त बहिरंग पाप कर्मो का त्याग करके जीवन-मरण, हानि-लाभ, सुख-दुःख आदि में साम्यभाव रखना समता या सामायिक है।

स्तुति - 24 तीर्थंकर एवं समस्त वीतराग सर्वज्ञ भगवन्तों के गुणों का स्तवन करना स्तुति है।

वन्दना - चौबीस तीर्थंकरों में से किसी एक की एवं पज्चपरमेष्ठियों में से किसी एक की मुख्य रूप से स्तुति करना वंदना है। यह दिन में तीन बार करते हैं।

प्रतिक्रमण - व्रतों में लगे दोषों की आलोचना करना प्रतिक्रमण है। अथवा ‘‘मेरा दोष मिथ्या हो ' ऐसा कहना प्रतिक्रमण है। ‘तस्स मिच्छा मे दुक्कड”। प्रतिक्रमण भी दिन में तीन बार करते हैं। प्रतिक्रमण सात प्रकार के होते हैं। दैवसिक, रात्रिक, ईर्यापथिक, पाक्षिक, चातुर्मासिक, संवत्सरिक (वार्षिक), औतमार्थिक प्रतिक्रमण जो सल्लेखना के समय होता है।

प्रत्याख्यान - आगामी काल में दोष न करने की प्रतिज्ञा करना प्रत्याख्यान है। अथवा सीमित काल के लिए आहारादि का त्याग करना प्रत्याख्यान है।

कायोत्सर्ग - परिमित काल के लिए शरीर से ममत्व का त्याग करना कायोत्सर्ग है। कायोत्सर्ग का अर्थ होता है शिथिलीकरण। इससे शरीर की शक्ति शिथिल हो जाएगी एवं आत्मा की शक्ति सक्रिय हो जाएगी।

मुनियों के शेष 7 गुण-

अस्नान व्रत - स्नान करने का त्याग, साधु का शरीर धूल, पसीने से लिप्त रहता है, उसमें अनेक सूक्ष्म जीव रहते हैं, उनका घात न हो इसलिए स्नान नहीं करते हैं।

भूमि शयन - रात्रि के अंतिम प्रहर में एक करवट से कुछ समय मात्र के लिए भूमि, शिला इत्यादि पर ही शयन करते है।

विवेक:- लेकिन शरीर की थकान के लिए शयन तो ठीक से होना ही चाहिए कम से कम 6 घंटे का शयन तो होना ही चाहिए?

ज्ञानचंद जी:- किन्तु सच्चे दिगम्बर मुनिराज जो आत्मानुभवी होते है हमें शरीर की थकान के लिए शयन की आवश्यकता होती है किन्तु सच्चे दिगम्बर मुनिराज जो आत्मानुभवी होते है वे जब आत्मा का अतीन्द्रिय सुख का वेदन करते है तो शरीर की सारी थकान स्वयमेव दूर हो जाती है तो मुनि को शयन की आवश्यकता ही नहीं होती।

अचेलकत्व - वस्त्र, चर्म और पत्ते आदि से शरीर को नहीं ढकना अर्थात् नग्न रहना। दिशाएँ ही जिनके अम्बर अर्थात् वस्त्र हैं, वे दिगम्बर हैं। 

केशलोंच - दो माह से चार माह के बीच में प्रतिक्रमण सहित दिन में उपवास के साथ अपने हाथों से सिर, दाढ़ी एवं मूंछों के केशों को उखाड़ना केशलोंच है। दो माह में करना उत्कृष्ट है, चार माह में करना जघन्य है एवं दोनों के बीच में करना मध्यम है।

एक भुति - चौबीस घंटों में मात्र एक बार आहार करना। सूर्योदय के 3 घड़ी के बाद (72 मिनट) एवं सूर्यास्त से 3 घड़ी पहले। सामायिक का काल छोड़कर शेष काल में 3 मुहूर्त (2 घंटे 24 मिनट) तक आहार ले सकते हैं। 

अदंतधोवन - अडुली, नख, दातुन, छाल, मंजन, बुश, पेस्ट आदि से दाँतों के मल का शोधन नहीं करना, इन्द्रिय संयम की रक्षा करने वाला अदंतधोवन मूलगुण है।

स्थिति भोजन - दीवार आदि का सहारा लिए बिना खड़े होकर आहार करना। खड़े होते समय दोनों पैर के बीच 4 अंगुल का अंतर या पीछे 4 अंगुल एवं आगे 4 से 12 अंगुल तक का अंतर रह सकता है। 

मुनियों के 34 उत्तर गुण होते हैं :- 12 तप और 22 परीषहजय। 

 विवेक:- क्या आचार्य, उपाध्याय परमेष्ठी के 28 मूलगुण नहीं होते हैं?

ज्ञानचंदजी:- साधु जिन 28 मूलगुणों का पालन करते हैं। उन 28 मूलगुणों का पालन आचार्य, उपाध्याय परमेष्ठी भी करते हैं, किन्तु आचार्य के अतिरिक्त 36 मूलगुण एवं उपाध्याय के अतिरिक्त 25 मूलगुण और होते हैं।

अब यहां कोई कहता है कि आपने देव-शास्त्र-गुरु की सही पहचान करने के लिए इतनी बातें कही क्या ये इतना आवश्यक है क्या ? क्यूंकि मुझे तो लगता है सब ही धर्म सही है, सब अपने-अपने कार्य अपने हिसाब से करते है, आपको आपका धर्म ठीक लगता है वैसे ही सबको लगता है जो आपको अच्छा लगता है वो आप करते है जो अन्य व्यक्ति को अच्छा लगता है वह वहीं करता है इतनी पहचान करना और फिर उसी को मानना अन्य किसी को नहीं ऐसा क्यों?

तो देखो यहां किसी और की निंदा नहीं की जा रही है किसी और पर आरोप इत्यादि नहीं लगाए जा रहे है किन्तु जैसा कि मैने प्रारम्भ में बताया कि जब कोई 2 व्यक्ति एक ही विषय में अलग-अलग परस्पर विरुद्ध बातें कहे तो वहां दोनों बातें सही नहीं होती है उसमें से सही गलत का निर्णय करना ही होता है। अगर सब सही हो जाते तो अदालत नहीं होती, न्याय-अन्याय, सही-गलत इन सबमें कोई अंतर ही नहीं होता क्यूंकि जब किसी व्यक्ति के यहां किसी वस्तु की चोरी होती है तो वस्तु का मालिक तथा वह चोर दोनों उस वस्तु को अपनी कहते है ऐसे में दोनों को सही नहीं माना जा सकता क्योंकि दोनों की बातें परस्पर विरुद्ध है ऐसे में लक्षण पूर्वक तर्क और प्रमाण से सही और ग़लत का निर्णय किया जाता है और ऐसा ही धर्म के विषय में भी लगाना चाहिए। 

श्रृद्धा और अंधश्रद्धा में बहुत फर्क होता है। आज के समय बहुत से लोग जो ऐसे-ऐसे कार्य भी करते है कि आप उनसे पूछो कि ऐसा आपने क्यों किया तो उत्तर मिलता है कि बस हमारे ऐसा होता है, परम्परा है, और बस टाल देते है, इतनी अंधश्रद्धा बढ़ गयी है कि अब तो कुछ शातिर दिमाग वालों ने लोगो की उस अंधश्रद्धा को हथियार बनाकर अपने बड़े-बड़े व्यापार खड़े कर लिए, और संसार के दु:खो से डरे और घबराए जीव उनके पास जाते है अपना पैसा बर्बाद करके आ जाते है और स्वयं को धन्य समझते है ऐसे में यहां में किसी धर्म का विरोध नहीं कर रहा मेरा लिखने उद्देश्य एक मात्र यह है कि आप जिसे भी मानते है,  पूजते है जो भी करते है उसका सही कारण तो आपको पता होना ही चाहिए, सोच समझकर बारम्बार विचार करके किसी निर्णय पर पंहुचना चाहिए।

आप संसार में जब अपने पड़ोसी के बच्चे की थोड़ी सी भी तबियत खराब हो जाती है तो अच्छे से अच्छे डॉक्टर के विषय में बात करते है, जबकि हम पड़े-लिखे नहीं है, मेडिकल का कोई ज्ञान हो ना हो पर डॉक्टर के विषय में जानकारी पूरी चाहिए किसी और जानकर व्यक्ति से पूछते है कौन सा डॉक्टर अच्छा रहेगा। और किसी अपने पर बात आ जाए तो किसी डॉक्टर ने पूर्व में कोई छोटी से भी गलती की हो तो हम उसके पास नहीं जाते अच्छे से अच्छा डॉक्टर खोजते है। फिर पैसा भी अधिक लग जाए तो कोई बात नहीं।

जब संसार में एक भव की चिंता में हम उस विषय के जानकार ना होकर भी इतनी खोजबीन कर सकते है सब कुछ दाव पर लगा सकते है तो जरा विचार तो करों यहां तो अनन्त दुःख के सागर से निकलने की बात है। आप कैसे बिना गुणों को देखे, बिना सम्यक् श्रृद्धा-ज्ञान-चारित्र को देखे बिना सोचे, बिना विचारे किसी को भी गुरु स्वीकार कर सकते है? 

अरे अनपढ़ बालक भी लोक में ये देखकर शिक्षक चुनता है कि जो मुझे पढ़ना है यह शिक्षक उस विषय के अच्छे जानकार है भी या नहीं, क्यूंकि यदि शिक्षक गलत हो तो शिष्य का भविष्य अंधेरे में ही चला जाता है। यदि डॉक्टर गलत हो, गुणी ना हो, विवेकी ना हो तो मरीज का यह भव खराब हो जाता है उसे जीवन से हाथ धोना पड़ जाता है। और यदि सच्चे गुरु के विषय में बिना सोचे विचारे किसी को भी बाह्य वेश से ही स्वीकार कर लिया गुण  और रत्नत्रय का भी विचार नहीं किया तो समझना आपके अनंत भव खराब हो जाने वाले है। द्वारा फिर अनंतकाल तक ये जैनकुल मिलने वाला नहीं है।

यदि वास्तव में तुझे सच्चा सुख चाहिए तो भाग मत, जहां है वहीं रुक जा और बस विचार कर, खूब बारम्बार विचार कर, स्वाध्याय कर, चिन्तन कर, सही-गलत का निर्णय स्वयं कर और फिर गलत मार्ग को छोड़कर सही मार्ग पर आगे बढ। और आवश्यक ये नहीं कि आप कितना आगे बढ़े है आवश्यक ये है आप जिस मार्ग पर आगे बढ़े है वह सही है या नहीं।

विवेक:- तो आपके हिसाब से ऐसे ही कोई व्यक्ति समाज की अंधश्रद्धा का लाभ उठाकर मुनिवेश धारण करके अन्य कार्यों में रुचि लेते है, धीरे-धीरे कुछ-कुछ परिग्रह भी रखने लगे, तो ऐसे में समाज का क्या कर्तव्य होना चाहिए?

ज्ञानचंद जी:- जहां तक मेरा विचार है ऐसे में समाज को एक मीटिंग रखकर आपस में विचार विमर्श करना चाहिए, स्वाध्यायी विद्वानों से सलाह करना चाहिए, तथा उन मुनिवेश में गलत आचरण करने वाले साधु के पास जाकर विनम्रभाव से हाथ जोड़कर मुनि से निवेदन करना चाहिए की गुरुजी दिगम्बर मुनि जैन समाज के गौरव होते है आपका वेश तो दिगम्बर मुनि का है किन्तु आपकी चर्या शास्त्रों में जो दिगम्बर मुनि का स्वरूप बताया है उस अनुसार नहीं है तो या तो आप आज से ही अपने दोषों का प्रायश्चित करके निर्दोष मुनिचर्या का पालन करें अथवा इस वेश को छोड़कर सामान्य श्रावक का वेश धारण करके यथाशक्ति धर्मकार्यों में प्रवर्तन करें। किन्तु समाज भी यह सब तभी कर पाएगी जब उन्हें भी थोड़ा बहुत शास्त्रों का अभ्यास हो, अन्यथा उन्हें कैसे पता चलेगा कि सामने जो मुनि अवस्था में विराजमान साधु है वो वास्तव में भाव पूर्वक निर्दोष चर्या वाले दिगम्बर मुनि है भी या नहीं। 

इसलिए सबसे महत्वपूर्ण है कि हर छोटे-बड़े, गांव और नगर में जैन पाठशाला, प्रवचन, स्वाध्याय इत्यादि होना ही चाहिए। तभी जैनधर्म की गहराई और सच्चाई समझ आएगी। हर नगर और गांव में सरकारी मान्यता प्राप्त जैन विद्यालय होने चाहिए ताकि ईसाई विद्यालय की जगह समस्त जैन विद्यार्थी जैन विद्यालय में पढ़े तथा वर्तमान में तैयार हो रहे लौकिक तथा धर्मज्ञान दोनों में  पारंगत ऐसे शास्त्री विद्वानों को वहां शिक्षक के रूप में बुलाएं। तथा यथायोग्य वेतन भी दें। जिससे कि वह नगर के विद्यालय में भी बच्चों को लौकिक और धार्मिक शिक्षा देंगे तथा नगर के जिनमन्दिर में भी विधान-पूजन, बच्चों को पाठशाला, स्वाध्याय, धर्म कक्षाएं, प्रतियोगिता संगोष्ठी आदि कार्यक्रम होते ही रहेंगे।

विवेक:- आपने जो कुछ समझाया मुझे बहुत अच्छे से समझ आया है और अब में भी सच्चे देव-शास्त्र-गुरु एवं वीतराग धर्म की महिमा को समझ गया हूं, अब से में भी स्वाध्याय किया करूंगा, और संसार से, परद्रव्यों से, तथा मोह, क्रोध इत्यादि समस्त परभावों से भी भिन्न निज आत्म स्वरूप को ध्याऊंगा। और अपनी सामर्थ्य के अनुसार गृहस्थ धर्म का पालन करूंगा और यदि सच्चे मुनिधर्म का पालन करने को सामर्थ्य और भावना होगी तो थोड़ी भी देर नहीं लगाऊंगा। अब तो सच्चेसुख की प्राप्ति जिसकी मुझे खोज थी उसका मार्ग मिलने पर ही मुझे आनंद मिल रहा है जब में इस मार्ग पर अग्रसर होकर आत्मा के अतीन्द्रिय सुख को प्राप्त करूंगा तो उस सुख कि उस आनन्द की क्या बात?

ज्ञानचंद जी:- एक बात और ध्यान रखना विवेक जो कुछ भी मैने आपको बताया है ये सब शास्त्र स्वाध्याय और संसार के वर्तमान अनुभव के बाद जो कुछ मैने सीखा है, समझा है, तथा बहुत चिन्तन और मनन के बाद जिस निर्णय पर में पंहुचा हूं उस हिसाब से मैने आपके प्रश्नों के उत्तर दिए किन्तु ये सब में बोल रहा हूं इसलिए मत मानना, स्वयं शास्त्रों का स्वाध्याय करो, तथा स्वयं विचार करो, चिन्तन करो, निर्णय करो, उसके बाद स्वीकार करो और अनुभव करो। 

स्वयं निर्णय करना, मेरे कहने से कुछ भी स्वीकार नहीं करना है।





8 comments:

  1. सारी जानकारी पढ़कर बहुत बहुत अच्छा लगा

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    1. Loved the logic with which you explained Jain philosophy. Through 2 characters you have very well explained that we all are capable to become paramatma.🙏

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  2. This is great article .you have poured whole Jinvani. Indeed just like Acharya Samantbhadra this article will tou ch heart one who reads and will follow Jain dharma. 👌👌🙏🙏

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  3. You are a great writer at such a young age. Your article is very interesting and is very good. We get to know a lot from your article . 🙏❤️

    Sreyas Manju Jain
    Mumbai

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मेरी मम्मा

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