तो देखा जाए तो क्षमा मांगना और क्षमा करना आज के समय में प्रसाद बांटना और प्रसाद लेना जैसा हो गया है। किन्तु अंतर में परिणाम निर्मल होते ही नहीं है।
इसके अलावा जैनधर्म में दशलक्षण महापर्व में जो प्रथम उत्तम क्षमा धर्म है, तथा अंत में जो क्षमावाणी पर्व मनाया जाता है उसका भी सही अर्थ बहुत सारे लोगों को ज्ञात ही नहीं है।
वर्तमान में जैन साधर्मी भाइयों के उत्तमक्षमा पर्व मनाने के कुछ अलग-अलग तरीके :-
कुछ लोग मन्दिरजी में आपस में दशलक्षण पर्व के पश्चात् मिलते है और एक दूसरे से हाथ जोड़कर उत्तमक्षमा-उत्तमक्षमा बोलते है, कुछ लोग मिच्छामि दुक्कड़़म, बोलते है, और उन्हें लगता है उत्तम क्षमा अथवा क्षमावाणी पर्व हो गया।
बहुत से जैन साधर्मी भाई समझते है कि संसार में जितने भी जीव है उन सभी को में हृदय से क्षमा करता हूं वे सब भी मुझे हृदय से क्षमा करें मन में ऐसा बोला और ऐसा बोलकर उन्हें लगता है क्षमावाणी पर्व हो गया।
कुछ लोग इसी मैसेज को लिखकर वाट्सएप इत्यादि के माध्यम से सब को एक बार में भेज देते है और उन्हें लगता है कि क्षमाधर्म हो गया।
सच्चा क्षमधर्म तो हम समझते ही नहीं, हमें लगता है हृदय से क्षमा मांगना क्षमाधर्म है किन्तु वास्तव में तो हृदय से क्षमा हो ही नहीं सकती। हृदय तो पुद्गल द्रव्य है, शरीर का एक निर्जीव अंग है। उसमें क्षमा है ही नहीं तो आप हृदय से क्षमा मांगना और करना किस प्रकार कहते है?
जिस प्रकार निम्बू से मिठास उत्पन्न नहीं की जा सकती तथा शक्कर से खटास उत्पन्न नहीं की जा सकती, मिठास नामक गुण शक्कर का है यदि मिठास उत्पन्न करनी है तो शक्कर की आवश्यकता होगी निम्बू से मिठास हो ही नहीं सकती क्योंकि उसमें मिठास नामक गुण है ही नहीं, ठीक उसी प्रकार क्षमा आत्मा का गुण है, आत्मा का स्वभाव है क्षमा।
हृदय तो अजीव द्रव्य है उसमें क्षमा नाम का गुण है ही नहीं इसलिए हृदय से क्षमा करना और मांगना ये व्यवहार से संसारी जीव कहते है किन्तु वास्तव में ऐसा होता ही नहीं है।
तो क्या है आखिर क्या है क्षमा धर्म ? :-
क्षमा आत्मा का स्वभाव है, जो सदैव से ही प्रत्येक आत्मा में शक्कर में मिठास तथा सूर्य में प्रकाश की तरह विद्यमान है, किन्तु अनादि से ही अपनी भूल के कारण अपने क्षमा स्वभाव से अपरिचित इस अज्ञानी जीव पर क्रोध नामक विकार हावी हो रहा है, जरा-जरा सी बात पर यह जीव क्रोध करने लगता है, गलती अपनी हो या किसी अन्य की तत्क्षण ही क्रोध विकार हावी हो जाता है, थोड़ा सा निमित्त मिलता है और ये अज्ञानी जीव क्रोध करने लगता है, इस जीव को लगता है सारे संसार की जिम्मेदारी इसी के मजबूत कंधो पर है, सब कुछ इसके अनुसार ही होना चाहिए,और जब भी इसकी योजना के विपरीत कुछ होता है तो इसका क्रोध अत्यन्त तीव्र हो जाता है, हमारे परिवार में, विद्यालय में, ऑफिस में, हर जगह आपको इसके उदाहरण देखने को मिलेंगे, पिता को लगता है जैसा वो सोचते है उनका पुत्र वैसा ही हो, हर अध्यापक समझता है कि हर छात्र उनके अनुसार ही कार्य करें, ऑफिस में अधिकारी को लगता है जैसा हमने सोचा है जैसा हम चाहते है बिल्कुल वैसा ही कार्य हर कर्मचारी हमें करके दें, अब यदि विचार करें तो दिमाग अधिकारी का, सोच उनकी, किन्तु काम कोई अन्य करेगा तो वैसा का वैसा कैसे हो सकता है किन्तु ये समझे बिना अधिकारी को अपनी सोच के अनुसार यदि कार्य ना मिले तो वह अत्यन्त क्रोधित हो जाता है, ऐसे में क्षमा नामक गुण को तो समझ ही नहीं पाता।
तो करना क्या चाहिए कि हम अपने क्षमा स्वभाव को प्राप्त कर सकें?
तो सर्वप्रथम तो तू संसार की अनन्त जिम्मेदारियों को अपने सिर से नीचे उतार दें, परिवार ऑफिस के काम, प्रतिष्ठा, नाम, अनेक प्रकार की कलाएं सीखना ये सब जो कुछ दिमाग में हजारों प्रकार की योजनाएं भरी हुई है उसे खाली कर दे।
और ये समझ ले कि एक द्रव्य दूसरे द्रव्य का कर्ता तीनलोक-तीनकाल में हो ही नहीं सकता, संसार में वही हो रहा है जो होना है, मेरे क्रोध करने का तो कोई कारण ही नहीं है में तो व्यर्थ में ही परेशान हो रहा हूं। सारी व्यवस्था अपने अनुसार, अपने आप संचालित हो रही है और में उस व्यवस्थित व्यवस्था को बदलने की नाकाम हठ के कारण से क्रोध करता रहता हूं, जब ऐसा हम समझ लेंगे तो अनंत स्वतंत्र और निर्भार अनुभव होगा। और अपने अंतर के क्षमा स्वरूप आत्मा का अनुभव होगा वहीं तो क्षमाधर्म है।
और हम सभी जीव क्षमास्वभाव के धनी है बस पर में इष्ट-अनिष्ट की मान्यता का त्याग कर अपनी मान्यता में सहज स्वतंत्र और निर्भार होना है क्षमाधर्म तो स्वयमेव प्रगट हो ही जायेगा।
एक दूसरे से क्षमा मांगना ये तो मात्र दिखावा है व्यवहार से इसे संसार में क्षमाधर्म कह दिया जाता है और इस कारण से हमनें बस व्यावहारिक क्षमा मांगना और करना ही क्षमाधर्म समझ लिया है वास्तविक क्षमाधर्म को तो कभी समझने का प्रयास तक नहीं किया।
वास्तव में तो एक दूसरे से क्षमा मांगने और देने की तो आवश्यकता है ही नहीं, बस अपने क्षमास्वभाव की सही पहचान, निर्णय, स्वीकृति तथा उस क्षमास्वभाव का अनुभव करना वही तो क्षमाधर्म है।
सभी जीव अपने क्षमास्वरूप आत्मा का अनुभव करें यही भावना।
🙏🙏🙏
ReplyDeleteBahut hi sundar or sahi vichar hai aapke.hum sabko bhi samjhaya ,bataya hun bhi is marg par chale …👌👏👏🙏❤️
ReplyDeleteBahut accha samjhaya hai aapne, 🙏🙏🙏
ReplyDeleteManju Jain Mumbai,🙏